Tuesday, July 31, 2012

संस्कृत भाषा

आज संस्कृतदिन ! जिस देववाणी संस्कृतने मानवको ईश्वरप्राप्तिका मार्ग दिखाया, उस देववाणीको ही कृतघ्न मानव विशेषतः स्वातंत्र्योत्तर कालमें भारतके सर्वपक्षीय राजनेता नष्ट करनेका प्रयास कर रहे हैं । ये प्रयत्न कुचलने के लिए हर एक को संस्कृत भाषाका सौंदर्य तथा उसकी महानता समझनी चाहिए ।
 संस्कृत भाषाकी निर्मिति !
   ‘संस्कृत’ भाषा कैसे तैयार हुई, यह बताते हुए पश्चिमी लोगोंके प्रभावमें आए हुए कुछ लोग कहते हैं, ‘प्रथम मानवको ‘अपने मुखसे ध्वनि निकलती है’, यह समझा । उस ध्वनिकी पहचान, पहचानके चिह्न एवं उन चिह्नोंके अक्षर बनें । उनसे वर्णमाला, वस्तुओंके नाम, इस प्रकारसे सर्व भाषाओंके साथ संस्कृत भाषा भी निर्माण हुई ।’ अर्थात् यह सब मिथ्या है । ईश्वरके संकल्पसे ही इस सृष्टिका निर्माण हुआ । मानवकी सृष्टिके पश्चात् मानवके लिए जो कुछ भी आवश्यक था वह सर्व उस ईश्वरने ही दिया । इतना ही नहीं, मानवको समयके अनुसार आगे जानेकी आवश्यकता पडनेपर, वह भी देनेकी उसने व्यवस्था की है । सृष्टिकी निर्मितिके पूर्व ही ईश्वरने मनुष्यको मोक्ष प्राप्तिके लिए उपयोगी तथा चैतन्यमय ऐसी एक भाषा भी निर्माण करके दी और इस भाषाका नाम है ‘संस्कृत’ । जिसमें प्रचुर शब्दभंडार है; इस भाषामें ‘स्त्री’के लिए नारी, अर्धांगिनी, वामांगिनी, वामा, योषिता, ऐसे अनेक शब्द संस्कृतमें हैं । यह प्रत्येक शब्द स्त्रीकी सामाजिक, कौटुंबिक तथा धार्मिक भूमिका दर्शाता है । संस्कृत भाषाका शब्द भंडार इतना प्रचुर है कि, उसकी जानकारी लेनेके लिए एक जीवन अपूरा है ।’ 
१. संस्कृत,यह भाषा ईश्वरनिर्मित है !..
हमारी वैदिक परंपराने स्वयंमें विश्वसंरचनासे लेकर साद्यंत(संपूर्ण) इतिहास जतन कर रखा है । पहले सर्वत्र शून्य था; तत्पश्चात् आकाशमें ‘ॐ’ ध्वनिका निनाद हुआ एवं शेषशायी श्रीविष्णु प्रकट हुए । उनकी नाभिसे ब्रह्मदेव प्रकट हुए; तदुपरांत प्रजापति, मातृका, धन्वंतरी, गंधर्व, विश्वकर्मा इत्यादि प्रकट हुए । उसी समय ईश्वरने ऐसे वेद उपलब्ध किए जिसमें समस्त विश्वका ज्ञानभांडार समाया हुआ है । वेद संस्कृत भाषामें है । संस्कृत ‘देववाणी’ है । जिस प्रकार वेद अपौरुषेय यानी ईश्वरप्रणीत है, उसीप्रकार संस्कृत भाषाभी ईश्वरकी रचना है । उसकी रचना और लिपि ईश्वरद्वारा रचित है, अत: उस लिपिको भी ‘देवनागरी’ कहते है । संस्कृत भाषाके सारे संबोधनभी देवभाषामें हैं ऐसा स्पष्ट है, उदा. ‘गीर्वाणभारती’ उसमेंका ‘गीर्वाण’ शब्दका अर्थ है ‘देव’ ।
इस सृष्टिकी संरचना ईश्वरीय संकल्पसे हुई है । मनुष्यकी रचनाके पश्चात् मनुष्यको आवश्यकतानुसार सब कुछ उस ईश्वरने ही दिया । इतना ही नहीं, मानवको कालानुसार आगे जिस वस्तुकी भी आवश्यकता होगी वह देनेकी व्यवस्था भी उस परमपिता परमेश्वरने की है । सृष्टिकी संरचनासे पूर्व ही ईश्वरने मनुष्यको मोक्षप्राप्तिके लिए उपयोगी तथा चैतन्यसे ओतप्रोत (भरी हुई) ऐसी एक भाषा तैयार की... जिसका नाम है  ‘संस्कृत’ !
आद्यमानव मनु तथा शतरूपा को ब्रह्मदेवने संस्कृत सिखाई । ब्रह्मदेवने अपने मानसपुत्र अत्री, वसिष्ठ, गौतमादि ऋषियोंको भी वेद एवं संस्कृत भाषा सिखाई ।
२. दत्तगुरुने संस्कृत भाषाकी पुनर्रचना की !
त्रेतायुगमें जीवकी शब्दातीत ज्ञान ग्रहण करनेकी क्षमता क्षीण हो गई ; शब्दोंके माध्यमसे जीवको ज्ञान प्राप्त होकर मोक्षप्राप्ति सुलभतासे हो, इसके लिए दत्तगुरुने संस्कृत भाषाकी पुनर्रचना की ।
३. द्वापारयुगतक संस्कृत विश्वभाषा रही !..
सत्य, त्रेता और द्वापर इन तीनों युगोंमें संस्कृत ही विश्वभाषा थी । इसीलिए इस भाषाको ‘विश्ववाणी’ भी कहते हैं । कौरव - पांडवोंके समयतक संस्कृत ही विश्वकी एकमेव भाषा थी !
 जिसमें एक प्राणीके, वस्तुके तथा भगवानके अनेक नाम हैं ऐसी है हमारी संस्कृत भाषा !
संस्कृतमें प्राणी, वस्तु इत्यादिको अनेक नाम देनेकी प्रथा थी । उदा. बैलके बलद, वृषभ, गोनाथ ऐसे ६० से अधिक; हांथीके गज, कुंजर, हस्तिन, दंतिन, वारण ऐसे १०० से अधिक; सिंहके वनराज, केसरीन, मृगेंद्र, शार्दूल ऐसे ८० से अधिक; पानीके जल, जीवन, उदक, पय, तोय, आप; सोनेके स्वर्ण, कंचन, हेम, कनक, हिरण्य आदि नाम हैं ।’ सूर्यके १२ नाम, विष्णु सहस्रनाम, गणेश सहस्रनाम कुछ लोगोंको स्मरण भी होंगे । उनमें से प्रत्येक नाम उस देवताकी एक-एक विशेषताही दर्शाता है ।
वाक्यके शब्द आगे पीछे करनेपर भी, अर्थ न बदलना !
वाक्यमें शब्द कहीं भी हों, तो भी वाक्यका अर्थ नहीं बदलता, उदा. ‘रामः आमं्र खादति ।’ अर्थात् ‘राम आम खाता है’, यह वाक्य आगे दिए अनुसार वैâसा भी लिखें तो भी अर्थ वही रहता है - ‘आमं्र खादति रामः ।’ ‘खादति रामः आमं्र ।’ इसके विपरीत अंग्रेजीके वाक्यमें शब्दोंका स्थान बदलनेपर अलगही (निराला) अर्थ हो जाता है । उदा. ‘Rama eats mango.’ अर्थात् ‘राम आम खा रहा है’, यह वाक्य ‘mango eats Rama.’ (ऐसा लिखनेपर उसका अर्थ होता है, ‘आम राम को खाता है ।’) जहां संस्कृतका अध्ययन होता है, वहां संस्कृति वास करती है । (‘ऐसी देववाणी संस्कृतके उच्चारण भी यदि कानमें पडते हैं, तो आनंद होता है ।’) संस्कृतिः संस्कृताश्रिता; ऐसा कहते हैं । इसका अर्थ है, ‘संस्कृति संस्कृतके आश्रयमें ही होती है’, अर्थात् जहां संस्कृतका अध्ययन होता है, वहां संस्कृति वास करती है । संस्कृतका अभ्यास करनेवाला व्यक्ति संस्कृतिशील एवं सौजन्यशील होता है ।’    
एकात्म भारतकी पहचान !
‘प्राचीन कालसे संस्कृत अखिल भारतकी भाषाके रूपमें पहचानी जाती थी । कश्मीरसे लंकातक एवं गांधारसे मगधतक के विद्यार्थी नालंदा, तक्षशिला, काशी आदि विद्यापीठोंसे अनेक शास्त्र तथा विद्याका अध्ययन करते थे । इस भाषाके कारणही रूदट, वैâय्यट, मम्मट इन कश्मीरी पंडितोंके ग्रंथ रामेश्वरतक प्रसिद्ध हुए । आयुर्वेदके ज्ञाता चरक पंजाबके, सुश्रुत वाराणसीके, वाग्भट सिंधके, कश्यप कश्मीरके तथा वृंद महाराष्ट्रके ये सभी संस्कृतके कारण ही भारतमान्य हुए ।’ राष्ट्रभाषा संस्कृत होती, तो राष्ट्रभाषाके लिए झगडे न हुए होते !
       ‘राष्ट्रभाषा कौनसी हो’, इसके लिए संसदमें विवाद हुए । दक्षिण भारतने हिंदीका कडा विरोध किया । एक फ्रेंच तत्त्वज्ञने कहा, ‘‘अरे आप क्यों झगडते हैं ? संस्कृत आपकी राष्ट्रभाषा ही है । वही शुरू कीजिए ।’’ संस्कृतके समान पवित्र देवभाषा आपने छोड दी । फिर झगडे नहीं होंगे तो क्या ? आज संपूर्ण हिंदुस्तानमें कहर है ।’ 
सर्व भाषाओंकी जननी संस्कृत (संस्कृत अ-मृत है !)
इन संस्कृद्वेषियोंको यह ध्यानमें रखना चाहिए , ‘देववाणीका ध्वज अब जागतिक स्तरपर पहुंचनेके साथही उसका सारा श्रेय साढे तीन प्रतिशत वालोंको ही (ब्राह्मणोंको ही) है ।’ किसीने कितनी भी नाक सिकोडी तो भी सर्व भाषाओंकी जननी संस्कृत भाषा पौर्वात्यही नहीं, अपितु पश्चिमात्योंकोभी आकर्षित कर रही है ! भारतकी ही नहीं, अपितु संसारकी मूल भाषा संस्कृत है तथा उससे निकली हुई सभी भाषाएं प्राकृत हैं ! संस्कृत देवभाषा होनेके कारण उसमें अपार चैतन्य है, वह अ-मृत है, अमर है !!’ 

संस्कृतका महत्त्व समझकर उसका लाभ लेनेवाले विदेशी !

अ. २६.४.२००७ को भारतके भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ग्रीस देशमें गए थे । वहांके एक स्वागत समारंभमें ग्रीसके राष्ट्रपति कार्लोस पाम्पाडलीस इन्होंने ‘राष्ट्रपतिमहाभाग ! सुस्वागतं यवनदेशे !’, इस संस्कृत वाक्यसे अपने भाषणका प्रारंभ किया । अपने भाषणमें उन्होंने संस्कृत यह प्राचीन भारत की भाषा होकर इस भाषाका संबंध ग्रीक भाषासे भी है ऐसा बताया ।

आ. जुलाई २००७ में ‘अमेरिकी सिनेट’का प्रारंभ वैदिक प्रार्थनासे हुआ । पिछले २१८ वर्षोंके अमेरिकाके इतिहासमें प्रथमही यह घटना घटी । ‘ॐ शांति: शांति: शांति: ।’ ऐसी संस्कृतकी प्रार्थना बोलकर संस्कृतको ‘मृतभाषा’ कहनेवाले नेहरू-गांधी कुटूंबको अमेरीका सिनेटने तमाचा लगाया है ।

इ. अमेरीकाके विद्यापीठमें भी संस्कृतका अध्ययन और अध्यापन पिछले अनेक वर्षोंसे चल रहा है । वहांके केलिफोर्निया विद्यापिठमें सन् १८९७ सेही संस्कृत भाषा पढाई जा रही है ।

ई. २७ अगस्त २००७ से चालू होनेवाले केलिफोर्निया सिनेटका प्रारंभ संस्कृत मंत्रोच्चारसे हुआ । उसके पश्चात् न्यू जर्सी सिनेटका भी प्रारंभ संस्कृत मंत्रोच्चारसे हुआ ।

उ. मेरीलैंड (अमेरिका) विद्यापिठके विद्यार्थीयोंने ‘संस्कृतभारती’ इस नामसे एक गुट तैयार किया है । उस नामसे उन्होंने एक जालस्थानभी (www.speaksanskrit.org)  प्रारंभ किया है ।

ऊ. ११ अपै्रल २०१० इस दिन अमेरिकाकी सिनेटका प्रारंभ संस्कृत श्लोकपठनसे हुआ ।

         संसारके सभी उदात्त विचारोंका उगम संस्कृत भाषामेंही है । संस्कृत यह अत्यंत परिपूर्ण, शास्त्रशुद्ध तथा हजारों वर्ष बितनेपरभी जैसी की वैसी जिवित रहनेवाली एकमेव भाषा है ! - पाश्चात्त्य विद्वान तथा विद्यापिठोंके अभ्यासक.

 

 

 

  
  
          

Eight Auspicious Symbols (The Ast Mangals)


 
Their names are (in series of pictures)


Swastika - Signifies peace and well-being. It is customary to draw the swastika at the beginning of all religious ceremonies.


Shrivatsa - A beautiful mark on manifested itself from the heart of the Jina. Shri Vatsa an auspicious symbol on the upper chest of all 24 Tirthankaras showing compassionate universal eternal love for all living beings however minute they may be.


Nandhyavarta - Big swastika with nine corners. Nandavarta a sacred complex form of swastika which is a visual icon for higher meditative attainment, a beautiful configuration formed by nine angles or corners of divinity.


Vardha­manaka -A shallow earthen dish used for lamps.This symbol is suggestive of increase of wealth, fame and merit due to the grace of the Lord Jina. This pair in Sanskrit is known as samput. The lit lamp is symbolic of light banishing darkness.


Bhadrasana - Meaning throne. It is considered auspicious because it is sanctified by the feet of the blessed Lord Jina. Also regarded as the sacred seat for the liberated souls, this is a seat of honor for evolved souls.


Kalasha -The kalasha filled with pure water, which signifies wisdom and fullness. Kalasha the holy pitcher with two divine eyes as well as two ends of a scarf drawn on either sides. This plays a prominent role in every auspicious ceremony.


Min Yugala - The form of the fish is considered divine, as it also shows the flow of divine life in the cosmic ocean.


Darpan -The mirror reflects one's true self because of its clarit

प्रार्थना एक योग है

योग में हमारे अच्छे स्वास्थ्य के लिए व्यायाम बताए गए हैं। इनमें कई ऐसी क्रियाएं हैं, जो हम प्रतिदिन करते हैं। ऐसी ही एक क्रिया है प्रार्थना। प्रार्थना का मानसिक ही नहीं, शारीरिक लाभ भी मिलता है। इसकी पुष्टि वैज्ञानिकों ने भी कर दी है।
एक नए शोध के मुताबिक, प्रार्थना करने से शरीर स्वस्थ रहता है और आयु भी बढती है। यही नहीं, प्रार्थना करने से ब्लड प्रेशर नियंत्रित रहता है। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में हुए इस शोध में पाया गया कि धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों में कई तरह की बीमारियां होने की आशंका भी कम होती है।
प्रार्थना के अन्य लाभ :
* प्रार्थना करने से मन स्थिर और शांत रहता है। क्रोध पर नियंत्रण रखने में मदद मिलती है।
* इससे स्मरण शक्ति और चेहरे की चमक बढती है।
* प्रार्थना से मन में सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है, जिससे मन निरोगी बनता है।
* शोध में पाया गया है नियमित तौर पर ईश्वर का ध्यान करने और प्रार्थना करने से रक्त संचार दुरुस्त रहता है।
* सामूहिक तौर पर प्रार्थना करने से व्यक्ति के मन में एकता का भाव बढता है और अकेलापन दूर होता है।
* धार्मिक स्थल तक पैदल चल कर जाने से व्यायाम भी हो जाता है।
* ताली बजाकर भजन-कीर्तन करने, परिक्रमा करने आदि से ब्लड प्रेशर संतुलित रहता है। यह एक्यूप्रेशर की भी बेहतरीन एक्सरसाइज है।
* प्रतिदिन प्रार्थना करने से व्यक्ति को ध्यान केंद्रित करने में मदद मिलती है, जिससे एकाग्रता आती है।
* प्रार्थना करने से तनाव कम होता है।
 --- श्री कमल अग्रवाल

Monday, July 30, 2012

स्वर-साधना का ज्ञान

परिचय-
जिस तरह वायु का बाहरी उपयोग है वैसे ही उसका आंतरिक और सूक्ष्म उपयोग भी है। जिसके विषय में जानकर कोई भी प्रबुद्ध व्यक्ति आध्यात्मिक तथा सांसरिक सुख और आनंद प्राप्त कर सकता है। प्राणायाम की ही तरह स्वर विज्ञान भी वायुतत्व के सूक्ष्म उपयोग का विज्ञान है जिसके द्वारा हम बहुत से रोगों से अपने आपको बचाकर रख सकते हैं और रोगी होने पर स्वर-साधना की मदद से उन रोगों का उन्मूलन भी कर सकते हैं। स्वर साधना या स्वरोदय विज्ञान को योग का ही एक अंग मानना चाहिए। ये मनुष्य को हर समय अच्छा फल देने वाला होता है, लेकिन ये स्वर शास्त्र जितना मुश्किल है, उतना ही मुश्किल है इसको सिखाने वाला गुरू मिलना। स्वर साधना का आधार सांस लेना और सांस को बाहर छोड़ने की गति स्वरोदय विज्ञान है। हमारी सारी चेष्टाएं तथा तज्जन्य फायदा-नुकसान, सुख-दुख आदि सारे शारीरिक और मानसिक सुख तथा मुश्किलें आश्चर्यमयी सांस लेने और सांस छोड़ने की गति से ही प्रभावित है। जिसकी मदद से दुखों को दूर किया जा सकता है और अपनी इच्छा का फल पाया जाता है।

प्रकृति का ये नियम है कि हमारे शरीर में दिन-रात तेज गति से सांस लेना और सांस छोड़ना एक ही समय में नाक के दोनो छिद्रों से साधारणत: नही चलता। बल्कि वो बारी-बारी से एक निश्चित समय तक अलग-अलग नाक के छिद्रों से चलता है। एक नाक के छिद्र का निश्चित समय पूरा हो जाने पर उससे सांस लेना और सांस छोड़ना बंद हो जाता है और नाक के दूसरे छिद्र से चलना शुरू हो जाता है। सांस का आना जाना जब एक नाक के छिद्र से बंद होता है और दूसरे से शुरू होता है तो उसको `स्वरोदय´ कहा जाता है। हर नथुने में स्वरोदय होने के बाद वो साधारणतया 1 घंटे तक मौजूद रहता है। इसके बाद दूसरे नाक के छिद्र से सांस चलना शुरू होता है और वो भी 1 घंटे तक रहता है। ये क्रम रात और दिन चलता रहता है।

जानकारी-
जब नाक से बाएं छिद्र से सांस चलती है तब उसे `इड़ा´ में चलना अथवा `चंद्रस्वर´ का चलना कहा जाता है और दाहिने नाक से सांस चलती है तो उसे `पिंगला´ में चलना अथवा `सूर्य स्वर´ का चलना कहते हैं और नाक के दोनो छिद्रों से जब एक ही समय में बराबर सांस चलती है तब उसको `सुषुम्ना में चलना कहा जाता है।

स्वरयोग-
योग के मुताबिक सांस को ही स्वर कहा गया है। स्वर मुख्यत: 3 प्रकार के होते हैं-

चंद्रस्वर-
जब नाक के बाईं तरफ के छिद्र से सांस चल रही हो तो उसको चंद्रस्वर कहा जाता है। ये शरीर को ठंडक पहुंचाता है। इस स्वर में तरल पदार्थ पीने चाहिए और ज्यादा मेहनत का काम नही करना चाहिए।

सूर्यस्वर-
जब नाक के दाईं तरफ के छिद्र से सांस चल रही हो तो उसे सूर्य स्वर कहा जाता है। ये स्वर शरीर को गर्मी देता है। इस स्वर में भोजन और ज्यादा मेहनत वाले काम करने चाहिए।

स्वर बदलने की विधि-
नाक के जिस तरफ के छिद्र से स्वर चल रहा हो तो उसे दबाकर बंद करने से दूसरा स्वर चलने लगता है।
जिस तरफ के नाक के छिद्र से स्वर चल रहा हो उसी तरफ करवट लेकर लेटने से दूसरा स्वर चलने लगता है।
नाक के जिस तरफ के छिद्र से स्वर चलाना हो उससे दूसरी तरफ के छिद्र को रुई से बंद कर देना चाहिए।
ज्यादा मेहनत करने से, दौड़ने से और प्राणायाम आदि करने से स्वर बदल जाता है। नाड़ी शोधन प्राणायाम करने से स्वर पर काबू हो जाता है। इससे सर्दियों में सर्दी कम लगती है और गर्मियों में गर्मी भी कम लगती है।
स्वर ज्ञान से लाभ-

जो व्यक्ति स्वर को बार-बार बदलना पूरी तरह से सीख जाता है उसे जल्दी बुढ़ापा नही आता और वो लंबी उम्र भी जीता है।
कोई भी रोग होने पर जो स्वर चलता हो उसे बदलने से जल्दी लाभ होता है।
शरीर में थकान होने पर चंद्रस्वर (दाईं करवट) लेटने से थकान दूर हो जाती है।
स्नायु रोग के कारण अगर शरीर मे किसी भी तरह का दर्द हो तो स्वर को बदलने से दर्द दूर हो जाता है।
दमे का दौरा पड़ने पर स्वर बदलने से दमे का दौरा कम हो जाता है। जिस व्यक्ति का दिन में बायां और रात में दायां स्वर चलता है वो हमेशा स्वस्थ रहता है।
गर्भधारण के समय अगर पुरुष का दायां स्वर और स्त्री का बायां स्वर चले तो उस समय में गर्भधारण करने से निश्चय ही पुत्र पैदा होता है।
जानकारी-
प्रकृति शरीर की जरूरत के मुताबिक स्वरों को बदलती रहती है। अगर जरूरत हो तो स्वर बदला भी जा सकता है।

वाम स्वर
परिचय-
जिस समय व्यक्ति का बाईं तरफ का स्वर चलता हो उस समय स्थिर, सौम्य और शांति वाला काम करने से वो काम पूरा हो जाता है जैसे- दोस्ती करना, भगवान के भजन करना, सजना-संवरना, किसी रोग की चिकित्सा शुरू करना, शादी करना, दान देना, हवन-यज्ञ करना, मकान आदि बनवाना शुरू करना, किसी यात्रा की शुरूआत करना, नई फसल के बीज बोना, पढ़ाई शुरू करना आदि।

दक्षिण स्वर
परिचय-
जिस समय व्यक्ति का दाईं तरफ का स्वर चल रहा हो उस समय उसे काफी मुश्किल, गुस्से वाले और रुद्र कामों को करना चाहिए जैसे- किसी चीज की सवारी करना, लड़ाई में जाना, व्यायाम करना, पहाड़ पर चढ़ना, स्नान करना और भोजन करना आदि।

सुषुम्ना
परिचय-
जिस समय नाक के दोनों छिद्रों से बराबर स्वर चलते हो तो इसे सुषुम्ना स्वर कहते हैं। उस समय मुक्त फल देने वाले कामों को करने से सिद्धि जल्दी मिल जाती है जैसे- धर्म वाले काम में भगवान का ध्यान लगाना तथा योग-साधना आदि करने चाहिए।

विशेष-
जो काम `चंद्र और `सूर्य´ नाड़ी में करने चाहिए उन्हे `सुषुम्ना´ के समय बिल्कुल भी न करें नही तो इसका उल्टा असर पड़ता है।

स्वर चलने का ज्ञान
परिचय-
अगर कोई व्यक्ति जानना चाहता है कि किस समय कौन सा स्वर चल रहा है तो इसको जानने का तरीका बहुत आसान है। सबसे पहले नाक के एक छिद्र को बंद करके दूसरे छिद्र से 2-4 बार जोर-जोर से सांस लीजिए। फिर इस छिद्र को बंद करके उसी तरह से दूसरे छिद्र से 2-4 बार जोर-जोर से सांस लीजिए। नाक के जिस छिद्र से सांस लेने और छोड़ने में आसानी लग रही हो समझना चाहिए कि उस तरफ का स्वर चल रहा है और जिस तरफ से सांस लेने और छोड़ने मे परेशानी हो उसे बंद समझना चाहिए।

इच्छा के मुताबिक सांस की गति बदलना
परिचय-
अगर कोई व्यक्ति अपनी मर्जी से अपनी सांस की चलने की गति को बदलना चाहता है तो इसकी 3 विधियां है-
सांस की गति बदलने की विधि-
नाक के जिस तरफ के छेद से सांस चल रही हो, उसके दूसरी तरफ के नाक के छिद्र को अंगूठे से दबाकर रखना चाहिए तथा जिस तरफ से सांस चल रही हो वहां से हवा को अंदर खींचना चाहिए। फिर उस तरफ के छिद्र को दबाकर नाक के दूसरे छिद्र से हवा को बाहर निकालना चाहिए। कुछ देर तक इसी तरह से नाक के एक छिद्र से सांस लेकर दूसरे से सांस निकालने से सांस की गति जरूर बदल जाती है।
जिस तरफ के नाक के छिद्र से सांस चल रही हो उसी करवट सोकर नाक के एक छिद्र से सांस लेकर दूसरे से छोड़ने की क्रिया को करने से सांस की गति जल्दी बदल जाती है।
नाक के जिस तरफ के छिद्र से सांस चल रही हो सिर्फ उसी करवट थोड़ी देर तक लेटने से भी सांस के चलने की गति बदल जाती है।
प्राणवायु को सुषुम्ना में संचारित करने की विधि :
परिचय-
प्राणवायु को सुषुम्ना नाड़ी में जमा करने के लिए सबसे पहले नाक के किसी भी एक छिद्र को बंद करके दूसरे छिद्र से सांस लेने की क्रिया करें और फिर तुरंत ही बंद छिद्र को खोलकर दूसरे छिद्र से सांस को बाहर निकाल दीजिए। इसके बाद नाक के जिस तरफ के छिद्र से सांस छोड़ी हो, उसी से सांस लेकर दूसरे छिद्र से सांस को बाहर छोड़िये। इस तरह नाक के एक छिद्र से सांस लेकर दूसरे से सांस निकालने और फिर दूसरे से सांस लेकर पहले से छोड़ने से लगभग 50 बार में प्राणवायु का संचार `सुषुम्ना´ नाड़ी में जरूर हो जाएगा।

स्वर साधना का पांचो तत्वों से सम्बंध
परिचय-
हमारे शरीर को बनाने में जो पांच तत्व (आकाश, पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल) होते हैं उनमें से कोई ना कोई तत्व हर समय स्वर के साथ मौजूद रहता है। जब तक स्वर नाक के एक छिद्र से चलता रहता है, तब तक पांचो तत्व 1-1 बार उदय होकर अपने-अपने समय तक मौजूद रहने के बाद वापिस चले जाते हैं।

स्वर के साथ तत्वों का ज्ञान
परिचय-
स्वर के साथ कौन सा तत्व मौजूद होता है, ये किस तरह कैसे जाना जाए पंचतत्वों का उदय स्वर के उदय के साथ कैसे होता है और उन्हे कैसे जाना जा सकता है। इसके बहुत से उपाय है, लेकिन ये तरीके इतने ज्यादा बारीक और मुश्किल होते हैं कि कोई भी आम व्यक्ति बिना अभ्यास के उन्हे नही जान सकता।

जैसे-
नाक के छिद्र से चलती हुई सांस की ऊपर नीचे तिरछे बीच में घूम-घूमकर बदलती हुई गति से किसी खास तत्व की मौजूदगी का पता लगाया जा सकता है।
हर तत्व का अपना एक खास आकार होता है। इसलिए निर्मल दर्पण पर सांस को छोड़ने से जो आकृति बनती है उस आकृति को देखकर उस समय जो तत्व मौजूद होता है, उसका पता चल जाता है।
शरीर में स्थित अलग-अलग चक्रों द्वारा किसी खास तत्व की मौजूदगी का पता लगाया जाता है।
हर तत्व का अपना-अपना एक खास रंग होता है। इससे भी तत्वों के बारे में पता लगाया जा सकता है।
हर तत्व का अपना एक अलग स्वाद होता है। उसके द्वारा भी पता लगाया जा सकता है।
सुबह के समय तत्व के क्रम द्वारा नाक के जिस छिद्र से सांस चलती हो उसमे साधारणत: पहले वायु, फिर अग्नि, फिर पृथ्वी इसके बाद पानी और अंत में आकाश का क्रमश: 8, 12, 20, 16 और 4 मिनट तक उदय होता है।
जानकारी-

तत्वों के परिमाण द्वारा भी किसी तत्व की स्वर के साथ मौजूदगी का पता लगाया जा सकता है। इसका तरीका ये है कि बारीक हल्की रुई लेकर उसे जिस नाक के छिद्र से सांस चल रही हो, उसके पास धीरे-धीरे ले जाइए। जहां पर पहले-पहले रुई हवा की गति से हिलने लगे वहां पर रुक जाए और उस दूरी को नाप लीजिए। यदि वो दूरी कम से कम 12 उंगली की निकले तो पृथ्वी तत्व 16 अंगुल है, जल तत्व 4 अंगुल है, अग्नि तत्व 8 अंगुल है और वायु तत्व 20 अंगुल है तो आकाश तत्व की मौजूदगी समझनी चाहिए।

स्वर साधना के चमत्कार और उससे स्वास्थ्य की प्राप्ति
परिचय-
असल जिंदगी मे स्वर की महिमा बहुत ही ज्यादा चमत्कारिक है। इसके कुछ सरल प्रयोग नीचे दिये जा रहे हैं।
जानकारी-
सुबह उठने पर पलंग पर ही आंख खुलते ही जो स्वर चल रहा हो उस ओर के हाथ की हथेली को देखें और उसे चेहरे पर फेरते हुए भगवान का नाम लें। इसके बाद जिस ओर का स्वर चल रहा हो उसी ओर का पैर पहले बिस्तर से नीचे जमीन पर रखें। इस क्रिया को करने से पूरा दिन सुख और चैन से बीतेगा।
अगर किसी व्यक्ति को कोई रोग हो जाए तो उसके लक्षण पता चलते ही जो स्वर चलता हो उसको तुरंत ही बंद कर देना चाहिए और जितनी देर या जितने दिनो तक शरीर स्वस्थ न हो जाए उतनी देर या उतने दिनो तक उस स्वर को बंद कर देना चाहिए। इससे शरीर जल्दी ही स्वस्थ हो जाता है और रोगी को ज्यादा दिनों तक कष्ट नही सहना पड़ता।
अगर शरीर में किसी भी तरह की थकावट महसूस हो तो दाहिने करवट सो जाना चाहिए, जिससे `चंद्र´ स्वर चालू हो जाता है और थोड़े ही समय में शरीर की सारी थकान दूर हो जाती है।
स्नायु रोग के कारण अगर शरीर के किसी भाग में किसी भी तरह का दर्द हो तो दर्द के शुरू होते ही जो स्वर चलता हो, उसे बंद कर देना चाहिए। इस प्रयोग को सिर्फ 2-4 मिनट तक ही करने से रोगी का दर्द चला जाता है।
जब किसी व्यक्ति को दमे का दौरा पड़ता है उस समय जो स्वर चलता हो उसे बंद करके दूसरा स्वर चला देना चाहिए। इससे 10-15 मिनट में ही दमे का दौरा शांत हो जाता है। रोजाना इसी तरह से करने से एक महीने में ही दमे के दौरे का रोग कम हो जाता है। दिन में जितनी भी बार यह क्रिया की जाती है, उतनी ही जल्दी दमे का दौरा कम हो जाता है।
जिस व्यक्ति का स्वर दिन में बायां और रात मे दायां चलता है, उसके शरीर में किसी भी तरह का दर्द नही होता है। इसी क्रम से 10-15 दिन तक स्वरों को चलाने का अभ्यास करने से स्वर खुद ही उपर्युक्त नियम से चलने लगता है।
रात को गर्भाधान के समय स्त्री का बांया स्वर और पुरुष का अगर दायां स्वर चले तो उनके घर में बेटा पैदा होता है तथा स्त्री-पुरुष के उस समय में बराबर स्वर चलते रहने से गर्भ ठहरता नही है।
जिस समय दायां स्वर चल रहा हो उस समय भोजन करना लाभकारी होता है। भोजन करने के बाद भी 10 मिनट तक दायां स्वर ही चलना चाहिए। इसलिए भोजन करने के बाद बायीं करवट सोने को कहा जाता है ताकि दायां स्वर चलता रहे। ऐसा करने से भोजन जल्दी पच जाता है और व्यक्ति को कब्ज का रोग भी नही होता। अगर कब्ज होता भी है तो वो भी जल्दी दूर हो जाता है।
किसी जगह पर आग लगने पर जिस ओर आग की गति हो उस दिशा में खड़े होकर जो स्वर चलता हो, उससे वायु को खींचकर नाक से पानी पीना चाहिए। ऐसा करने से या तो आग बुझ जाएगी या उसका बढ़ना रुक जाएगा।
--- श्री अनुराग मिश्र

Saturday, July 28, 2012

आप तो मनुष्य है ना

आज एक कुत्ता अपने बच्चे को जो बार दौड़ कर सड़क पर चला जाता था , उसको मुह से पकड़ कर ले आता था और अगर कोई वाहन आता दिखाई पड़ जाता तो उसकी तरफ जपत उठता मानो कह रहा हो ...जानते नही यह मेरा बच्चा है कोई आदमी का नही जो सालो से कोर्ट इस लिए दौड़ता है कि उसका बाप उसको अपनी औलाद मानने को तैयार नही है ...............खैर हमको पता है आज तक किसी आदमी ने कुत्ते को भूल से भी आदमी नही कहा होगा क्योकि हम अपने से किसी जानवर की तुलना कर भी कैसे सकते है ...............कुत्तो का अनाथलय कही आपको पता है ..पुरे मन से तन से जीते अपने बच्चो के लिए .जब तक रहते है दुनिया को दिल खोल कर बताते है कि देखो मै इस पिल्लै का बाप हूं और कोई मजक तो है नही अपनेको जानवर से अलग करना ...तो लीजिये हरम की औलाद की लाइन लग गई .....बस हो गए ना हम सन मनुष्य और जानवर से ऊँचे .................हा हा आपको को जानवर कहलाना कभी पसंद रहा भी नही कोई आप हम चार पैर पर चलने वाले जानवर है ....हम तो सर्कस के वो जानवर है जो दो पैर पर चल कर दिखा देता है ...अरे अरे वो देखिये देखि मेरी स्टोप्स गर्भपात क्लिनिक .वह क्या बात है ????????? हम कोई जानवर थोड़ी न है ...जो हम किसी को इस दुनिया में आने दे ...............और ना ही हम मशीन है ,,,,,,पर हम तो भगवन है जो अगर नही चाहेंगे तो कोई पैदा नही हो सकता ....वो देखिये शायद कूई भारत पुत्र या भारत पुत्री सड़क के किनारे ,,,कूड़े में ,,,,नाले में पड़ा है ...काश कुत्तिया के लिए भी को गर्भपात केंद्र होता तो उसको भी एक बार तो मनुष्य बन्ने का आनंद मिल जाता ....कितने पुण्य के बाद तो यह मानव शरीर मिलता है ..और उसके मिलने के बाद अगर कंडोम का प्रयोग ना कर पाए तो क्या फायेदा कम से कम कुत्ता कभी आदमी नही बन पायेगा .....बेचारा .......न जाने उसके पुण्य कब पूरे होंगे ...........लीजिये अब इनकी सुनिए कह रहे है ..आपको मनुष्य के लिए इतना गन्दा कहते हुए शर्म नही आती ????? मनुष्य के पास शर्म ही तो है .......इसी लिए तो जब देश के नागरिक आसाम में बेघर हो रहे थे ...४ लाख लोग विस्थापित हो हाय ५८ लोग मार दिए गए ...तब राष्ट्रपति भवन में शपथ ग्रहण समारोह चल रहा था ........अगर शर्म ना होती तो पाने ही देश के लोग के दर्द में ...मारे जाने के दर्द में शपथ ग्रहण रोक ना देते ........पर शर्म करे भी तो किस से संसद के आलवा पूरे भारतमे कीड़े मकोड़े रहते है .........अब आप को अपने मनुष्य होने का नशा चढ़ा है तो प्रजा तंत्र है जो चाहिए कह सकते है ......पर प्रजातंत्र में रहने वाला कुत्ता जनता है ...कि उसने ऐसा कोई पुण्य नही किया जो अपने को मनुष्य कह सके ..मनुष्य जो है वो इस बात स्सेखुश है कि उनके बीच में कोई मनुष्य आज राष्ट्रपति बन गया ...अगर आप मनुष्य होते तो अंधे तो है नही आपके मत से जीते हुए संसद के लोग जो मरने वालो पर शोक न करते .....पर मनुष्य तो इंदिरा जी और राजीव जी थे जिनके मरने पर हर साल कोरोड़ो बहा कर याद किया जाता है ....क्या कभी किसी कुत्ते को मरने पर याद किया जाता है ...........खैर मत देने के समय आप दस्तावेजो में आदमी ही दर्ज है ....इस लिए आप को परेशान होने कि जरूरत नही है .........वैसे आप लगते आदमी ही है क्योकि लगातार अभ्यास करके आप को दो पैर पर चलने के काबिल बना दिया गया है ............लेकिन अगर प्रधानमंत्री कि गाड़ी निकल गयी .तो आप अगर अस्पताल न जाने के कारण मर गए तो कोई बात नही रोज सड़क पर न जाने कितने जानवर कुचल कर मर जाते है ....और किसी ने प्रधानमंत्री से बिना पूछकर अस्पताल जाने को कहा था .............पर आप पाने को को न आदमी माने.............आप भी तो आदमी कि तरह ही खाते है ...........आज मुकेश अम्बानी के कुत्ते के लिए डॉक्टर लगा है जो खाना चेक करके कुत्ते ......माफ़ करियेगा कुत्ते जी को खाना देता है ................और आप कही दीपक जला कर दिन भर पसीना बहा कर रोटी पका रहे होंगे ..........अरे भाई इसी से तो पता चलता है कि आप मनुष्य है वरना जीने का मजा क्या ..............वो बात अलग है कि शहर भर में जा जाने कितने कुत्ते खुले आसमान में सोते है ................आप तो इस लिए सोते है ताकि गाँव में पैसा भेज सके ......आप आदमी है और कर्म ही पूजा है ...........वो बात अलग है कि कुत्ता भी कर्म करता है ...और ज्यादातर आदमी पर ही भोंकता है ..........पर कुत्ता खुद उनको कहा आदमी मानता है ..वो तो उनको आदमी मानता है जिनके यहाँ पलता है ....पर कोई बात नही आप भारत में अपने को कुछ भी समझ सकते है ................हा हा आदमी समझने के कारण ही तो भर्ष्टाचार को आप समझ पाए ..वरना बेचारी गाये की क्या मजाल जो किसी मनुष्य का दूध दुह कर अपने बच्चो को पिला दे ..........आखिर आदमी ही किसी कि छातिका दूध निकल का अप्मने घर में चाय बना सकता है ............आप मनुष्य है ..खड़ा कर दीजिये बछेड़े को गाय के सामने ..बस देकिये गाय के थान से दूध बहने लगेगा ...और बन जाइये कॉम्प्लान बॉय .पर कुत्तिया के छाती से ६ बच्चे भी चिपके रहे तो वो सबको जिला लेती है ...पर माँ के दूध के बाद भी आपका बच्चा बिना गाय , भैस के दूध के जिन्दा ही नही रह पता ...आखिर मनुष्य कुछ तो अलग होना चाहिए न जानवर से .......जानवर क्या करते सिर्फ आप पर हमला करके मार कर खा लेते है ...पर आप जानवर थोड़ी ना है ...आप पहले उसको घर पर पलते है .....उसको प्यार करते है ...फिर एक दिन अपने घर में ही काट कर बना कर खा लेते है .............यह हुई ना मर्दों वाली बात ............अगर मनुष्य कहलाना है तो जानवर से हट कर तो करना ही पड़ेगा ..................अन्ना के लिए आप क्यों जिए ????? देश में भ्रष्टाचार क्यों मिटाए ??????????????? आखिर आप मनुष्य है ..अगर भर्ष्टाचार मिट गया तो लोग आपको अनवर नही कहने लगेंगे .......भला आपने कभी सुना कि शेर ने भर्ष्टाचार किया ..........और आप तो शेर कहलाने ...गलती क्षमा क्षमा ...शेर नही जानवर ...( शेर भी अपनी बेइज्जती सुनकर मुझको कच्चा खा जायेगा ) क्यों कहलायेंगे ...................भ्रष्टाचार करना तो आदमी अ ही काम है ...तो उसको तो जरी रहना ही चाहिए .................और सरकार क्यों माने आपकी बात अन्ना कि बात ....मतलब सरकार कि नजर में वैसे ही अन्ना और देश कि जनता कीड़े मकोडो से ऊपर नही है ......वो खुद अपने को मनुष्य मानती है ....और अब अन्ना भ्रष्टाचार खत्म करने को कह रहे है .................तो सरकार अपने मनुष्य होने के निशान भी खो दे ....न बाबा न ////सर कता सकते है लेकिन सरझुका सकते नही .......मनुष्य है मनुष्य रहेंगे ...इतनी मुश्किल से तो पहले मनुष्य का जन्म हुआ और फिर भ्रष्ट चार करके भारत में मनुष्य खुद को सिद्ध करने का मौका मिला ..............तो क्यों छोड़े ......और आसाम में लाशो को गिरते देख कर भी आंसू न गिरना भी तो यही बता गया ना कि वो जानवरों पर देश में शाशन कर रहे है ............................जी नही यह मैं नही कह रहा हूं ...यह तो आप कह रहे है ...क्यों कि आप मनुष्य है .................और मैं ....................हा हा हा जी जी अब क्या कहू आप तो कुछ ज्यादा ही समझदार निकले ...........आइये चले आज घसीटे राम को अपनी शानदार जीत पर आसाम के लोगो के मरने पर शपथ लेना है ...कि मै देश का प्रथम दूसरा ...तीसरा ...( पता नही कौन सा मनुष्य है यह ) नागरिक इस देश मनुष्य को जिन्दा रखने के लिए कुछ लोगो के बलिदान को हमेशा जरी रखेंगे ताकि देश में लोग कम होते रहे और कोई भोजन के बिना भूखा न रहे .....और अगर फिर भी भूखा रह जाता है ....तो जानवरों कि तरह हम अपनों को नोच कर नही खायेंगे बल्कि अपनी त्याग कि नयी मिशाल कयाम करते कहे आप मारे गाये आदमियों ( जानवरों ) कि लाश के टुकड़े घर ले जाकर बना कर खाइए ...जिसे लाश को जलने कि समस्या से निजत मिलेगी ...प्रयावरण सुरक्षित रहेगा और आदमी भूखा भी नही रहेगा ....आखिर हको जानवर से कुछ हट कर रहना है ..ताकि हमको मनुष्य होने पर गर्व हो सके .................आप भर्ष्टाचार का विरोध नही कर रहे ...ओह हो ...आप तो मनुष्य है ................
 ---श्री अलोक चान्टिया

मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य का विधाता है

मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य का विधाता है। गुरु रूपी मांझी को अपनी जीवन रूपी नौका सौंप दें, तो भवसागर सरलता से पार हो जाएंगे। यदि व्यक्ति ऐसा करने का प्रयत्न नहीं करता तो वह अपना ही नाश करता है। भगवान को मन से कहना चाहिए कि है भगवान्‌! मैं आपकी शरण हूं। आप ही मुझे संभालना। और तो सांसारिक कार्य जैसे करते हैं, करें।

गुरु मंत्र का जप मन में करते रहें। कहीं कुछ छोड़कर जाने की जरूरत नहीं है। भगवान उसकी सार संभाल अपने आप करेंगे। औरों की निंदा न करना, अपने आपको ही सुधारना, जगत्‌ को सुधारने का भी व्यर्थ प्रयत्न करना। जगत को प्रसन्न करना उतना कठिन नहीं है।

भगवान को अपना मन दे दें। मन ही तो सब कुछ है, मन सुधरा रहा तो हमारा कल्याण हो जाएगा। कलियुग से बचने का सबसे श्रेष्ठ उपाय है- नाम संकीर्तन। मृत्यु के बाद जीवात्मा अन्तःकरण के साथ जाता है। शरीर की अपेक्षा मन की चिंता अधिक करनी है। मन को मनमोहन में लगा दें तो बेड़ा पार हो जाएगा।

ND
मन को ईश्वर के चिंतन, ध्यान, मनन में लगाए रखना चाहिए। यदि किसी को पता चले कि यह लड्डू कड़वा है तो कोई नहीं खाएगा। इसी प्रकार जो बुरे कर्म हैं, उनका परिणाम तो बुरा ही होगा। इसलिए उनका परित्याग करके शुभ कर्मों की तरफ ध्यान देना चाहिए। उन्नति का बीज मंत्र सेवा और प्रेम है, सद्गुरु और संतों की सेवा करें।

किसी को किसी भगवान में प्रेम रहता है, किसी को और किसी में। जिस प्रकार पतिव्रता नारी अपने पति में प्रेम रखते हुए घर के अन्य सदस्यों से प्रेम रखती है, उसी प्रकार हमें इष्ट भगवान में प्रेम रखते हुए सभी देव-देवताओं से प्रेम रखना चाहिए। अपने पति और संतानों की अपेक्षा करके कथा कीर्तन करने या मंदिर जाने वाली स्त्री की सेवा कभी सफल नहीं होती क्योंकि भगवान कहते हैं कि मुझे धर्म की मर्यादा बड़ी प्रिय है।

मनुष्य के जीवन में तीन चीजों संपत्ति, सन्मति और सद्गति का बड़ा महत्व है। संपत्ति मनुष्य को प्रतिष्ठा प्रदान करती है। सन्मति प्रभाव और सद्गति परलोक सुधारती है। दृष्टि, ट्रस्टी, सृष्टि इनका कोई भरोसा नहीं, कब बदल जाए। इसलिए आप यदि डॉक्टर, व्यापारी या वकील हैं तो जब शाम को घर में प्रवेश करें, तब अपने प्रोफेशन को घर के बाहर ही छोड़कर भीतर जाना चाहिए। श्रद्धा एक नाव है, जिससे तुम भवसागर पार उतर सकते हो।
--- श्री कमल अग्रवाल

WHO IS GOD ?

Many people say they believe in God, but they don’t really know who he is.

Suppose one day a little girl named Daisy walked past the garden where you live.
“Someone must live there,” she thinks to herself.
And she would be right - YOU live there! But then suppose she thought you are a wicked cruel man, had long, pointy moustache, and protruding teeth, and furry feet; and that you hated children and dogs; and all you did was sit around beating your children, all day eating ice cream and playing on computers all sorts of video games.
That wouldn’t be you at all!
....except maybe for the video games part.
That is sort of God’s problem.
People see the moon and the stars and they think, “Someone must live there!” And they may be right. God knows best.
But then they get all kinds of different ideas about who God is.
And most of those ideas may’t be really who God is at all.
Daisy and her friends might sit around at lunch and talk about the person who lives in the place where you live, and in one way they all are right. Someone DOES live there. But if Daisy thinks you have furry feet, and one of her friends thinks you are just a kid who likes to play basketball, they aren’t really talking about the same person at all.
That’s how it is for God.
People say they believe in God. But what if one person thinks that God is the all-loving, all-powerful person who created everything there is. Then another person thinks that God is an old man with a white beard sitting up in a cloud somewhere. And then another person thinks that God is the statue of a cat he has sitting on his dresser. They aren’t really talking about the same person at all.
God had to find a way to let us know who he really is.

Is God only a concept? Let’s presume that we have never heard anything about the concept of God or even the word called as “God” and start afresh about learning and developing understanding about that Divine Entity. Let us unlearn what we have learnt about God based on our cultural upbringing, prior learning or forming an opinion or belief of what He is like. Let us not act like a sagacious fool and egoistic intellectual pretending to know Him. Let us admit that we are zero in our knowledge and can’t understand Him. Let us be like an innocent child who has not learnt his alphabets so is unable to form any concept.

We have given Him a particular name or names based on our cultural milieu and past upbringing, oblivious of the fact that a human word is just a vocal-cord’s sound or a sequence of alphabets to which – in our mental perception – have adorned and attributed it with a meaning. If you do not know that language, then that word will appear to be with no meaning at all. This type of words is called a attributive word which can be spoken or written or listened with human’s faculties of perception. It is also called as “Varnatamak Shabd” in Devanagri script, anything which can be written with 52 alphabets. Every language has its origin and period of evolution. They too have their life of their like human being. They originate, evolve for certain period, may change their form and may eventually die. They have to as they, too, are human creations.

It has been said in scriptures, that He is beyond all names and concepts. He is nameless. The name that can be named is attributive and cannot be His real name. Even the concept of God is an abstract one formed from our past beliefs, mental images, cultural association. How do we really form a concept about anything?

The logical acts of the understanding by which concepts are generated as to their form are:

1. comparison, i.e., the likening of mental images to one another in relation to the unity of consciousness;

2. reflection, i.e., the going back over different mental images, how they can be comprehended in one consciousness; and finally

3. abstraction or the segregation of everything else by which the mental images differ ...

In order to make our mental images into concepts, one must thus be able to compare, reflect, and abstract, for these three logical operations of the understanding are essential and general conditions of generating any concept whatever. For example, I see a pine, a willow, and a neem. In firstly comparing these objects, I notice that they are different from one another in respect of trunk, branches, leaves, and the like; further, however, I reflect only on what they have in common, the trunk, the branches, the leaves themselves, and abstract from their size, shape, and so forth; thus I gain a concept of a tree.

But in our case, we do not have the privilege to see Him and nobody to compare with. We cannot reflect as we have not the luxury of contemplating over His form. We cannot abstract Him as we have not compared, reflected and contemplated over Him further our human mind is very much limited to comprehend or abstract Him. And if we try to bind Him or restrict Him or realize Him by just an intellectual construct or abstract concept, then that concept will hold us back. Such concept will undermine and belittle Him and will restrict our possibility of understanding in future. And we should realize that all our concepts are just balloons of hot air filled in our mind giving us false notion of being learned intellectuals. All our related concepts of creation, reincarnation, heaven and hell and so many abstract notions are just conditional concepts triggered by our environment. It does not mean to say that they are useless. Offcourse, they are to be used as tools of scientific methodology, as communication devices or understanding things on physical plane but never to assume them as reality stuff. A description of something cannot be the reality itself.

Some smart guys may ask, “Who created God?”” and if we are honest with ourselves then we will honestly say, “We have.” The ideas, abstractions, conceptions, ideals, attributes, with which God has been endowed with, are almost created at this human level and are more or less mental conceptions. The God of religion has been conceptualized in the mind of human beings as mental imageries, past beliefs, cultural constructs.

After we come to realization that our understanding of God is at conceptual level and merely a perception based on our belief system leads one to ponder whether or not God exists. The idea of existence of God lurks in mind of every seeker who wants to understand these issues for themselves. However this enquiry shall be incomplete before we understand the concept of “God.” What we actually understand when we speak of God. You ask hundreds of people what they understand by the word ‘God’, you will probably get hundred different answers. The replies will be vague interpretations, confused conceptions drawn from a medley of religious, social, cultural, and familial and personal effects and impressions. Some will described God based on their religious beliefs and reading of religious scriptures. Some will describe him in anthropomorphic or humanlike trait, as a God endowed with emotions, liable to give boons when pleased and punishment when offended. Some would like to portray Him as a Universal Spirit or a transcendent, absolute reality. The variety of conceptions will depend on different perspectives of seekers based on their mindset. Many will try to be atheists and will tend to completely deny about the existence of any entity with name of God but will tend to him, consciously or consciously by any other name. They may recognize it in form of Nature, Beauty, and Love or simply as some entity – unknown and universal, beyond all human beliefs, conceptions and imaginations.

Those who try to mock or cut down to size the concept anything relating to concept of God try to take the easy way of becoming jingoist and cynics. They first set up a raw concept of God, choosing the most bizarre aspects out of many prevalent conceptions of the Divine, just like scarecrow made of straw. Then you set it on fire by sheer power of your intellectual jugglery, cool logic, bald reason, cynicism, and mockery. Cynics may say thatvirtue is the only good, that the essence of virtue is self-control and individual freedom, and that surrender to any external influence is beneath the dignity of man. But this is very superfluous and facile approach bringing disrepute to an atheist. Many spiritually inclined people also reject this simple explanation of Divine and have intuitive feeling that there is a far more intelligent way to understand the nature of Super-Consciousness.

Of course, cultural, religious and social beliefs play a big role in our notion about our concept of God. Spiritual disposition also does not depend on our belief or non-belief about God. Our belief system needs to be transformed into practice, awareness and experience. Yet, whatever may be our belief system, we should give full freedom to others’ perspectives and should not try to force our opinions on others.

Whether we believe in concept of God or not, we cannot outright reject the concept of “God”. We have to follow a scientific temper and say He may exist or He may not exist. We have to give a fair chance to the idea of His existence and acceptance of the fact that if such a Being exists then His personality and nature is going to be far beyond the reach of human logic, comprehension, discussion, and description.

We should also realize that evidence or lack of it does not affect our belief system in God. Feelings from emotions determining our belief system may not arise from any reason or logic though they may be supported by them. The real faith will arise from awareness, consciousness, perception and understanding.

Human life is full of different aspects, perspectives, paradoxes and contradictions, some in reality and some on abstract level. A diamond face may have different faces, each representing different colour due to internal reflection, yet its different colours does not contradict its oneness. Those intellectuals who feel that they can explain in rational and intellectual way, “the mysteries of life, the universe and God” are making exaggerated claims by venturing out on endless journey. Much of our intellectual life is full of concepts, opinions, perspectives, mental constructs. Everyone has different viewpoints on various issues. Yet we also have “self appointed authorities” who will willingly tell you everything about anything. Just give them a little push and they will not leave you before two or three hours. They are fond of teaching what they themselves do not practice, They are self appointed saviours of this world.
--- Shri Vipin Tyaagi 

Friday, July 27, 2012

भगवान् राम वास्तव में थे इसके प्रमाण


आज हम कहते हैं की राम जी थे ...पर आत्मा में कहीं ये न सोच ले की नहीं थे .....विश्वास को पुष्ट रखना मेरे मित्रों
दुश्मन ki शक्तियां हमारी आस्था की सच्चाई को न डिगाने पाए
हम करें राष्ट्र आराधन ....तन से,मन से,जीवन से ...."""
भगवान रामचन्द्र जी के १४ वर्षों के वनवास यात्रा का विवरण >>>>
पुराने उपलब्ध प्रमाणों और राम अवतार जी के शोध और अनुशंधानों के अनुसार कुल १९५ स्थानों पर राम और सीता जी के पुख्ता प्रमाण मिले हैं जिन्हें ५ भागों में वर्णित कर रहा हूँ

१.>>>वनवास का प्रथम चरण गंगा का अंचल >>>
सबसे पहले राम जी अयोध्या से चलकर तमसा नदी (गौराघाट,फैजाबाद,उत्तर प्रदेश) को पार किया जो अयोध्या से २० किमी की दूरी पर है |
आगे बढ़ते हुए राम जी ने गोमती नदी को पर किया और श्रिंगवेरपुर (वर्त्तमान सिंगरोर,जिला इलाहाबाद )पहुंचे ...आगे 2 किलोमीटर पर गंगा जी थीं और यहाँ से सुमंत को राम जी ने वापस कर दिया |
बस यही जगह केवट प्रसंग के लिए प्रसिद्ध है |
इसके बाद यमुना नदी को संगम के निकट पार कर के राम जी चित्रकूट में प्रवेश करते हैं|
वाल्मीकि आश्रम,मंडव्य आश्रम,भारत कूप आज भी इन प्रसंगों की गाथा का गान कर रहे हैं |
भारत मिलाप के बाद राम जी का चित्रकूट से प्रस्थान ,भारत चरण पादुका लेकर अयोध्या जी वापस |
अगला पड़ाव श्री अत्रि मुनि का आश्रम

२.बनवास का द्वितीय चरण दंडक वन(दंडकारन्य)>>>
घने जंगलों और बरसात वाले जीवन को जीते हुए राम जी सीता और लक्षमण सहित सरभंग और सुतीक्षण मुनि के आश्रमों में पहुचते हैं |
नर्मदा और महानदी के अंचल में उन्होंने अपना ज्यादा जीवन बिताया ,पन्ना ,रायपुर,बस्तर और जगदलपुर में
तमाम जंगलों ,झीलों पहाड़ों और नदियों को पारकर राम जी अगस्त्य मुनि के आश्रम नाशिक पहुँचते हैं |
जहाँ उन्हें अगस्त्य मुनि, अग्निशाला में बनाये हुए अपने अशत्र शस्त्र प्रदान करते हैं |

३.वनवास का तृतीय चरण गोदावरी अंचल >>>
अगस्त्य मुनि से मिलन के पश्चात राम जी पंचवटी (पांच वट वृक्षों से घिरा क्षेत्र ) जो आज भी नाशिक में गोदावरी के तट पर है यहाँ अपना निवास स्थान बनाये |यहीं आपने तड़का ,खर और दूषण का वध किया |
यही वो "जनस्थान" है जो वाल्मीकि रामायण में कहा गया है ...आज भी स्थित है नाशिक में
जहाँ मारीच का वध हुआ वह स्थान मृग व्यघेश्वर और बानेश्वर नाम से आज भी मौजूद है नाशिक में |
इसके बाद ही सीता हरण हुआ ....जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पार हुई जो इगतपुरी तालुका नाशिक के ताकीद गाँव में मौजूद है |दूरी ५६ किमी नाशिक से |
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इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया क्यों की यहीं पर मरणसन्न जटायु ने बताया था की सम्राट दशरथ की मृत्यु हो गई है ...और राम जी ने यहाँ जटायु का अंतिम संस्कार कर के पिता और जटायु का श्राद्ध तर्पण किया था |
यद्यपि भारत ने भी अयोध्या में किया था श्राद्ध ,मानस में प्रसंग है "भरत किन्ही दस्गात्र विधाना "
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४.वनवास का चतुर्थ चरण तुंगभद्रा और कावेरी के अंचल में >>>>
सीता की तलाश में राम लक्षमण जटायु मिलन और कबंध बाहुछेद कर के ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढे ....|
रास्ते में पंपा सरोवर के पास शबरी से मुलाकात हुई और नवधा भक्ति से शबरी को मुक्ति मिली |जो आज कल बेलगाँव का सुरेवन का इलाका है और आज भी ये बेर के कटीले वृक्षों के लिए ही प्रसिद्ध है |
चन्दन के जंगलों को पार कर राम जी ऋष्यमूक की ओर बढ़ते हुए हनुमान और सुग्रीव से मिले ,सीता के आभूषण प्राप्त हुए और बाली का वध हुआ ....ये स्थान आज भी कर्णाटक के बेल्लारी के हम्पी में स्थित है |

५.बनवास का पंचम चरण समुद्र का अंचल >>>>
कावेरी नदी के किनारे चलते ,चन्दन के वनों को पार करते कोड्डीकराई पहुचे पर पुनः पुल के निर्माण हेतु रामेश्वर आये जिसके हर प्रमाण छेदुकराई में उपलब्ध है |सागर तट के तीन दिनों तक अन्वेषण और शोध के बाद राम जी ने कोड्डीकराई और छेदुकराई को छोड़ सागर पर पुल निर्माण की सबसे उत्तम स्थिति रामेश्वरम की पाई ....और चौथे दिन इंजिनियर नल और नील ने पुल बंधन का कार्य प्रारम्भ किया |

Thursday, July 26, 2012

मानवीय भावनाओं में प्रेम

मानवीय भावनाओं में प्रेम ( ishq )का दर्ज़ा सबसे ऊंचा बताया गया है। दुनियाभर की संस्कृतियों में जितने तरह के पंथ प्रचलित हैं वे सभी प्रेममार्ग पर चलने की सलाह देते हैं। आमतौर पर प्रेम को स्त्री-पुरुष के संदर्भ में ही जाना-पहचाना जाता है। अपने इस रूप में प्रेम समाज में हमेशा अस्वीकार्य रहा है, विवाद का विषय रहा है, क्योंकि प्रेम का दायरा अत्यंत व्यापक है। ये सारी सृष्टि प्रेमतत्व की वजह से ही जन्मी है और इसके असर से ही कायम है। प्रेम वह रसायन है जो द्वैतभाव को मिटाकर एकत्व के यौगिक रचता है। यह एकत्व ही सृष्टि के विस्तार का मूल भी है। विभिन्न व्याख्याओं में यही बात उभरती है कि प्रेम वह भाव है जिसमें अपने ईष्ट की चाह ...

प्रेम करनेवालों में द्वैतभाव हो नहीं सकता। प्रेम में लगाव के साथ समष्टिभाव है, समभाव है ... में खुद के अस्तित्व को विस्मृत कर देना, विलीन कर देना अनिवार्य है। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन ने देश भर के जनमानस में प्रेम का राग पैदा कर दिया था। इस राग में सूफियाना कलामों की जुगलबंदी शामिल थी।

मनुष्य ने भी प्रेम प्रकृति से ही सीखा है। निसर्ग के कण कण में पल पल चल रहे क्रियाकलापों को उसने देखा और प्रेमतत्व का ज्ञान पाया। सूरज-चांद का उगना-अस्त होना, रात और दिन का होना, कीट-पतिंगों का फूलों और रोशनी से लगाव और लता-वल्लरियों की वृक्षों से जुगलबंदी को उसने समझा और इस तरह जाना प्रेम का अर्थ और उस की पराकाष्ठा। हिन्दी में प्रेम के अर्थ में इश्क-मोहब्बत जैसे शब्द खूब प्रचलित हैं और प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए इनका प्रयोग होता रहा है। ये दोनों शब्द सेमिटिक भाषा परिवार के हैं। इश्क बना है सेमिटिक धातु ‘श्क’ (shq) से जिसमें समर्पण, लगाव,लिपटना, चाहत या प्रेम करना जैसे भाव हैं। सेम की फली से मिलती जुलती एक वल्लरी या बेल होती है जो पेड़ के तने से लिपट कर ऊपर चढ़ती है, जिसे अरबी में आशिका कहते हैं। इस इश्क के दार्शनिक अर्थ अरबी संस्कृति ने यहीं से ग्रहण किए। आशिका जिस पेड़ का आधार लेकर ऊपर बढ़ती है और फलती है,

"…इश्के-हक़ीक़ी में पथ-प्रदर्शक, ईश्वर या गुरु ही माशूक का दर्जा रखते हैं जबकि सांसारिक प्रेम का लक्ष्य सिर्फ कोई प्राणी ही होता है… "बाद में वह सूख जाता है।

मतलब यही है कि प्रेम करनेवालों में द्वैतभाव हो ही नहीं सकता। प्रेम में समष्टिभाव है, समभाव है। दो के बीच लगाव हो सकता है, पर प्रेम की पूर्णता इसी में है कि दोनों में से कोई एक खुद को दूसरे में विलीन कर दे। आशिका से ही बना इश्क जिसके मायने हुए प्रेम। इस प्रेम में दैहिक अनुराग न होकर प्रकृति के साथ समभाव स्थापित करने की बात है।

प्रेम के मूल में प्रकृति का आधार बनना यूं ही नहीं है। आशिका नाम की जिस बेल के नाम में प्रेम के बीज छुपे हैं, अरबी में इसका एक नाम लिब्लाब है जबकि फारसी में इसे इश्क-पेचां कहते हैं। इश्क-पेचां यानी प्रेम की बेल। गौर करें, यहां लक्षणा नहीं बल्कि व्यंजना ही प्रमुख है और तात्पर्य सेमफली की बेल से ही है।

संस्कृत का वल्लरी शब्द ही हिन्दी के बेल शब्द का मूल है। बेल की प्रकृति वलय बनाते हुए ऊपर चढने की होती है। वलय यानी छल्ला, घुमाव, ऐंठन आदि। पेच का मतलब बल भी होता है। यह महज़ संयोग नहीं है कि दानिशमंद आशिको-माशूक को इश्क के पेचो-ख़म से आग़ाह करते रहते हैं। क्योंकि ये इश्क नहीं आसान। ये पेच इसीलिए हैं क्योंकि प्रेम की बेल जब परवान चढ़ती है तो उसमें न जाने कितने घुमाव आते हैं। प्रेम वल्लरी वृक्ष को अपने पाश में पूरी तरह जकड़ते हुए शीर्ष की ओर बढ़ती है। तब वृक्ष को भी अपनी विशालता का गर्व नहीं रहता क्योंकि इश्क (आशिका) सिर चढ़ कर बोल रहा होता है। आखिरकार वृक्ष को अपने अस्तित्व का गुमान छोड़ना पड़ता है। भारतीय साहित्य में भी प्रेम के संदर्भ में आशिका अर्थात वल्लरी की उपमाएं हैं। प्रेम-लता, प्रेम-वल्लरी जैसे शब्द-प्रतीक महज़ यूं ही नहीं आ गए हैं। इसे अरबी प्रभाव भी नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि हिन्दुस्तान में अरबी भाषा के फैलने का समय सातवी-आठवी सदी से शुरू होता है जबकि प्रेम-लता या प्रेम-वल्लरी शब्द संस्कृत साहित्य में पहले से रहे हैं। जाहिर है प्राचीनकाल में मनुष्य का प्रकृति से गहरा तादात्म्य था और अलग-अलग समाजों में इसी वजह से विभिन्न लक्षणों के आधार पर बने शब्दों की अर्थवत्ता भी एक सी रही है। भाषा विज्ञानियों ने इश्क शब्द के भारोपीय संदर्भ भी ढूंढे हैं।भारत हो या अरब, पेड़ पर बेल के चढ़ने का अंदाज़ तो एक ही होगा!!

मीरा बाई का एक पद है- अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बीज बोई।। अब तो बेल फैल गई आणंद फल होई।।
सेमिटिक धातु ‘श्क’ (shq) ही स्थूल अर्थों में प्रेमी के लिए आशिक और प्रेमिका के लिए आशिका शब्दों का मूल है।इसी तरह माशूक और माशूका शब्द भी हैं। आशिक का अर्थ जहां प्रेमी होता है वहीं आशिक का लक्ष्य माशूका है अर्थात प्रेमपात्र के लिए माशूका सम्बोधन है। इसी तरह आशिका के लिए माशूक लक्ष्य है अर्थात प्रेमपात्र है। प्रेम में अपने लक्ष्य को पाने का प्रयत्न और उसकी प्राप्ति अनिवार्य है। सूफ़ी पंथ में इश्क के दार्शनिक अर्थ ही प्रमुख हैं जिसमें दो स्वरूप प्रमुख हैं एक इश्के-मजाज़ी यानी सांसारिक प्रेम, भौतिक प्रेम, प्राणियों से प्रेम। दूसरा, इश्के-हक़ीक़ी यानी आध्यात्मिक प्रेम, परमात्मा की भक्ति। प्रेमियों की भांति बर्ताव ही आशिकाना रुख कहलाता है जबकि प्रेमपात्र की तरह व्यवहार माशूकाना कहलाता है। प्रेमी सब कुछ निछावर करने पर आमादा रहता है फिर भी माशूक के लिए नाज़ो-अंदाज़ और नखरा दिखाना लाज़मी है क्योंकि मंजिल यूं ही हासिल नहीं होतीं। इश्के-हक़ीक़ी में पथ-प्रदर्शक, ईश्वर या गुरु ही माशूक का दर्जा रखते हैं जबकि सांसारिक प्रेम का लक्ष्य सिर्फ कोई प्राणी ही होता है।
कबीर ने अपनी बानी में प्रेम-गली की बात कही है। महान शायर इब्ने-इंशा ताउम्र चांद पर फिदा होकर कभी चांदनगर और कभी प्रेमनगर की बात करते रहे। प्रेमीजन अक्सर प्रेमनगर की कल्पना करते हैं जहां वे प्यार के नग़में गाते रहें। तुर्कमेनिस्तान की राजधानी अश्काबाद है जिसे वहां के लोग इश्काबाद [अर्थात प्रेमनगर] से बना हुआ मानते हैं मगर भाषाविज्ञानियों और इतिहासकारों ने उनके इस खूबसूरत से भरम को तोड़त हुए साबित किया कि राजधानी का नाम अश्काबाद इश्क से नहीं बल्कि हैलेनिक दौर के शासक अर्शक (ग्रीक अर्सेसस) के नाम से बना है जो ईसा से दो सदी पहले इस क्षेत्र का शासक था।
--- गौरी राय 

शिखा - हिंदुत्व की पहचान

अग्नि का नाम 'शिखी' है । शिखी उसको कहा जाता है, जिसकी शिखा हो-'शिखा यस्यास्तीति स शिखी'। वह धूमशिखावाला अग्नि हमारा इष्टदेव है-'अग्निर्देवो द्विजातीनम्'। अतः शिखा हमारे इष्टदेव (अग्नि) का प्रतीक
है ।
* शिखा काटने से मनुष्य मरे हुए के समान हो जाता है और अपने धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । प्राचीनकाल मेँ किसी की शिखा काट देना मृत्युदण्ड के समान माना जाता था । धर्म के साथ शिखा का अटूट सम्बन्ध है । इसलिए शिखा काटने पर मनुष्य धर्मच्युत हो जाता है । बड़े दुःखकी बात है आज हिन्दूलोग मुसलमानोँ-ईसाईयोँ के प्रभाव मेँ आकर अपने हाथोँ अपनी शिखा काट रहे हैँ ! खुद अपने धर्म का नाश कर रहे हैँ ! यह हमारी गुलामी की पहचान है । भगवान
ने गीतामेँ कहा है-
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥ (गीता १६ । २३-२४)
'जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि (अन्तःकरणकी शुद्धि) को, न सुख (शान्ति) को और न परमगति को प्राप्त होता है ।' 'अतः तेरे लिए कर्तव्य-अकर्तव्यकी व्यवस्थामेँ शास्त्र ही प्रमाण है-ऐसा जानकर तू इस लोक मेँ शास्त्रविधिसे नियत कर्तव्य-कर्म करनेयोग्य है अर्थात तुझे शास्त्रविधि के अनुसार कर्तव्यकर्म करने चाहिए ।'
चोटी रखना शास्त्र का विधान है । चाहे सुख मिले या दुःख मिले, हमेँ तो शास्त्रके विधानके अनुसार चलना है । भगवान जो कहते हैँ, सन्त-महापुरुष जो कहते हैँ, शास्त्र जो कहते हैँ, उसके अनुसार चलनेमेँ ही हमारा वास्तविक
हित है । भगवान और उनके भक्त -ये दोनोँ ही निःस्वार्थभावसे सबका हितकरनेवाले हैँ-
हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥ (मानस, उत्तर॰ ४७ । ३)
इसलिए इनकी आज्ञा के अनुसार चलनेवाला लोक और परलोक दोनोँमेँ सुख पाता है।..
* जिन्होँने अपनी उन्नति कर ली है, जिनका विवेक विकसित हो चुका है, जिनको तत्त्व की प्राप्ति हो गयी है, ऐसे सन्त-महात्माओँकी बात मान लेनी चाहिए; क्योँकि उनकी बुद्धिका नतीजा अच्छा हुआ है । उनकी बात माननेमेँ ही हमारा लाभ है । अपनी बुद्धि से अबतक हमने कितनी उन्नति की है? क्या तत्त्वकी प्राप्ति कर ली है? इसलिए भगवान, शास्त्र और संतोँकी बात मानकर शिखा धारण कर लेनी चाहिए । अगर उनकी बात समझमेँ न आये तो भी मान लेनी चाहिए । हमने आजतक अपनी समझसे काम किया तो कितना लाभ लिया? जैसे, किसी ने व्यापार मेँ बहुत धन कमाया हो तो वह जैसा कहे, वैसा ही हम करेँगे तो हमेँ भी लाभ होगा। उनको लाभ हुआ है तो हमेँ लाभ क्योँ नहीँ होगा? ऐसे ही जिन सन्त-महात्माओँने परमात्मप्राप्ति कर ली है; अशान्ति, दुःख, सन्ताप आदिको मिटा दिया, उनकी बात मानेँगे तो हमारे को भी अवश्य लाभ होगा ।
एक चोटी रखनेसे आपका क्या नुकसान होता है?
आपको क्या दोष लगता है? क्या पाप लगता है? आपके जीवन मेँ क्या अड़चन आती है? चोटी रखनेकी जो परंपरा सदा से थी, उसका त्याग आपने किसके कहने से कर दिया? किस सन्तके कहने से, किस पुराणके कहने से, किस शास्त्रकी आज्ञा से, किस वेदकी आज्ञासे आपने चोटी रखन छोड़ दिया?
चोटी रखना बहुत सुगम काम है, पर आपके लिए कठिन हो रहा है; क्योँकि आपने उसको छोड़ दिया है । यह बात आपकी पीढ़ियोँ से है । आपके बाप, दादा, परदादा आदि सब परम्परा से चोटी रखते आये हैँ, पर अब आपने इसका त्याग कर दिया, इसलिए अब आपको चोटी रखनेमेँ कठिनता हो रही है । विचार करेँ, चोटी रखना छोड़ देनेसे आपको क्या लाभ हुआ? और अब आप चोटी रख लेँ तो क्या नुकसान होगा? चोटी रखने से आपको पैसोँकी हानि होती हो, धर्मकी हानि होती हो, स्वास्थ्यकी हानी होती हो, आपको बड़ा भारी दुःख मिलता हो तो बतायेँ ! चोटी न रखने से लाभ तो कोई-सा भी नहीँ है, पर हानि बड़ी भारी है ! चोटी के बिना आपका देवपूजन तथा श्राद्ध-तर्पण निष्फल हो जाता है, आपके दान-पुण्य आदि सब शुभकर्म निष्फल हो जाते हैँ । इसलिए चोटी को मामुली समझकर इसकी उपेक्षा न करेँ ।
पहले सब लोग चोटी रखते थे । चोटी के बिना कोई आदमी नहीँ दीखता था । पर
हमारे देखते-देखते थोड़े वर्षोँमेँ आदमी शिखारहित हो गये । अब प्रायः लोगोँ की शिखा नहीँ दीखती । शिखा और सूत्र (जनेऊ) का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । आश्चर्य की बात है कि आज ऐसे लोग भी हैँ; जिनका सूत्र तो है, पर शिखा नहीँ है ! यह कितने पतन की बात है ! अगर यही दशा रही तो आगे आपको कौन कहेगा कि चोटी रखो? और क्योँ कहेगा? कहनेसे उसको क्या लाभ?
शिखा हिन्दुत्वकी पहचान है । यह आपकी जाति की रक्षा करनेवाली है । जनेऊ तो सबके लिए नहीँ है, केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए है, पर शिखा हिन्दूमात्र के लिए है । चाहे द्विजाति हो, चाहे अन्त्यज हो, शिखा सबके लिए है । जैसे मुसलमानोँ के लिए सुन्नत है, ऐसे ही हिन्दुओँ के लिए शिखा है । सुन्नत के बिना कोई मुसलमान नहीँ मिलेगा, पर शिखा के बिना आज हिन्दुओँका समुदाय-का-समुदाय मिल जायगा । मुसलमान और ईसाई बड़े जोरोँ से अपने धर्म का प्रचार कर रहे हैँ और हिन्दुओँ का धर्म-परिवर्तन करनेकी नयी-नयी योजनाएँ बना रहे हैँ । आपने अपनी चोटी कटवाकर उनके प्रचार-कार्य को सुगम बना दिया है ! इसलिए समय रहते हिन्दुओँ को सावधान हो जाना चाहिए।  मुसलमान अपने धर्म का प्रचार मूर्खता से करते हैँ और ईसाई बुद्धिमत्ता से । मुसलमान तो तलवार के जोरसे जबर्दस्ती धर्मपरिवर्तन करते हैँ, पर ईसाई बाहर से सेवा करके भीतर-ही-भीतर (गुप्त रीतिसे) धर्म-परिवर्तन करते हैँ । वे स्कूल खोलते हैँ और बालकोँ पर अपने धर्मके संस्कार डालते हैँ । इसीका परिणाम है कि घर बैठे-बैठे हिन्दुओँने अपनी चोटीका त्याग कर दिया । इस काममेँ ईसाई सफल हो गये ! मुसलमानोँ और ईसाइयोँका उद्देश्य मनुष्यमात्र का कल्याण करना नहीँ है, प्रत्युत अपनी संख्या बढ़ाना है, जिससे उनका राज्य हो जाय । कलियुगका प्रभाव प्रतिवर्ष, प्रतिमास, प्रतिदिन जोरोँसे बढ़ रहा है । लोगोँकी बुद्धि भ्रष्ट हो रही है । मनुष्यमात्र का कल्याण चाहनेवाली हिन्दू-संस्कृति नष्ट हो रही है । हिन्दू स्वयं ही अपनीसंस्कृति का नाश करेँगे तो रक्षा कौन करेगा?...
 आश्चर्यकी बात है कि व्यापार आदिमेँ बेईमानी, झूठ-कपट करनेमेँ शर्म नही, गर्भपात आदि पाप करनेमेँ शर्म नहीँ आती, चोरी, विश्वासघात आदि करते समय शर्म नहीँ आती, पर चोटी रखनेमेँ शर्म आती है ! आपकी शर्म ठीक है या भगवान और संतो की बात मानना, उनको प्रसन्न करना ठीक है? आप चोटी रखो तो आरम्भमेँ शर्म आयेगी, पर पीछे सब ठीक हो जायेगा ।...
लोग हँसी उड़ायेँ, पागल कहेँ तो उसको सह लो, पर धर्मका त्याग मत करो । आपका धर्म आपके साथ चलेगा, हँसी-दिल्लगी आपके साथ नहीँ चलेगी । लोगोँकी हँसी से आप डरो मत । लोग पहले हँसी उड़ायेँगे, पर बादमेँ आदर करने लगेँगे कि यह अपने धर्म का पक्का आदमी है ।. अतः उनकी हँसी की परवाह न करके अपने धर्मका पालन करना चाहिए ।
न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मँ त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः ।
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥
(महाभारत, स्वर्गा॰ ५।६३)
'कामनासे, भयसे, लोभसे अथवा प्राण बचाने के लिये भी धर्मका त्याग न करे । धर्म नित्य है और सुख-दु:ख अनित्य हैँ । इसी प्रकार जीवात्मा नित्य है और उसके बन्धनका हेतु (राग) अनित्य है ।'
शिखा का स्थान मेरुशीर्ष पर है| योगियों के अनुसार ब्रम्हांडीय ऊर्जा देह में यहीं से प्रवेश करती है| आज्ञा चक्र पर ध्यान करते हुए अनाहत और विशुद्धी चक्र के बीच के स्थान के सामने हथेलियों का घर्षण करने से आप की अन्गुलियों में एक ऊर्जा एकत्र हो जाती है जिसे आप किसी के भी कल्याण के लिए प्रेषित कर सकते हो| उपहास में लोग शिखा को Antenna या Aerial कह कर चिढ़ाते हैं जो वास्तव में सत्य ही है| और भी बहुत सारी बातें हैं शिखा के महत्व पर जो अभी समयाभाव में लिख नहीं सकता| आज से पचास वर्ष पूर्व तक चीन में सब लोग शिखा रखते थे| मैंने चार बार चीन की यात्रा की हैं| वहाँ के प्राचीन चित्रों में सभी शिखाधारी हैं| जब आप नमस्कार य प्रणाम करते हो या अभय मुद्रा में हाथ उठाते हो तो अपनी ऊर्जा का सम्प्रेषण करते हो | यह ऊर्जा मेरु शीर्ष (Medulla oblongata) से ही प्रवेश करती है|
---  श्री भारद्वाज भारद्वाज

प्रार्थना

प्रार्थना सभी करते हैं। उसमें ईश्वर से कुछ माँगते और याचना भी करते हैं। किन्हीं लोगों की प्रार्थना अथवा याचना फलीभूत होती है और किन्हीं को सर्वथा निराश ही होना पड़ता है।
डॉ. कैरेला जिस किसी भी रोगी का उपचार करते, कहते थे- प्रार्थना करो, सच्चे मन से प्रार्थना करो, अपनी भूलों के लिए प्रायश्चित और भविष्य में निर्मल जीवन जीने की प्रतिज्ञा के साथ यदि प्रार्थना करोगे तो यह अवश्य सुनी जाएगी, सच्चा इलाज तो प्रार्थना है और जो सच्चे हृदय से प्रार्थना करेगा वह शारीरिक ही नहीं, आंतरिक रोगों से भी छुटकारा पा जाएगा।
सच्ची प्रार्थना अपनी आत्मा को परमात्मा का प्रतीक मानकर स्वयं को समझाना है कि वह अपने में ऐसी पात्रता विकसित करे, जिससे आवश्यक विभूतियाँ उसकी योग्यता के अनुरूप सहज ही मिल सकें।
वर्षा होती है। पहाड़ों, मैदानों और सरोवरों में बिना किसी भेदभाव के बादल पानी बरसाते हैं, पर पहाड़ की चोटियों पर पानी नहीं ठहरता, मैदानों पर बह जाता है और सूख भी जाता है। लेकिन नदियाँ-सरोवर और गड्ढे, कुएँ पानी से भर जाते हैं, क्योंकि उनमें यह रिक्तता-पात्रता विद्यमान रहती है, जिसमें कि पानी ठहर सके।
प्रार्थना मनुष्य का संपर्क विश्वव्यापी महानता के साथ बढ़ाती है। सच्चे मन से की गई प्रार्थना का परिणाम आदर्शों के रूप में, भगवान की दिव्य अभिव्यक्ति के रूप में होता है। उसके साथ जुड़ जाने से प्रतीत होता है कि अपने दुःख-क्लेशों का हेतु कोई और नहीं अपनी ही तमसाछन्न मनोभूमि है, जिसमें अज्ञान और आलस्य ने जड़ें जमा ली हैं।
अंतःशक्ति को जगाने वाली एक भी किरण अंतः ज्योति को जग सके तो इस अंधकार को सहज ही मिटाने में मदद मिल सकती है, जिसमें पग-पग पर ठोकरें लगती हैं और उनसे शोक-संताप उत्पन्न होता है।
उस स्थिति में यह अंतःप्रकाश उत्पन्न होता है, परमेश्वर यों साक्षी, दृष्टा, नियामक, उत्पादक, संचालक सब कुछ है, पर उसके जिस अंश की हम उपासना करते हैं या प्रार्थना करते हैं, वह सर्वात्मा है और पवित्र आत्मा है। अहंकार को खोकर समर्पण की नम्रता स्वीकार करना और उद्धृत मनोविकारों को ठुकराकर परमेश्वर का नेतृत्व स्वीकार करने का नाम प्रार्थना है।
जब मन दुर्बल हो रहा हो, मनोविकार बढ़ रहे हों और लगता हो कि पैर अब फिसला, तब फिसला तो सच्चे मन से परमात्मा को पुकारना चाहिए। गज को ग्राह के चंगुल से छुड़ाने वाले भगवान, पतन से परित्राण पाने के लिए व्याकुल आर्तभक्त की पुकार को अनसुनी नहीं करते हैं और उस मनोबल के रूप में अंतःकरण में उतरते हैं, जिसे गरूड़ कहा जा सकता है तथा जो पतनोन्मुख दुष्प्रवृत्तियों के सर्पों को उदरस्थ करने का अभ्यासी है भी।
जो कुछ प्राप्त है उसके लिए परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता और धन्यवाद के बोध से भरकर परमात्म से आत्मबल, मनोबल, आत्मबोध के ही दिव्य वरदान की माँग की जाए।
सर्वतोभावेन परमात्मा के प्रति समर्पित भक्त का योगक्षेम वहन करने की प्रतिज्ञा भगवान ने स्वयं की है, पर उस शर्त को भी पूरा किया जाना चाहिए, जो पात्रता विकसित करने, हृदय की वासनाओं और तृष्णाओं से रिक्त करने के रूप में जुड़ी हुई हैं।
---  श्री कमल अग्रवाल

A Water Harvesting


Harvesting System
Broadly rainwater can be harvested for two purposes
Storing rainwater for ready use in containers above or below ground
Charged into the soil for withdrawal later (groundwater recharging)

From where to harvest rain

Rainwater harvesting can be harvested from the following surfaces:
Rooftops: If buildings with impervious roofs are already in place, the catchment area is effectively available free of charge and they provide a supply at the point of consumption.
Paved and unpaved areas i.e., landscapes, open fields, parks, stormwater drains, roads and pavements and other open areas can be effectively used to harvest the runoff. The main advantage in using ground as collecting surface is that water can be collected from a larger area. This is particularly advantageous in areas of low rainfall.

Waterbodies: The potential of lakes, tanks and ponds to store rainwater is immense. The harvested rainwater can not only be used to meet water requirements of the city, it also recharges groundwater aquifers.
Stormwater drains: Most of the residential colonies have proper network of stormwater drains. If maintained neatly, these offer a simple and cost effective means for harvesting rainwater.

Whether to store rainwater or use it for recharge:
The decision whether to store or recharge water depends on the rainfall pattern and the potential to do so, in a particular region. The sub-surface geology also plays an important role in making this decision.

For example, Delhi, Rajasthan and Gujarat where the total annual rainfall occurs during 3 or 4 months, are examples of places where groundwater recharge is usually practiced. In places like Kerala, Mizoram, Tamil Nadu and Bangalore where rain falls throughout the year barring a few dry periods, one can depend on a small sized tank for storing rainwater, since the period between two spells of rain is short. Wherever sub-strata is impermeable recharging will not be feasible. Hence, it would be ideal to opt for storage.

In places where the groundwater is saline or not of potable standards, the alternate system could be that of storing rainwater.

Beyond generalisations, it is the requirement that governs the choice of water harvesting technique. For example, in Ahemadabad, which has limited number of rainy days as that of Delhi, traditional rainwater harvesting tanks, known as tankas, are used to store rainwater even today in residential areas, temples and hotels.

Source: A Water Harvesting Manual For Urban Areas

LING

“Lingam” is one of the most misunderstood motifsof Hinduism. It has been subject to such a bad smear campaigning by Westerners, especially missionaries, which even Merriam-Webster dictionary defines it as a stylized phallic symbol. The expression ‘linga’ in the Agama context signifies ‘symbol’ (chinha). Derived from the root ‘ligi gatyau’, it refers to movement, and words having been movement as their etymological meaning have also connotations of knowledge (‘sarve gatyarthah jnanarthah’). Linga therefore means that by which the Divine is cognized or approached (‘lingyate jnayate anena iti lingam’).

The Agama texts also bring out another valid explanation for the word ‘linga’: linga in its primary sense is broken up into ‘ling’ (to dissolve, to get merged, to destroy) and ‘ga’ (to emerge, to go out). Linga is so called because all phenomena are dissolved in Siva at the time of cosmic dissolution, and it emerges from Siva once again at the time of creation. (Ajitagama, 3, 16-17).

Thus Shiva Linga represents the mark of the cosmos.

Swami Vivekananda gave by far the best rebuttal to Western claims that it might be a symbol of phallic worship, by giving proof from the vedas.

Swami Vivekananda gave a lecture at the Paris Congress of the History of Religions in 1900 during which he refuted the statements of some Western scholars that referred to Shiva linga as phallic worship. Vivekananda’s words at the congress were in connection with the paper read by Mr.Gustav Oppert, a German Orientalist, who tried to trace the origin of the Shalagrama-Shila and the Shiva-Linga to phallicism. To this Vivekananda objected, adducing proof from the Vedas, and particularly the Atharva-Veda Samhita, to the effect that the Shiva-Linga had its origin in the idea of the Yupa-Stambha or Skambha—the sacrificial post, idealized in Vedic ritual as the symbol of the Eternal Brahman.
Swami Sivananda, also explains why equating Siva Lingam with the phallus is a mistake. According to him, “This is not only a serious mistake, but also a grave blunder. In the post-Vedic period, the Linga became symbolical of the generative power of the Lord Siva. Linga is the differentiating mark. It is certainly not the sex-mark. You will find in the Linga

Purana:
“Pradhanam prakritir yadahur-lingamuttamam; Gandhavarnarasairhinam sabda-sparsadi-varjitam”—The foremost Linga which is primary and is devoid of smell, colour, taste, hearing, touch, etc., is spoken of as Prakriti (Nature).”
Bana lingam (One kind of Shiva linga )The Bana Lingam is a most Sacred Symbol and Divine Energy Tool, both in the ancient and in this modern world. The Bana Lingas are Swayambhu Shiva Lingas that have taken shape in the Sacred Narmada River, in the Central Western part of India. This is why the Bana Lingams are also known as the Narmada Banalingas or Narmadeshwar Shiva Lingas.The Narmadha Bana Lingas became very famous throughout the world, after the film “Indiana Jones and the Temple of Doom” was screened : this is the very same Sacred Stone that they were searching for .The story:There is a story narrated in Aparajita-pariprchchha (205, 1-26) about the origin of the bana-lingas and their association with the Narmada river. Siva wanted to destroy the ‘tri-pura’, which had been obtained as a boon by the arrogant demon Banasura, and he let go a fiery dart from his great bow ‘pinaka’. The dart broke the three ‘puras’ into tiny bits, which fell on three spots:1, on the hills in Sri-kshetra (of unknown identity),2, on the peaks of Amarakantaka in the Vindhya ranges, and3, on the banks of the holy river Narmada. The bits that fell in these places soon multiplied into crores,. each bit becoming a linga. As they formed part of the possession of Banasura, they were called Bana-Lingas.

Science:It is the considered view of many researchers and geologists that the unique composition of the Narmadha Shiva Lingas was due to the impregnation of it’s rocky river-sides and the rocks in the river bed, 14 million years ago by a large meteorite that crashed into the Narmada River. The fusion of the Meteorite and the Earthly Minerals has spawned a new and unique type of Crystalline Rock with extraordinary energetic qualities – the Narmada Bana Lingam. The bana Lingas contain Crypto Crystalline Quartz (masses made up of either fibrous or granular aggregates of tiny, microscopic Quartz Crystals) and a Gemstone material called Chalcedony (with an iron oxide and geothite inclusion) alongwith Basalt and Agate – this unique composition coupled with elliptical shape has a precise resonance in alignment with our Energy Centers or Chakras and are used for thousands of years as Divine Energy Generators for Cleansing, Healing and for Meditation. The Narmada Bana Lingas are quite strong and the hardness is a 7 on the Moe’s Scale, one of the highest frequency vibration rates of all stones on earth. The vibration of bana linga is said to be perfect for purification purpose.

Thus Matsya-Purana (Chap. 165-169), truly said drinking the water from this river (Narmada) and worshipping Siva (Bana Lingam) will secure freedom from all states of misery




Courtesy ::Global Hinduism

સ્વ. મોહમ્મદ રફી સાહેબ

"વો જબ યાદ આયે, બહોત યાદ આયે" -- પારસમણી 
          ૧૯૨૪ ના ડીસેમ્બર ની ૨૪ મી એ પંજાબ ના અમૃતસર જીલ્લા માં કોટલા સુલ્તાનપુર જે અત્યારે પાકિસ્તાન માં છે, ત્યાં હાજી મહંમદ અને અલ્લારખી નામના માધ્યમ વર્ગી મુસ્લિમ દંપત્તિ ને ત્યાં છઠ્ઠા સંતાન રૂપે મહંમદ રફી સાહેબ નો જન્મ થયો.
"આસમાન સે આયા ફરિસ્તા" -- એન ઇવનિંગ ઇન પેરીસ 

          ગળામાં મધ જેવી મીઠાશ અને સાથે તદ્દન કુમળી વયથી જેને સંગીત નું ઘેલું લાગેલું હોય એવું ઘરમાં એકમાત્ર સંતાન. બાળપણથી ભણવા કરતા ગાવામાં વધારે રસ આખો દિવસ પંજાબી લોકગીત, ભજન, કીર્તન, ગાવાનું અને ફકીરોને સાંભળવું, આને કારણે માં-બાપને એની ચિંતા થવી સ્વાભાવિક છે.
"મન રે તું કહે ના ધીર ધરે"..  ચિત્રલેખા 

          પણ મોટાભાઈ હમીદખાન ને નાનકડા રફી માટે બહુ પ્રેમ, આને એટલેજ એકવાર લાહોરમાં એક જલસા માં તે વખતના સર્વશ્રેષ્ઠ ગાયક આને અભિનેતા શ્રી કુંદનલાલ સાયગલ આવવાના હતા જે સંજોગવસાત મોડા પડવાથી ભીડ બેકાબુ બની લાગ જોઇને મોટાભાઈએ આયોજકોને ખુબ કરગરી, વિનંતી કરીને નાનાભાઈ રફીને ગાવા સતેજ પર ચડાવી દીધો આને જેવું રફીએ ગાવાનું શરુ કર્યું ભીડ શાંત થઇ ગઈ.
"સાઝ હો તુમ આવાઝ હું .." -- સાઝ ઔર આવાઝ 

          સાયગલ સાહેબ આવ્યા ત્યારે એમને નાનકડા રફીનો મીઠો કંઠ સાંભળ્યો અને એનામાં રહેલો આત્મવિશ્વાસ જોઈ તેઓ મુગ્ધ થયા વગર રહી ના શક્યા અને આયોજકોને કહ્યું 'ઉસે ગાને દો અચ્છા ગાતા હૈ'

          રફી સાહેબને સંગીતની તાલીમ એ જમાના ના ધુરંધર સંગીતજ્ઞો - ઉસ્તાદ અબ્દુલ વહીદ્ખાન, બડે ગુલામ અલી ખાન અને  પંડિત જીવનલાલ મટટુ પાસેથી મળી.
"બિન ગુરુ જ્ઞાન કહાંસે પાઉં".. બીજું બાવરા 

          ૧૯૪૧ માં પંજાબી ફિલ્મ - 'ગુલબલોચ' માં સંગીતકાર શ્યામસુંદરે એમને ગવડાવ્યું જેમાં હીરો તરીકે પ્રાણ સાહેબ હતા. ૧૯૪૪ માં ફરી સંગીતકાર શ્યામસુંદરે હિન્દી ફિલ્મ  'ગાવ કી ગોરી' માં રફી સાહેબને ગાવાની તક આપી.
"જંગલ મેં મોર નાચા કીસીને નાં દેખા" - મધુમતી 

          રફી સાહેબ મોટાભાઈ સાથે સંગીતકાર નૌશાદજી પાસે એક ઓળખીતાની ભલામણ ચિઠ્ઠી  લઇ મુંબઈ આવ્યા. નૌશાદજી એ એમને 'પેહ્લે આપ' ફિલ્મ માં કોરસ તરીકે ગવડાવ્યું અને પછી, -- 'શાહજહાન' ફિલ્મ માં 'કે એલ સાયગલ' સાથે એક લીટી ગાવાની તક આપી, અને પછીથી રચાયો આખો ઈતિહાસ... 
"હૈ દુનિયા ઉસીકી ઝમાના ઉસીકા" - ચૌદહવી ક ચાંદ 

          રફી સાહેબમાં રેંજ, મધુરતા, બુલંદી અને ગીતના ભાવોને જીવંત કરવાની અજોડ શક્તિ હતી. રેંજ એટલે હારમોનીઅમ ની ડાબી બાજુની પહેલી પટ્ટી થી જમણી બાજુની છેલ્લી પટ્ટી સુધી ગાવાની શક્તિ.
"નફરત કી દુનિયા કો છોડ કે "  -- હાથી મેરે સાથી 
"ઓ દુનિયા કે રખવાલે.." -- બીજું બાવરા 

          ૧૯૫૦ થી ૧૯૭૦ ના દાયકાના તમામ અભિનેતા, ચરિત્ર અભિનેતા, કોમેડિયન વિગેરે માટે રફીસાહેબે ગયું અને એવી રીતે ગયું જેમાં આપણને પડદા પરનો કલાકારજ યાદ રહે. કહો કે ત્રણ સાડા ત્રણ દાયકાના તમામ ફિલ્મી અદાકારો માટે ગાયું
  • ગુરુદત્ત               --  એ દુનિયા અગર મીલભી જાયે તો .. (પ્યાસા)
  • દિલીપકુમાર       --  મધુવન મેં રાધિકા નાચે રે  (કોહીનુર)
  • દેવ આનંદ         --  તેરી ઝુલ્ફો સે  .. (જબ પ્યાર કિસી સે હોતા હૈ)
  • રાજેન્દ્ર કુમાર      --  ઐ ફૂલો કી રાની બહારો કી મલકા (આરઝુ)
  • જ્હોની લીવર      --  તેલ માલીશ ચાંપી માલીશ (પ્યાસા)
  • શશી કપૂર           --  પર્દેશીયો સે ના અખીયા (જબ જબ ફૂલ ખીલે)
  • શમ્મી કપૂર         --  યાહુ.... ચાહે કોઈ મુઝે જંગલી કહે .. (જંગલી)
  • સંજીવ કુમાર       --  ખિલૌના જાન કર તુમ તો (ખિલૌના)
  • જીતેન્દ્ર                 --  મસ્ત બહારો કા મેં આશિક (ફર્ઝ)
  • રાજેશ ખાનના     --  બિંદીયા ચમકેગી (દો રાસ્તે)
  • ઋષિ કપૂર            -- ક્યા હુઆ તેરા વાદા (હમ કિસી સે કામ નહિ)
  • અમિતાભ બચ્ચન -- તેરી બિંદીયા રે (અભિમાન)
          એમના ગીતો માં વૈવિધ્ય જોઈએ તો પ્રેમનું ગીત, પારિવારિક સંબંધોનું ગીત, દેશભક્તિ ગીત, ગઝલ, કન્યા વિધાય, ભક્તિ ગીત કે કવ્વાલી હોય રફી સાહેબ એ ગાય ત્યારે શબ્દોની સ્પષ્ટતા, ઉચ્ચાર, ગીતોનો ભાવ, જે કલાકાર પર ફિલ્માવવાનું હોય એનું વ્યક્તિત્વ અને ગીત રજુ થતું હોય એ પ્રસંગ બધું બરાબર રહું થાય. કલ્યાણજી ભાઈએ તો રફી સાહેબને હરફન મૌલા કહ્યા હતા 
  • "આપ યુ અગર હમ સે મિલતે રહે.."    એક મુસાફિર એક હસીના
  • "ચૌદહવી કા ચાંદ હો.. "   ચૌદહવી કા ચાંદ
  • "કર ચાલે હમ ફિદા....."  હકીકત 
  • "બાબુલ કી દુઆએ લેતી જા...."    નીલકમલ
  • "મન મોહન મન મેં..."    કૈસે કહું 
  • "પરદા હૈ પરદા....."    અમર અકબર એન્થોની 
          રફી સાહેબ ને એમની કારકિર્દી દરમિયાન બે રાષ્ટ્રીય એવોર્ડ, છ ફિલ્મફેર એવોર્ડને ભારત સરકાર તરફ્થી પદ્મશ્રી નો ખિતાબ મળ્યો, આંતરરાષ્ટ્રીય એવોર્ડ માં તો દુનિયાના કોઈ પણ પ્લેબેક સીન્ગરને ન મળ્યું હોય એવું દુર્લભ બહુમાન રફી સાહેબને ૧૯૪૯ ની ફિલ્મ "દુલારી" માં સંગીતકાર નૌશાદ માટે ગાયેલું ગીત "સુહાની રાત ઢાળ ચુકી, ના જાને તુમ કબ આઓગે"  જે પાપુઆ ન્યુગીની નામના નાનકડા દેશના રાષ્ટ્રીય ગીતો માં સ્થાન પામ્યું છે.    
"સુહાની રાત ઢાળ ચુકી.."  -- દુલારી 

          ઓછામાં ઓછા અડધો ડઝન સંગીતકારોએ પોતાની કારકિર્દીમાં સફળતાનો આરંભ જ રફીસાહેબ થી કરેલો.
  1. શંકર જયકિશન ---  નામ નહિ કોઈ ધામ નહિ  --- આનબાન
  2. મદન મોહન ---- તેરી આંખો કે સિવા......   ચિરાગ 
  3. રવિ   --- તેરી જવાની તપતા મહિના...  અમાનત 
  4. કલ્યાણજી આનંદજી  -- મેરે મિતવા.....   ગીત 
  5. ઉષા ખન્ના   ---  દિલ દેકે દેખો....  દિલ દેકે દેખો 
  6. લક્ષમીકાંત પ્યારેલાલ --- સલામત રહો.....  પારસમણી 
  7. આર. ડી. બર્મન ---  મતવાલી આંખો વાલે.....  છોત નવાબ   
          એમણે લગભગ અઢીસો બિન ફિલ્મી ગીતો પણ ગયેલા, જેમાં ગઝલ, ભજન, દેશ ભક્તિ ગીતો ઉપરાંત ૧૬ જેટલી ભારતીય ભાષાઓ માં ફિલ્મી તેમજ નોન ફિલ્મી ગીતો ગયા હતા.
ગુજરાતી માં  આ બે ગઝલ  -- 
 "દિવસો જુદાઈ ના જાય છે.." અને  "કહું છું જવાની ને પાછી ફરી જ..." તો અત્યંત લોકપ્રિય થયેલી.

          એમણે કારકિર્દી નું અને આવરદા નું અંતિમ ગીત તા ૨૮ જુલાઈ ૧૯૮૦ ના દિવસે ફિલ્મ "આસપાસ" માટે ગાયું.     "ઝીન્દ્દગી તો બેવફા હૈ....." મુકદ્દર કા સિકંદર   તા. ૩૧ જુલાઈ ૧૯૮૦ ના દિને તેઓએ અંતિમ શ્વાસ લીધા અને આ ફાની દુનિયા છોડી એક ફરીસ્તો સ્વધામ સીધાવ્યો.
એમના ગયેલા અન્યો ગીતો ની એક ઝલક માણીએ 
  • એક સવાલ મેઈન કરું ...  સસુરાલ 
  • અકેલે અકેલે કહા જા રહે હો.... એન ઇવનિંગ ઇન પેરીસ 
  • યુ તો હમને લાખ હસીન...   તુમસા નહિ દેખા 
  • બાર બાર દેખો ....  ચાઈના ટાઉન 
  • જીંદગી ભર નહિ ભૂલેગી....  બરસાત કી રાત 
  • દોનો ને કિયા થા પ્યાર...    મહુઆ 
  • નૈન લડ ગઈ હૈ.....   ગંગા જમુના 
  • તુ કહા એ બતા.....   તેરે ઘર કે સામને 
  •  યાદ ના જાયે બીતે દિનો કી ..  દિલ એક મંદિર 
  • ક્યા સે ક્યા હો ગયા ...  ગાઈડ 
  • હુઈ શામ ઉનકા ખયાલ ...  મેરે હમદમ મેરે દોસ્ત 
  • સુખ કે સબ સાથી .....  ગોપી 
  • દુનિયા ના ભાયે મોહે .....  બસંત બહાર   
તો આજે એમની ૩૨ મી પુણ્યતિથી એ એમનાજ એક ગીત દ્વારા યાદ કરી અહી વિરમીએ 
"તુમ મુઝે યુ ભૂલા ના પાઓગે......"    પગલાં કહીં કા 
------------  શ્રી  રાહુલ મહીપતરામ પંડ્યા

Wednesday, July 25, 2012

गोस्वामी तुलसीदास मानव जीवन के पारखी थे,

सच्चे इतिहासकार,कुशल राजनीतिज्ञ और विचारों के सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषक भी थे । जिस समय उनका आविर्भाव हुआ,भारतीय जन-जीवन क्षत-विक्षत हो चुका था । मानवीय विचारधाराओं का संगम साहित्य लुप्तप्राय हो चुका था । भारत मे एक विदेशी सत्ता-मुगल साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी । धन-वैभव मेमुगल शासक भोग-विलास मे लिप्त रहते थे । दूसरी ओर भारतीय दर्शन मृतप्राय हो चुका था । निर्गुणोपासक निराकार सर्वव्याप्त ईश्वर -प्रचार मे निमग्न थे,तो वैष्णव कर्मकाण्ड और आडंबर का राग आलाप रहे थे । ऐसे विषम समय मे तुलसीदास ने 'रामचरितमानस'की रचना करके समाज,धर्म और राष्ट्र मे एक नूतन क्रांति की सृष्टि कर दी ।
रामचरितमानस कोई नरकाव्य नहीं है । यह कोई छोटा-मोटा ग्रन्थ नहीं है । यह मानव जीवन का विज्ञान(ह्यूमन साइन्स )है । विज्ञान किसी भी विषयके क्रमबद्ध एवं नियमबद्ध (श्रंखलाबद्ध) अध्ययन का नाम है । इसमे मानव-जीवन के आचार-विचार,रहन-सहन,परिवार,राज्य और राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों पर विशद,गूढ एवं व्यापक प्रकाश डाला गया है । गोस्वामी जी ने इस ग्रन्थ की रचना 'सर्वजन हिताय' कीहै । किसी भी लेखक या साहित्यकार पर सामयिक परिस्थितियों का प्रभाव न्यूनाधिक रूप मे अवश्य ही पड़ता है । फिर गोस्वामी जी ने इसे 'स्वांतःसुखाय'लिखने की घोषणा कैसे की?दरअसल बात यह है कि तत्कालीन शासक अपने दरबार मे चाटुकार कवियों को रखते थे और उनकी आर्थिक समस्या का समाधान कर दिया करते थे । इसके विनिमय मे ये राज्याश्रित दरबारी कवि अपने आश्रयदाता की छत्र छाया मे इन शासकों की प्रशंसा मे क्लिष्ट साहित्य की रचना करते थे । अर्थात जब गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन कवि 'परानतःसुखाय'साहित्य का सृजन कर रहे थे तुलसीदास ने 'रामचरितमानस'की रचना राज्याश्रय से विरक्त होकर 'सर्वजन सुखाय-सर्वजन हिताय'की । 'सब के भला मे हमारा भला' के वह अनुगामी थे । एतदर्थ रामचरितमानस को 'स्वांतः सुखाय'लिखने की घोषणा करने मे गोस्वामी जी ने कोई अत्युक्ति नहीं की ।
रामचरितमानस तुलसीदास की दिमागी उपज नहीं है और न ही यह एक-दो दिन मे लिखकर तैयार किया गया है । इस ग्रंथ की रचना आरम्भ करने के पूर्व गोस्वामी जी ने देश,जाति और धर्म का भली-भांति अध्ययन कर सर्वसाधारण की मनोवृति को समझने की चेष्टा की और मानसरोवर से रामेश्वरम तक इस देश का पर्यटन किया ।
तुलसीदास ने अपने विचारों का लक्ष्य केंद्र राम मेस्थापित किया । रामचरित के माध्यम से उन्होने भाई-भाई और राजा-प्रजा का आदर्श स्थापित किया । उनके समय मे देश की राजनीतिक स्थिति सोचनीय थी । राजवंशों मे सत्ता-स्थापन के लिए संघर्ष हो रहे थे । पद-लोलुपता के वशीभूत होकर सलीम ने अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया तो उसे भी शाहज़ादा खुर्रम के विद्रोह का सामना करना पड़ा और जिसका प्रायश्चित उसने भी कैदी की भांति मृत्यु का आलिंगन करके किया । राजयोत्तराधिकारी 'दारा शिकोह'को शाहज़ादा 'मूहीजुद्दीन 'उर्फ 'आलमगीर'के रंगे हाथों परास्त होना पड़ा । इन घटनाओं से देश और समाज मे मुरदनी छा गई ।
ऐसे समय मे 'रामचरितमानस' मे राम को वनों मे भेजकर और भरत को राज्यविरक्त (कार्यवाहक राज्याध्यक्ष)सन्यासी बना कर तुलसीदास ने देश मे नव-चेतना का संचार किया,उनका उद्देश्य सर्वसाधारण
मे राजनीतिक -चेतना का प्रसार करना था । 'राम'और 'भरत 'के आर्ष चरित्रों से उन्होने जनता को 'बलात्कार की नींव पर स्थापित राज्यसत्ता'से दूर रहने का स्पष्ट संकेत किया । भरत यदि चाहते तो राम-वनवास के अवसर का लाभ उठा कर स्वंय को सम्राट घोषित कर सकते थे राम भी 'मेजॉरिटी हेज अथॉरिटी'एवं'कक्की-शक्की मुर्दाबाद'के नारों से अयोध्या नगरी को कम्पायमानकर सकते थे । पर उन्होने ऐसा क्यों नहीं किया?उन्हें तो अपने राष्ट्र,अपने समाज और अपने धर्म की मर्यादा का ध्यान था अपने यश का नहीं,इसीलिए तो आज भी हम उनका गुणगान करते हैं । ऐसाअनुपमेय दृष्टांत स्थापित करने मे तुलसीदास की दूरदर्शिता व योग्यता की उपेक्षा नहीं की जा सकती । क्या तुलसीदास ने राम-वनवास की कथा अपनी चमत्कारिता व बहुज्ञता के प्रदर्शन के लिए नहीं लिखी?उत्तर नकारात्मक है । इस घटना के पीछे ऐतिहासिक दृष्टिकोण छिपा हुआ है । (राष्ट्र-शत्रु 'रावण-वध की पूर्व-निर्धारित योजना' को सफलीभूत करना)।
इतिहासकार सत्य का अन्वेषक होता है । उसकी पैनी निगाहें भूतकाल के अंतराल मे प्रविष्ट होकर तथ्य के मोतियों को सामने रखती हैं । वह ईमानदारी के साथ मानव के ह्रास-विकास की कहानी कहता है । संघर् षों का इतिवृत्त वर्णन करता है । फिर तुलसीदास के प्रति ऐसे विचार जो कुत्सित एवं घृणित हैं (जैसे कुछ लोग गोस्वामी तुलसीदास को समाज का पथ-भ्रष्टक सिद्ध करने पर तुले हैं ) लाना संसार को धोखा देना है ।
तुलसीदास केवल राजनीति के ही पंडित न थे ,वह 'कट्टर क्रांतिकारी समाज सुधारक'भी थे । उनके समय मे कर्मकाण्ड और ब्राह्मणवाद प्राबल्य पर था । शूद्रों की दशा सोचनीय थी,उन्हें वेद और उपनिषद पढ़ने का अधिकार न था ,उन्हें हरि-स्मरण करने नहीं दिया जाता था । उनके हरि मंदिर प्रवेश पर बावेला मच जाता था। शैव और वैष्णव परस्पर संघर्ष रत थे। यह संघर्ष केवल निरक्षरों तक ही सीमित न था। शिक्षित और विद्वान कहे जाने वाले पंडित और पुरोहित भी इस संघर्ष का रसास्वादन कर आत्म विभोर हो उठते थे।
तुलसी दास ने इसके विरोध मे आवाज उठाई । उन्होने रामचरित मानस मे पक्षियों मे हेय व निकृष्ट 'काग भूषण्डी'अर्थात कौआ के मुख से पक्षी-श्रेष्ठ गरुड को राम-कथा सुनवाकर जाति-पांति के बखेड़े को अनावश्यक बताया । यद्यपि वह वर्ण-व्यवस्था के विरोधी नहीं थे । वह वेदों के 'कर्मवाद'सिद्धान्त के प्रबल समर्थक थे जिसके अनुसार शरीर से न कोई ब्राह्मण होता है और न शूद्र ,उसके कर्म ही इस सम्बन्ध मे निर्णायक हैं।
राम को शिव का और शिव को राम का अनन्य भक्त बताकर और राम द्वारा शिव की पूजा कराकर एक ओर तो तुलसीदास ने शैवो और वेष्णवोंके पारस्परिक कलह को दूर करने की चेष्टा की है तो दूसरी ओर् राष्ट्र्वादी दृष्टिकोण उपस्थित किया है (शिव यह हमारा भारत देश ही तो है) ।
इतने पुनीत और पवित्र राष्ट्र्वादी ऐतिहासिक दृष्टिकोण को साहित्य के क्षेत्र मे सफलता पूर्वक उतारने का श्रेय तुलसीदास को ही है। तुलसीदास द्वारा राम के राष्ट्र्वादी कृत्यों व गुणगान को रामचरित मानस मे पृष्ठांकित करने के कारण ही कविवरसोहन लाल दिवेदी को गाना पड़ा-
कागज के पन्नों को तुलसी,तुलसी दल जैसा बना गया।