Tuesday, June 26, 2012

सही अर्थघटन

वेदों में कहा गया है कि नदी के किनारे लगे वृक्ष को जिस तरह सभी तरह के पोषक तत्व मिलते रहते हैं उसी तरह सुख और दुख सभी अवस्था में जो व्यक्ति परमेश्वर (ब्रह्म) को पकड़कर रखता है वह कभी मुर्झाता नहीं है। हम देखते हैं कि किस तरह हमारे दुख दूर हो सकते हैं। दुखों को दूर करने की एक ही औषधि है- 'कायम रहना काम पर और पक्का रहना परमेश्वर पर।'
लोगों को तथाकथित साधु, ज्योतिष या भ्रमित करने वाली पुस्तकें अनेकों मंत्र, देवता आदि के बारे में बताते और डराते रहते हैं किंतु यह सभी भटकाव के रास्ते हैं। भ्रम-द्वंद्व, डर में जीने वाला या भटका हुआ व्यक्ति कभी भी कहीं भी नहीं पहुँच पाता। वह कभी किसी मंत्र या देवता का सहारा लेता है तो कभी किसी दूसरे मंत्र या देवता का। ऐसा व्यक्ति किनारे से दूर होता जाता है और हमेशा द्वंद्व और दुविधा में रहकर जीवन नष्ट कर लेता है।

1.मंत्र की माया : वेदों में बहुत सारे मंत्रों का उल्लेख मिलता है, लेकिन जपने के‍ लिए सिर्फ प्रणव और गायत्री मंत्र ही कहा गया है बाकी मंत्र किसी विशेष अनुष्ठान और धार्मिक कार्यों के लिए है। वेदों में गायत्री नाम से छंद है जिसमें हजारों मंत्र है किंतु प्रथम मंत्र को ही गायत्री मंत्र माना जाता है। उक्त मंत्र के अलावा किसी अन्य मंत्र का जाप करते रहने से समय और ऊर्जा की बर्बादी है। गायत्री मंत्र की महिमा सर्वविदित है। दूसरा मंत्र है महामृत्युंजय मंत्र, लेकिन उक्त मंत्र के जप और नियम कठिन है इसे किसी जानकार से पूछकर ही जपना चाहिए।
2.ईश्वर और देवता : ईष्ट एक होना चाहिए दूसरा नहीं। ईश्वर ही परमश्रेष्ठ परमेश्वर है जिसे 'ब्रह्म' कहा गया है और उसे ही ईष्ट कहा गया है। गायत्री मंत्र उसी की प्रार्थना के लिए है। इसके अलावा किसी भी एक देवता या देवी को चुन सकते हैं और जीवन पर्यंत तक उसी पर कायम रहें। उक्त देवी, देवता या गुरु के माध्यम से परमेश्वर की आराधना करें।
3.वेद और अन्य ग्रंथ : वेदों का सार है उपनिषद और उपनिषदों का सार है गीता। उक्त को छोड़कर जो अन्य किसी पुस्तक या ग्रंथ पर विश्वास करता या उसके अनुसार चलता है वह धर्म से भटका हुआ व्यक्ति माना जाता है। ऐसे व्यक्ति का वेद भी साथ छोड़ देते हैं। माना कि सभी ग्रंथों में अच्छी बातों का उल्लेख मिलता है, किंतु सभी धर्मग्रंथों का मूल है वेद।
4.मंदिर और अन्य पूजा स्थल : कुछ लोगों को देखा है कि वे मंदिर, दर्गा और चर्च सभी जगह जाते हैं, लेकिन यह उनके दिमाग के द्वंद्व को ही दर्शाता है। सभी में श्रद्धा रखना अच्छी बात है, किंतु इससे आपकी उर्जा का क्षय और बिखराव होगा। यह बिखराव व्यक्ति ‍को जीवन के हर मोड़ पर असफल कर देता है। 'एक साधे सब सधे और सब साधे तो कोई ना सधे' अर्थात सभी गँवाए कि कहावत तो सुनी ही होगी। सभी को साधने के चक्कर में रहने वाले सभी को खो देते हैं।
5.नियम और अभ्यास : वेद कहते हैं कि नियम ही धर्म है और अभ्यास ही सफलता का सूत्र है। नियम पर कायम रहना और अभ्यास करते रहने से सभी तरह के सुखों की प्राप्ती तो होती ही है साथ ही मनचाही सफलता भी मिलती है। भाग्य भी कर्मवादियों का साथ देता है। कर्म सधता है सतत अभ्यास से।
धर्म के नियम को समझों और उसका पालन करो और सतत संत्संग तथा अभ्यास में रहो। जैसे भैस चारे को तब तक चबाती रहती है जब तक की उसमें मिठापन पैदा नहीं हो जाता और फिर सब कुछ नियम से ही होता है। ‍तो यह मान लो कि नियम और अभ्यास ही धर्म है। 100 डीग्री पर पानी गर्म होगा तो स्वत: ही भाप बनने लगेगा।
6.त्योहार और मजा : कुछ लोग मजे के लिए त्योहार मनाते हैं जैसे होली, दीपावली, दशहरा और अन्य त्योहार। देखा गया है कि होली, दशहरा और नवदुर्गोत्सव में लोग शराब पीते हैं और दीपावली पर जुआ खेलते हैं। जबकि ये त्योहार आपको हर तरह की बुराई से दूर रहने की शिक्षा देते हैं। ये कुछ महत्वपूर्ण दिन होने हैं जबकि पवित्र रहना जरूरी है जो ऐसा नहीं करता है वह धर्म विरुद्ध माना जाता है। जानें हिंदुओं के खास त्योहर को जिसमें मकर संक्रांति शामिल है।
7.सुखी होने के नियम : वेद, उपनिषद और गीता का पाठ करना चाहिए। घर में तेरस, चौदस, अमावस्य और पूर्णिमा के दिन धूप देना चाहिए। चतुर्थी, ग्यारस और अन्य प्रमुख तिथियों को व्रत रखना चाहिए। प्रात: और संध्या के समय संध्यावंदन करना चाहिए।
धर्म, देवी, देवता, पिता, गुरु और पितरों का अपमान ना तो करना चाहिए और ना ही सुनना चाहिए। श्राद्ध कर्म पूरी श्रद्धा के साथ करना चाहिए। समय और सुविधानुसार चार धाम और तीर्थाटन करना चाहिए। समय-समय पर दान-पुण्य करते रहना चाहिए। किसी भी प्रकार के कटु वचन से दूर रहना चाहिए तथा सकारात्मक विचारों का संग्रह कर सोच-समझकर बोलना चाहिए।
मनमाने (जो धर्म सम्मत नहीं है) त्योहार, व्रत, दान, यज्ञ, अनुष्ठान, मंदिर, देवता, ज्योतिष, गुरु घंटाल, पंडित, पंडों, तथाकथित प्रवचनकार, कथावाचक, धर्म पर बहस करने वाले आदि से दूर रहना चाहिए। रात्रि के सभी कर्म-अनुष्ठान को राक्षस और निशाचरों के धर्म का माना गया है। जो वेद सम्मत हो उसे ही मानें।

Monday, June 25, 2012

आध्यात्म और विज्ञान

                     प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था कि धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है एवं विज्ञान के बिना धर्म अंधा है। आइंस्टीन के सापेक्षवाद के सिद्धांत पर आज भी खोज जारी है परंतु इनके उपरोक्त कथन पर आज तक कोई विचार नहीं किया गया प्रस्तुत लेख में इनके धर्म एवं विज्ञान से संबंधित कथन को प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है। 
                  आध्यात्म विज्ञान एक मूल विज्ञान है जबकि आधुनिक विज्ञान इसका बिगड़ा हुआ स्वरूप है, आध्यात्म विज्ञान पूर्ण ज्ञान है जबकि आधुनिक विज्ञान अधूरा ज्ञान है क्योंकि जब तक किसी कार्य या ज्ञान के माध्यम से हम ईश्वर तक न पहुंचें तब तक ज्ञान अधूरा रहता है तथा अधूरा ज्ञान हमेशा घातक होता है, जिसका परिणाम आज सभी देख रहे हैं। विज्ञान परमाणु को द्रव्य का सूक्ष्मतम कण मानकर अध्यन करता है जबकि आध्यात्म परमाणु को द्रव्य का अंतिम स्थूल कण मानकर अध्यन करता है अर्थात विज्ञान अनंत की ओर चलता है एवं आध्यात्म अंत की ओर चलता है। विज्ञान द्रव्य को अविनाशी मानता है जबकि आध्यात्म के अनुसार द्रव्य का विनाश हो जाता है । ब्रह्माडीय द्रव्य दो रूपों में होता है एक जड़ दूसरा चेतन, विज्ञान जड़ तत्व का अध्यन करता है एवं आध्यात्म चेतन तत्व का अध्यन करता है, चेतन तत्व की प्रतिक्रिया से ही जड़ तत्व की उतपत्ति होती है। विज्ञान का कथन है कि हमारे पूर्वज बानर थे अब हम ज्ञानवान बनकर उन्नति कर रहे हैं जबकि आध्यात्म का कथन है कि हमारे पूर्वज ब्रह्मज्ञानी ऋषि मुनि थे अब हम अज्ञानी बनकर विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। वैसे इस ब्रह्मांड में जिस चीज का जन्म होता है चाहे वह कुछ भी हो हमेशा विनाश अर्थात मृत्यु की ओर ही बढ़ता है यह ब्रह्म सत्य है, अतः आध्यात्म का कथन ही सही प्रतीत होता है। हम अनन्त की ओर चलकर किसी लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकते जबकि अंत की ओर चलकर लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है। विज्ञान का कथन है कि मनुष्य एक ज्ञानवान प्राणी है परंतु आघ्यात्म का कथन है कि ज्ञान मनुष्य में नहीं द्रव्य (आत्मा) में होता है क्योंकि द्रव्य ने मनुष्य को पैदा किया है न कि मनुष्य ने द्रव्य को, मनुष्य सिर्फ इस ज्ञान को व्यक्त करने का एक माघ्यम मात्र है। विज्ञान का न तो कोई अंतिम लक्ष्य निर्धारित है न ही कोई फल (परिणाम) निर्धारित है, जबकि आध्यात्म का अंतिम लक्ष्य भी निर्धारित है एवं फल भी निर्धारित है। आध्यात्म का लक्ष्य है ईश्वर तक पहुंचना एवं फल मोक्ष है (वैज्ञानिक आधार पर मोक्ष किसे कहते है हम इसी लेख में आगे समझेंगे)। लक्ष्य विहीन विज्ञान का परिणाम यही हो सकता है कि थककर या किसी गढ्ढे में गिरकर विनाश। इसी तथ्य को समझकर हमारे ब्रह्मज्ञानी पूर्वजों ने अंत के रास्ते को चुना क्योंकि अंत के रास्ते पर चलकर मनुष्य ईश्वर तक पहुंचकर मोक्ष प्राप्त कर जन्म मृत्यु के बंधन से छुटकारा प्राप्त कर लेगा, एवं अनंत के रास्ते पर चलकर विभिन्न योनियों में जन्म लेता हुआ दुख निवृति कर सुख प्राप्ति का ही प्रयास करता रहेगा। आधुनिक शिक्षा भौतिकवाद एवं पूंजीवाद को बढ़ावा देकर मनुष्य का नैतिक पतन कर उसे विनाश की ओर ले जा रही है, जबकि आध्यात्मिक शिक्षा कैसी भी परिस्थितियों में मनुष्य को सुखमय जीवन जीने की कला सिखाती है। सुख और दुख मनुष्य की मानसिक भावना है यह कोई भौतिक वस्तु नहीं है, यदि दुख को हटा दिया जाय तो सुख ही शेष बचता है आध्यात्म हमें अपने जीवन से दुख को अलग करने की कला सिखाता है जिससे मनुष्य स्वस्थ, सुखी एवं दीर्धायु जीवन व्यतीत कर सकता है, जबकि आधुनिक विज्ञान हमें दुखों को बढ़ाने की कला सिखाता है जिससे मनुष्य तनाव एवं कभी न ठीक होने वाली क्रानिक बीमारियों का शिकार बनता है। आध्यात्म में धन की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है जबकि भौतिकवाद में धन प्रथम आवश्याकता है। आध्यात्म एवं विज्ञान में यही अंतर है।

आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार -1


आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार -2



आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार -3


आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार -4


आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार -5




Modern Physics Found Its Direction from Vedanta

Werner  Heisenberg,  a scientist with a spiritual bent of mind, was elated and inspired after coming to Shantiniketan. While living in Germany he had heard and read a great deal about india. He had heard many stories and praises of Ved mantras, Vedic rishis and their Ashrams. Great poet of Germany, Goethe was his most favourite poet. Werner Heisenberg had read german translation of Abhigyan Shankuntalam of Kalidas by Goethe many a times.   He knew many verses of this poem by heart. Rishi Knava and the poetic description of the natural beauty of his Ashram had always impressed him. That day in Shantiniktan he was experiencing,in real life, all that he read about – the greenery of Shantiniketan, the plants standing like youth adorned in green and the creepers embracing these plants, the multicolored scenic beauty spread all around and the air scattering enchanting fragrance. All this seemed as if Mother Nature has spread one end of her anchal (fabric) in extreme fondness for the human life.
The very first sight of Shantiniiketan had impressed Heisenberg very much. After wandering through and seeing all over he felt as if the entire ashram is personification of one of the beautiful poems of the great poet, Rabindranath Tagore, in which Vedc period, Vedic rishis and abodes of the rishis have come alive all in one. The thoughts and emotions of this poet got transformed into objects and not words and that the poet, who enfolded the endless waves of love and affection for the humanity in his heart, was the combined personification of the great poets Goethe, Kalidas and rishi Kanva. For the young Heisenberg to see him, to converse with him, to sit in his company was like the dream world coming true. For the last nine years during which he had been doing atomic researchh along with his fellow scientists; he had been writing letters to Rabindranath Tagore.
In 1920 Heisenberg along with Neils Bohr of Denmark, Louis de Broglie of France, Erwin Schrodinger and Wolfgang Pauli and Paul Dirac of England had started research on the nature of atom. The myth that the smallest particle of the matter was atom or nucleus had already been shattered. By now science had gone beyond electron, proton or neutron. Even after the discovery of baryons, mesons, tachyons and around 20 companions of these smaller particles, it was still unclear whether there was any still smaller constituents of the matter; if yes, what was that? All these scientists, ignoring the narrow boundaries of their nations and the political and diplomatic limits, were in constant touch with each other in finding the truth.
During the course of their research all these scientists at sometime or the other felt that perhaps fundamentally there was nothing like matter; as, while studying the vibrations, they had found out that the reality of the atoms was the waves of energy. After understanding this reality they abandoned the particle theory and initiated the study of wave mechanics. At this juncture Heisenberg was reminded of India and the philosophy of Indian rishis. Though he had been engaged in this research for about 9 years and during all this period he had been in correspondance with Rabindranath Tagore, in the year 1929 he decided to visit India and that day he was in Shantiniketan in the season of mild winter. After reaching Shantiniketan he gave a detailed report of his investigation, along with his associates to Babu Rabindranath Tagore and then in a dissappointed tone mentioned – “ While discovering the smallest particle of matter, now it seems that the notion of the matter is a myth; then what is the reality?”  In answer to this Rabindranath melodiously uttered a shloka (verse) from ‘Vivek Chudamani’ a composition of the great Acharya of Advaita, Adiguru Shankaracharya –
Yadidam sakalam vishwam nanarupam prateetmagyanat.
Tatsarvam brahmaiva pratyastasheshabhavanadosham.
Out of the ignorance the entire universe seems to be of varied forms and names, but in reality this is Brahma, devoid of the defects of all emotions.”
With this the poet had taught him the essence, the fundamental secret of the philosophy of Vedanta – “ The matter and all its forms are myth; to that extent the energy, which is the subtle form of matter and its variations, is also false. The reality is that all the differences whether of matter or of the various forms of the nature, all of those are illusions. What is truth is undifferentiated and that is Brahma – that is certain and everything else is uncertain”.
This concept of Vedanta, experience of Acharya Shankar, was well assimilated by Heisenberg. For many days, he was engaged in discussion on the Advaita truth of Vedanta with Rabindanath Tagore. During the course of these conversations Rabindranath  informed him about Swami Vivekananda, who had revived the Vedic wisdom in this era. He himself accompanied Heisenberg to Dakshineshwar and shown him the room where Vivekananda used to sit, listening to the teachings of his Gurudev Ramakrishna Paramhansa. Then he took him to the Belur Math, the headquarters of Ramakrishna Missions, which was established as the Yugateerth of Advaita Vedanta. There, while illucidating one saying of Vivekananda, he mentioned – “ All the differences whether these are social, biological or natural are myth. Only truth is one, which is undifferentiated and that is Brahma”.
“What is Brahma”?, Enquired the young Heisenberg with great curiosity. In reply to this, Rabindra Babbu, standing at the banks of Ganga near Belur Math pointed to the magnificent water of Ganga, ignoring all the imaginary differences of the varied shapes and temeratures of water particles and said –
Nirastmayakritasarvabhedam nityam sukham nishkalamaprameyam.
Aroopvyaktamanakhymavyayam jyotih swayam kinchididam chakasti.
“He is free from all imaginary differences; He is eternal bliss, devoid of art and is not a subject of proofs, etc. He is some unexpressed, unnamed, and indestructible light which is glowing on its own.”
After listening to the experiential verse of Acharya Shankar in the melodious voice of the poet Rabindranath, Heisenberg found a new direction for his research. After returning from India, impressed by the Advaita philosophy; he postulated the Principle of Uncertainty. After many years, on 11th April 1972 in the city of Munich in Germany, when the famous physicist Fritjof Capra visited him, Heisenberg narrated many of his experiences and said – the scientifc spirituality, pioneered by India is the need of the present Era.
This inspiration has provided the basis for the historical creation of the masterpiece “The Tao of Physics”, by Fritjof Capra. In this connection Capra met Heisenberg again in the year 1974 and showed him the manuscript of his book. Heisenberg was delighted to see that and said – “After all, the scientific study and exposition of spirituality has begun !” After that in November 1975 Fritjof Capra sent him the first copy of the published book “The Tao of Physics”. Heisenberg read that book for sure but could not write his comments as he died before he could do it. A few days before his death he mentioned to on eof his friends: “The scientists of the world should study the spiritualists of India, especially Swami Vivekananda. He is such a spiritual sage of India, whose thoughts can become the basis of modern scientific research.”