Thursday, September 22, 2016

रातो 11-11:30 का समय है, बीजली चमकती है भारी बारिश है,
आपका 20-22-25 वर्ष का पुत्र दोस्तो के साथ night out करने, गाडी लेकर गया है, अभी तक आया नही है ...

आपके पुत्र का फोन आता है, घर से लगभग 10 कीमी की दुरी पर हाईवे पर, सभी दोस्तो को उनके घर उतार देने के बाद... अचानक गाडी बंध हो गई है.... वो अकेला है....  
अब आप रात को चैन से सो पायेंगे? ....

अब आप कल्पना करे.... ऐसे परिवार की.... जिनका आपके बेटे की उम्र का बेटा जो गत 5-6 महिने से घर नही आ पाया है। कारण उसे नोकरी मे से छुट्टी नही मिल पाती है।

वो नौकरी करता है इस लिए आपका पुत्र नाईट आउट करने बाहर जा सकता है।

वो 15-17 किलो का बोझ उठाकर दिन रात देखे बीना..... कश्मीर मे पत्थर खाता है.... इसी लिए  आप पिकनिक कर पाते है.....

वो बेटा माईनस शून्य तापमान मे कारगिल मे पेट्रोलिंग करता है तो आप रात मे घरमे बैठकर टाईम पास करने वोट्स एन पर दुनिया भर की तेरी मेरी कर सकते हो....

आपके बेटे का फोन आया गाडी बीगड गई है... तो आपकी एक दो घंटे की नींद बीगड गई ....

कल्पना करे उस परिवार की जे सोता नही है.... महिनो से जब से उनका बेटा फौज की नौकरी मे लगा है....

कल्पना करो उस दृश्य की.....
जब 5 साल का बेटा 30 वर्ष के पिता की चिता को आग देता है....

एक 55 वर्ष के पिता अपने 30 वर्ष के बेटे की अर्थी को कंधा देते है.....

क्या... हमारी संवेदनशीलता मर चुकी है ?

देश .... राष्ट्र के लिए अभिमान, आजादी ये सभी शब्द मात्र शब्द बनकर रह गये है ?

पांच  वर्ष मे एकबार समय मिले तो वोट देने के अलावा सोशल मिडिया पर कोपी पेस्ट करने के शिवा हमने और क्या किया ?

भ्रष्टाचार की बाते करने के अलावा हमने 50% भी सही टेक्श भरा ? या फिर इधर उधर की सेटीन्ग की और बचा लिया ?

ट्राफिक सिग्नल के पास हवलदार खडा हो तो.... ना होने पर हम कभी रूके ?

ट्रेन मे बीना टिकट पकडे जाने पर पेनल्टी भरी या TC को पटा लिया?

पराये देशो की स्वच्छता सफाई की भरपुर बाते की...
पर खुद का कचरा कभी उठाया है ?

वो हक जो राष्ट्र से हमे मिला है उसके प्रति अपने फर्ज अदा कया ?

अहिंसा के लिए बडा भोग दिया लेकिन हम अहिंसक रह पाये.... ? वो किसके कारण.... थोडा सोचो....

ईजरायल और अमरीका की बाते की...
वहा प्रत्येक नागरिक को कम से कम दो वर्ष राष्ट्र सेवा हेतु फौज मे देने पडते है... कम्पल्सरी।
हमने यहां अपने आपको सक्षम करने के लिए भी ज्युडो,  कराटे शीखने का प्रयत्न किया ?

सरकार मतलब 66 वर्ष का वृध्द ... जिसने वर्षो से कोई छुट्टी नही ली है, जो आज भी 24×7×14 घंटे अपने से जो सर्वोत्तम हो शके वो राष्ट्र के लिए करता है।

उसकी 56 की छाती की चर्चा छोडो अपनी छाती को 42 की तो बनाओ !!

एक सुंदर वाक्य है....

Dont say..what the nation can do for u...
Think what u can do for your nation...

Wednesday, September 21, 2016

तुलसी के पौधे से आसन्न विपत्ति का
भान होता है !!

क्या आपने कभी इस बात पर ध्यान दिया
कि आपके घर,परिवार या आप पर कोई
विपत्ति आने वाली होती है तो उसका असर
सबसे पहले आपके घर में स्थित तुलसी के
पौधे पर होता है।

आप उस पौधे का कितना भी ध्यान रखें,
धीरे-धीरे वह पौधा सूखने लगता है।

तुलसी का पौधा ऐसा है जो आपको पहले
ही बता देगा कि आप पर या आपके घर
परिवार को किसी मुसीबत का सामना
करना पड़ सकता है।

पुराणों और शास्त्रों के अनुसार माना जाए
तो ऐसा इसलिए होता है कि जिस घर पर
मुसीबत आने वाली होती है,
उस घर से सबसे पहले लक्ष्मी यानी तुलसी
चली जाती है।

क्योंकि दरिद्रता,अशांति या क्लेश जहां
होता है वहां लक्ष्मी जी का निवास नही
होता है।

अगर ज्योतिष की माने तो ऐसा बुध के
कारण होता है।
बुध का प्रभाव हरे रंग पर होता है और
बुध को पेड़ पौधों का कारक ग्रह माना
जाता है।

ज्योतिष में लाल किताब के अनुसार बुध
ऐसा ग्रह है जो अन्य ग्रहों के अच्छे और
बुरे प्रभाव जातक तक पहुंचाता है।

अगर कोई ग्रह अशुभ फल देगा तो उसका
अशुभ प्रभाव बुध के कारक वस्तुओं पर
भी होता है।

अगर कोई ग्रह शुभ फल देता है तो उसके
शुभ प्रभाव से तुलसी का पौधा उत्तरोत्तर
बढ़ता रहता है।
बुध के प्रभाव से पौधे में फल फूल लगने
लगते हैं।

प्रतिदिन चार पत्तियां तुलसी की सुबह
खाली पेट ग्रहण करने से मधुमेह,रक्त
विकार,वात,पित्त आदि दोष दूर होने
लगते है।

मां तुलसी के समीप आसन लगा कर यदि
कुछ समय हेतु प्रतिदिन बैठा जाये तो श्वास
के रोग अस्थमा आदि से जल्दी छुटकारा
मिलता है।

घर में तुलसी के पौधे की उपस्थिति एक
वैद्य समान तो है ही यह वास्तु के दोष भी
दूर करने में सक्षम है हमारें शास्त्र इस के
गुणों से भरे पड़े है।

जन्म से लेकर मृत्यु तक काम आती है
यह तुलसी....
कभी सोचा है कि मामूली सी दिखने वाली
यह तुलसी हमारे घर या भवन के समस्त
दोष को दूर कर हमारे जीवन को निरोग
एवम सुखमय बनाने में सक्षम है माता के
समान सुख प्रदान करने वाली तुलसी का
वास्तु शास्त्र में विशेष स्थान है।

हम ऐसे समाज में निवास करते है कि
सस्ती वस्तुएं एवम सुलभ सामग्री को
शान के विपरीत समझने लगे है।

महंगी चीजों को हम अपनी प्रतिष्ठा
मानते है।
कुछ भी हो तुलसी का स्थान हमारे
शास्त्रों में पूज्यनीय देवी के रूप में है।

तुलसी को मां शब्द से अलंकृत कर हम
नित्य इसकी पूजा आराधना भी करते है।

इसके गुणों को आधुनिक रसायन शास्त्र
भी मानता है।

इसकी हवा तथा स्पर्श एवम इसका भोग
दीर्घ आयु तथा स्वास्थ्य विशेष रूप से
वातावरण को शुद्ध करने में सक्षम
होता है।

शास्त्रानुसार तुलसी के विभिन्न प्रकार
के पौधे मिलते है उनमें श्रीकृष्ण तुलसी,
लक्ष्मी तुलसी,राम तुलसी,भू तुलसी,नील
तुलसी,श्वेत तुलसी,रक्त तुलसी,वन तुलसी,
ज्ञान तुलसी मुख्य रूप से विद्यमान है।

सबके गुण अलग अलग है शरीर में नाक
कान वायु कफ ज्वर खांसी और दिल की
बिमारियों  परविशेष प्रभाव डालती है।

वास्तु दोष को दूर करने के लिए तुलसी के
पौधे अग्नि कोण अर्थात दक्षिण-पूर्व से
लेकर वायव्य उत्तर-पश्चिम तक के खाली
स्थान में लगा सकते है यदि खाली जमीन
ना हो तो गमलों में भी तुलसी को स्थान
दे कर सम्मानित किया जा सकता है।

तुलसी का गमला रसोई के पास रखने
से पारिवारिक कलह समाप्त होती है।

पूर्व दिशा की खिडकी के पास रखने से
पुत्र यदि जिद्दी हो तो उसका हठ दूर
होता है।

यदि घर की कोई सन्तान अपनी मर्यादा
से बाहर है अर्थात नियंत्रण में नहीं है तो
पूर्व दिशा में रखे।

तुलसी के पौधे में से तीन पत्ते किसी ना
किसी रूप में सन्तान को खिलाने से
सन्तान आज्ञानुसार व्यवहार करने
लगती है।

कन्या के विवाह में विलम्ब हो रहा हो
तो अग्नि कोण में तुलसी के पौधे को
कन्या नित्य जल अर्पण कर एक
प्रदक्षिणा करने से विवाह जल्दी
और अनुकूल स्थान में होता है।
सारी बाधाए दूर होती है।

यदि कारोबार ठीक नहीं चल रहा तो
दक्षिण-पश्चिम में रखे तुलसी के गमले
पर प्रति शुक्रवार को सुबह कच्चा दूध
अर्पण करे व मिठाई का भोग रख कर
किसी सुहागिन स्त्री को मीठी वस्तु देने
से व्यवसाय में सफलता मिलती है।

नौकरी में यदि उच्चाधिकारी की वजह
से परेशानी हो तो ऑफिस में खाली
जमीन या किसी गमले आदि जहाँ
पर भी मिटटी हो वहां पर सोमवार
को तुलसी के सोलह बीज किसी
सफेद कपडे में बाँध कर सुबह
दबा दें।
सम्मान में वृद्धि होगी।

नित्य पंचामृत बना कर यदि घर कि महिला
शालिग्राम जी का अभिषेक करती है तो घर
में वास्तु दोष हो ही नहीं सकता।

अति प्राचीन काल से ही तुलसी पूजन
प्रत्येक सद्गृहस्थ के घर पर होता आया है।

तुलसी पत्र चढाये बिना शालिग्राम पूजन
नहीं होता।

भगवान विष्णु को चढायेप्रसाद,श्राद्धभोजन,
देवप्रसाद,चरणामृत व पंचामृत में तुलसी
पत्रहोना आवश्यक है अन्यथा उसका भोग
देवताओं को लगा नहीं माना जाता।

मरते हुए प्राणी को अंतिम समय में गंगा
जल के साथ तुलसी पत्र देने से अंतिम
श्वास निकलने में अधिक कष्ट नहीं सहन
करना पड़ता।

तुलसी के जैसी धार्मिक एवं औषधीय गुण
किसी अन्य पादप में नहीं पाए जाते हैं।

तुलसी के माध्यम से कैंसर जैसे प्राण घातक
रोग भी मूल से समाप्त हो जाता है।

आयुर्वेद के ग्रंथों में ग्रंथों में तुलसी की बड़ी
भारी महिमा का वर्णन है।

इसके पत्ते उबालकर पीने से सामान्य ज्वर,
जुकाम,खांसी तथा मलेरिया में तत्काल राहत
मिलती है।

तुलसी के पत्तों में संक्रामक रोगों को रोकने
की अद्भुत शक्ति है।

सात्विक भोजन पर मात्र तुलसी के पत्ते
को रख देने भर से भोजन के दूषित होने
का काल बढ़ जाता है।

जल में तुलसी के पत्ते डालने से उसमें लम्बे
समय तक कीड़े नहीं पड़ते।

तुलसी की मंजरियों में एक विशेष सुगंध
होती है जिसके कारण घर में विषधर सर्प
प्रवेश नहीं करते।

यदि रजस्वला स्त्री इस पौधे के पास से
निकल जाये तो यह तुरंत म्लान हो जाता है।

अतः रजस्वला स्त्रियों को तुलसी के निकट
नहीं जाना चाहिए।

तुलसी के पौधे की सुगंध जहाँ तक जाती
है वहाँ दिशाओं व विदिशाओं को पवित्र
करता है।

उदभिज,श्वेदज,अंड तथा जरायु चारों प्रकार
के प्राणियों को प्राणवान करती हैं अतःअपने
घर पर तुलसी का पौधा अवश्य लगाएं तथा
उसकी नियमित पूजा अर्चना भी करें।

आपके घर के समस्त रोग दोष समाप्त होंगे।

पौराणिक ग्रंथों में तुलसी का बहुत महत्व
माना गया है।
जहां तुलसी का प्रतिदिन दर्शन करना पाप
नाशक समझा जाता है,वहीं तुलसी पूजन
करना मोक्षदायक माना गया है।

हिन्दू धर्म में देव पूजा और श्राद्ध कर्म में
तुलसी आवश्यक मानी गई है।

शास्त्रों में तुलसी को माता गायत्री का
स्वरूप भी माना गया है।

गायत्री स्वरूप का ध्यान कर तुलसी पूजा
मन,घर-परिवार से कलह व दु:खों का अंत
कर खुशहाली लाने वाली मानी गई है।

इसके लिए तुलसी गायत्री मंत्र का पाठ
मनोरथ व कार्य सिद्धि में चमत्कारिक भी
माना जाता है।

तुलसी गायत्री मंत्र व पूजा की आसान
विधि -

- सुबह स्नान के बाद घर के आंगन या
देवालय में लगे तुलसी के पौधे को गंध,
फूल,लाल वस्त्र अर्पित कर पूजा करें।
फल का भोग लगाएं।

धूप व दीप जलाकर उसके नजदीक
बैठकर तुलसी की ही माला से तुलसी
गायत्री मंत्र का श्रद्धा से सुख की कामना
से कम से कम 108 बार स्मरण करें।

अंत में तुलसी की पूजा करें -


वास्तव में अब देश को मोदी और डोभाल की जरूरत नहीं रही। सोशल मीडिया पर ही कई धुरंधर हैं, जो युद्ध नीति, कूटनीति, राजनीति, राष्ट्रनीति, सैन्य संचालन आदि आदि सभी मामलों के जानकार, अनुभवी और विशेषज्ञ हैं।

ये वही लोग हैं जो लाहौर में एक हमला होने पर पाकिस्तान से सहानुभूति जताने के लिए अपना प्रोफ़ाइल फोटो काला कर रहे थे, और फिर बुरहान वानी के एनकाउंटर के बाद पाकिस्तान के उकसाने पर भारतीय सेना के समर्थन में भी प्रोफ़ाइल फोटो बदल रहे थे। ये वही लोग हैं, जो आज पकिस्तान को गालियां देते हैं और कल भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच के टिकट खरीदने के लिए लाइन में खड़े रहते हैं या सोशल मीडिया पर लाइव स्कोर बताते रहते हैं। ये वही लोग हैं, जो २ रूपये बचाने के लिए चीनी सामान खरीदते हैं, लेकिन सरकार को सिखाते हैं कि चीन भारत के बाज़ार को निगल रहा है। ये वही लोग हैं, जो सरदेसाई और बरखा को रोज़ सुबह गालियां देते हैं, लेकिन रोज़ शाम को उन्हीं के चैनल देखकर उनकी टीआरपी भी बढ़ाते हैं। ये वही लोग हैं, जो अंडरवर्ल्ड के पैसों से बनी फ़िल्में देखने के लिए हर वीकेंड पर मल्टीप्लेक्स के बाहर कतार लगाते हैं और सोशल मीडिया पर सरकार से पूछते हैं कि सरकार दाऊद को खत्म क्यों नहीं कर रही है। ये वही लोग हैं जो किंगफिशर की बीयर खूब शौक से खरीदकर पीते हैं और फिर ये सवाल भी पूछते हैं कि सरकार माल्या को भारत कब लाएगी। ये वही लोग हैं, जो एक दिन गृहमंत्री को कोसते हैं, फिर अगले दिन पैलेट गन चलाने के लिए तारीफ़ भी करते हैं। और ये वही लोग हैं, जो दिन-रात मीडिया चैनलों की निंदा करते हैं, लेकिन उन्हीं चैनलों द्वारा सेट किए जाने वाले एजेंडा का भी रोज शिकार बनते हैं।

अपनी सुख-सुविधाओं में एक कतरा भी कटौती नहीं करना चाहते, ५० पैसे टैक्स बढ़ जाए तो छाती पीटने लगते हैं और ऐसे लोग आज युद्ध की भाषा बोल रहे हैं! पहले अपने कम्फर्ट ज़ोन से तो बाहर निकलिए, उसके बाद युद्ध के उपदेश दीजिए। खुद को राष्ट्रवादी बताने वाले लोग सबसे ज्यादा कन्फ्यूज दिखते हैं। मैंने वामपंथियों को कभी अपनी विचारधारा और एजेंडा के बारे में कन्फ्यूज नहीं देखा, मैंने भारत-विरोधियों को कभी अपनी विचारधारा और एजेंडा के बारे में कन्फ्यूज नहीं देखा, लेकिन राष्ट्रवादी टोली मुझे वैचारिक धरातल पर सबसे ज्यादा कन्फ्यूज दिखती है क्योंकि बुद्धि और विवेक को परे रखकर हर बात में भावनाओं के अनुसार बहते रहते हैं। एक दिन का उफान होता है, दूसरे दिन सब भूल जाते हैं।

मेरा सुझाव है कि इस कन्फ्यूजन से बाहर निकलिए। मुझे नहीं पता कितने लोग मीडिया चैनलों और प्रचलित अख़बारों की खबरों के अलावा कुछ पढ़ते हैं। मुझे नहीं पता सोशल मीडिया पर भावनाओं का उबाल सिर्फ एक-दूसरे की पोस्ट पढ़कर ही उफनता है या उसके पीछे कोई ठोस अध्ययन, संबंधित मामलों की समझ आदि भी है या नहीं। मुझे नहीं पता मीडिया में शोर सुनकर यहां चिल्ला रहे कितने लोगों को याद है कि कुछ ही दिनों पहले वायुसेना का जो विमान अंडमान जाते समय लापता हो गया, उसमें कितने सैनिक थे? मैंने संकेत दे दिया है, बाकी आप समझदार हैं।

जब कोई हम पर हमला करने आता है, तो बेशक पहला समझदारी का काम उस पर जवाबी हमला करना ही होता है। भारतीय सेना ने वो किया है, तभी चारों आतंकियों को मार गिराया गया। लेकिन जब सामने वाला हमला करके जा चुका है, और अब आपको जवाब देना है, तो वह ठंडे दिमाग से, सोच-समझकर और योजना बनाकर ही दिया जाना चाहिए, न कि उकसावे में आकर। पाकिस्तान ने हमला करके आपको उकसा दिया है, इसलिए ये ज़रूरी नहीं कि भारतीय सेना तुरन्त अपने टैंक और मिसाइलें लेकर पाकिस्तान में घुस जाए। मुझे कोई शक नहीं कि जिस दिन भारतीय सेना उचित समझेगी, उस दिन ये काम भी अवश्य हो जाएगा, लेकिन अभी नहीं हो रहा है, इससे स्पष्ट है कि सेना के पास शायद उससे बेहतर कोई तरीका मौजूद है।

कुछ लोगों को लगता है कि भारत सरकार सो रही है या सिर्फ कड़ी निंदा के बयान दे रही है। गृहमंत्री ने अपनी रूस और अमेरिका की यात्रा कल रद्द कर दी। क्या आपको लगता है कि सरकार ने सिर्फ कड़ी निंदा वाले बयान देने के लिए यात्रा रद्द की है? अजीत डोभाल ने अपनी पूरी ज़िंदगी ऐसे ही उच्च-स्तरीय मिशन और सीक्रेट ऑपरेशन पूरे करने में बिताई है। जो आदमी जासूस बनकर ६ साल लाहौर में अंडरकवर एजेंट रहा है, क्या आपको लगता है कि इस मामले की समझ आप में उससे ज्यादा है? ये कॉमन सेन्स की बात है कि उच्च-स्तर पर प्लानिंग हो रही होगी, हर विकल्प पर विचार हो रहा होगा, और हर मोर्चे पर हमले की रणनीति बन रही होगी। ये भी कॉमन सेन्स की बात है कि इसकी जानकारी न किसी सरकारी बयान में दी जाएगी, न सोशल मीडिया पर पोस्ट और ट्वीट में। अपनी भावनाओं को अपने विवेक और बुद्धि पर हावी मत होने दीजिए। ये जरूरी नहीं है कि कश्मीर के जवाब में हमला कश्मीर वाली सीमा से ही हो। हमला अफगानिस्तान की तरफ से भी हो सकता है, हमला बलूचिस्तान से भी हो सकता है, हमला चीन के इकोनॉमिक कॉरिडोर की तरफ भी हो सकता है। इसलिए जिस मामले की समझ जिन लोगों को हमसे ज्यादा है, उनको उनका काम उनके ढंग से करने दीजिए। उनको पता है क्या परिणाम चाहिए और वो कैसे मिलेगा। उनको ये भी पता है कि आप सिर्फ एक दिन चिल्लाएंगे और दूसरे दिन भूल जाएंगे क्योंकि सबसे सरल काम यही है।

जो लोग टीवी पर क्रिकेट देखते समय घर बैठे-बैठे चिल्लाते रहते हैं कि कप्तान को कौन-सा फील्डर कहां खड़ा करवाना चाहिए और किस बॉलर को पहला ओवर देना चाहिए, वो जरा ये समझें कि कप्तान में क्रिकेट की समझ आपसे ज्यादा है और मैदान की परिस्थिति को भी वह आपसे बेहतर समझता है क्योंकि वह मैदान में खड़ा है और आप घर में बैठे हैं। अगर उसको कप्तान मानते हैं, तो उसको निर्णय लेने दीजिए और उसके निर्णय पर भरोसा कीजिए। आपसे ज्यादा कन्फ्यूज लोग दुनिया में कोई दूसरे नहीं हैं क्योंकि आप किसी विषय में पूरी जानकारी नहीं लेना चाहते और न  किसी बात को शुरू करने पर आखिरी तक ले जाना चाहते हैं। आप में और मीडिया चैनलों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है, दोनों को ही अपना समय काटने के लिए रोज एक नया मुद्दा चाहिए होता है। बेहतर है कि दूसरों को आईना दिखाने की कोशिश करने वाले एक बार खुद भी आईना देखें।

जितने लोग जापान और वियतनाम और इज़राइल जैसे देशों के उदाहरण देते रहते हैं, वे उपदेशक का चोला उतारें और जरा यह भी देखें कि वहां की सफलताओं में जनता की कितनी बड़ी भूमिका और योगदान रहा है। फिर भारत में खुद से उसकी तुलना करें। कोई देश सिर्फ सरकार के भरोसे इजरायल और जापान नहीं बन जाता, वह तब इजराइल और जापान बनता है, जब लोग अपने देश के लिए त्याग करने को तैयार होते हैं, जब लोग अपने देश के लिए कष्ट उठाने को तैयार होते हैं, जब लोग अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलकर देश के लिए कुछ करते हैं। पहले वह काम कीजिए और भारत में वैसा माहौल बनाने में कुछ योगदान दीजिए, उसके बाद ही समस्या जड़ से मिटेगी, वरना पाकिस्तान को आप चाहे पूरा साफ़ कर दीजिए, पर समस्या कहीं और से सिर उठाती रहेगी क्योंकि समस्या की जड़ बाहर नहीं है, भीतर ही है।

मेरी बातें अक्सर ही कड़वी लगती हैं क्योंकि मैं लहर देखकर नहीं बहता और न किसी को खुश करने के लिए लिखता हूं। मुझे अफ़सोस तब नहीं होता, जब लोग मेरी बातों से असहमत होते हैं, बल्कि अफ़सोस तब होता है, जब आगे चलकर मेरी बातें और चेतावनियां सही साबित होती हैं। मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं कि भारत की सबसे बड़ी कमजोरी राष्ट्रवादियों का कन्फ्यूजन और अस्थिरता ही है। जिस दिन यह ठीक हो जाएगा, उस दिन सारे समीकरण बदल जाएंगे। सादर!
जय हिन्द !!🇮🇳

Wednesday, September 14, 2016

Mrutyu Baad Angdaan

मित्रो आज टी वी समाचारो मे देखा के पांचवी बार ग्रीन कोरीडोर बनाकर ब्रेन डेड व्यक्ति का हृदय सफलता पूर्वक दुसरे शहर भेजा गया प्रत्यारोपण के लिए, प्रत्यारोपण भी सफल रहा।

क्यो न हम भी सपथ ले की "मृत्यु बाद मेरा हृदय, कीडनी, लीवर, आँखे वगैरह अंग को योग्य समय पर निकाल कर किसी जरूरतमंद के शरीर मे प्रत्यारोपित किया जाये।

अंदाजा करो कितने लोगो की जान बच जायेगी इससे, कितने परिवार उजडने से बच जायेगे।
वैसे भी मृत्यु के बाद अपना शरीर हिन्दु होगे तो अग्नि के समर्पित किया जायेगा, क्रिस्टियन और मूसलमान होगा तो दफन होगा। इससे वे सारे अंग या तो जलकर राख हो जायेगे या मिट्टी मे गल जायेगे।

आओ मेरे मित्रो आज के बाद हम प्रण करे मृतयु बाद अपने अंगो का दान कर किसीको नवजीवन देगे।

मेरी इस अपील से सहमत हो तो अपने परिवार, मित्रो, समाज, गाव, शहर मे इस बात का प्रचार करे और लोगो को ऐसा करने के लिए जागृत करे। दमण मे भी लोग इस बात के तैयार हो यह आशा।

इस संदेश को अधिक से अधिक लोगो तक पहोचे इस शेयर जरूर करे।

Mrutyu Baad Angdaan

मित्रो आज टी वी समाचारो मे देखा के पांचवी बार ग्रीन कोरीडोर बनाकर ब्रेन डेड व्यक्ति का हृदय सफलता पूर्वक दुसरे शहर भेजा गया प्रत्यारोपण के लिए, प्रत्यारोपण भी सफल रहा।

क्यो न हम भी सपथ ले की "मृत्यु बाद मेरा हृदय, कीडनी, लीवर, आँखे वगैरह अंग को योग्य समय पर निकाल कर किसी जरूरतमंद के शरीर मे प्रत्यारोपित किया जाये।

अंदाजा करो कितने लोगो की जान बच जायेगी इससे, कितने परिवार उजडने से बच जायेगे।
वैसे भी मृत्यु के बाद अपना शरीर हिन्दु होगे तो अग्नि के समर्पित किया जायेगा, क्रिस्टियन और मूसलमान होगा तो दफन होगा। इससे वे सारे अंग या तो जलकर राख हो जायेगे या मिट्टी मे गल जायेगे।

आओ मेरे मित्रो आज के बाद हम प्रण करे मृतयु बाद अपने अंगो का दान कर किसीको नवजीवन देगे।

मेरी इस अपील से सहमत हो तो अपने परिवार, मित्रो, समाज, गाव, शहर मे इस बात का प्रचार करे और लोगो को ऐसा करने के लिए जागृत करे। दमण मे भी लोग इस बात के तैयार हो यह आशा।

इस संदेश को अधिक से अधिक लोगो तक पहोचे इस शेयर जरूर करे।

Tuesday, August 30, 2016

दमण के रिक्शावाले

मित्रो आज अखबार मे पढा के रीक्शा एसोसिएशन और मिनीबस एसोसिएशन ने मिलकर सारथी बस सेवा के सामने विरोध जताया और एक स्थानीय अग्रणी नेता से इसे नये प्रशासक महोदय तक ले जाने की गुहार लगाई है।
मै व्यक्तिगत तौर पर ऐसा समझता हूं ये दोनो एसोसिएशन मिलकर पहले वापी गुजरात की तरफ से आते रीक्शा वाले धड़ल्ले से दमण तक पेसेन्जर ले आते है और वे जाते है उस संपूर्ण बंध करवाए। मुझे विश्वास है उनका सबसे बडा धंधा वे वापी और गुजरात से आनेवाले रीक्शा वाले ले जाते है। एक बार पुछने यही रिक्शेवाले कहते भाई हम तो थक गये है। कितना मारा पीटा फिर भी वो आते है।
आपकी तकलीफ का निराकरण वापी गुजरात से आनेवाले रिक्शा को बंध करने मे है अथवा आप भी उनकी तरह वापी गुजरात तक जाओ। अथवा वापी सिलवासा के रिक्शेवालो की तर्ज पर बाकायदा दैनिक परमिट चेकपोस्ट से ली जाये।
बाकी सारथी बस सेवा का विरोध करना तो एसा है जैसे एक घरमे तीन भाई बडा मीनीबस वाला, मजा रिक्शावाला और छोटा सारथी बस तो बडे दो अपनी कमजोरी और गलती सुधारना नही चाहते और मन मे हमेशा छोटा जो इन दो बडे भाई की गलती को देख उस हिसाब धंधा करे और ज्यादा कमाये तो वो बडे दोनो को अखरता है।
वास्तविकता यही है के आपकी तकलीफ सिर्फ और सिर्फ वापी गुजरात से आनेवाले रिक्शा वाले है। उसे बंध कराओ आपका काम बन जायेगा।
वापी के रिक्शावाला की कितनी दादागिरी सोमनाथ जो दमण का भाग वहां उनका बाकायदा स्टेन्ड और दमण मे ही दमण के रिक्शा वाले इधर उधर जहां जगह मिले खडे हो जाये।

Thursday, August 25, 2016

रीमा एक छोटी बच्ची थी। उसे खाना पकाने का बडा शौख था। जब भी मा खाना पकाती वो आहिस्ते से जाकर देख लेती के मम्मी के हाथ खाना इतना स्विदिष्ट होता था की पिताजी उँगली चाटते रह जाते। जो मेहमान आते वो भी मम्मी के हाथो बने खाने की तारीफ करते है।

रीमा देखती, मम्मी के पास ऐक डीब्बा है। हर बार खाना बनाते समय मम्मी उस डीब्बे से कुछ निकाल कर अवश्य डालती थी। रीमा को लगा जरूर उस डीब्बे मे कुछ है जिसे मिलाने से खानेका स्वाद दुगुना हो जाता है। मा उस डीब्बे को बडा सम्हाल कर रखती थी। रीमाने मा को ऐसा कहते सुना था की यह डीब्बा उसे उसकी मा ने दिया था।

एक दिन रीमा की मम्मी बीमार हो गई। रीमाने हिम्मत कर कहा, कोई तकलीफ नही, अब मम्मी आराम करेगी और खाना खुद रीमा पकायेगी।
जब रीमा कीचन मे खाना बनाने पहोची खानेकी सभी तैयारीया कर लेने बाद उसे याद आया मा के हाथ बनी सभी डीश इतनी स्वादिष्ट बनाने के लिए उपर रखे उस डब्बे से कुछ डालती थी। रीमाने एक टेबल के सहारे से वो डीब्बा उतार लिया। उसने वो स्टीलका छोटासा डीब्बा खोलके देखा तो डीब्बे मे कुछ नही था। बस, पुराने कागज की एक छोटी सी चिठ्ठी रखी थी।

रीमा उस चिठ्ठी को खोले देखा उसमे लिखा था - बेटा तु जो भी कुछ खाना पकाये, उसमे एक चुटकी प्रेम जरूर डालना जिससे तेरे हाथो बना पुरा खाना सबको पसंद आये।
रीमा को यह बात समजते देर नही लगी…
कितनी अच्छी बात है आपके द्वारा किये हर कार्य मे थोडा प्रेम मिला दिया जाये तो वो सामने वाले व्यक्ति को जरूर प्रभावित करता है।
प्रेम हर दर्द की दवा है।

----------------------------------------

मित्रो कहानी पसंद आये तो अवश्य शेयर करो .......
आज मेरे एक मित्र मिला वो कभी बना हजामत किये नही रहता है पर आज जब वो सामने आया तो उसकी दाढी और बाल बढे हुए थे। पुन पर उसने कहा 'भाई ये श्रावण मास के कारण।
लोग अपने हिन्दू धर्म की परंपराओ को कितना गलत तरीके से लेते है। जहां तक मेरी मान्यता है श्रावण मास इश्वर के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य, समर्पण और भक्ति के लिए है, इसलिए इसे श्रावण मास को वर्ष का सबसे पवित्र महिना कहा जाता है। शास्त्रो मे भी इसका समर्थन प्राप्त है।
ब्रह्मचर्य -
दुनिया की सभी इतर बातो से मन हटाकर केवल इश्वर मे मनको केन्द्रित करना। उस उसके लिए सबसे पहले मीताहार और सात्विक भोजन होना चाहिए, हो सके तो एक हीरा भोजन ग्रहण करे। आहार का मनकी प्रकृति से सिधा संबंध है। कहते है जैसा अन्न वैसा मन। आप जैसा भोजन ग्रहण करोगे आपके विचार ऐसे ही होगे।
काम वासना से अपने को दुर रखे, इससे अपने को इश्वर स्मरण मे लीन कर सको।
भूमी शयन या धर्म से बने बिछौने पर रात को सोये।
और अंत मे इन सब बातो मे लीन रहने से बाल दाढी और मुख की तरफ बेध्यान हो जाना।
अब इन सब भावनाओ को भुलाकर लोग मीताहार की सही परिभाषा को भुलाकर बडे अभियान से कहते सुनाई देंगे "मै तो इस पुरे श्रावण मास मे सिर्फ एक समय ही खाता हूअं। लेकिन उस एक समय मे हर प्रकार के व्यंजन थाली मे लेकर आरोगे जाते है जिसका मीताहार से कोइ लेना देना नही होता।
इसी तरह जो मन मे आया का लिया पी लिया जब चाहा खाया पीया लेकिन वो श्रावण मास के दरमियान दाढी, मुख और बाल बढा दिया तो हो गया श्रावण महिने का व्रत।
मित्रो यह सब गलत तरीके है यह केवल दिखावा है। अगर सही अर्थ मे श्रावण मास का व्रत करना चाहते हो ईश्वर कृपा प्राप्त करना चाहते हो तो सही तरीके से पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करो और संपूर्ण भक्ति और समर्पण से ये हो पायेगा। बाकी सब व्यर्थ आडंबर है दिखावा है।
🚩🚩🕉 नमः शिवाय 🕉🚩🚩

Thursday, August 18, 2016

विश्व के समस्त सनातनियों को रक्षा सूत महा पर्व की अनंत शुभकामनाएं,,,
समस्त बहनों को ढेरों खुशिया मिलें,,,
बाबा विश्वनाथ सब का कल्याण करें,,,,
सदा सर्वदा सुमंगल,,,,,
जनेन विधिना यस्तु रक्षाबंधनमाचरेत।
स सर्वदोष रहित,सुखी संवतसरे भवेत्।।
अर्थात् इस प्रकार विधिपूर्वक जिसके रक्षाबंधन किया जाता है वह संपूर्ण दोषों से दूर रहकर संपूर्ण वर्ष सुखी रहता है।
रक्षाबंधन में मूलत: दो भावनाएं काम करती रही हैं।
प्रथम जिस व्यक्ति के रक्षाबंधन किया जाता है उसकी कल्याण कामना और दूसरे रक्षाबंधन करने वाले के प्रति स्नेह भावना।
इस प्रकार रक्षाबंधन वास्तव में स्नेह,शांति और रक्षा का बंधन है।
इसमें सबके सुख और कल्याण की भावना निहित है।
सूत्र का अर्थ धागा भी होता है और सिद्धांत या मंत्र भी।
पुराणों में देवताओं या ऋषियों द्वारा जिस रक्षा सूत्र बांधने की बात की गई हैं वह धागे की बजाय कोई मंत्र या गुप्त सूत्र भी हो
सकता है।
धागा केवल उसका प्रतीक है।
येन बद्धो बलिराजा,दानवेन्द्रो महाबलः
तेनत्वाम प्रति बद्धनामि रक्षे,माचल-माचलः'
अर्थात दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे,उसी से तुम्हें बांधता हूं।
हे रक्षे ! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो,चलायमान न हो।
धर्मशास्त्र के विद्वानों के अनुसार इसका अर्थ यह है कि रक्षा सूत्र बांधते समय ब्राह्मण या पुरोहत अपने यजमान को कहता है कि जिस रक्षासूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बांधे गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गये थे,उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूं,यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूं।
इसके बाद पुरोहित रक्षा सूत्र से कहता है कि हे रक्षे तुम स्थिर रहना,स्थिर रहना।
इस प्रकार रक्षा सूत्र का उद्देश्य ब्राह्मणों द्वारा अपने यजमानों को धर्म के लिए प्रेरित एवं प्रयुक्त करना है।
भारतीय संस्कृति के सबसे बड़े परिचायक हैं हमारे पर्व और त्यौहार।
यहां हर महीने और हर मौसम में कोई ना कोई ऐसा त्यौहार होता ही है जिसमें देश की संस्कृति की झलक हमें देखने को मिलती है।
त्यौहारों का यह देश अपनी विविधता में एकता के लिए ही विश्व भर में अपनी पहचान बनाए हुए है।
रक्षाबंधन भाई बहनों का वह त्यौहार है तो मुख्यत: हिन्दुओं में प्रचलित है पर इसे भारत के सभी धर्मों के लोग समान उत्साह और भाव से मनाते हैं।
हिन्दू श्रावण मास (जुलाई-अगस्त) के पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला यह त्यौहार भाई का बहन के प्रति प्यार का प्रतीक है।
रक्षाबंधन पर बहनें भाइयों की दाहिनी कलाई में राखी बांधती हैं,उनका तिलक करती हैं और उनसे  अपनी रक्षा का संकल्प लेती हैं।
हालांकि रक्षाबंधन की व्यापकता इससे भी कहीं ज्यादा है।
राखी बांधना सिर्फ भाई-बहन के बीच का कार्यकलाप  नहीं रह गया है।
राखी देश की रक्षा,पर्यावरण की रक्षा,हितों की रक्षा  आदि के लिए भी बांधी जाने लगी है।
विश्वकवि रविंद्रनाथ ठाकुर ने इस पर्व पर बंग-भंग के विरोध में जनजागरण किया था और इस पर्व को एकता और भाईचारे का प्रतीक बनाया था।
--- रक्षा बंधन का पौराणिक महत्व
रक्षा बंधन का इतिहास हिंदू पुराण कथाओं में है।
वामनावतार नामक पौराणिक कथा में रक्षाबंधन का प्रसंग मिलता है।
कथा इस प्रकार है- राजा बलि ने यज्ञ संपन्न कर  स्वर्ग पर अधिकार का प्रयत्न किया,तो देवराज इंद्र ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की।
विष्णु जी वामन ब्राह्मण बनकर राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंच गए।
गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी।
वामन भगवान ने तीन पग में आकाश-पाताल और धरती नाप कर राजा बलि को रसातल में भेज दिया।
उसने अपनी भक्ति के बल पर विष्णु जी से हर समय  अपने सामने रहने का वचन ले लिया। लक्ष्मी जी इससे चिंतित हो गई।
नारद जी की सलाह पर लक्ष्मी जी बलि के पास गई और रक्षासूत्र बाधकर उसे अपना भाई बना लिया।
बदले में वे विष्णु जी को अपने साथ ले आई।
उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी।
---महाभारत में राखी
महाभारत में भी रक्षाबंधन के पर्व का उल्लेख है।
जब युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूं,तब कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिए राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी।
शिशुपाल का वध करते समय कृष्ण की तर्जनी में चोट आ गई,तो द्रौपदी ने लहू रोकने के लिए अपनी साड़ी फाड़कर चीर उनकी उंगली पर बांध दी थी।
यह भी श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था।
कृष्ण ने चीरहरण के समय उनकी लाज बचाकर यह कर्ज चुकाया था। रक्षा बंधन के पर्व में परस्पर एक-दूसरे की रक्षा
और सहयोग की भावना निहित है।
---ऐतिहासिक महत्व
इतिहास में भी राखी के महत्व के अनेक उल्लेख मिलते हैं।
मेवाड़ की महारानी कर्मावती ने मुगल राजा हुमायूं को राखी भेज कर रक्षा-याचना की थी।
हुमायूं ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी।
सिकंदर की पत्नी ने अपने पति के हिंदू शत्रु पुरु को राखी बांध कर उसे अपना भाई बनाया था और युद्ध के समय सिकंदर को न मारने का वचन लिया था।
पुरु ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी का और अपनी बहन को दिए हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकंदर को जीवनदान दिया था।
आज यह त्यौहार हमारी संस्कृति की पहचान है और हर भारतवासी को इस त्यौहार पर गर्व है।
लेकिन भारत जहां बहनों के लिए इस विशेष पर्व को मनाया जाता है वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो भाई की बहनों को गर्भ में ही मार देते हैं।
आज कई भाइयों की कलाई पर राखी सिर्फ इसलिए नहीं बंध पाती क्यूंकि उनकी बहनों को उनके माता-पिता इस दुनिया में आने से पहले ही मार देते हैं।
यह बहुत ही शर्मनाक बात है कि देश में कन्या- पूजन का विधान शास्त्रों में है वहीं कन्या-भ्रूण हत्या के मामले सामने आते हैं।
यह त्यौहार हमें यह भी याद दिलाता है कि बहनें हमारे जीवन में कितना महत्व रखती हैं।
अगर हमने कन्या-भ्रूण हत्या पर जल्द ही काबू नहीं पाया तो मुमकिन है एक दिन देश में लिंगानुपात और तेजी से घटेगा और सामाजिक असंतुलन भी।
भाई-बहनों के इस त्यौहार को जिंदा रखने के लिए जरूरी है कि हम सब मिलकर कन्या-भ्रूण हत्या का विरोध करें और महिलाओं पर हो रहे शोषण का विरोध करें।
अक्सर लोग यह भूल जाते हैं कि राह चलते वह जिस महिला या लड़की पर फब्तियां कस रहे हैं वह भी किसी की बहन होगी और जो वह दूसरों की बहन के साथ कर रहे हैं वह कोई उनकी बहन के साथ भी कर सकता है।

Wednesday, August 17, 2016

वैदिक रक्षा सूत्र बनाने की विधि

*वैदिक रक्षा सूत्र बनाने की विधि :*

जानिए कैसे मनाए रक्षा बंधन का पर्व
इसके लिए ५ वस्तुओं की आवश्यकता होती है -

1⃣ दूर्वा (घास)
2⃣ अक्षत (चावल)
3⃣ केसर
4⃣ चन्दन
5⃣ सरसों के दाने ।

इन ५ वस्तुओं को रेशम के कपड़े में
लेकर उसे बांध दें या सिलाई कर दें,
फिर उसे कलावा में पिरो दें, इस
प्रकार वैदिक राखी तैयार हो जाएगी ।

इन पांच वस्तुओं का महत्त्व -
1⃣ *दूर्वा - जिस प्रकार*
दूर्वा का एक अंकुर बो देने पर तेज़ी से
फैलता है और हज़ारों की संख्या में उग जाता है, उसी प्रकार मेरे भाई का वंश और उसमे सदगुणों का विकास
तेज़ी से हो । सदाचार, मन की पवित्रता तीव्रता से बदता जाए ।
दूर्वा गणेश जी को प्रिय है अर्थात हम जिसे राखी बाँध रहे हैं, उनके जीवन में विघ्नों का नाश हो जाए ।

2⃣ *अक्षत* - हमारी गुरुदेव के प्रति श्रद्धा कभी क्षत-विक्षत ना हो सदा अक्षत रहे ।

3⃣ *केसर* - केसर की प्रकृति तेज़ होती है अर्थात हम जिसे राखी बाँध रहे हैं, वह तेजस्वी हो । उनके जीवन में आध्यात्मिकता का तेज, भक्ति का तेज कभी कम ना हो ।

4⃣ *चन्दन* - चन्दन की प्रकृति तेज होती है और यह सुगंध देता है ।
उसी प्रकार उनके जीवन में शीतलता बनी रहे, कभी मानसिक तनाव ना हो । साथ ही उनके जीवन में परोपकार, सदाचार और संयम की सुगंध फैलती रहे ।

5⃣ *सरसों के दाने -*
सरसों की प्रकृति तीक्ष्ण होती है
अर्थात इससे यह संकेत मिलता है कि समाज के दुर्गुणों को, कंटकों को समाप्त करने में हम तीक्ष्ण बनें ।

इस प्रकार इन पांच वस्तुओं से बनी हुई एक राखी को सर्वप्रथम भगवान -चित्र पर अर्पित करें ।
फिर बहनें अपने भाई को, माता अपने
बच्चों को, दादी अपने पोते को शुभ संकल्प करके बांधे ।
इस प्रकार इन पांच वस्तुओं से बनी हुई वैदिक राखी को शास्त्रोक्त नियमानुसार बांधते हैं तो हम पुत्र-पौत्र एवं बंधुजनों सहित वर्ष भर सुखी रहते हैं ।

*राखी बाँधते समय बहन यह मंत्र बोले*

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: |
तेन त्वां अभिबन्धामि रक्षे मा चल
मा चल ||

और चाकलेट ना खिलाकर भारतीय
मिठाई या गुड से मुहं मीठा कराएँ।

अपना देश अपनी सभ्यता अपनी संस्कृति अपनी भाषा अपना गौरव
वन्दे मातरम

🎄🕉रहस्यमयी हिमालय - 16🕉🎄
दीक्षांत समारोह समाप्त हुआ
महायोगी अभेदानन्द ने बोलना प्रारम्भ किया
“ तंत्र कल्याण का विज्ञान है स्व कल्याण का | तन्त्र के माध्यम से योगी विभिन्न बिजमन्त्रों के द्वारा कुल कुण्डलिनी शक्ति को मूलाधार से उठा कर सहस्त्रार तक ले जाते हैं फिर सहस्त्रार से पुन : मूलाधार पर ले आते हैं | तंत्र में पञ्च मकार सेवन का विधान है | ये पञ्च मकार हैं – मांस , मध् , मीन , मुद्रा और मैथुन |”
वहां उपस्थित सभी साधक बहुत हीं तल्लीनता से योगी बाबा की बातें सुनते हुए किसी दुसरे हीं लोक में खो गये थे ऐसी ओजस्विता थी उनकी वाणी में |
महायोगी ने आगे कहना प्रारम्भ किया |
"सोमधारा क्षरेद या तु ब्रह्मरंध्राद वरानने|
पीत्वानंदमयास्तां य: स एव मद्यसाधक:|| ”
महायोगी ने रुद्रयामल तन्त्र का ये श्लोक सुनाया | फिर इसके बाद इसका अर्थ उन्होंने इस प्रकार बताया |
“जिह्वा मूल या तालू मूल में जिह्वाग्र ( जीभ का अगला भाग ) को सम्यकृत करके ब्र्ह्मारंध्र ( सिर के चोटी से ) से झरते हुए आज्ञा (भ्रू मध्य ) चक्र के चन्द्र मंडल से हो कर प्रवाहमान अमृतधारा को पान करने वाला मद्य साधक कहा जाता है |”
जिह्वाग्र ( जीभ का अगला भाग ) को तालू में लगाना हीं खेचरी मुद्रा कहलाता है ( साधक बिना किसी योग्य गुरु के इस अभ्यास को न करें क्योंकि अमृत के साथ विष का भी स्त्राव उसी स्थान से होता है इसमें गड़बड़ी नहीं होनी चाहिए )
यह वास्तविक मद्यपान कहलाता है |”
एक साधक ने पूछा
“ आज कल के साधक जो बाहरी मदिरा पान करते हैं क्या ये उचित है मेरे प्रभु |”
महायोगी ने कहना प्रारम्भ किया
“ बाहरी मदिरा पान का भी एक साधक के दृष्टिकोण से महत्व है | कुण्डलिनी शक्ति के उर्ध्वगमन होने पर भारी मात्रा में उर्जा का बहाव शरीर में होता है जो कभी कभी सच्चे साधकों के लिए असहनीय हो जाता है इसी उर्जा के वेग का प्रभाव कम मह्शूश हो इसलिए मदिरा के माध्यम से मस्तिष्क को शिथिल करने के लिए यदा कदा उच्च किस्म के साधकों को मदिरापान करना पड़ता है | स्मरण रहे भोग के लिए मदिरापान करना पाप है | औषध रूप में इसका प्रयोग किया जाता है |
सभी तन्त्र साधकों को ये स्मरण रखना चाहिए देखा देखी बिना सोचे समझे तन्त्र मार्ग का हावाला दे कर कभी भी मदिरापान न करें हाँ जब साधना के क्रम में आवश्यकता मह्शूश हो तब गुरु आज्ञा से हीं बाहरी मदिरा का पान करें |
किन्तु फिर भी साधक को ये प्रयास करना चाहिए कि बाहरी मदिरापान की आवश्यकता न हीं पड़े |
वास्तविक मदिरापान तो ब्रह्मारन्ध्र से गिरते हुए अमृत को पीना हीं है इस मदिरापान के आनन्द को वर्णन नहीं किया जा सकता |”
योगी बाबा ने समझाया |
आगे योगी बाबा ने कहा
“ आम व्यक्ति एवं सभी जीवों में जो अमृत ब्रह्मरन्ध्र के बिंदु से क्षरित होता है वही मूलाधार में आ कर काम उर्जा का निर्माण करता है जिससे सृष्टि के सृजन का कार्य होता है | किन्तु हमारे पूर्वज योगियों ने ध्यान के द्वारा अपने स्वयं के शरीर में प्रवेश कर इसके मर्म को इसके विज्ञान को समझा और युक्तिपूर्वक एक नए विज्ञान का आविष्कार किया | योगियों के स्व साधना के क्षेत्र में जो भी अविष्कार हुए वे सभी ध्यान की गहरी अवस्था में हुए इसलिए वर्तमान विज्ञान को इसे पकड पाना कठिन है |”
महा योगी के इस ओजमयी ज्ञान का पान वहां उपस्थित सभी साधक तल्लीनता पूर्वक कर रहे थे |
नोट* इस लेख का उदेश्य मदिरापान को बढ़ावा देना कतई नहीं है |
*मदिरापान करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है |
तन्त्र के सम्बन्ध में कोई प्रश्न हो तो टिप्पणी करें |

जारी .......16
साभार...👣🙏🏻🌟🎄

Monday, August 15, 2016

समस्त देशवासीओ को राहुल पंड्या की तरफ से स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाये।
मित्रो मन मे प्रश्न उठता है, क्या सही अर्थ मे हम भारतवासी स्वतंत्र है?
सन 1840 मे लोर्ड मोरे ने भारतवासी को लंबे समय तक गुलाम रखने के लिए जो शिक्षा पद्धति लागु करवाई थी वो आज भी चालु है।
स्वतंत्रता के पश्चात भारत गणतंत्र बना उस समय हिन्दी को राजभाषा घोषित किया गया। और तब से लेकर आज तक उसके विकास के लिए अलग से राजभाषा विभाग कार्यरत है।
विडंबना ये है के राजभाषा विभाग आजतक हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा के रूप मे स्थापित नही कर सका। आज के दिन स्वतंत्रता दिवस की जितनी भी शुभकामनाये मिली उसमे से 80% से अधिक अंग्रेजी मे थी।
आज भी तमाम सरकारी कामकाज को हिन्दी मे करने के लिए उस संबंधित विभाग या अधिकारी को प्रोत्साहन के लिए इनाम दिया जाता है।
आज समग्र भारतवर्ष मे यह स्थिति है की स्थानीय भाषा की प्राथमिक पाठ शाला सब धिरे धिरे बंध होने के कगार पर है कारण सब के सब अभिभावक अपने बच्चे को अंग्रेजी मे शिक्षण देने पर उतारू है।
अब कोई मा डोक्टर के पास अपने 5 वर्ष के बच्चे को लेके जाती है तब डोक्टर कहे जीभ दिखाओ तो बच्चा नही समझता और मा कहती है बेटा टंग दिखाओ डोक्टर दखल को।
कारण आज भी हम वही अंग्रेजो वाली मानसीकता मे जी रहे है।
मित्रो आओ सही अर्थ मे स्वतंत्र बने अपनी मातृभाषा और राजभाषा का सम्मान करे ऐसा करने हम सही अर्थ मे अपने देश को स्वतंत्र बनाए।
जय हिन्द ।।
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाये ।।

Sunday, August 14, 2016

श्रावण मास हिन्दुओं के लिए पवित्र मास है। और इसी महिने मे अनेक त्योहार आते है। और आजकल अधर्मी या विधर्मी कहो हिन्दुओं की सहिष्णुता की परिक्षा लेते है और विडंबना ये है की हर हिन्दू सेक्युलरवाद का चोला पहनकर इस परिक्षा मे हमेशा विफल हो जाता है।
अब रक्षाबंधन का पवित्र त्योहार आ रहा है और इन तुच्छ लोगो ने सोशीयल मिडिया पर कुछ भद्दे मजाक शुरू कर दिये है और हिन्दू बीना सोचे समझे इस मे खुद जाता है, धड़ल्ले से उस मजाक भरे मेसेज को भेजता रहता है। सोचता नही इसमे वो खुद का ही मजाक उठा रहा है।
पढो ये मेसेज .....

शमॅ करो!!!!! ...आजकल कुछ हिंदू भाई ऐसी पोस्ट डाल रहे है...

सभी शादी शुदा भाइयों के अच्छे दिन आने वाले हैं..

बीवियां मायके जाने वाली है..

राखी आने वाली है..

और....!
मोहल्ले की पुरानी सेटिंग आने वाली है..

उन सबसे एक सवाल..??

तुम्हारी बहन भी आएगी वो भी किसी सेटिंग होगी फिर..??

बीबी भी जायेगी अपने मायके वो भी वहाँ किसी की सेटिंग होगी..??

और....!
मम्मी भी मामा के घर जायेगी
वो भी सेटिंग होगी क्या..??

अरे मूर्खो कब अक्ल आएगी तुम्हे..??

अपने ही धर्म और अपने ही त्यौहार का मजाक उड़ाते हुए तुम्हे तनिक भी शर्म नहीं आती है..??

अगर आप किसी का सम्मान नहीं कर सकते है,,

तो....!

अपमान करने का भी आपको कोई हक नहीं है,, 🚩धर्म और धार्मिक परम्पराओ का सम्मान करे🚩 🚩अपने हिन्दूत्व और हिन्दु होने पर गरव करो।🚩

मेरी बात सही हो तो इस मेसेज को वोट्स एप फेसबुक और अन्य सोशीयल मिडिया पर भरपुर शेयर करे।
आज के अखबारो मे पढा भाजपा युवा मोर्चा दमण ने सरकारी महाविद्यालय दमण मे अंग दान (ऑर्गन डोनेशन) को लेकर एक सेमिनार किया। यह प्रशंसनीय कार्य है।
आशा करता हूँ की दमण मे कुछ समय पहले रक्त दान के लिए राजी होनेवालो ने रक्तदान नही सिर्फ रक्तदान के लिए राजी हूँ ऐसा पंजीकरण करवाने के कार्यक्रम ने एक रेकॉर्ड बनाया था, उसकी तरहा कोई संस्था ऊधमपुर के संकल्प के साथ पंजीकरण कराने वालो के लिए भी एक कार्यक्रम रखे और उसका भी रेकॉर्ड बने।
नही जानता कल के सेमिनार मे वक्ताओ ने क्या कहा, पर अफसोस एक बात का जरूर है के हम अपने आप से कुछ नही सोचते या अमल मे लाते। अंगदान के लिए माननीय प्रधानमंत्री महोदय ने अपने भाषण मे कहा और सब चल पडे। यही बात मैने दमण मे रक्तदान पंजीकरण के लिए रेकॉर्ड बनाने के लिए लोगो से आह्वान किया जा रहा था उस समय ईसी दमण वोईस गृप के माध्यम से लिखा था कि दमण मे अंगदान जागृत के लिए भी काम होना चाहिए। तब मेरी बात को डो. बीजल कापडीया और डो. मयुर मोडासीया ने प्रतिउत्तर मे बताया था यह बडा नेक कार्य होगा इसमे हमसे हर मुमकिन सहाय हम प्रदान करेगे।
ऐसा क्यों?  हमेशा ऐसा क्यों ?
उचित जवाब की अपेक्षा है।

Saturday, August 13, 2016

बहन याद आ गईR ??

इसे जरूर पढेR  !!

गरमीओ के मौसम मे आग निगलती दोपहर को एक ठंडा बेचनेवाले की दुकान पर भीड लगी थी। गरमीR से राहत पाने सब अपने मनपसंद ठंडे पेय का लुत्फ उठा रहे थे।एक फटे कपडे और बिखरे बालोवाली लडकी अपने अपने मनपसंद पेय का मजा ले रहे लोगो की और देखती रहीR।
उसमे से एक व्यक्ति का ध्यान उस लडकी की तरफ गया। लडकी दुर थी इस लिए उस व्यक्ति ने उसे पास बुलाया, पर वो लडकी पास आने मे संकोच का अनुभव कर रही थीR।
शायद उसके गंदे और फटे कपडे वहां खडे सज्जनो के पास जाते हुए रोक रहे थे, फिर भी थोडी हिम्मत करके वो पास गई। उस व्यक्ति ने पुछा,
" तुझे लस्सी पीनी है ?
" लडकी ने 'हां' कहा, साथ ही मुह मे पानी आ गयाR।   लडकी के लिए ड्रायफ्रुट स्पेशीयल लस्सी का ऑर्डर दिया गया।
लस्सी का गीलास लडकी के हाथ मे आया, वो फटी आंखो से गीलास मे लस्सी के उपर काजुबादाम को देखती रही। उसने उस व्यक्ति की तरफ आभार व्यक्त करते हुए कहा,
" शेठ, जीन्दगी मे कभी ऐसा पीया नही है, सुगंध भी अच्छी आ रही है।"
इतना बोलते उसने गीलास को मुंह से लगाया, गीलास होठों को स्पर्श करे उससे पहले उसने हटा लियाR।
गीलास दुकानवाले भाई को देते हुए उसने कहा, "भाई, मुझे यह लस्सी पैक कर दोना। कोइ भी थैली मे होगा चलेगा।"
दुकानवाले को लडकी पर थोडा गुस्सा आया वो बोला, यहां खडी पी ले इसे पैक करवाकर तुझे क्या करना है?"
लडकी ने रोतीसी आवाज मे दुकानवाले से कहा, "भाई, आपकी लस्सी कितनी अच्छी है, घरपे मेरा छोटा भाई है उसे ऐसी लस्सी पीने कोR कब मिलेगी?
मेरे भाई के लिए ले जाना है मुझे पैकिंग कर दोना भाई !"
लडकी के इन शब्दो ने वहां खडे सभी पुरूषो की आँख नम कर दी कारण सबको अपनी बहन याद आ गई।
मित्रो, अपने भाग का या अपने नसीब का जो है वो एक बहन अपने भाई के लिए कुर्बान कर देती है, ऐसी प्यार की साक्षात देवी समान बहन का हम कुछ दबा तोR नही रहे?
थोडा ध्यान करना।

अच्छा लगे तो कोपी - पेस्ट - शेयर करने की संपूर्ण आजादी है।

-सभी प्यारी बहनो को रक्षाबंधन पे तोहफा
    राहुल पंड्या, दमण

Tuesday, July 12, 2016

🕉♨रहस्यमयी हिमालय 12♨🕉

                  📙
शाम ढल चुकी थी रात्री बाँहें पसार चुकी थी |नौजवान योगी सच्चिदानन्द ध्यान में मग्न थे | वह व्यक्ति गुफा के दिवार का सहारा ले कर पीठ के बल उठंग कर बैठा हुआ था | उसकी आँखें कहीं खोई हुई थी | देखने पर साफ़ पता चलता था कि वह उस गुफा में मौजूद हो कर भी मौजूद नहीं था | उसके चेहरे पर उदासी साफ़ झलक रही थी |इसी बीच महायोगी अभेदानन्द ने ध्यान से निकल कर अपनी आँखें खोली | उस व्यक्ति के चेहरे पर अपनी नजर टिकाते हुए उससे पूछा “ मैं देख रहा हूँ तुम यहाँ होकर भी यहाँ मौजूद नहीं हो |”उसने सकपकाते हुए कहा “ नहीं बाबा जी यहीं तो हूँ |”“ मैं देख रहा हूँ तुम सशरीर यहाँ उपस्थित हो कर भी तुम अपने घर में अपने परिवार के बीच मौजूद हो | लगता है तुम्हें अपना घर बार , सगे सम्बन्धी , परिवार याद आ रहें हैं |”उसकी आँखों से दो बूँदें लुढक आई | और मौन रह गया |योगी बाबा ने उसे संबोधित करते हुए कहा “घर जाना चाहते हो |”“नहीं नहीं बाबा जी मैं यहाँ खुश हूँ | अध्यात्मिक जीवन में मेरी उन्नति हो आपकी कृपा से ऐसी आकांक्षारखता हूँ |”“ अच्छा आओ तुम्हें तुम्हारे घर पर ले चलूं |” योगी बाबा ने कहायोगी अभेदानन्द ने उसके हाथ पकडे और उससे कहा “ आँखें बंद कर लो क्योंकि अब जिस गति से हम विचरण करेंगे वह विज्ञान के द्वारा भी किसी वाहन ने नहीं प्राप्त किया है | जब मैं कहूँ तभी आँखें खोलना |”उसने अपनी आँखें बंद कर ली महायोगी अभेदानन्द ने उसका हाथ पकड़ा और वे दोनों सशरीर उसके घर के सामने उपस्थित थे |योगी बाबा ने कहा “ आँखें खोलो|”उसके तो मारे प्रसन्नता के चेहरा खिल गया |महायोगी ने कहा “ जाओ घर से हो आओ मैं तुम्हारा इन्तजार करूँगा | जब सभी से मिलना हो जाएगा तब मुझे याद करना मैं तुम्हारे पास आ जाऊँगा |

”“ आप मेरे घर नहीं आयेंगे |” उसने पूछा“ अभी मेरा गृहस्ततों के घर में प्रवेश करना वर्जित है |” योगी बाबा ने कहाअब उसकी तन्द्रा टूटी | उसने पूछा तो क्या हम सशरीर यहाँ मौजूद हैं क्या ये हम दोनों का सूक्ष्म शरीर नहीं है |”योगी बाबा ने कहा “ हाँ हम सशरीर यहाँ मौजूद हैं | यहहम दोनों का भौतिक शरीर हीं है | योगी चाहे तो अपने साथ कई व्यक्तियों को अपनी मदद से जहाँ चाहें वहां पहुंचा सकते हैं सशरीर |”अब उसके सामने एक नया रहस्य मुंह बाए खड़ा था |योगी बाबा ने कहा “ जाओ |”वह अपने घर में प्रवेश किया पहले तो उसके परिवार वाले आश्चर्य से भर गये | अभी रात्री के समय ये यहाँ कैसे उपस्थित हो गया किन्तु ये भूल कर उसके परिवार वाले भावुक हो गये उसे देख कर | भावुक वह भी हो चला |उसकी वृद्ध माँ ने उससे कहा“ बेटा तुम तो छुटियाँ गुजारने गये थे हिमालय की तरफतुम्हारे साथ गये सभी लोग वापस आ गयें किन्तु तुम क्यों वापस नहीं आये | तुम्हारे मित्रगण कह रहे थे किसी साधू के पास तुम ठहरे हुए थे | खैर चलो अब वापस आ गये हो अपना काम धंधा संभालो |”उसने अपनी माँ से कहा “ माँ मैं अब यहाँ नहीं रह पाऊंगा मुझे जीवन के ढेर सारे रहस्य जानने हैं और परमपिता परमात्मा की कृपा से मुझे बहुत हीं सिद्ध संत भी मिल गये हैं | उन बाबा जी कृपा हुई तो मैं हमेशा तुम लोगों के सम्पर्क में रहूँगा | मेरी चिंता न करना |”उसकी माँ यह सुन कर रोने लगी | उसने बार बार चुप कराने की कोशिश की किन्तु वह देर तक रोती रही और वह अपनी माँ को कुतुहुलता से देखता रहा |अपने परिवार के लोगों के द्वारा बार बार जाने से मना करने के बाद भी जब वह नहीं माना तब अंतत: उसकी माँ ने कहा “ जा बेटे जिसमे तेरी ख़ुशी “|

( अपने संतान के सुख के आगे माताएं हमेसा नतमस्तक हुईं हैंइतिहास गवाह है और यह अकाट्य सत्य है | माताओं ने अपनी ख़ुशी की परवाह कभी नहीं की संतानों के आगे इसलिए भगवान के बाद का स्थान माँ का है )कुछ घंटे अपने परिवार के बीच गुजारने के बाद वह निकल पड़ा घर से | अब उसका मन जीवन के रहस्यों को समझना चाहता था |घर से निकलने के बाद वह अपने मुहल्ले के नुक्कड़ पर आगया था | वहां कई दुकानें थी चाय आदि के होटल भी जहाँवह कभी दोस्तों के साथ चाय वगैरह पिया करता था | अभी ज्यादा रात्री नहीं गुजरी थी | दुकानों पर अभी भी चहल पहल मौजूद थी | चाय की दूकान पर वह देखा उसके कई मित्र बैठ कर गप्प ठहाका लगा रहे थे | वह उनके बीच चला गया | उसके सभी मित्र उसे देख कर हतप्रभ रह गये | खुश भी हुए | उन मित्रों को यह पता था कि वह कहाँ था इतने दिन | उनमे से एक मित्र ने उससे पूछा“ अब आ गये हो तुम जहाँ काम करते थे वहां के मालिक कोहमने मना कर रखा है वह इस बात पर राजी है कि अगर वह आगया तो उसे काम पर रख लेंगे | कल चले जाना उसके पास |”उसने कहा “ तुम मित्रों का बहुत बहुत अहसानमन्द हूँ मैं जो तुमलोगों ने मेरे बारे में सोचा किन्तु अब मेरे जीवन का कुछ और उदेश्य है | मैं ज्यदा देर यहाँ तुम लोगों के साथ नहीं रुक पाऊंगा मैं वहीँ जा रहा हूँ हिमालय के बीच |”“तो तुमने पका निर्णय कर लिया है |” उसके एक मित्र नेपूछा“हाँ ” कह कर वह योगी बाबा का स्मरण करने लगा |उसने सामने से देखा योगी बाबा चले आ रहें हैं | उसने अपने मित्रों से कहा “देखो सामने मेरे गुरु मेरे भगवान चले आ रहें हैं |”किन्तु उसके मित्रों को कोई सामने दिखाई नहीं दे रहा था | वह उनके बीच से निकल कर योगी बाबा के नजदीक चला गया |योगी बाबा ने पूछा “ तो चलें |”ऐसा कह कर योगी बाबा ने उसके हाथ पकड लिए और आँखें बंद करने को कहा |दोनों पुन : गुफा में मौजूद थे |जारी ........12. 👣🌼🌸

साभार....✨🕉🙏🏻📙

Friday, July 8, 2016

🕉🕉🚩🚩💐🚩🚩🕉🕉

विश्व के पालनहार भगवान विष्णु को हिन्दू धर्म
के तीन मुख्य ईश्वरीय रूपों में से एक रूप माना
जाता है।
विष्णु के हर चित्र व मूर्ति में उन्हें सुदर्शन चक्र
धारण किए दिखाया जाता है।

यह सुदर्शन चक्र उन्हें भगवान शिव ने जगत
कल्याण के लिए दिया था।

भगवान शिव द्वारा विष्णु को सुदर्शन चक्र देने
के पीछे पुराणों में एक कथा उल्लेखनीय है।

कहा जाता है कि एक बार जब दैत्यों के
अत्याचार बहुत बढ़ गए तब सभी देवता
भगवान विष्णु के पास आए।

देवताओं की समस्या का समाधान निकालने
के लिए उस समय विष्णु ने भगवान शिव
से कैलाश पर्वत पर जाकर प्रार्थना की।

शिव को प्रसन्न करने के लिए विष्णु ने
हजार नामों से शिव की स्तुति की।
इस अंतराल में प्रत्येक नाम पर एक कमल
पुष्प शिव को अर्पित करते रहे।

तब भगवान शंकर ने विष्णु की परीक्षा लेने
के लिए उनके द्वारा लाए एक हजार कमल
में से एक कमल का फूल छिपा दिया।

शिव की माया से अनजान विष्णु इस बात
का पता ना लगा सके और इसीलिए एक
फूल कम पाकर भगवान विष्णु उसे ढूंढ़ने
लगे,परंतु उन्हें फूल नहीं मिला।

तब विष्णु ने एक फूल की पूर्ति के लिए
अपना एक नेत्र निकालकर शिव को
अर्पित कर दिया।

विष्णु की भक्ति देखकर भगवान शंकर
बहुत प्रसन्न हुए और उनके समक्ष प्रकट
होकर वरदान मांगने के लिए कहा।

तब विष्णु ने एक ऐसे अजेय शस्त्र का
वरदान मांगा जिसकी सहायता से वे
देवताओं को दैत्यों के प्रकोप से मुक्त
कर सकें।

फलस्वरूप भगवान शंकर ने विष्णु को
अपना अमोघ सुदर्शन चक्र दिया।

विष्णु ने उस चक्र से दैत्यों का संहार कर
दिया,इस प्रकार देवताओं को दैत्यों से मुक्ति
मिली तथा सुदर्शन चक्र उनके स्वरूप से सदैव
के लिए जुड़ गया।

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णँ शुभांगं।।
लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिर्भिध्यानगम्यं।
वन्देर्विष्णुः भवभयहरं सर्वलोकैकनाथं।।

वे अपने चार हाथों में क्रमश: शंख,चक्र,गदा
और पद्म धारण करते हैं,जो किरीट और
कुण्डलों से विभूषित,पीताम्बरधारी,वनमाला
तथा कौस्तुभमणि को धारण करने वाले,सुन्दर
कमलों के समान नेत्र वाले भगवान श्री विष्णु
का ध्यान करता है वह भव-बन्धन से मुक्त
हो जाता है।

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं
रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्ग परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिँ वसानं
विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम्।।

चांदी के पर्वत समान जिनकी श्वेत कान्ति है,
जो सुन्दर चंद्रमा को आभूषण रुप मेँ धारण
करते है,रत्नमय अलंकारोँ से जिनका शरीर
उज्ज्वल है,जिनके हाथोँ मेँ परशु,मृग,वर और
अभयमुद्रा है,जो प्रसन्न हैँ,पद्म के आसन पर
विराजमान हैँ,देवता गण जिनके चारोँ ओर खड़े
होकर स्तुति करते हैँ,जो बाघ की खाल पहनते हैँ,
जो विश्व के आदि जगत की उत्पत्ति के बीज हैँ
और समस्त भयोँ को हरने वाले हैँ,जिनके पाँच
मुख और तीन नेत्र हैँ,उन महेश्वर का नित ध्यान
करता हु।
शिवलिंग पर नहीं चढ़ानी चाहिए ये पांच चीजें, कारण जानना चाहेंगे आप?

मनवांछित फल
हिन्दू धर्म में सभी देवी-देवताओं को प्रसन्न करने, उनकी आराधना करने के विशिष्ट तरीकों का वर्णन उपलब्ध हैं। कुछ ऐसी सामग्रियां और विधियां होती हैं जो विशिष्ट अराध्य देव को बहुत पसंद होती हैं, उनकी पूजा में उन सामग्रियों की उपलब्धता मनवांछित फल प्रदान करती है।

मनवांछित फल
हिन्दू धर्म में सभी देवी-देवताओं को प्रसन्न करने, उनकी आराधना करने के विशिष्ट तरीकों का वर्णन उपलब्ध हैं। कुछ ऐसी सामग्रियां और विधियां होती हैं जो विशिष्ट अराध्य देव को बहुत पसंद होती हैं, उनकी पूजा में उन सामग्रियों की उपलब्धता मनवांछित फल प्रदान करती है।

भगवान शिव जिन्हें भोलेनाथ भी कहा जाता है और विनाशक भी। जहां वे अपने भक्तों से बहुत ही जल्दी प्रसन्न भी होते हैं तो क्रोध के कारण बहुत जल्दी रौद्र रूप भी धारण कर लेते हैं।

हम ये बात तो जानते ही हैं भगवान शिव को भांग-धतूरे का चढ़ावा बहुत पसंद है, आज हम आपको कुछ ऐसी सामग्रियां बताएंगे जिनका उपयोग शिव आराधना के दौरान बिल्कुल नहीं करना चाहिए।
शिवपुराण के अनुसार शिव भक्तों को कभी भी भगवान शिव को इन पांच वस्तुओं का प्रसाद नहीं चढ़ाना चाहिए। आइए जानते हैं क्या हैं वे पांच चीजें।

केतकी के फूल
एक दिन भगवान विष्णु और ब्रह्म देव, खुद को सबसे अधिक ताकतवर साबित करने के लिए आपस में युद्ध कर रहे थे। जैसे ही वे दोनों एक दूसरे पर घातक अस्त्रों का प्रयोग करने लगे वहां ज्योतिर्लिंग के रूप में भगवान शिव प्रकट हुए। शिव ने उन दोनों से इस ज्योतिर्लिंग का आदि और अंत का पता लगाने को कहा, भगवान शिव ने कहा कि दोनों में से जो भी इस सवाल का जवाब दे देगा वहीं सबसे श्रेष्ठ होगा।

शिव ने उन दोनों से इस ज्योतिर्लिंग का आदि और अंत का पता लगाने को कहा, भगवान शिव ने कहा कि दोनों में से जो भी इस सवाल का जवाब दे देगा वहीं सबसे श्रेष्ठ होगा।

भगवान विष्णु उस ज्योतिर्लिंग के अंत की ओर बढ़े लेकिन उस छोर का पता लगाने में नाकामयाब रहे। ब्रह्म देव भी ऊपर की ओर बढ़े और अपने साथ केतकी के फूल को ले गए। भगवान विष्णु ने अपनी हार स्वीकार कर ली थी।
वापस आकर ब्रह्मा जी भगवान शिव से कहा कि उन्होंने ज्योतिर्लिंग के अंत का पता लगा लिया है और केतकी के फूल ने भी उनके झूठ को सच करार दे दिया।
ब्रह्मा जी के इस झूठ ने भगवान शिव को अत्यंत क्रोधित कर दिया, क्रोध में आकर महादेव ने ब्रह्मा जी का एक सिर काट दिया और साथ ही उन्हें श्राप दे दिया कि उनकी कभी कोई पूजा नहीं होगी। ब्रह्माजी का वो कटा सिर केतकी के फूल में बदल गया।
भगवान शिव ने केतकी के फूल को भी श्राप देकर कहा कि उनके शिवलिंग पर कभी केतकी के फूल को अर्पित नहीं किया जाएगा। तबसे शिव को केतकी के फूल अर्पित किया जाना अशुभ माना जाता है।

शिवपुराण के अनुसार असुर जालंधर की पत्नी तुलसी के मजबूत पतिधर्म की वजह से उसे कोई भी देव हरा नहीं सकता था। इसलिए भगवान विष्णु ने तुलसी के पतिव्रत को ही खंडित करने की सोची। वह जालंधर का वेष धारण कर तुलसी के पास पहुंच गए, जिसकी वजह से तुलसी का पतिधर्म टूट गया और भगवान शिव ने असुर जालंधर का वध कर उसे भस्म कर दिया।
इस पूरी घटना ने तुलसी को बेहद निराश कर दिया उन्होंने स्वयं भगवान शिव को अपने अलौकिक और दैवीय गुणों वाले पत्तों से वंचित कर दिया।
हालांकि शिवलिंग पर नारियल अर्पित किया जाता है लेकिन कभी भी शिवलिंग पर नारियल के पानी से अभिषेक नहीं करना चाहिए। देवताओं को चढ़ाया जाने वाला प्रसाद ग्रहण करना आवश्यक होता है लेकिन शिवलिंग का अभिषेक जिन पदार्थों से होता है उन्हें ग्रहण नहीं किया जाता। इसलिए शिव पर नारियल का जल नहीं चढ़ाना चाहिए।
हल्दी का प्रयोग स्त्रियों की सुंदरता बढ़ाने के लिए किया जाता है। इसलिए शिवलिंग पर कभी हल्दी नहीं चढ़ाई जाती, क्योंकि वह स्वयं शिव का रूप है।
सिंदूर, विवाहित स्त्रियों का गहना माना गया है। स्त्रियां अपने पति की लंबे और स्वस्थ जीवन की कामना हेतु सिंदूर लगाती हैं। लेकिन शिव तो विनाशक हैं, सिंदूर से उनकी सेवा करना अशुभ माना जाता है।
परशुराम (जामदग्न्य) भगवान परशुराम महर्षि जमदग्नि के महान् पराक्रमी पुत्र थे, जिन्होंने इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार किया था। भृगुवंश में पैदा होने के कारण, जमदग्नि एवं परशुराम ‘भार्गव’ पैतृक नाम से ख्यातनाम थे। भार्गव वंश के ब्राह्मण पश्चिम भारत पर राज्य करने वाले हैहय राजाओं के कुलगुरु थे। भार्गववंश के ब्राह्मण आनर्त (गुजरात) देश के रहने वाले थे। पश्चात् हैहय राजाओं से भार्गवों का झगड़ा हो गया एवं वे उत्तरभारत के, कान्यकुब्ज देश में रहने गये । फिर भी, बारह पीढियों तक हैहय एवं भार्गव का वैर चलता रहा । इसीलिये प्राचीन इतिहास में २५५० ई. पू. से २३५० ई.पू. तक यह काल ‘भार्गव-हैहय’ नाम से पहचाना जाता है । हैहय एवं भार्गवों के वैर की चरम सीमा परशुराम जामदग्न्य के काल में पहुँचे गयी, एवं परशुराम ने हैहयों का और संबंधित क्षत्रियों का इक्कीस बार संहार किया । इसी कारण ब्राह्मतेज की मूर्तिमंत एवं ज्वलंत प्रतिमा बन कर, परशुराम इस विशिष्ट काल के इतिहास में अमर हो गया है । ‘राम भार्गवेय’ नामक एक वैदिक ऋषि का नाम एक सूक्तद्रष्टा के रुप में आया है [ऋ.१०.११०] । ‘सर्वानुक्रमणी’ के अनुसार यही परशुराम है । ‘राम भार्गवेय’ श्यापर्ण लोगों के पुरोहित थे । ‘राम भार्गवेय’ एवं परशुराम एक ही था यह निश्चित से नहीं कहा जा सकता । हैहय राजा कार्तवीर्य एवं परशुराम के युद्ध का निर्देश अथर्ववेद में संक्षिप्त रुप में आया है [अ.वे.५.१८.१०] । अथर्ववेद के अनुसार, कार्तवीर्य राजा ने जमदग्नि ऋषि की धेनु हठात् ले जाने का प्रयत्न किया । इसलिये परशुराम द्वारा कार्तवीर्य एवं उनके वंश का पराभव हुआ । परशुराम महर्षि जमदग्नि के पॉंच पुत्रों में से कनिष्ठ पुत्र थे । इनकी माता का नाम ‘कामली रेणुका’ था जो इक्ष्वाकु वंश के राजा की पुत्री थी । परशुराम धनुर्विद्या में ही नहीं, बल्कि अन्य सभी अस्त्र-शस्त्र सम्बन्धी विद्याओं में प्रवीण थे [ब्रह्म.१०] । वे भगवान विष्णु का अवतार थे [पद्म.उ.२४८];[ मत्स्य.४७.२४४];[ वायु.९१.८८,३६.९०] । इनका जन्म वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था [रेणु.१४] । वे १९ वें त्रेतायुग में उत्पन्न हुआ थे  [दे.भा.४.१६] । त्रेता तथा द्वापर युगों के संधिकाल में परशुराम का अवतार हुआ था [म.आ.२.३] । शिक्षा  उपनयन के उपरांत वे शालग्राम पर्वत पर गये । वहॉं महर्षि कश्यप ने इनको मंत्रोपदेश दिया [पद्म.३.२४१] । इसके अतिरिक्त इन्होंने भगवान शड्कर को प्रसन्न कर धनुर्वेद, शस्त्रास्त्रविद्या एवं मंत्र प्रयोगादि का ज्ञान प्राप्त किया [रेणु.१५];[ ब्रह्मांड.३.२२-५६-६०] । शिष्य तपस्या से वापस आते समय, राह में शालग्राम शिखर पर शान्ता के पुत्र को लकडबग्घे से मुक्त करा कर वे उसे अपने साथ ले आये । वही आगे चल कर, अकृतव्रण नाम से परशुराम के शिष्य के रूप में प्रसिद्ध हुआ । आश्रम महर्षि जमदग्नि का आश्रम नर्मदा के तट पर था [ब्रह्मांड.३.२३.२६] । भगवान परशुराम का आश्रम भी वहीं स्थित था। रेणुकावध  एक बार महर्षि जमदग्नि रेणुका पर क्रोधित हो गये तथा परशुराम को उनका वध करने की आज्ञा दे दी, जिनका परशुराम ने पालन किया [म.व.११६.१४] । महर्षि जमदग्नि इस पर प्रसन्न हुये तथा इनकी इच्छानुसार रेणुका को पुनः जीवित कर उन्हें वरदान दिया कि – तुम अजेय हो, तथा स्वेच्छा पर ही मृत्यु को प्राप्त हो सकते हो [विष्णुधर्म.१.३६.११] । अस्त्रविद्या भगवान परशुराम को निम्नलिखित अस्त्र-शस्त्रों की जानकारी प्राप्त थीः— ब्रह्मास्त्र, वैष्णव, रौद्र, आग्नेय, वासव, नैऋत, याम्य, कौबेर, वारुण, वायव्य, सौम्य, सौर, पार्वत, चक्र, वज्र, पाश, सर्व, गांधर्व, स्वापन, भौत, पाशुपत, ऐशीक, तर्जन, प्रास, भारुड, नर्तन, अस्त्ररोधन, आदित्य, रैवत, मानव, अक्षिसंतर्जन, भीम,  जृम्भण, रोधन, सौपर्ण, पर्जन्य, राक्षस, मोहन, कालास्त्र, दानवास्त्र, ब्रह्मशिरस[विष्णुधर्म १.५०] ।

हैहयों से शत्रुत्व

हैहय राजा कृतवीर्य ने अपने कुलगुरु ’ऋचीक और्व भार्गव’ को बहुत धन दिया था । पश्चात् वह धन वापस करने का ऋचीक ने इन्कार कर दिया । उस कारण कृतवीर्य के पुत्र सहस्त्रार्जुन (कार्तवीर्य अर्जुन) ने ऋचीक के उपर हाथ चलाया, जिस कारण अपने अन्य भार्गव बांधवों के साथ वह कान्यकुब्ज को भाग गये । ऋचीक स्वयं अत्यंत स्वाभिमानी एवं अस्त्रविद्या में कुशल थे । कान्यकुब्ज पहुँचते ही, हैहयों से अपमान का बदला लेने की वह कोशिश करने लगे । उस कार्य के लिये, उन्होंने नाना प्रकार के शस्त्रास्त्र इकठ्ठा किये एवं उत्तर भारत के शक्तिशाली राजाओं को अपने पक्ष में लाने का प्रयत्न करने लगे। इस हेतु से, कान्यकुब्ज देश के गाधि राजा की कन्या सत्यवती के साथ विवाह किया एवं अपने पुत्र जमदग्नि का विवाह अयोध्या के राजवंश में से रेणु राजा की कन्या रेणुका के साथ कराया । इस तरह, कान्यकुब्ज एवं अयोध्या के ये दो देश भार्गवों के पक्ष में आ गये । कामधेनुहरण महर्षि जमदग्नि भी पराक्रमी एवं अस्त्रविद्या में निपुण थे पर उनके पुत्र परशुराम उनसे भी अधिक पराक्रमी थे । एक बार परशुराम जब तप करने गये, तब कार्तवीर्य अर्जुन जमदग्नि से मिलने उसके आश्रम में आये । तपश्चर्या को जाने के पहले, अपनी कामधेनु नामक गौ परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि के पास अमानत रुप मे रखी थी । कार्तवीर्य ने उस गौ को महर्षि जमदग्नि से छीनने की कोशिश की । कामधेनु के शरीर से उत्पन्न हुये हजारों यवनों ने कार्तवीर्य का वध करने का प्रयत्न किया । किंतु अंत में जमदग्नि को घूंसे लगा कर, एवं उसका आश्रम जला कर कार्तवीर्य कामधेनु के साथ अपने राज्य में वापस चला गया । तपश्चर्या से लौटते ही, परशुराम को कार्तवीर्य की दुष्टता ज्ञात हुई, जिसके पश्चात उन्होंने तुरंत कार्तवीर्य के वध की प्रतिज्ञा ली। पुराणों के अनुसार, कार्ववीर्यवध की इस प्रतिज्ञा से इनको परावृत्त करने का प्रयत्न जमदग्नि ऋषि ने किया । उन्होंने कहा कि – ‘ब्राह्मणों के लिये यह कार्य अत्याधिक अशोभनीय है’। परंतु भगवान परशुराम ने कहा कि, ‘दुष्टों का दमन न करने से परिणाम बुरा हो सकता है’। जिसके पश्चात महर्षि जमदग्नि ने इस कृत्य के लिये ब्रह्मा जी की, तथा ब्रह्मा जी ने भगवान शंकर जी की सम्मति लेने के लिये कहा । सम्मति प्राप्त कर यह सरस्वती के किनारे, अगस्त्य ऋषि के पास आये, तथा उनकी आज्ञा से गंगा के उद्‌गम के पास जा कर, इन्होने तपश्चर्या की । इस तरह देवों का आशीर्वाद प्राप्त कर, परशुराम नर्मदा के किनारे आये । वहॉं से कार्तवीर्य के पास दूत भेज कर, उन्होंने कारतवीर्य को युद्ध का आह्वान किया । यद्यपि हैहय एवं भार्गवों के शत्रुत्व का इतिहास जान लेने पर, महर्षि जमदग्नि ने परशुराम को कार्तवीर्य वध से परावृत्त करने की कोशिश की थी ।

युद्ध

भगवान परशुराम की प्रतिज्ञा सुन कर, कार्तवीर्य ने भी युद्ध का आह्वान स्वीकार किया, एवं सेनापति को सेना सजाने के लिये कहा । अनेक अक्षौहिणी सेनाओं के सहित कार्तवीर्य युद्धभूमि पर आये। जिनका परशुराम ने नर्मदा के उत्तर किनारे पर मुकाबला किया । युद्ध के शुरु में कार्तवीर्य की ओर से मत्स्य राजा ने परशुराम पर जोरदार आक्रमण किये। बडी सुलभता के साथ परशुराम ने कार्तवीर्य का वध कर दिया । बृहद्वल, सोमदत्त एवं विदर्भ, मिथिला, निषध, तथा मगध देश के राजाओं का भी परशुराम ने वध किया । सात अक्षौहिणी सैन्य तथा एक लाख क्षत्रियों के साथ आये हुये सूर्यवंशज सुचन्द को परशुराम ने भद्रकाली की कृपा से परास्त दिया । सुचन्द्र के पुत्र पुष्कराक्ष को भी सिर से पैर तक काट कर, मार डाला । कार्तवीर्यवध बाद में प्रत्यक्ष कार्तवीर्य तथा उनके सौ पुत्रों के साथ भगवान परशुराम का युद्ध हुआ । शुरु में कार्तवीर्य ने परशुराम को बेहोश कर दिया । किन्तु, अन्त में परशुराम के कार्तवीर्य एवं उसके पुत्रों का सौ अक्षोहिणी सेनासहित नाश कर दिया [ब्रह्माड३.३९.११९];[ म.द्रो.परि.१क्र .८] । महाभारत के अनुसार, परशुराम ने कार्तवीर्य के सहस्त्र बाहू काट दिये, एवं एक सामान्य श्वापद या कुत्ते जैसा उसका वध किया [म.शां.४९.४१] । कार्तवीर्य के शूर, वृषास्य, वृष, शोरसेन तथा जयध्वज नामक पुत्रों ने पलायन किया । उन्होंने हिमालय की तराई में स्थित अरण्य में आश्रय लिया । परशुराम ने युद्ध समाप्त किया । पश्चात् यह नर्मदा में स्नान कर के शिवजी के पास गये । वहॉं गणेशजी ने इनको कहा ‘शिवजी के पास जाने का यह समय नहीं है’। फिर क्रुद्ध हो कर अपने फरसे से इन्होंने गणेशजी का एक दॉंत तोड दिया [ब्रह्मांड.३.४२]। पश्चात् जगदाग्नि के आश्रम में आ कर, इन्होंने कार्तवीर्यवध का सारा वृत्तांत सुनाया । क्षत्रिय हत्या के दोषहरण के लिये, जमदग्नि ने परशुराम को बारह वर्षो तक तप कर के प्रायश्चित्त करने के लिये कहा । फिर परशुराम प्रायश्चित करने के लिये महेंद्र पर्वत चले गये । मत्स्यपुराण के अनुसार, वे कैलास पर्वत पर गणेश जी की आराधना करने गए [मत्स्य.३६] । जिधर जिधर वे जाते थे, वहॉं क्षत्रिय डर के मारे छिप जाते थे, तथा अन्य सारे लोग इनकी जय जयकार करते थे [ब्रह्मांड.३.४४] । जमदग्निवध परशुराम तपश्चर्या में निमग्न ही थे कि, इधर कार्तवीर्य के पुत्रों ने तपस्या के लिये समाधि लगाये हुए जमदग्नि ऋषि का वध कर दिया, तथा वे उनका सिर ले कर भाग गये । ब्रह्मांड के अनुसार, महर्षि जमदग्नि का वध कार्तवीर्य के अमात्य चंद्रगुप्त ने किया [ब्रह्मांड. ३.२९.१४] । बारह वर्षों के बाद, परशुराम जब तपश्चर्या से वापस आ रहे था, तब मार्ग में उन्हें महर्षि जमदग्नि के वध की घटना सुनायी गयी । जमदग्नि के आश्रम में आते ही, रेणुका ने इक्कीस बार छाती पीट कर जमदग्निवध की कथा फिर दोहरायी । फिर क्रोधातुर हो कर, परशुराम ने केवल हैहयों का ही नहीं, बल्कि पृथ्वी पर से सारे क्षत्रियों के वध करने की, एवं पृथ्वी को निःक्षत्रिय बनाने की दृढ प्रतिज्ञा की ।

मातृतीर्थ की स्थापना

परशुराम के प्रतिज्ञा की यह कथा ‘रेणुकामहात्म्य’ में कुछ अलग ढंग से दी गयी है । कार्तवीर्य जब जमदग्नि से मिलने उसके आश्रय में गये, तब कामधेनु की प्राप्ति के लिये उन्होंने महर्षि जमदग्नि का वध किया । फिर अपने पिता का और्ध्वदैहिक करने के लिये, परशुराम एक डोली में जमदग्नि का शव, एवं रेणुका को बैठा कर, ‘कन्याकुब्जाश्रम’ से बाहर निकले । अनेक तीर्थस्थान एवं जंगलों को पार करते हुए, वह दक्षिण मार्ग से पश्चिम घाट के मल्लकी नामक दत्तात्रेय क्षेत्र में आये । मातृतीर्थ वहॉं कुछ काल तक विश्राम करने के उपरांत वे चलने वाले ही थे, कि इतने में आकाशवाणी हुयी ‘अपने पिता का अग्निसंस्कार तुम इसी जगह करों’। आकाशवाणी के कथनानुसार, परशुराम ने दत्तात्रेय की अनुमति से, जमदग्नि का अंतिम संस्कार किया । रेणुका भी अपने पति के शव के साथ अग्नि में सती हो गयी । बाद में परशुराम ने मातृ-पितृप्रेम से विह्रल हो कर इन्हें पुकारा । फिर दोनों उस स्थान पर प्रत्यक्ष उपस्थित हो गये । इसी कारण उस स्थान को ‘मातृतीर्थ’ (महाराष्ट्र में स्थित आधुनिक माहूर) नाम दिया गया । इस मातृतीर्थ में परशुराम की माता रेणुका स्वयं वास करती है । इस स्थान पर रेणुका ने परशुराम को आज्ञा दी, ‘तुम कार्तवीर्य का वध करो, एवं पृथ्वी को निःक्षत्रिय बना दो’। नर्मदा के किनारे मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम था । वहॉं मार्कण्डेय ऋषि का आशीर्वाद लेकर, परशुराम ने कार्तवीर्य का वध किया एवं पृथ्वी निःक्षत्रिय करने की अपनी प्रतिज्ञा निभाने के लिये, यह आगे बढे [रेणु. ३७-४०] ।

हैहयविनाश  

अपनी प्रतिज्ञा निभाने के लिये, परशुराम ने सर्वप्रथम अपने गुरु अगस्त्य का स्मरण किया । फिर अगस्त्य ने इनको उत्तम रथ एवं आयुध दिये । सहसाह इनका सारथि बना [ब्रह्मांड.३.४६.१४] । रुद्रद्वारा दिया गया ‘अभित्रजित्’ शंख इन्होंने फूँका । कार्तवीर्य के शूरसेनादि पॉंच पुत्रों ने अन्य राजाओं को साथ ले कर, परशुराम का सामना करने का प्रयत्न किया । उनको वध कर, अन्य क्षत्रियों का वध करने का सत्र इन्होंने शुरु किया । हैहय राजाओं की राजधानी माहिष्मती नगरी को उन्होंने जला कर भस्म कर डाला था। हैहयों में से वीतिहोत्र केवल बच गया, शेष हैहय मारे गये । हैहयविनाश का यह रौद्र कृत्य पूरा कर, परशुराम महेंद्र पर्वत पर तपस्या करने के लिये चले गये । नये क्षत्रिय पैदा होते ही, उनका वध वरने की उनकी प्रतिज्ञा थी । उस कारण वह दस वर्षो तक लगातार तपस्या करते थे, एवं दो वर्षों तक महेंद्र पर्वत से उतर कर, नये पैदा हुए क्षत्रियों को अत्यंत निष्ठुरता से मार देते थे । इस प्रकार इक्कीस बार इन्होंने पृथ्वी भार के क्षत्रियों का वध कर, उसे निःक्षत्रिय बना दिया [ब्रह्मांड.३.४६] गुणावती के उत्तर में तथा खांडवारण्य के दक्षिण में जो पहाडियॉं हैं, उनकी तराई में क्षत्रियों से भगवन परशुराम का युद्ध हुआ था । वहॉं उन्होंने दस हजार वीरों को मात दे। जिसके पश्चात् कश्मीर, दरद, कुंति, क्षुद्रक, मालव, अंग, वंग कलिंग, विदेह, ताम्रलिप्त, रक्षोवाह, वीतिहोत्र, त्रिगर्त, मार्तिकावत, शिबि इत्यादि अनेक देश के राजाओं का इन्होने वध कर दिया । बाद में गया जाकर चन्द्रपाद नामक स्थान पर उन्होंने अपने पिता महर्षि जमदग्नि का श्राद्ध किया [पद्म.स्व.२६] । इस प्रकार अद्‌भुत कर्म कर के परशुराम प्रतिज्ञा से मुक्त हुए । पितरों को यह क्षत्रियहत्या पसन्द न आई । उन्होंने इस कार्य से छुटकारा पाने तथा पाप से मुक्ति प्राप्त करने के लिये, प्रायश्चित करने के लिये कहा [म.आ.२.४.१२] । पितरों की आज्ञा का पालन कर, यह अकृतव्रण के साथ सिद्धवन की ओर गये । रथ, सारथि, धनुष आदि को त्याग कर इसने पुनः ब्राह्मण धर्म स्वीकार किया । सब तीर्थो पर स्नान कर इसने तीन बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा की, और महेन्द्र पर्वत पर स्थायी निवास बनाया ।

अश्वमेधयज्ञ

पश्चात् जीती हुयी सारी, पृथ्वी कश्यप ऋषि को दान देने के लिये, परशुराम ने एक महान् अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया । उस यज्ञ के लिये, बत्तीस हॉंथ सुवर्णवेदी इन्होने बनायी, एवं निम्नलिखित ऋषिओं को यज्ञधिकार दिये—काश्यप (अश्वर्यु), गौतम (उद्नातृ), विश्वामित्र (होतृ) तथा मार्कण्डेय (ब्रह्मा), भरदाज, अग्निवेश्यादि ऋषियों ने भी इस यज्ञ में भाग लिया । इस प्रकार यज्ञ समाप्त कर परशुराम ने महेन्द्र पर्वत को छोड कर, शेष पृथ्वी कश्यप को दान दे दी [म.शां.४९];[ अनु. १३७.१२] । पश्चात् ‘दीपप्रतिष्ठाख्य’ नामक व्रत किया [ब्रह्मांड ३.४७] । नवीन वध कांड  इस व्यवहार के कारण, परशुराम के बारे में लोगों के हृदय में तिरस्कार की भावना भर गयी । कुछ दिनों के उपरांत विश्वमित्र-पौत्र तथा रैम्यपुत्र परावसु ने भरी सभा में उन्हें चिढाया तथा कहा कि ‘पृथ्वी निःक्षत्रिय करने की प्रतिज्ञा आपने की । परन्तु ययाति के यज्ञ के लिये एकत्रित प्रतर्दन प्रभृति लोग क्या क्षत्रिय नहीं है । इससे संतप्त हो कर परशुराम ने पुनः शस्त्र हाथ में लिया, तथा पहले निरपराधी मानकर छोडे गये क्षत्रियों का वध किया । अन्त में सम्पूर्ण पृथ्वी का दान कर स्वयं महेन्द्र पर्वत पर रहने के लिये चले गये  [म.द्रो.परि,.क्र.२६ पंक्ति ८६६] । अभिमन्यु की मृत्यु से शोकग्रस्त युधिष्ठिर को यह कथा बताकर नारद ने शांत किया । शेष क्षत्रिय परशुराम के हत्याकांड से बहुत ही थोडे क्षत्रिय बच सके । उनके नाम इस प्रकार हैः— हैहय राजा वीतिहोत्र—यह अपने स्त्रियों के अंतःपुर में छिपने से बच गया । पौरव राजा ऋक्षवान—यह यक्षवान् पर्वतों के रीघों में जाकर छिपने से बच गया । अयोध्या का राजा सर्वकर्मन्—पराशर ऋषि ने शूद्र के समान सेवा कर इसे बचाया । मगवराज बृहद्रथ—गृध्रकुट पर्वत पर रहने वाले बंदरों ने इसकी रक्षा की । अंगराज चित्ररथ—गंगातीर पर रहने वाले गौतम’ ने इसकी रक्षा की । शिबीराजा गोपालि—गायों ने इसकी रक्षा की । प्रतर्दनपुत्र वत्स—इसकी रक्षा गोवत्सों ने की । मरुत्त–इसे समुद्र ने बचाया । इन राजाओं के वंश के लोग क्षत्रिय होते हुये भी, शिल्पकार, स्वर्णकार आदि कनिष्ठ श्रेणी के व्यवसाय करने पर विवश हुये । इस प्रकार परशुराम के कारण, चारों ओर अराजकता फैल गया । उस अराजकता को नष्ट करने के लिये, कश्यप ने चारों ओर के क्षत्रियों को ढूंढना पुनः प्रारंभ किया, एवं उनके राज्याभिषेक कर सुराज्य स्थापित करने की कोशिश की [म.शां.४९-५७-६०] ।  ‘शूर्पारक’ की स्थापना अवशिष्ट क्षत्रियों के बचाव के लिये, कश्यप ने परशुराम को दक्षिण सागर के पश्चिमी किनारे जाने के लिये कहा । ‘शूर्पारक’ नामक प्रदेश समुद्र से प्राप्त कर, परशुराम वहॉं रहने लगा । भृगुकच्छ (भडोचि) से ले कर कन्याकुमारी तक का पश्चिम समुद्र तट का प्रदेश ‘परशुराम देश’ या ‘शूर्पारक’ नाम से प्रसिद्ध हुआ । शूर्पारक प्रान्त की स्थापना के कई अन्य कारण भी पुराणों में प्राप्त हैं । सगरपुत्रों द्वारा गंगा नदी खोदी जाने पर, ‘गोकर्ण’ का प्रदेश समुद्र में डूबने का भय उत्पन्न हुआ । वहॉं रहनेवाले शुष्क आदि ब्राह्मणों ने महेंद्र पर्वत जा कर, परशुराम से प्रार्थना की । फिर गोकर्णवासियों के लिये नयी बस्ती बसाने के लिये, परशुराम ने समुद्र पीछे हटा कर, दक्षिणोत्तर चार सौ योजने लम्बे शूर्पारक देश की स्थापना की इस प्रकार परशुराम हैहयों का संपूर्ण विनाश न कर सके । परशुराम के पश्चात्, हैहय लोग ‘तालजंघ’ सामूहिक नाम से पुनः एकत्र हुये । ‘तालजंघ’ सामूहिक नाम से पुनः एकत्र हुये । तालजंघों में पॉंच उपजातियों का समावेश था, जिनके नाम थेः—वीतहोत्र, शर्यात, भोज, अवन्ति, कुण्डरिक [मत्स्य.४३.४८-४९];[ वायु. ९४.५१-५२] । उन लोगों ने कान्यकुब्ज, कोमल, काशी आदि देशों पर बार बार आक्रमण किये, एवं कान्यकुब्ज राज्य का संपूर्ण विनाश किया ।

महाभारत में परशुराम

सौभपति शाल्व के हाथों से एक बार परशुराम पराजित हुए । फिर कृष्ण ने शाल्व का वध किया [म.स.परि.१.क्र.२१. पंक्ति. ४७४-४८५] । करवीर श्रुंगाल के उन्मत्त कृत्यों की शिकायत परशुराम ने बलराम एवं कृष्ण के पास की । फिर उसका वध भी कृष्ण ने किया [ह.वं.२.४४] । सैंहिकेय शाल्व का वध भी कृष्ण ने परशुराम के कहने पर ही किया [ह.वं.२.४४] । सैंहिकेय शाल्व के वध के बाद, भगवान शंकर ने परशुराम को ‘शंकरगीता’ का ज्ञान कराया [विष्णु-धर्म.१.५२.६५] । जरासंघ के आक्रमण से डर कर, बलराम तथा कृष्ण राजधानी के लिये नये स्थान ढूँढ रहे थे । उस समय उनकी भेंट परशुराम से हुयी थी । परशुराम ने उन्हें गोमंत पर्वत पर रह पर जरासंध से दुर्गयुद्ध करने की सलाह दी [ह.वं,.२.३९] । महेंद्र पर्वत पर जब यह रहते थे , तब अष्टमी तथा चतुर्दशी के ही दिन केवल अभ्यागतों से मिलते थे  [म.व.११५.६] । पूर्व समुद्र की ओर भ्रमण करते हुये युधिष्ठिर की भेंट एक दिन परशुराम से हुयी थी । बाद में युधिष्ठिर गोदावरी नदी के मुख की ओर चला गये [म.व.११७-११८]। शूर्पारक बसाने के पूर्व परशुराम महेंद्र पर्वत पर रहते थे । उसके उपरांत शूर्पारक में रहने लगे [ब्रह्मांड. ३.५८] । भीष्माचार्य को परशुराम ने अस्त्रविद्या सिखायी थी । भीष्म अम्बा का वरण करे, इस हेतु से इन गुरुशिष्यों का युद्ध भी हुआ था । एक महीने तक युद्ध चलता रहा. अन्त में परशुराम ने भीष्म को पराजित किया [म.उ.१८६.८] । अपने को ब्राह्मण बताकर कर्ण ने परशुराम से शिक्षा प्राप्त की थी । बाद में परशुराम को यह भेद पता चला, और उन्होंने उसे शाप दिया । परशुराम ने द्रोण को ब्रह्मास्त्र सिखाया था । दंभोद्‌भव राक्षस की कथा सुनाकर, परशुराम ने दुर्योधन को युद्ध से परावृत्त करने का प्रयत्न किया था [म.उ.८४] । बम्बई के वाल्‌केश्वर मंदिर के शिवलिंग की स्थापना परशुराम ने की थी [स्कंद. सह्याद्रि.२-१] । रामायण में परशुराम रामायण में भी परशुराम क निर्देश कई बार आया है । सीता-स्वयंवर के समय राम ने शिव के धनुष को तोड दिया । अपने गुरु शिव का, अपमान सहन न कर, परशुराम राम से युद्ध करने के लिये तत्पर हुए । किंतु उस युद्ध में राम ने परशुराम को पराजित किया, एवं परशुराम के संकेत पर उनके तपसामर्थ्य को नष्ट कर दिया [वा.रा.बा.७४-७६] । कालविपर्यास परशुराम के महाभारत एवं रामायण में प्राप्त निर्देश कालविपर्यास हैं । जैसे पहले ही कहा है, परशुराम रामायण एवं महाभारत के बहुत ही पूर्वकालीन थे । इस कालविषर्यास का स्पष्टीकरण महाभारत एवं पुराणों में, परशुराम को चिरंजीव कह कर दिया गया है । परशुराम के स्थान परशुराम के जीवन से संबंधित अनेक स्थान भारतवर्ष में उपलब्ध हैं । वहॉं परशुराम की उपासना आज भी की जाती है । उनमें से कई स्थान इस प्रकार हैं— जमदाग्नि आश्रम (पंचतीर्थी)—परशुराम का जन्मस्थान एवं सहस्त्रार्जुन का वधस्थान । यह उत्तरप्रदेश में मेरठ के पाद हिंडन (प्राचीन ‘हर’) नदी के किनारे है । यहॉं पॉंच नदियों का संगम है । इसलिये इसे ‘पंचतीर्थी’ कहते है । यहॉं ‘परशुरामेश्वर’ नामक शिवमंदिर है । मातृतीर्थ (महाराष्ट्र में स्थित आधुनिक ‘माहुर’ ग्राम)—रेणुका दहनस्थन । महेंद्रपर्वत (आधुनिक ‘पूरबघाट)—परशुराम का तपस्यास्थान क्षत्रियों का संहर करने के पश्चात् परशुराम यहॉं रहता था । परशुराम ने समस्त पृत्घ्वी कश्यप को दान में दी, उस समय महेंद्रपर्वत भी कश्यप को दान में प्राप्त हुआ । फिर परशुराम’ शूर्पारक’ के नये बस्ती में निवास के लिये गये । शूर्पारक (बंबई के पास स्थित आधुनिक ‘सोपारा’ग्राम)—परशुराम का तपस्यास्थान । समुद्र को हटा कर, परशुराम ने इस स्थान को बसाया था । गोकर्णक्षेत्र (दक्षिण हिंदुस्थान में कारवार जिले में स्थित ‘गोकर्ण’ग्राम)—परशुराम का तपस्यास्थान । समुद्र में डुबते हुये इस क्षेत्र का रक्षण परशुराम ने किया था । जंबुवन (राजस्थान में कोटा के पास चर्मण्वती नदी के पास स्थित आधुनिक ‘केशवदेवराय-पाटन’ ग्राम)—परशुराम का तपस्यास्थान । इक्कीस बार पृथ्वी निःक्षत्रिय करने के बाद परशुराम ने यहॉं तपस्या की थी । परशुरामतीर्थ (नर्मदा नदी के मुख में स्थित आधुनिक ‘लोहार्‍या’ ग्राम)—परशुराम का तपस्या स्थान । परशुरामताल (पंजाब में सिमला के पास ‘रेणुका-तीर्थ’ पर स्थित पवित्र तालाव)—परशुराम के पवित्रस्थान । यहॉं के पर्वत का नाम ‘जमदग्निपर्वत’ है । रेणुकागिरि (अलवार-रेवाडी रेलपार्ग पर खैरथल से ५ मील दूर स्थित आधुनिक ‘रैनागिरि’ ग्राम)–परशुराम का आश्रमस्थान । चिपलून (महाराष्ट्र में स्थित आधुनिक चिपलून ग्राम)—परशुराम का पवित्रस्थान । यहॉं परशुराम का मंदिर है । रामह्रद (कुरुक्षेत्र के सीमा में स्थित एक तीर्थस्थान)—परशुराम का तीर्थ स्नान । यहॉं परशुराम ने पॉंच कुंडों की स्थापना की थी [म.व.८१.२२-३३] । इसे ‘समंतपंचक’ भी कहते है । परशुराम जयंती वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन, रात्रि के पहले ‘प्रहर’ में परशुरामजयंती का समारोह किया जाता है [धर्मसिंधु. पृ.९] । यह समारोह अधिकतर दक्षिण हिंदुस्थान में होता है, सौराष्ट्र में यह नहीं किया जाता है । इस समारोह में, निम्नलिखित मंत्र के साथ, परशुराम को ‘अर्घ्य’ प्रदान किया जाता है— जमदग्निसुतो वीर क्षत्रियान्तकरः प्रभो । ग्रहाणार्घ्य मया दत्तं कृपया परमेश्वर ॥ परशुराम साम्प्रदाय के ग्रंथ परशुरामकल्पसूत्र’ नामक एक तांत्रिकसांप्रदाय का ग्रंथ परशुराम के नाम से प्रसिद्ध है । ‘परशुरामप्रताप’ नामक और भी एक ग्रंथ उपलब्ध है । परशुराम शक संवत्   मलाबार में अभी तक ‘परशुराम शक’ चालू है । उस शक का वर्ष सौर रीति का है, एवं वर्षारंभ ‘सिंहमास’ से होता है । इस शक का ‘चक्र’ एक हजार साल का होता है । अभी इस शक का चौथा चक्र चालू है । इस शक को ‘कोल्लमआंडु’ (पश्चिम का वर्ष) कहते है [भा. ज्यो. ३७७] ।
कुंग्फू जैसे मार्शल आर्ट के संस्थापक कोई चाइनीज़ नही भगवान विष्णु के अवतार “भगवान परशुराम” थे

कुंग्फू जैसे मार्शल आर्ट के संस्थापक कोई चाइनीज़ नही भगवान विष्णु के अवतार “भगवान परशुराम” थे कुंग्फू जैसे मार्शल आर्ट का नाम सुनते ही सभी के दिमाग में ‘ब्रूस ली’ या कोई चाइनीज़ की छवि आ जाती है। उसकी तरह शरीर को पूरा घुमाकर, ना जाने कैसे-कैसे करतब करके दुश्मनों के छक्के छुड़ा देने की स्टाइल शायद ही आज के समय में किसी के पास होगी। लेकिन ब्रूस ली ही इस आर्ट को आगे बढ़ाने के लिए जिम्मेदार है, ऐसा सोचना भी गलत है। अब तक आपको और दुनिया को मार्शल आर्ट के बारे में यही पढ़ाया और प्रचारित किया जाता रहा है की यह विधा तो चीन की देन है, जबकि हकीक़त इसके ठीक उलट है। इस कला का ज्ञान चीन ने नहीं बल्कि चीन के साथ पूरे विश्व को भारत वर्ष ने दिया था। प्राचीन भारत में आत्मरक्षण की इस विधा को ‘कलारिपप्यतु’ नाम से जाना जाता था। महाभारत काल में यह विधा अपने चरम काल पर थी। स्वयं भगवान् कृष्ण इस विधा के श्रेष्ठ महारथी थे। क्योंकि मार्श आर्ट का सिद्धांत इतना पुराना है कि आप सोच भी नहीं सकते। यदि हिन्दू पुराणों को खंगाल कर देखा जाए, तो ऐसी मान्यता है कि मार्शल आर्ट के संस्थापक भगवान परशुराम हैं। जी हां… सही सुना आपने! ब्रह्मक्षत्रिय (ब्राह्मण व क्षत्रिय के मिश्रण) भगवान परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार, अपने शस्त्र ज्ञान के कारण पुराणों में विख्यात भगवान परशुराम को पूरे जगत में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। भगवान परशुराम मूल रूप से ब्राह्मण थे किंतु फिर भी उनमें शस्त्रों की अतिरिक्त जानकारी थी और इसी कारणवश उन्हें एक क्षत्रिय भी कहा जाता है।पुराणों में भगवान परशुराम ब्रह्मक्षत्रिय (ब्राह्मण व क्षत्रिय के मिश्रण) के नाम से भी विख्यात हैं। शिव के भक्त भगवान परशुराम शिव के भक्त थे और उन्होंने शस्त्र विद्या भी भगवान शिव से ही प्राप्त की थी। अपनी शिक्षा में सफल हुए परशुराम को प्रसन्न होकर भगवान शिव ने परशु दिया था जिसके पश्चात उनका नाम परशुराम पड़ा। शिव से परशु को पाने के बाद समस्त दुनिया में ऐसा कोई नहीं था जो उन्हें युद्ध में मात देने में सक्षम हो। लेकिन उस समय में मार्शल आर्ट कहां था? आप सोच रहे होंगे कि मार्शल आर्ट का भारतीय इतिहास से कोई संबंध है, ऐसा होना भी असंभव-सा है। लेकिन यही सत्य है… भीष्म पितामाह, द्रोणाचार्य व कर्ण को शस्त्रों की महान विद्या देने वाले भगवान परशुराम ने कलरीपायट्टु नामक एक विद्या को विकसित किया था। परशुराम ने प्रदान की मार्शल आर्ट कला – कलरीपायट्टु कलरीपायट्टु भगवान परशुराम द्वारा प्रदान की गई शस्त्र विद्या है जिसे आज के युग में मार्शल आर्ट के नाम से जाना जाता है। देश के दक्षिणी भारत में आज भी प्रसिद्ध इस मार्शल आर्ट को भगवान परशुराम व सप्तऋषि अगस्त्य लेकर आए थे। कलरीपायट्टु दुनिया का सबसे पुराना मार्शल आर्ट है और इसे सभी तरह के मार्शल आर्ट का जनक भी कहा जाता है। भगवान परशुराम शस्त्र विद्या में महारथी थे इसलिए उन्होंने उत्तरी कलरीपायट्टु या वदक्क्न कलरी विकसित किया था और सप्तऋषि अगस्त्य ने शस्त्रों के बिना दक्षिणी कलरीपायट्टु का विकास किया था। समय के साथ कुंगफू बाद में चीन चला गया बौद्ध धर्म के सहारे  कहा जाता है कि बौद्ध धर्म के संस्थापक बोधिधर्म ने भी इस प्रकार की विद्या की जानकारी प्राप्त की थी व अपनी चीन की यात्रा के दौरान उन्होंने विशेष रूप से बौद्ध धर्म को बढ़ावा देते हुए इस मार्शल आर्ट का भी उपयोग किया था। आगे चलकर वहां के वासियों ने इस आर्ट का मूल रूप से प्रयोग कर शाओलिन कुंग फू मार्शल आर्ट की कला विकसित की। अंत में भगवान परशुराम के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें  जीत के बाद जो V विक्ट्री या विजय का प्रतीक बन चूका और अकसर खेलों में भी खिलाड़ी जीत के बाद दो उँगलियों से V बनाते हैं वो भगवान परशुराम द्वारा ही दिया गया था।   एक मिथ्या या अफवाह उड़ाई जाती है कि भगवान परशुराम ने सम्पूर्ण क्षत्रियों का विनाश किया, ये अफवाह वामपंथियों व् हिन्दू विरोधियों द्वारा फैलाई गई है जबकि भगवान परशुराम ने 21 बार सिर्फ हैहयवंशी क्षत्रियों को समूल नष्ट किया था। क्षत्रियों का एक वर्ग है जिसे हैहयवंशी समाज कहा जाता है यह समाज आज भी है। इसी समाज में एक राजा हुए थे सहस्त्रार्जुन। परशुराम ने इसी राजा और इनके पुत्र और पौत्रों का वध किया था और उन्हें इसके लिए 21 बार युद्ध करना पड़ा था।  कल्कि पुराण के अनुसार परशुराम, भगवान विष्णु के दसवें अवतार कल्कि के गुरु होंगे और उन्हें युद्ध की शिक्षा देंगे। वे ही कल्कि को भगवान शिव की तपस्या करके उनके दिव्यास्त्र को प्राप्त करने के लिये कहेंगे।

Thursday, July 7, 2016

: बाल - भावनाएं :
ध्यान रखिए - बचपन में तीन भावनाएं विशेष रूप से रहती हैं :
(१) . जिज्ञासा,
(2) . कर्म करने की तीव्र इच्छा,
(३) . प्रशंसा प्राप्ति की लालसा।
जो सहृदय बुद्धिमान जननी-जनक अपने लाडलों की इन मुख्य प्रवृत्तियों को क्रोध अथवा उपेक्षा से कुचलते नहीं हैं वरन् इनका सदुपयोग करते हैं उनके ही बच्चे कार्य- कुशल, बुद्धिमान आत्म-विश्वासी, कर्त्तव्यनिष्ठ, प्रशंसित, धैर्यशाली, साहसी तथा दृढ़ विचारों वाले होते हैं।
यदि बच्चा आपसे किसी विषय में प्रश्न करता है तो उसे न तो झिड़किये और न उसका मजाक ही बनाइये।
यदि प्रश्न किसी कठिन विषय पर हो और वह शीघ्रतापूर्वक उसको न समझ सके तो भी झुँझलाइये मत, जितना भी समझा सकें प्यार से समझा दीजिए और कह दीजिये जब तुम जरा और बड़े हो जाओगे तब तुम इसको और भी अच्छी तरह से समझ सकोगे।
अगर जिस समय बालक आप से प्रश्न पूछता है, आपको अवकाश नहीं है तो उससे स्नेहपूर्वक ही कह दीजिये कि अमुक समय पर मैं तुमको इस विषय पर समझाऊँगा फिर अपना वायदा अवश्य ही पूरा कीजिए जिससे बच्चा भी आपकी तरह बहानेबाजी न सीख सके।
यदि बच्चा कुछ काम अपने हाथ से करना चाहता है तो उसको रोकिए मत बल्कि उसकी सहायता कीजिए। उसको सुचारु रूप से करना धैर्य तथा प्रेमपूर्वक ही सिखलाइये। यदि काम खतरे का हो जैसे आग चाकू आदि से सम्बन्धित तो बच्चा अगर समझ सकता हो तब तो युक्तिपूर्वक मधुर भाव से उसे समझा दीजिये नहीं तो कोई दूसरी चमकीली चीज देकर बहला दीजिये। यदि कुछ और भी बड़ा हो तो अपने सामने ही सावधानी पूर्वक उसको उनका उपयोग करना बतलाइए इसमें कुछ भी खतरा नहीं होगा पर बालक का आत्म-विश्वास तथा उत्साह अवश्य ही बढ़ेगा।
मेरा तो विचार है कि यदि बच्चे में कर्मप्रियता की भावना कुछ कम भी हो तो भी धीरे-धीरे उसको छोटे-छोटे कामों की मधुरतापूर्वक शिक्षा देकर जैसे अपने जूते के फीते बाँधना, जूते पहनना, कपड़े पहनना, भोजन करना, जल पीना, मुँह धोना इत्यादि- इत्यादि अगर कुछ और बड़ा हो तो अपने छोटे भाई या बहिन की सम्हाल करने का भार भी उतनी हद तक डाला जा सकता है जहाँ तक कि उसकी दिलचस्पी और इस विषय में उत्पन्न कर सकें। कोई भी काम विवश करके कठोरता पूर्वक नहीं कराना चाहिये जिससे कि कुसंस्कार पड़े।
जो बच्चे बचपन से ही धीरे-धीरे काम करने के अभ्यस्त हो जाते हैं उनको फिर नागरिक बनने पर कुछ भी असुविधा नहीं होती वरन् वे प्रत्येक कार्य को प्रसन्नता से तथा सरलतापूर्वक कर लेते हैं।
हमने दो लड़कियों को देखा है जिनमें से एक की माँ ने तो बचपन से ही सारे काम सिखा दिए और दूसरी ने प्यार के मारे उसको कोई भी काम नहीं छूने दिया। वह कर्मशीला तो आदत होने के कारण अपनी ससुराल में भी सारा काम हँसते-हँसते तथा सुन्दर रीत से कर लिया करती थी सब घर वाले उससे खुश रहा करते थे। और दूसरी बेचारी ससुराल में सारे दिन काम में लगी रहती थी पर एक जो अभ्यास न होने से उससे ठीक से बनता ही नहीं था दूसरे आत्म-विश्वास तथा उत्साह न होने से वह शीघ्रतापूर्वक कर भी नहीं पाती थी। अस्तु सारा घर उससे असन्तुष्ट रहा करता था और वह अपना जीवन भार मानती थी।
इस तरह जो लड़के भी बचपन से काम करने के आदी रहते हैं फलस्वरूप उनको कार्यशीलता वयस्क होने पर और भी निरन्तर अभ्यास तथा शक्ति वृद्धि के कारण बढ़ जाती है। उनको कभी भी कार्य करना खलता नहीं बल्कि प्रसन्न चित्त सहज भाव से करते हैं।
कोई भी अच्छा काम बच्चा करे तो प्रशंसा करके उसे उत्साहित अवश्य ही कीजिये। और उसकी योग्यता तथा शक्ति अनुसार अच्छे कार्यों की ओर उसका ध्यान आकर्षित किया करिये। इन्हें पुरस्कार भी दिये जा सकते हैं पर बच्चे के मन पर कार्य की बनिस्बत पुरस्कार का ही महत्व अधिक गहराई से अंकित न होने पाये इसका ध्यान रखिए।
: वातावरण परिशोधन :
══════════════
वाल्मीकि रामायण में एक कथा आती है कि यज्ञाग्नि में सीताजी ने प्रवेश किया था और उनके अग्नि में प्रवेश करने के बाद उनके स्थान पर एक नकली सीता उत्पन्न हुई थी। वही रावण के यहाँ चली गयी थीं। रावण को मारने के बाद में रामचंद्र जी जब उनको वापस अपने घर ले आये, तो गुरु वसिष्ठ कहा कि हमको तो असली सीता चाहिए। असली सीता चाहिए, तो वे वहीं से निकलेंगी, जहाँ आपने जमा कर दिया था।
उस बैंक के लॉकर में, जहाँ आपने पैसा जमा कर दिया है, वहीं से तो निकालेंगे।
यज्ञ में ही तो जमा किया था। नई वाली सीता को यज्ञाग्नि में परीक्षा ली गई। अग्नि परीक्षा के बाद वह नकली वाली सीता उसी में रह गई और असली वाली सीता उछलकर बाहर आ गई।
यही थी यज्ञाग्नि परीक्षा।
यज्ञाग्नि का हमारे अतिधन्य पुराणों में जगह-जगह पर वर्णन मिलता है । फिर क्या किया ?
रावण को मारने के पश्चात् जब भगवान् राम अयोध्या आ गये, तब गुरु वशिष्ठ विचार करने लगे। उन्होंने कहा कि, “ बेटे राम!” रावण मारा गया, कुम्भकरण मारा गया, खर-दूषण मारा गया, मेघनाद मारा गया? उसके खानदान वाले मारे गये ?
हाँ गुरुदेव।
लेकिन तुझे एक बात का ध्यान नहीं है कि सारे के सारे वातावरण में, जो राक्षसों ने असुरता के तत्व भर दिये थे, वे जब पैदा होंगे, तो हमारी नई पीढ़ी के बच्चों पर हावी हो जायेंगे।
अब आप विचार करना दो वर्ल्डवार-विश्वयुद्ध हो चुके हैं-फर्स्ट वर्ल्डवार एवं सेकेण्ड वर्ल्डवार। इन दोनों लड़ाइयों-विश्वयुद्धों में जो गोला बारूद चलाया गया है, जो आदमी मरे हैं, जो चीत्कार हुआ, जो हाहाकार पैदा हुआ है, वह लौटकर पृथ्वी पर आया है और नई पीढ़ियाँ जो पैदा होकर आ रही हैं, वे सारी की सारी उस वातावरण से प्रभावित होकर आ रही हैं। नई पीढ़ियों को देखकर हम सोचते हैं कि यह क्या हो गया है? अच्छे घरों में पैदा हुए बच्चों को क्या हो गया है? ये खराब आदत के बच्चे कहाँ से आ गये? जब हम गहराई से देखते हैं, तो पाते हैं कि यह दो महायुद्धों की वजह से जो वातावरण खराब हुआ था, उसका असर अभी भी है।
यज्ञ द्वारा विषाक्तता का निवारण गुरु वशिष्ठ जी ने रामचंद्र जी से कहा था कि आपने रावण को मारकर लंका के राक्षसों को खत्म करके जो पुरुषार्थ किया, अभी उससे भी एक बड़ा पुरुषार्थ करने की जरूरत है। वह जरूरत क्या है? यज्ञीय प्रक्रिया द्वारा सारे के सारे वातावरण को, जिसमें राक्षसपन और असुरता सूक्ष्म रूप से छाई हुई है, शोधित करना है। अन्यथा अगर यही वातावरण बना रहा, तो यह फिर से मुसीबत पैदा करेगा।
आप वाल्मीकि रामायण में पढ़िये, जिसमें उन्होंने लिखा है कि रामराज्य के स्थापित होते ही रामचंद्र जी ने दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। वह दशाश्वमेध घाट अभी भी गंगा किनारे बनारस में बना हुआ है। वहाँ भगवान् राम और गुरु वशिष्ठ ने रामराज्य की स्थापना करने के लिए उपयुक्त वातावरण बनाने के लिए अश्वमेध यज्ञ किये थे।
वे जानते थे कि यज्ञ के अतिरिक्त और कोई सहायता नहीं कर सकता।
जैसा कि मैंने आपको भगवान् रामचंद्र जी और सीताजी के बारे में बताया कि उनका सारा जीवन यज्ञीय-प्रक्रिया में चला गया।
भगवान् श्रीकृष्ण का भी ऐसे ही हुआ। पाण्डवों की विजय होने के पश्चात्, महाभारत की विजय होने के पश्चात् उन्होंने भी ऐसा ही किया। उन्होंने क्या काम किया? उन्होंने पाण्डवों से कहा कि कंस मारा गया, दुर्योधन और दुःशासन मारे गये। जरासंध वगैरह मारे गए और दूसरे मारे गये, लेकिन वातावरण में वह आसुरी गंदगी अभी भी भरी पड़ी है। यदि यह वातावरण फिर से बरसने लगा, तो मलेरिया की तरह से और दूसरे कीटाणुओं की तरह से दुनिया में फिर से तबाही लायेगा। तो क्या करना चाहिए? आसुरी मनुष्यों को मार डालना काफी नहीं है, वरन् उस वातावरण का परिशोधन करना भी अनिवार्य है। क्या करना चाहिए? श्रीकृष्ण भगवान् ने पाण्डवों को इसके लिए सलाह दी थी कि आपको ऐसा आयोजन करना चाहिए, ऐसा यज्ञ करना चाहिए, जिससे कि वातावरण का परिशोधन करने में मदद मिले। पाण्डवों ने यही किया था। उनने राजसूय यज्ञ किया था, जिसमें श्रीकृष्ण भगवान् ने पैर धोने का काम अपने जिम्मे लिया था। बहुत बड़ा आयोजन हुआ था, आपने पढ़ा-सुना होगा। पौराणिक आख्यान में।
मैं क्या कह रहा था? यह कह रहा था कि रामचंद्र जी और श्रीकृष्ण भगवान्-दोनों के दोनों इसी यज्ञीय प्रक्रिया को अपनाकर चले? सीताजी की अग्नि परीक्षा और अग्नि में से पैदा होने की बात मैंने आपसे कह दी। महाभारत में भी द्रौपदी के बारे में ऐसा ही वर्णन आता है कि वे एक यज्ञ में से पैदा हुई थीं। महाभारत की मूल भूमिका निभाने वाली एक महिला थी, जिसका नाम था-द्रौपदी। इसकी वजह से महाभारत हुआ। इसी तरह से लंका का निराकरण और रामचंद्रजी का उद्देश्य पूरा करने में एक ही महिला थी। सारे का सारा खेल उसी के लिए रचा गया। सारे के सारे राक्षसों का विनाश एवं लंका का दहन करने के लिए सीताजी की जिम्मेदारी है और उधर महाभारत में किसकी जिम्मेदारी है? द्रौपदी की जिम्मेदारी है। दोनों महिलायें यज्ञ में से उत्पन्न हुई हैं। वे यज्ञ की अनुकृतियाँ थीं। यज्ञ की प्रतिक्रिया थीं। यज्ञ की वरदान थीं।
वातावरण के बारे में मैं कह रहा था कि इसके परिशोधन से क्या होता है। आप तो इसका महत्त्व ही नहीं समझते। अगर आपकी समझ में यह नहीं आता, तो आप साईकिल लेकर चलना और यह देखना कि हवा का रुख किधर जाता है। हवा का रुख यदि आपके पीछे होगा, तो आप एक घंटे में दस मील चल लेंगे और अगर हवा का रुख सामने होगा, तो एक घंटे में आपको पाँच मील पार करना भी मुश्किल पड़ जायेगा। आपके घुटने दुखने लगेंगे और आपका कचूमर निकल जायेगा। आँखों में कूड़ा पड़ गया, सो अलग और आफत आयेगी। साईकिल कभी इधर जायेगी, कभी उधर जायेगी। नाँव में अगर हवा पीछे की तरफ होती है, तो वह अपने आप तेजी से आगे की तरफ भागती जाती है और जब हवा आगे की ओर होती है, तब मल्लाह को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, आप पता लगाना। तब मल्लाह बतायेगा कि भाई साहब! अगर हवा पीछे की तरफ हो तब तो हमारी नाँव बहुत तेज चलेगी और अगर सामने होगी, तब तो आफत ही आ जायेगी। फिर नाँव को खेना और हवा का सामना करना हमारे लिए मुश्किल पड़ता है।
मैं आपसे वातावरण की अनुकूलता के बारे में कह रहा हूँ। वर्षा ऋतु आती है, तो हवा में ठंडक होती है, वातावरण में ठंडक होती है। वातावरण में पानी होता है। पौधे तेजी से उगते हुए चले जाते हैं। क्यों साहब! हम तो गर्मी में गेहूँ बोयेंगे। गर्मी में गेहूँ बोयेंगे तो सही, जमीन भी ठीक है, खाद भी ठीक है, पानी भी लगा लेंगे, पर वातावरण अनुकूल नहीं है, इसलिए आपके गेहूँ की फसल होगी नहीं। गेहूँ उग भी जायेगा, तो फलेगा नहीं। फलेगा तो, आपके काम का साबित नहीं होगा। अच्छा तो बरसात में बोइये। बरसात में क्या बात है? बरसात में वातावरण है। इसमें पौधा उगने का वातावरण आता है, तो घास की सूखी हुई जड़ें, जो जमीन में होती हैं, उनमें कोई पानी लगाने की भी आवश्यकता नहीं होती। हवा में जैसे ही नमी आती है, सब के सब पैदा हो जाते हैं। नई घास पैदा हो जाती है। कीड़े-मकड़े पैदा हो जाते हैं। मच्छर पैदा हो जाते हैं, केंचुए पैदा हो जाते हैं और न जाने कौन-कौन पैदा हो जाते हैं? इन्हें कौन पैदा करता है? वातावरण पैदा करता है। अनुकूल वातावरण बनाने के लिए, जिसमें कि हम नये युग के अनुरूप परिस्थितियाँ पैदा कर सकें और नए युग के अनुरूप मनुष्य पैदा कर सकें। इसके लिए हमारे भौतिक प्रयत्न ही काफी नहीं हैं, वरन् हमारे सूक्ष्म आध्यात्मिक प्रयत्नों की भी आवश्यकता है। इन सूक्ष्म प्रयत्नों को, आध्यात्मिक प्रयत्नों को आप मानते हों, आप अंतर्जगत को मानते हों, सूक्ष्म जगत् को मानते हों, दैवी जगत् को मानते हों और आप दैवी-प्रतिमा को मानते हों, तो आपको यह भी मानना पड़ेगा कि केवल भौतिक प्रयत्न ही सब कुछ नहीं होते हैं, आध्यात्मिक प्रयत्नों का भी अपने आपमें मूल्य है। और आध्यात्मिक अनुकूलता और वातावरण की अनुकूलता भी अपने आपमें कुछ मायने रखती है। यह सब कैसे होगा ? यज्ञ से बनेगा वातावरण । बिना यज्ञ के वातारण का परिशोधन नहीं होगा । चाहे कुछ भी कर लो । योग्य संतान कभी उत्पन्न नहीं होंगे ।
इसलिए घर – घर में यज्ञ की प्रक्रिया शुरू करिए । बिना इसके अनिष्ट ही अनिष्ट होगा !

🕉♨रहस्यमयी हिमालय 11♨🕉

वह व्यक्ति योगी बाबा अभेदानन्द की ओर उन्मुख हुआ | उसने बाबा से पूछा |“ बाबा हम पूर्व जन्म से इस जन्म में आते कैसे है जबकि हमारा शरीर तो समाप्त हो चूका होता है |”योगी बाबा ने प्रेम से समझाते हुए कहा “ हमारा स्थूलशरीर जो इस आँख से दिखाई देता है वह तो मर जाता है किन्तु हमारा सूक्ष्म शरीर नहीं मरता और हमारा मन इसी सूक्ष्म शरीर के माध्यम से एक शरीर से दुसरे शरीर की यात्रा करता रहता है | मन हमारे संस्कारों का वाहक बनता है | आत्मा अमर है क्योंकि यह परमात्माका हीं अंश है , इस आत्मा के उपर कई आवरण होते हैं | आत्मा के उपर दृश्य आवरण तो हमारा , रक्त मांस मज्जा, अस्थि चमड़े से निर्मित शरीर है | आत्मा के और भी कई आवरण हैं जो अनुभव में आते हैं | हमारा मन भी आत्मा का आवरण हीं है | इस प्रकार बुद्धि , ज्ञान , आनन्द अहंकार आदि आत्मा के उपर अदृश्य आवरण होते हैं | कई बार हम ये सोचते हैं मैं हूँ यह मैं अहंकार रूपी आवरण है |“ भगवन यह सूक्ष्म शरीर क्या है |” उसने बाबा से पूछायोगी अभेदानन्द ने आँखें बंद की और हाथ हवा में लहराया | उनके हाथों में कुछ अनाज के दाने थे | उन्होंने उसे दिखाते हुए पूछा “ यह क्या है |”“बाबा यह तो गेंहू के दाने हैं |”बाबा ने उसके सर पर हल्की चपत लगाईं और कहा “ अब देख क्या है |”उसने आश्चर्य से भरते हुए कहा “ बाबा गेंहूँ के चारोतरफ तो रंग विरंगे प्रकाश की किरणें नजर आ रहीं हैं|”योगी बाबा ने फिर से हाथ हवा में लहराया इस बार अनेकों किस्म के अनाज के दाने उनके हाथों में थे | उन्होंने उसे दिखाते हुए उससे पूछा “ क्या नजर आता है |”“ बाबा इन अनाज दानों के साथ झिलमिल करते हुए प्रकाशके किरण नजर आ रहें हैं |” उसने कहा“ तुम्हारा , हमारा सभी का शरीर इन अन्न से बने हुएं हैं इसलिए कहा गया है अन्नं ब्रह्मा | हमारा तुम्हारा जो शरीर है यह अन्न से बना हुआ है | अन्न सेवीर्य और रज बने होते हैं जिससे इस शरीर का निर्माण होता है | इस अन्न से बने हुए स्थूल शरीर को अन्नमय कोश कहते हैं | इस अन्न से बने शरीर का महत्व यह है कि परमात्म अनुभव में इसका अहम भूमिका है | जिस प्रकार से नारियल के फल में अनेक आवरण होते हैं , ये आवरण कई भाग होते हैं जैसे छिलका , सख्त भाग उसके अंदर नारियल का गूदा और फिर उसके अंदर नारियल का पानी | ठीक उसी तरह ये शरीर जो अन्न से बना है बाहरी छिलका और सख्त खोपडा समझो इसे नारियल का | इसके अंदरफिर मन का कोश है , प्राण का कोश है , विज्ञान का कोश जो की आत्मा है और उस आत्म तत्व की प्राप्ति का आनन्द हीं आनन्दमय कोश है | अगर बाहरी छिलका और सख्तभाग न हो तो नारियल की कल्पना कर सकते हो क्या तुम ठीक उसी तरह शरीर का भी कार्य है |” बाबा ने समझाते हुए कहा |“ मृत्यु के बाद तो तुम्हारा शरीर यहीं रह जाता है किन्तु सूक्ष्म शरीर जो अन्नमय शरीर का हीं सूक्ष्म रूप है नष्ट नहीं होता | यह सूक्ष्म शरीर अन्न के उस भाग से बना हुआ है जो तुमने प्रकाश रूप में देखा | अन्न के बनने की भी जटिल क्रिया है यह अन्न भी पृथ्वी , प्रकाश ( अग्नि ) , जल , वायु और आकाशसे हीं बना हुआ है | सूक्ष्म शरीर में इन्हीं दो तत्वों प्रकाश (अग्नि ) और आकाश की मात्रा प्रबल होती है बाकी तीन तत्वों की मात्रा अत्यंत अत्यंत सूक्ष्म होती है | इन्हीं सूक्ष्मतम तत्वों के कारणसूक्ष्म शरीर जो मृत शरीर से निकला होता है कभी कभी लोगों को प्रेत रूप में दृश्य हो जाता है और कई बार इनकी आवाज़ भी सुनाई दे जाती है | इन्हीं तत्वों के माध्यम से आत्मा मन के साथ दुसरे शरीर में प्रवेश करता है | सूक्ष्म शरीर का आकार भी स्थूल शरीर के जितना हीं होता है और अदृश्य होता है | बिना साधना के इसे देखा और अनुभव नहीं किया जा सकता | सनातन धर्म में शरीर को अग्नि में समर्पित करने का कारण है प्रथम तो अग्नि स्थूल शरीर को जला कर नष्ट कर देती है और सूक्ष्म तत्व को मुक्त कर देती है अगली जीवन यात्रा हेतु | सूक्ष्म शरीर को परिभाषित करना हो तो हम कह सकते हैं कि सूक्ष्म शरीर सूक्ष्तम मन , प्रकाश , आकाश वायु और आत्मा का जोड़ है | फिर भी इस तरह यह पूर्णतया परिभाषित नहीं होता यह अनुभव से हीं समझा जा सकता है |इस ज्ञान के द्वारा वह व्यक्ति एक अलग हीं आयाम में छलांग लगा चूका था |
 जारी ........👣🌺💯🌹
  साभार.....🕉✨🙏🏼

Monday, July 4, 2016

🕉रहस्यमयी हिमालय 9 🕉

वह समाधि से जाग चूका था | योगी बाबा अभी भी ध्यानस्थ थे | नौजवान साधक सच्चिदानन्द का कोई पता नहीं था |
👣
वह व्यक्ति अद्भुत खुमारी से भरा हुआ था | एक तृप्तिदायक अहसास उसके रोम रोम में मौजूद था | वह कभी तो योगी अभेदानन्द के चेहरे को निहारता तो कभी उसका मन चकित सा उस अहसास के बारे में सोचता |
🌾
तभी योगी बाबा की आवाज़ गूंजी उसके कानों में “ जाग गये |”
उसने कोई उतर नहीं दिया उसका जी बोलने को नहीं कर रहा था | मौन में वह अद्भुत शान्ति मह्शूश कर रहा था | 💫
फिर कुछ देर बाद उसने योगी बाबा से पुछा “ बाबा यह क्या था और इसके पहले ऐसा अहसास जीवन में कभी क्यों नहीं हुआ |”
🙌🏻
“ तुम इस जीवन में कभी अपने भीतर उतरे हीं नहीं तो कैसे अहसास हो , मैं तो कारण मात्र हूँ जो कि माध्यम बन गया तुम्हें भीतर ले जाने को यधपि यह तुम्हारे हीं पूर्व जन्मों के संचित साधनाओं का फल है जो तुम इस अहसास को पा सके |” योगी बाबा ने कहा
“अपने भीतर उतरना ये कैसे होता है बाबा” उस व्यक्ति ने पूछा
“ अभी तुम जिस आनन्द में गोते खा रहे हो यह भीतर का आनन्द हीं है |” बाबा ने उतर दिया
“ देखो भौतिक जगत में तुम जीवित हो , तुम गति करते हो तुम्हारे भीतर संवेदनाएं उठती हैं , तुम सुख दुःख मह्शूश करते हो , तुम अपने जीवित होने का प्रमाण देते हो | कभी कोशिश की तुमने ये पता करने की कि ये सब कैसे संचालित होता है |” योगी बाबा ने कहा
“ नहीं किन्तु कभी कभी मेरे मन में ये प्रश्न अवश्य आते हैं |” उसने उतर दिया
“ तुम जीवित कैसे हो |” योगी बाबा ने उससे पूछा
“ भोजन , जल , वायु से |” उसने उतर दिया
“ वाह ! तब तो किसी मुर्दे के मुंह में भोजन , जल दे दिया जाए और किसी युक्ति से उसके अंदर हवा भरने लगा जाए तब तो वह जीवित हो जाएगा |” योगी अभेदानन्द ने मुस्कुराते हुए कहा |
उसे कोई उतर देते नहीं बना
योगी बाबा बोलने लगे
“देखो हमारा शरीर जीवित हैं परमात्मा की शक्ति से आत्मा रूप में वही परमात्मा हमारे भीतर विराज कर हमें जीवित रखे हुए है | और मन के माध्यम से भी वही संचालित करता है हमे | हमारा मन हमेशा बाहर की ओर दौड़ता है क्योंकि यह इसका स्वभाव है | हमारा मन वहीँ जाता है जहाँ हमारा अनुभव है | तुमने अपनी जिन्दगी में जो अनुभव नहीं किये या देखे हों वहां यह मन कभी नहीं पहुँच पाता | हम बाहर के लोक से जुड़े हुए हैं अपनी पाँचों इन्द्रियों के माध्यम से | इन पाँचों इन्द्रियों की पांच तन्मात्राएँ हैं जिसे यह मन बहुत कस के पकड़ता है |”
“ये पांच तन्मात्राएँ क्या हैं भगवन |” उसने बीच में हीं पूछा
“ आँख से सम्बन्धित रूप , जिह्वा से सम्बन्धित रस , घ्रानेंद्रिय ( नाक ) से सम्बन्धित गंध , श्रोतेंद्रिय ( कान ) से सम्बन्धित शब्द , और त्वचा से सम्बन्धित स्पर्श कुल मिला कर जिन्दगी का यही अनुभव होता है रूप , रस , गंध , शब्द और स्पर्श | इन पाँचों तन्मात्राओं का सम्बन्ध पांच इन्द्रियों के अलावा पांच तत्वों से भी है | अनुभव और भी होते हैं जो इन्द्रिय से परे हैं जैसे जीवन में प्रेम | तो इन इन्द्रियों से तुम ईश्वर को नहीं पकड पाओगे अगर ईश्वर को पकड़ना है तो हृदय में उसके प्रति प्रेम पैदा हो तभी कुछ कुछ वह अनुभव में आता है |
मन की शक्ति अद्भुत है क्योंकि उसके पीछे परमात्मा की शक्ति है | भीतर उतरने के लिए इसी मन का सहारा लिया जाता है | देखो तुम्हारा मन इन्हीं पांच इन्द्रियों और तन्मात्राओं के अनुभवगत तथ्यों में तुम्हें भटकाए हुए रखता है | तुम आँख बंद करते हो और तुम्हारा मन देखे हुए दृश्य उत्पन्न कर देता है | तुम समझ सकते हो मन की शक्ति | ठीक उसी युक्ति को भीतर उतरने में मदद ली जाती है तुम्हारा मन जब भीतर जाता है तब भीतर के दृश्यों को तुम्हारे सामने ले कर आने लगता है जिसे ध्यान का अनुभव कहते हैं | यह मन सम्पूर्ण शरीर के भीतर विचरण करता है और अंततः अपने स्त्रोत परमात्मा तक पहुँच जाता है | वहां पहुँचते हीं यह उसी में विलीन हो जाता है | यही है अपने भीतर उतरने या ध्यान का विज्ञान |” योगी अभेदानन्द रहस्यों से पर्दा उठा रहे थे |
वह मन्त्र मुग्ध हो कर सुन रहा था |
“ पांच तन्मात्राओं का सम्बन्ध पांच तत्वों से कैसे है |” उसने पूछा
“ हमारा शरीर पञ्च तत्वों से बना हुआ है यथा पृथ्वी , अग्नि , वायु , जल और आकाश , पृथ्वी की तन्मात्रा गंध है इसके अंदर रूप, रस ,शब्द और स्पर्श भी मौजूद हैं | जल की तन्मात्रा रस है और इसमें गंध अनुपस्थित है | अग्नि की तन्मात्रा रूप है और इसमें गंध और रस अनुपस्थित है | वायु की तन्मात्रा स्पर्श है और इसमें रस ,रूप और गंध अनुपस्थित है | आकाश की तन्मात्रा शब्द है और इसमें शेष चारो अनुपस्थित हैं | आकाश से वायु , वायु से अग्नि , अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पति हुई है | इसी क्रम में उत्पति के कारण क्रमश : तन्मात्राओं का लोप या उपस्थिति अन्य तत्वों में है |
गूढ़ ज्ञान की वर्षा हो रही थी इसी बीच नौजवान साधक सच्चिदानन्द का प्रवेश गुफा में हुआ |

जारी ..........🕉साभार...👣🙏🏼