*भाषा की उत्पत्ति के विषय में वैदिक धारणा*
-- श्री पी एन ओक
3)
वेद संस्कृत-भाषा मे होने के कारण वही संस्कृत-भाषा सारी मानवता की प्रथम ईश्वर-प्रदत्त भाषा हुई। वेद उपेक्षित और अज्ञात न पडे रहे--इसलिए वेदों के आनुवंशिक गायकों की एक परंपरा प्रारंभ की गई। संस्कृत शब्द का निहितार्थ है कि यह एक सु-नियोजित भाषा है। इसके सभी पर्यायवाची (यथा देव भाषा,गीर्वन वाणी, सुर-भारती आलि) भी ईश्वर-प्रदत्त भाषा होवे के संकेतक, द्योतक है। इसकी सर्वाधिक व्याप्त 'देवनागरी' लिपि भी इसी तथ्य की परिचायक है कि यह लिपि ईश्वर/देवताओं के घर की, उन्हीं की लिपि है। एक अन्य प्राचिन लिपि, जिसमें संस्कृत-भाषा कुछ अन्य शिलालेखों मे लिखी मिलती है, ब्राह्मी लिपि है जिसका निहितार्थ यह है कि इसे ब्रह्मा द्वारा सृजित किया गया था। वह धारणा सत्य नहीं है कि देवनागरी लिपि पर्याप्त बाद के काल की सृष्टि ही है। इस धारणा को कुछ आधुनिक-कालीन पुरातत्वशास्त्रियो ने सर्वप्रथम काल के उपलब्ध देवनागरी-शिलालेखो के आधार पर प्रचारित कर दिया था। इस धारणा के विपरीत यह स्मरण रखना चाहिए कि एक पीढी से दुसरी पीढ़ी द्वारा नकल किए गए लगभग सभी संस्कृत-ग्रंथ मात्र देवनागरी में ही है। अतः प्रस्तर-शिलालेखों के आंकड़ो से यह निष्कर्ष निकाला शायद गलत है कि देवनागरी लिपि तुलनात्मक रूप मे आधुनिक काल की सृष्टि है। देवनागरी लिपि तुलनात्मक रूप मे आधुनिक काल की सृष्टि है। देवनागरी लिपि ही उतनी ही प्राचीन समझी, मानी जानी चाहिए जितने प्राचीन स्वयं वेल है, क्योंकि सभी संस्कृत-ग्रंथ सारे भारत के लाखों-लाखो घरों मे , एक पीढ़ी से दुसरी पीढी को, हाथ से नकल करके, देवनागरी लिपि मे ही अधिकतर, चिर- अनादि, अविस्मरणीय काल से दिए जाते रहे है।
इस प्रकार वैदिक परंपरा की मान्यतानुसार (या कम-से-कम इसका कुछ भाग) ने अपना जीवन क्रम एक दैवी सर्वज्ञ अवस्था से प्रारंभ किया, जबकी प्रचलित पश्चिमी धारणा इसे एक जंगली, पाशविक-स्तर से शुरू हुइ समझती है।
उक्त तथ्य हमारे इस अनुभव से भी मेल खाता है कि जब कभी एक चिकित्सा अथवा प्रौद्योगिकी जैसे किसी संस्थान के रूप में ज्ञान की किसी शाखा को प्रारंभ करना होता है तो उसके शिक्षण-प्रबंध के लिए पूर्णरूपेण प्रशिक्षित विशेषज्ञ कर्मचारी वर्ग प्रदान करना होता है।
अतः यह अनुमान-जन्य आवुई, पश्चिमी विश्वास अ-युक्तियुक्त है कि मनुष्य पहले संस्कृत, असभ्य वनवासी रहा होगा और फिर उसने पक्षीयो से तथा जंगली पशुओं की ध्वनियो का अनुसरण कर एक भाषा का निर्माण, विकास कर लिया होगा । यदि सभी पक्षीयो और पशुओं को ईश्वर द्वारा उनकी सृष्टि, उनके जन्म से ही उनको अपनी-अपनी ध्वनि प्राप्त है और परस्पर संवाद, संपर्क हेतु कोई 'भाषा' दैवी रूप में उपलब्ध है, तो मानवता को भी ईश्वर-प्रदत्त भाषा के रूप में संस्कृत-भाषा प्राप्त हुई थी।
--- सावशेष
-- श्री पी एन ओक
3)
वेद संस्कृत-भाषा मे होने के कारण वही संस्कृत-भाषा सारी मानवता की प्रथम ईश्वर-प्रदत्त भाषा हुई। वेद उपेक्षित और अज्ञात न पडे रहे--इसलिए वेदों के आनुवंशिक गायकों की एक परंपरा प्रारंभ की गई। संस्कृत शब्द का निहितार्थ है कि यह एक सु-नियोजित भाषा है। इसके सभी पर्यायवाची (यथा देव भाषा,गीर्वन वाणी, सुर-भारती आलि) भी ईश्वर-प्रदत्त भाषा होवे के संकेतक, द्योतक है। इसकी सर्वाधिक व्याप्त 'देवनागरी' लिपि भी इसी तथ्य की परिचायक है कि यह लिपि ईश्वर/देवताओं के घर की, उन्हीं की लिपि है। एक अन्य प्राचिन लिपि, जिसमें संस्कृत-भाषा कुछ अन्य शिलालेखों मे लिखी मिलती है, ब्राह्मी लिपि है जिसका निहितार्थ यह है कि इसे ब्रह्मा द्वारा सृजित किया गया था। वह धारणा सत्य नहीं है कि देवनागरी लिपि पर्याप्त बाद के काल की सृष्टि ही है। इस धारणा को कुछ आधुनिक-कालीन पुरातत्वशास्त्रियो ने सर्वप्रथम काल के उपलब्ध देवनागरी-शिलालेखो के आधार पर प्रचारित कर दिया था। इस धारणा के विपरीत यह स्मरण रखना चाहिए कि एक पीढी से दुसरी पीढ़ी द्वारा नकल किए गए लगभग सभी संस्कृत-ग्रंथ मात्र देवनागरी में ही है। अतः प्रस्तर-शिलालेखों के आंकड़ो से यह निष्कर्ष निकाला शायद गलत है कि देवनागरी लिपि तुलनात्मक रूप मे आधुनिक काल की सृष्टि है। देवनागरी लिपि तुलनात्मक रूप मे आधुनिक काल की सृष्टि है। देवनागरी लिपि ही उतनी ही प्राचीन समझी, मानी जानी चाहिए जितने प्राचीन स्वयं वेल है, क्योंकि सभी संस्कृत-ग्रंथ सारे भारत के लाखों-लाखो घरों मे , एक पीढ़ी से दुसरी पीढी को, हाथ से नकल करके, देवनागरी लिपि मे ही अधिकतर, चिर- अनादि, अविस्मरणीय काल से दिए जाते रहे है।
इस प्रकार वैदिक परंपरा की मान्यतानुसार (या कम-से-कम इसका कुछ भाग) ने अपना जीवन क्रम एक दैवी सर्वज्ञ अवस्था से प्रारंभ किया, जबकी प्रचलित पश्चिमी धारणा इसे एक जंगली, पाशविक-स्तर से शुरू हुइ समझती है।
उक्त तथ्य हमारे इस अनुभव से भी मेल खाता है कि जब कभी एक चिकित्सा अथवा प्रौद्योगिकी जैसे किसी संस्थान के रूप में ज्ञान की किसी शाखा को प्रारंभ करना होता है तो उसके शिक्षण-प्रबंध के लिए पूर्णरूपेण प्रशिक्षित विशेषज्ञ कर्मचारी वर्ग प्रदान करना होता है।
अतः यह अनुमान-जन्य आवुई, पश्चिमी विश्वास अ-युक्तियुक्त है कि मनुष्य पहले संस्कृत, असभ्य वनवासी रहा होगा और फिर उसने पक्षीयो से तथा जंगली पशुओं की ध्वनियो का अनुसरण कर एक भाषा का निर्माण, विकास कर लिया होगा । यदि सभी पक्षीयो और पशुओं को ईश्वर द्वारा उनकी सृष्टि, उनके जन्म से ही उनको अपनी-अपनी ध्वनि प्राप्त है और परस्पर संवाद, संपर्क हेतु कोई 'भाषा' दैवी रूप में उपलब्ध है, तो मानवता को भी ईश्वर-प्रदत्त भाषा के रूप में संस्कृत-भाषा प्राप्त हुई थी।
--- सावशेष