ऋषि के विषय मे कहा गया है ..संसारस्य पारं दर्शयति इति ऋषि हम संसारी लोगों की दृष्टि से परे जो संसार को व संसार के कर्ता का दिग्दर्शन करता है ...और हमसे अतिशय प्रेम के कारण उन अनुभूतियों को हमसे बाटता है हमें वह पद्धति बताता है जिससे हमारा परम कल्याण हो...
ऋषि, राजर्षि. महर्षि, देवर्षि, ब्रह्मर्षि. यः वैदिक काल के ऋषियो की भिन्न भिन्न अवस्थाए थी. अब यहाँ पर ऋषि, महर्षि और ब्रह्मर्षि यः तीन अवस्था उत्तरोत्तर गुण संवर्धित अवस्था पर आधारित हे. जब की राजर्षि और देवर्षि दोनों जन्म अथवा कर्म पर आधारित होगी. अपितु इसे पदवी नहीं किन्तु जेसा आपने कहा 'केवल" उपाधि मानना सही होगा. अब इसमे ऋषि, महर्षि और ब्रह्मर्षि के लिए विचार करे.
इसमे से प्रथम ऋषि अवस्था हे. सो ऋषि के लिए ऐसा कहा गया हे "ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः न तू कर्तार"" ऋषि वः हे जो मन्त्रद्रष्टा हे. "ऋषि- गच्छति संसार पारं इति" जो स्वयं संसार को पार कर चूका हे और जो दूसरों को भी संसार पार करवा सकता हे उसे ऋषि कहते हे.जिसने वेद मंत्रो का दर्शन किया हे (रचना नहीं) और जिसने वेदों को शब्द दिए हे वः ऋषि हे. अब यहाँ ऋषि अवस्था मूल अवस्था हे और ऋषि अवस्था के साथ जेसे ऊपर बताया गया वैसे विभिन्न अवस्था ए जोड़ी गई. जो की गुण संवर्धन पर आधारित लगती हे. जेसे ऋषि के बारे में स्पष्टता की.
उसके बाद महर्षि. तो महर्षि को "महँ:" शब्द से अलंकृत किया गया हे. अतः वः ऋषि की संक्रांत अवस्था होनी चाहिए. जो "महान" को प्राप्त करती हे.
और ब्रह्मर्षि में "ब्रह्म" लगा हे. जो स्वयं ब्रह्म अवस्था प्राप्त कर चूका हे वः ब्रह्मर्षि हे.
अब जन्म और कर्म आधारित दो अवस्थाए हे. राजर्षि और देवर्षि. उसमे से राजर्षि पुरातन काल में क्षत्रिय ऋषि को कहा जाता होगा. क्युकी केवल विश्वामित्र ऋषि के लिए "राजर्षि" शब्द उपयोग में लिया गया हे. जो की क्षत्रिय थे. देवर्षि शब्द भी केवल नारद के लिए उपयोग में लिया गया हे. शायद उसका कारण यः होगा की वः ऋषित्व की अवस्था प्राप्त कर के देवो के समाज में कार्यशील रहे होंगे. क्युकी ऋषियो का कार्य जन-सामान्य में वेदों के विचारों को प्रस्थापित करना ही था. और देव भी उसी समाज का एक हिस्सा माने गए हे. जिसका क्षेत्र हिमालय के पास माना जाता हे. देव वस्तुतः मानव ही थे, लेकिन उन्होंने कुछ विशिष्ट शक्तिया और कर्म के द्वारा देव अवस्था प्राप्त की होनी चाहिए. और यही बात ब्रह्मसूत्र भाष्य में अधिकारात्व के विषय में आचार्य शंकर ने भी की हे. अतः नारद जो की ऋषि की अवस्था प्राप्त किए हुए था, उन्होंने देव समाज में स्वयं का कार्यक्षेत्र संभाला होगा अतः वः देवर्षि कहे गए. और यः सभी उपाधि जन सामान्य ने ही दी होनी चाहिए. जेसे की आज भागवत कथा कर रहे वक्ता को व्यास कहा जाता हे और वो जहा से कथा करता हे उस जगह को व्यासपीठ.
किन्तु ऋषि पदवी बहोत सोच विचार कर के दी जाती थी. पौराणिक मान्यता यः भी हे की विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षि अवस्था प्राप्त कर ली थी. लेकिन जब हम इतिहास पढते हे तो ध्यान में आता हे की उसके पीछे विश्वामित्र ने कितना बड़ा कार्य किया हे, अनेको वर्षों तक वेदों के विचार का संवर्धन किया हे स्वयं के काम क्रोध इत्यादि शत्रुओ को जीता हे तब जाकर वः ऋषि अवस्था प्राप्त कर पाए हे. अतः ऋषि शब्द को बहोत ही बड़ा मूल्य हे. जो कही भी उपयोग में नहीं लिया जाना चाहिए.
ऋषि का सम्बन्ध लोगों के जीवन मे अपने अदम्य कर्तित्व से अमूल चूल परिवर्तन लाने से है ...उनको सांस्कृतिक बनाने से है संस्कृति का निर्माण , पोषण ,जन मानसमे उसका प्रवेश कराना और रक्षण संवर्धन यह सभी ऋषि करते थे. "ऋषि" भारतीय वैदिक संस्कृति का एक ऐसा महँ युग पुरुष हे जो सम्पूर्ण विश्व में ना कही हुआ होगा और ना ही कभी होगा. और इसी लिए हमारे वेदों ने प्रथम ऋषि को और बाद में भगवान को नमस्कार किए हे. ऋषि अवस्था प्राप्त कर चुके याज्ञवल्क्य को इसी कारण से "योगीश्वरं याज्ञवल्क्य नारायण नमस्कृत्य" कहा गया. ऋषि को Father of Indian Philosophy भी शायद इसी लिए कहा गया हे. विश्वामित्र जो एक क्षत्रीय भी थे ....ने उग्र तपस्या द्वारा अंतर -बहिर्भक्ति , आत्म दमन , तथा आत्म संयम करते हुए अपनी आत्म शक्ति व विचार शक्ति मे और वृद्धि की और अपने पीछे बहुत से लोगों को खड़ा किया .. इसलिए राजर्षि कहलाये
विश्वामित्र लोगों को जीवन दर्शन व जीवन दृष्टि देते थे तथा उन्हें सात्विक बनाते थे परन्तु उसके पीछे उनकी प्रबल महत्वाकांक्षा भी विद्यमान थी ...महत्वाकंशी( उच्च लोगों की दृष्टि मे हम लोगों की दृष्टि मे तो दोनों ही आराध्य है ) व्यक्ति जब सात्विक कार्य करता है तो वह राजर्षि तथा निराकांक्षी व्यक्ति जब ऐसे कार्य करता है तो वह ब्रम्हर्षि कहलाता है ..
(साहिल जी के प्रश्न पर Samarpan Trivedi और अनिल जी के संवाद पर से)
ऋषि, राजर्षि. महर्षि, देवर्षि, ब्रह्मर्षि. यः वैदिक काल के ऋषियो की भिन्न भिन्न अवस्थाए थी. अब यहाँ पर ऋषि, महर्षि और ब्रह्मर्षि यः तीन अवस्था उत्तरोत्तर गुण संवर्धित अवस्था पर आधारित हे. जब की राजर्षि और देवर्षि दोनों जन्म अथवा कर्म पर आधारित होगी. अपितु इसे पदवी नहीं किन्तु जेसा आपने कहा 'केवल" उपाधि मानना सही होगा. अब इसमे ऋषि, महर्षि और ब्रह्मर्षि के लिए विचार करे.
इसमे से प्रथम ऋषि अवस्था हे. सो ऋषि के लिए ऐसा कहा गया हे "ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः न तू कर्तार"" ऋषि वः हे जो मन्त्रद्रष्टा हे. "ऋषि- गच्छति संसार पारं इति" जो स्वयं संसार को पार कर चूका हे और जो दूसरों को भी संसार पार करवा सकता हे उसे ऋषि कहते हे.जिसने वेद मंत्रो का दर्शन किया हे (रचना नहीं) और जिसने वेदों को शब्द दिए हे वः ऋषि हे. अब यहाँ ऋषि अवस्था मूल अवस्था हे और ऋषि अवस्था के साथ जेसे ऊपर बताया गया वैसे विभिन्न अवस्था ए जोड़ी गई. जो की गुण संवर्धन पर आधारित लगती हे. जेसे ऋषि के बारे में स्पष्टता की.
उसके बाद महर्षि. तो महर्षि को "महँ:" शब्द से अलंकृत किया गया हे. अतः वः ऋषि की संक्रांत अवस्था होनी चाहिए. जो "महान" को प्राप्त करती हे.
और ब्रह्मर्षि में "ब्रह्म" लगा हे. जो स्वयं ब्रह्म अवस्था प्राप्त कर चूका हे वः ब्रह्मर्षि हे.
अब जन्म और कर्म आधारित दो अवस्थाए हे. राजर्षि और देवर्षि. उसमे से राजर्षि पुरातन काल में क्षत्रिय ऋषि को कहा जाता होगा. क्युकी केवल विश्वामित्र ऋषि के लिए "राजर्षि" शब्द उपयोग में लिया गया हे. जो की क्षत्रिय थे. देवर्षि शब्द भी केवल नारद के लिए उपयोग में लिया गया हे. शायद उसका कारण यः होगा की वः ऋषित्व की अवस्था प्राप्त कर के देवो के समाज में कार्यशील रहे होंगे. क्युकी ऋषियो का कार्य जन-सामान्य में वेदों के विचारों को प्रस्थापित करना ही था. और देव भी उसी समाज का एक हिस्सा माने गए हे. जिसका क्षेत्र हिमालय के पास माना जाता हे. देव वस्तुतः मानव ही थे, लेकिन उन्होंने कुछ विशिष्ट शक्तिया और कर्म के द्वारा देव अवस्था प्राप्त की होनी चाहिए. और यही बात ब्रह्मसूत्र भाष्य में अधिकारात्व के विषय में आचार्य शंकर ने भी की हे. अतः नारद जो की ऋषि की अवस्था प्राप्त किए हुए था, उन्होंने देव समाज में स्वयं का कार्यक्षेत्र संभाला होगा अतः वः देवर्षि कहे गए. और यः सभी उपाधि जन सामान्य ने ही दी होनी चाहिए. जेसे की आज भागवत कथा कर रहे वक्ता को व्यास कहा जाता हे और वो जहा से कथा करता हे उस जगह को व्यासपीठ.
किन्तु ऋषि पदवी बहोत सोच विचार कर के दी जाती थी. पौराणिक मान्यता यः भी हे की विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षि अवस्था प्राप्त कर ली थी. लेकिन जब हम इतिहास पढते हे तो ध्यान में आता हे की उसके पीछे विश्वामित्र ने कितना बड़ा कार्य किया हे, अनेको वर्षों तक वेदों के विचार का संवर्धन किया हे स्वयं के काम क्रोध इत्यादि शत्रुओ को जीता हे तब जाकर वः ऋषि अवस्था प्राप्त कर पाए हे. अतः ऋषि शब्द को बहोत ही बड़ा मूल्य हे. जो कही भी उपयोग में नहीं लिया जाना चाहिए.
ऋषि का सम्बन्ध लोगों के जीवन मे अपने अदम्य कर्तित्व से अमूल चूल परिवर्तन लाने से है ...उनको सांस्कृतिक बनाने से है संस्कृति का निर्माण , पोषण ,जन मानसमे उसका प्रवेश कराना और रक्षण संवर्धन यह सभी ऋषि करते थे. "ऋषि" भारतीय वैदिक संस्कृति का एक ऐसा महँ युग पुरुष हे जो सम्पूर्ण विश्व में ना कही हुआ होगा और ना ही कभी होगा. और इसी लिए हमारे वेदों ने प्रथम ऋषि को और बाद में भगवान को नमस्कार किए हे. ऋषि अवस्था प्राप्त कर चुके याज्ञवल्क्य को इसी कारण से "योगीश्वरं याज्ञवल्क्य नारायण नमस्कृत्य" कहा गया. ऋषि को Father of Indian Philosophy भी शायद इसी लिए कहा गया हे. विश्वामित्र जो एक क्षत्रीय भी थे ....ने उग्र तपस्या द्वारा अंतर -बहिर्भक्ति , आत्म दमन , तथा आत्म संयम करते हुए अपनी आत्म शक्ति व विचार शक्ति मे और वृद्धि की और अपने पीछे बहुत से लोगों को खड़ा किया .. इसलिए राजर्षि कहलाये
विश्वामित्र लोगों को जीवन दर्शन व जीवन दृष्टि देते थे तथा उन्हें सात्विक बनाते थे परन्तु उसके पीछे उनकी प्रबल महत्वाकांक्षा भी विद्यमान थी ...महत्वाकंशी( उच्च लोगों की दृष्टि मे हम लोगों की दृष्टि मे तो दोनों ही आराध्य है ) व्यक्ति जब सात्विक कार्य करता है तो वह राजर्षि तथा निराकांक्षी व्यक्ति जब ऐसे कार्य करता है तो वह ब्रम्हर्षि कहलाता है ..
(साहिल जी के प्रश्न पर Samarpan Trivedi और अनिल जी के संवाद पर से)
ग्रेट
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