ॐ
20/6/2018
नमस्कार,
आपने देखा होगा की कपडे के फैशन में जब कभी कोई नई फैशन आती है तो वो हकिकत में नई नहीं होता लेकिन आज से 20-25 वर्ष पहले जो फैशन आउट डेटेड हो जाती है उसे फिर अपग्रेड करके कुछ थोडा बदलाव के साथ पुनः लाया जाता है। फैशन को नया करनेवाले वही होते है जिनके जन्म से पहले वो फैशन आउट डेटेड हुआ।
अब आते है असली मुद्दे पर कुछ वर्ष पहले तक जब बूफेट खाना चलन मे नही था तब तक सभी प्रकार के सामाजिक समुह भोज पत्तल से बनी थाली मे खाया जाता था। उस समय भी स्टील की थुलियम होती थी पर पत्तल से बनी थाली मे ही भोजन लिया जाता। इसका मुख्य कारण हमारे पूर्वज ये जानते थे के ये पत्तल एक बाय वेस्ट है और इसे एक गड्ढा करके उसमे गाड देने से ये पत्तल कुछ दिन मे डी-कम्पोझ हो जायेगा और पर्यावरण को नुकसान नहीं होगा।
अब तमिलनाडु के एक पर्यावरण प्रेमी ने फिर से नया चलन शुरु किया, उसने काले के पेड़ की छाल को सुखाकर पतला बनाकर फिर मशीनमे प्रेस कर उसे कटोरी और थाली का आकार देकर बाज़ार में रखा लोगो ने इसके फायदे को समझा यह एक अच्छा गृहउद्योग है अनेक लोगो को रोजी देता है इसके खाने के वैज्ञानिक फायदे है सबसे बडी बात ये पर्यावरण को थोडा भी नुकसान नहीं करता। यह देख अब मुंबई जैसे बडे शेहरो मे भी इसका चलन बढा है। या यू कहो फैशन हो गई है, इन्हे उपयोग करनेका।
कहने का तात्पर्य है हम भी इसे अपनाकर अपना सामाजिक दायित्व निभाये।
आज से 20 वर्ष पहले तक विदित होगा के धर्मपुरी, कपराडा, खानवेल जैसे आदिवासी क्षेत्रों से लोग कपडे मे लपेट कर एक बडा बंडल बनाकर *पलाश* के पत्ते बेचने आते थे। या उन्होने हाथ से बनाई पलाश के पत्तों की कोरिया और थाली बेचने आते थे और हमारे घर मे हमारी माता-बहने उसे खरीदी थी।
यह एक अच्छा गृह उद्योग था जो बुफेट ने और तथाकथित आधुनिकता ने नष्ट कर दिया।
मुंबई में ज्यादातर नमस्ते के ठेलेवाले अब इन्ही पत्तो से बनी कटोरी मे चटनी या जो प्रवाही खाना हो वो, और छोटी पत्तल की प्लेट मे सुखा नास्ता।
पहले पेपर डिश होती थी अब ये पत्तल की डिश।
क्यों न दमण मे भी सब नास्ता वाले ऐसी पत्तल की डिश में नास्ता देना शुरु करें !!???
-रा. म. पं
20/6/2018
नमस्कार,
आपने देखा होगा की कपडे के फैशन में जब कभी कोई नई फैशन आती है तो वो हकिकत में नई नहीं होता लेकिन आज से 20-25 वर्ष पहले जो फैशन आउट डेटेड हो जाती है उसे फिर अपग्रेड करके कुछ थोडा बदलाव के साथ पुनः लाया जाता है। फैशन को नया करनेवाले वही होते है जिनके जन्म से पहले वो फैशन आउट डेटेड हुआ।
अब आते है असली मुद्दे पर कुछ वर्ष पहले तक जब बूफेट खाना चलन मे नही था तब तक सभी प्रकार के सामाजिक समुह भोज पत्तल से बनी थाली मे खाया जाता था। उस समय भी स्टील की थुलियम होती थी पर पत्तल से बनी थाली मे ही भोजन लिया जाता। इसका मुख्य कारण हमारे पूर्वज ये जानते थे के ये पत्तल एक बाय वेस्ट है और इसे एक गड्ढा करके उसमे गाड देने से ये पत्तल कुछ दिन मे डी-कम्पोझ हो जायेगा और पर्यावरण को नुकसान नहीं होगा।
अब तमिलनाडु के एक पर्यावरण प्रेमी ने फिर से नया चलन शुरु किया, उसने काले के पेड़ की छाल को सुखाकर पतला बनाकर फिर मशीनमे प्रेस कर उसे कटोरी और थाली का आकार देकर बाज़ार में रखा लोगो ने इसके फायदे को समझा यह एक अच्छा गृहउद्योग है अनेक लोगो को रोजी देता है इसके खाने के वैज्ञानिक फायदे है सबसे बडी बात ये पर्यावरण को थोडा भी नुकसान नहीं करता। यह देख अब मुंबई जैसे बडे शेहरो मे भी इसका चलन बढा है। या यू कहो फैशन हो गई है, इन्हे उपयोग करनेका।
कहने का तात्पर्य है हम भी इसे अपनाकर अपना सामाजिक दायित्व निभाये।
आज से 20 वर्ष पहले तक विदित होगा के धर्मपुरी, कपराडा, खानवेल जैसे आदिवासी क्षेत्रों से लोग कपडे मे लपेट कर एक बडा बंडल बनाकर *पलाश* के पत्ते बेचने आते थे। या उन्होने हाथ से बनाई पलाश के पत्तों की कोरिया और थाली बेचने आते थे और हमारे घर मे हमारी माता-बहने उसे खरीदी थी।
यह एक अच्छा गृह उद्योग था जो बुफेट ने और तथाकथित आधुनिकता ने नष्ट कर दिया।
मुंबई में ज्यादातर नमस्ते के ठेलेवाले अब इन्ही पत्तो से बनी कटोरी मे चटनी या जो प्रवाही खाना हो वो, और छोटी पत्तल की प्लेट मे सुखा नास्ता।
पहले पेपर डिश होती थी अब ये पत्तल की डिश।
क्यों न दमण मे भी सब नास्ता वाले ऐसी पत्तल की डिश में नास्ता देना शुरु करें !!???
-रा. म. पं
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