Saturday, December 22, 2012
Thursday, November 1, 2012
दर्शन गोष्टी - भारतीय संस्कृति की रक्षा
बहुत से विषयों में हमने संक्षिप्त मार्गों की तलाश की . व्यस्तता में इन मार्गों का अनुशरण करते अपने मंतव्य भी पूरे करने आरम्भ किये . श्रवण और दर्शन की जाने वाली सामग्रियों की इस तरह प्रचुरता के मध्य हमने इनमें भी संक्षिप्त मार्ग अपनाया . हमने स्वयं से निर्णय करने में कम समय लगाया , यह देखा दूसरे क्या पढ़ और देख रहे हैं , उसे अच्छा माना और उन्हीं सामग्रियों का इस हेतु उपयोग किया .
आधुनिक इन माध्यमों के जनक पाश्चात्य महादीप (यूरोप तथा अमेरिका ) थे . अतः इन माध्यमों पर वहां की जीवन शैली और संस्कृति की प्रचुरता थी . ये सब ज्यादा देख और पढ़ हम उसे सामान्य रूप में लेने लगे . जब इसे इस तरह स्वीकार करने लगे तो आचरण , व्यवहार और हमारे कर्मों में धीरे धीरे यह शैली आने लगी . चूँकि युवा वर्ग हमारी संस्कृति के विषय में कम देख और पढ़ पा रहा था, अतः अपनी भाषा , पहनावा , खानपान , जीवन शैली ,परम्पराओं और मर्यादाओं को तजने में कोई धर्म संकट या संकोच नहीं हुआ .
लोकप्रियता
, बहुमत की राय तो दर्शा रही थी लेकिन बौध्दिक स्तर नहीं प्रकट कर सकती थी
. बहुमत की राय यदि बौध्दिक स्तर की कमी के बाद है तो उसका औचित्य संदिघ्न
होता है .
लोकप्रियता के नाम मसालों की मात्रा और बढती चली
गयी . लगातार ऐसा देख इसे ही जीवन स्वरूप समझ हम संस्कृति , सिध्दांत और
परम्पराओं से दूर होते गए .
समय आया अब कम युवा ही हमारी संस्कृति ,जीवन शैली क्या थी क्या होना चाहिए इस पर विचार करते हैं .
Tuesday, October 30, 2012
कैसा है 'आत्मा' का रंग?
आत्मा के रंग को जानने से पहले रंगों के बारे में जानते चलें तो शायद
विश्वास हो कि हां आत्मा का का भी रंग होता है। यह दुनिया रंग-बिरंगी या
कहें कि सतरंगी है। सतरंगी अर्थात सात रंगों वाली।लेकिन रंग तो
मूलत: पांच ही होते हैं- कला, सफेद, लाल, नीला और पीला। काले और सफेद को
रंग मानना हमारी मजबूरी है जबकि यह कोई रंग नहीं है। इस तरह तीन ही प्रमुख
रंग बच जाते हैं- लाल, पीला और नीला। आपने आग जलते हुए देखी होगी- उसमें यह
तीन ही रंग दिखाई देते हैं।जब कोई रंग बहुत फेड हो जाता है तो
वह सफेद हो जाता है और जब कोई रंग बहुत डार्क हो जाता है तो वह काला पड़
जाता है। लाल रंग में अगर पीला मिला दिया जाए, तो वह केसरिया रंग बनता है।
नीले में पीला मिल जाए, तब हरा रंग बन जाता है। इसी तरह से नीला और लाल
मिलकर जामुनी बन जाते हैं। आगे चलकर इन्हीं प्रमुख रंगों से हजारों रंगो की
उत्पत्ति हुई।शास्त्र अनुसार हमारे शरीर में स्थित है सात
प्रकार के चक्र। यह सातों चक्र हमारे सात प्रकार के शरीर से जुड़े हुए हैं।
सात शरीर में से प्रमुख है तीन शरीर- भौतिक, सूक्ष्म और कारण। भौतिक शरीर लाल रक्त से सना है जिसमें लाल रंग की अधिकता है। सूक्ष्म शरीर
सूर्य के पीले प्रकाश की तरह है और कारण शरीर नीला रंग लिए हुए है।चक्रों के नाम : मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और
सहस्रार। मूलाधार चक्र हमारे भौतिक शरीर के गुप्तांग, स्वाधिष्ठान चक्र
उससे कुछ ऊपर, मणिपुर चक्र नाभि स्थान में, अनाहत हृदय में, विशुद्धि चक्र
कंठ में, आज्ञा चक्र दोनों भौंओ के बीच जिसे भृकुटी कहा जाता है और सहस्रार
चक्र हमारे सिर के चोटी वाले स्थान पर स्थित होता है। प्रत्येक चक्र का
अपना रंग है।कुछ ज्ञानीजन मानते हैं कि नीला रंग आज्ञा चक्र का
एवं आत्मा का रंग है। नीले रंग के प्रकाश के रूप में आत्मा ही दिखाई पड़ती
है और पीले रंग का प्रकाश आत्मा की उपस्थिति को सूचित करता है। संपूर्ण जगत में नीले रंग की अधिकता है। धरती पर 75 प्रतिशत फैले जल के
कारण नीले रंग का प्रकाश ही फैला हुआ है तभी तो हमें आसमान नीला दिखाई देता
है। कहना चाहिए कि कुछ-कुछ आसमानी है आत्मा।ध्यान के द्वारा
आत्मा का अनुभव किया जा सकता है। शुरुआत में ध्यान करने वालों को ध्यान के
दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं। पहले भौहों के
बीच आज्ञा चक्र में ध्यान लगने पर अंधेरा दिखाई देने लगता है। अंधेरे में
कहीं नीला और फिर कहीं पीला रंग दिखाई देने लगता है।यह गोलाकार
में दिखाई देने वाले रंग हमारे द्वारा देखे गए दृश्य जगत का रिफ्लेक्शन भी
हो सकते हैं और हमारे शरीर और मन की हलचल से निर्मित ऊर्जा भी। गोले के
भीतर गोले चलते रहते हैं जो कुछ देर दिखाई देने के बाद अदृश्य हो जाते हैं
और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है। यह क्रम चलता
रहता है।जब नीला रंग आपको अच्छे से दिखाई देने लगे तब समझे की आप स्वयं के करीब पहुंच गए हैं।दुनिया
का शायद ही कोई व्यक्ति जानता होगा की आत्मा का रंग क्या है। क्या सचमुच
ही आत्मा का भी रंग होता है? कहते हैं कि आत्मा का कोई रंग नहीं होता वह तो
पानी की तरह रंगहीन है। लेकिन नहीं जनाब 'आत्मा' का भी रंग होता है। यह हम
नहीं कह रहे यह शोध और शास्त्र कहते हैं कि आत्मा का भी रंग होता है!
गंगा विशेष पवित्र नदी
गंगा
प्राचीन काल से ही भारतीय जनमानस में अत्यंत पूज्य रही है, इसका धार्मिक
महत्त्व जितना है, विश्व में शयद ही किसी नदी का होगा.. यह विश्व कि
एकमात्र नदी है, जिसे श्रद्धा से माता कहकर पुकारा जाता है
महाभारत में
कहा गया है.. "जैसे अग्नि ईधन को जला देती है, उसी प्रकार सैंकड़ो निषिद्ध कर्म करके भी यदि गंगा स्नान किया जाये , तो उसका जल उ
न सब पापों को भस्म कर देता है, सत्ययुग में सभी तीर्थ पुण्यदायक होते
थे.. त्रेता में पुष्कर और द्वापर में कुरुक्षेत्र तथा कलियुग में गंगा कि
सबसे अधिक महिमा बताई गई है. नाम लेने मात्र से गंगा पापी को पवित्र कर
देती है. देखने से सौभाग्य तथा स्नान या जल ग्रेहण करने से सात पीढियों तक
कुल पवित्र हो जाता है (महाभारत/वनपर्व 85 /89 -90 -93 "
(वैज्ञानिक महत्व )----------------------------- ---------------------
गंगाजल पर किये शोध कार्यो से स्पष्ट है कि यह वर्षो तक रखने पर भी खराब
नहीं होता .. स्वास्थवर्धक तत्वों का बाहुल्य होने के कारण गंगा का जल अमृत
के तुल्य, सर्व रोगनाशक, पाचक, मीठा, उत्तम, ह्रदय के लिए हितकर, पथ्य,
आयु बढ़ाने वाला तथा त्रिदोष नाशक है, इसका जल अधिक संतृप्त माना गया है,
इसमें पर्याप्त लवण जैसे कैल्शियम, पोटेशियम, सोडियम आदि पाए जाते है और 45
प्रतिशत क्लोरिन होता है , जो जल में कीटाणुओं को पनपने से रोकता है. इसी
कि उपस्थिति के कारण पानी सड़ता नहीं और ना ही इसमें कीटाणु पैदा होते है,
इसकी अम्लीयता एवं क्षारीयता लगभग समान होती है, गंगाजल में अत्यधिक
शक्तिशाली कीटाणु-निरोधक तत्व क्लोराइड पाया जाता है. डा. कोहिमान के मात
में जब किसी व्याक्ति कि जीवनी शक्ति जवाब देने लगे , उस समय यदि उसे
गंगाजल पिला दिया जाये, तो आश्चर्यजनक ढंग से उसकी जीवनी शक्ति बढती है और
रोगी को ऐसा लगता है कि उसके भीतर किसी सात्विक आनंद का स्त्रोत फुट रहा है
शास्त्रों के अनुसार इसी वजह से अंतिम समय में मृत्यु के निकट आये व्यक्ति
के मुंह में गंगा जल डाला जाता है .
(अध्यात्मिक महत्व )----------------------------- ---------------------
गंगा स्नान से पुण्य प्राप्ति के लिए श्रद्धा आवश्यक है. इस सम्बन्ध में
एक कथा है. एक बार पार्वती जी ने शंकर भगवान से पूछा -"गंगा में स्नान करने
वाले प्राणी पापो से छुट जाते है?" इस पर भगवान शंकर बोले -"जो
भावनापूर्वक स्नान करता है, उसी को सदगति मिलती है, अधिकाँश लोग तो मेला
देखने जाते है" पार्वती जी को इस जवाब से संतोष नहीं मिला. शंकर जी ने फिर
कहा - "चलो तुम्हे इसका प्रत्यक्ष दर्शन कराते है" गंगा के निकट शंकर जी
कोढ़ी का रूप धारण कर रस्ते में बैठ गये और साथ में पार्वती जी सुंदर
स्त्री का रूप धारण कर बैठ गई. मेले के कारण भीड़ थी.. जो भी पुरष कोढ़ी के
साथ सुंदर स्त्री को देखता , वह सुंदर स्त्री की और ही आकर्षित होता.. कुछ
ने तो उस स्त्री को अपने साथ चलने का भी प्रस्ताव दिया. अंत में एक ऐसा
व्यक्ति भी आया, जिसने स्त्री के पातिव्रत्य धर्म की सराहना की और कोढ़ी को
गंगा स्नान कराने में मदद दी. शंकर भगवान प्रकट हुए और बोले. 'प्रिय! यही
श्रद्धालु सदगति का सच्चा अधिकारी है...."
अब बोलिए जय गंगा मैया. हर हर महादेव. जय शिव भोला भंडारी... जय मेरी माँ कालका... जय मेरी माँ दुर्गे.. जय माँ राजरानी...
जय हो. जय जय माँ
.............................. .............................. .............................. .....(जय गंगा माँ )
(वैज्ञानिक महत्व )-----------------------------
गंगाजल पर किये शोध कार्यो से स्पष्ट है कि यह वर्षो तक रखने पर भी खराब नहीं होता .. स्वास्थवर्धक तत्वों का बाहुल्य होने के कारण गंगा का जल अमृत के तुल्य, सर्व रोगनाशक, पाचक, मीठा, उत्तम, ह्रदय के लिए हितकर, पथ्य, आयु बढ़ाने वाला तथा त्रिदोष नाशक है, इसका जल अधिक संतृप्त माना गया है, इसमें पर्याप्त लवण जैसे कैल्शियम, पोटेशियम, सोडियम आदि पाए जाते है और 45 प्रतिशत क्लोरिन होता है , जो जल में कीटाणुओं को पनपने से रोकता है. इसी कि उपस्थिति के कारण पानी सड़ता नहीं और ना ही इसमें कीटाणु पैदा होते है, इसकी अम्लीयता एवं क्षारीयता लगभग समान होती है, गंगाजल में अत्यधिक शक्तिशाली कीटाणु-निरोधक तत्व क्लोराइड पाया जाता है. डा. कोहिमान के मात में जब किसी व्याक्ति कि जीवनी शक्ति जवाब देने लगे , उस समय यदि उसे गंगाजल पिला दिया जाये, तो आश्चर्यजनक ढंग से उसकी जीवनी शक्ति बढती है और रोगी को ऐसा लगता है कि उसके भीतर किसी सात्विक आनंद का स्त्रोत फुट रहा है शास्त्रों के अनुसार इसी वजह से अंतिम समय में मृत्यु के निकट आये व्यक्ति के मुंह में गंगा जल डाला जाता है .
(अध्यात्मिक महत्व )-----------------------------
गंगा स्नान से पुण्य प्राप्ति के लिए श्रद्धा आवश्यक है. इस सम्बन्ध में एक कथा है. एक बार पार्वती जी ने शंकर भगवान से पूछा -"गंगा में स्नान करने वाले प्राणी पापो से छुट जाते है?" इस पर भगवान शंकर बोले -"जो भावनापूर्वक स्नान करता है, उसी को सदगति मिलती है, अधिकाँश लोग तो मेला देखने जाते है" पार्वती जी को इस जवाब से संतोष नहीं मिला. शंकर जी ने फिर कहा - "चलो तुम्हे इसका प्रत्यक्ष दर्शन कराते है" गंगा के निकट शंकर जी कोढ़ी का रूप धारण कर रस्ते में बैठ गये और साथ में पार्वती जी सुंदर स्त्री का रूप धारण कर बैठ गई. मेले के कारण भीड़ थी.. जो भी पुरष कोढ़ी के साथ सुंदर स्त्री को देखता , वह सुंदर स्त्री की और ही आकर्षित होता.. कुछ ने तो उस स्त्री को अपने साथ चलने का भी प्रस्ताव दिया. अंत में एक ऐसा व्यक्ति भी आया, जिसने स्त्री के पातिव्रत्य धर्म की सराहना की और कोढ़ी को गंगा स्नान कराने में मदद दी. शंकर भगवान प्रकट हुए और बोले. 'प्रिय! यही श्रद्धालु सदगति का सच्चा अधिकारी है...."
अब बोलिए जय गंगा मैया. हर हर महादेव. जय शिव भोला भंडारी... जय मेरी माँ कालका... जय मेरी माँ दुर्गे.. जय माँ राजरानी...
जय हो. जय जय माँ
..............................
आधिपत्य
हम
प्रत्येक अच्छी ,आकर्षक ,नई ,आधुनिक , सुविधा जनक या सुन्दर वस्तु ,स्थान
या मनुष्य साथी को देखते हैं , तब सहज मानवीय प्रवृत्ति के वशीभूत उसे पाने
, आधिपत्य करने या उस पर अपने नाम जोड़ने की इक्छा करने लगते हैं .अन्य
शब्दों में कहें तो उसका पीछा करते हैं या पीछे भागते हैं. हम इसलिए भी
करते हैं क्योंकि अपने बचपने से ऐसा करते लगभग सभी को देखते हैं. अतः ऐसा
करना सही मानते हैं. हम ऐसा इसलिए भी करते हैं क्योंकि ऐसा होने पर हम
स्वयं भी प्रसन्नता अनुभव करते हैं. अधिकांश पूरा जीवन ऐसा ही करते बिता
देते हैं. या अधिकांश अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा ऐसे व्यतीत करते हैं .
अपवाद हुए हैं , जिन्होंने जैसा सब करते हैं उससे अलग ढंग से जीवन जिया है .
या प्रारंभिक जीवन सब जैसा जिया फिर अपने अनुभव से ,विवेक से समझदारी से
जीवन उत्तरार्ध्द में अपना जीवन पथ परिवर्तित कर लिया . बाद के जीवन में वे
किसी की पीछे नहीं भागे . तब उनमें से कुछ के पीछे शेष विश्व भागने लगा .
उनके पदचिन्हों पर
चलने लगा उनको आदर्श मान उनका अनुकरण करने लगा .
सब अच्छा से अच्छा संभव है वस्त्र पहनना चाहते हैं . सबसे अच्छा और स्वादिष्ट अधिक खाना चाहते हैं . अपना बंगला सबसे बेहतर करना चाहते हैं . अपनी मान प्रतिष्ठा और प्रशंसा सर्वत्र चाहते हैं. अधिकतम सुविधा से रहना चाहते हैं. जीवन में अमर हो जाना चाहते हैं . सफलता शीघ्र और अधिकतम पाना चाहते हैं. अपना ज्ञान और सूझबूझ सर्वाधिक कहलवाना चाहते हैं. अपने परिवार में सुन्दर ,सुशील पत्नी ,बच्चे ,भाई-बहन होना पसंद करते हैं . अपनों पर कोई विपत्ति न आये यह चाहते हैं.ऐसा नहीं है तो इसके उपाय ,इस हेतु छीना-झपटी और उचित अनुचित प्रयत्न करते हैं. हासिल कर सके तो और अधिक चाहने लगते हैं. नहीं होता है तो बेचैन होते हैं. इन क्रमों और कर्मों में जीवन का प्रारंभ कब जीवन संध्या पर आ पहुँचता है . पता नहीं पड़ता और फिर चौंकते हैं और भयभीत होते हैं .भ्रमों में कभी सबसे खुशहाल और कभी लाचार मानते अभिमान और हीनता बोध के बीच दोलन करते रहते हैं .
वस्त्र धारण यानि बाह्य स्वरूप और मर्यादा के लिए ,उन्होंने जो सहज , सरलता से मिला उसे धारण किया , इस पर विशेष महत्त्व नहीं दिया . उनका ध्यान इस बात पर ज्यादा रहा कि उनके मन और ह्रदय में धारण किये गए विवेक विचार श्रेष्ठ रहें . भोजन आम तौर पर शाकाहारी , और सात्विक रखा जिसमें मात्रा भी उदर पूर्ती के लिए जितनी आवश्यक है उस पर ध्यान दिया . अन्य भोज्य यदि ग्रहण किये भी तो उस पर ध्यान रखा कि उसकी व्यवस्था न्यायोचित ढंग से की गयी हो . उन्होंने इस पर विशेष ध्यान दिया कि जिनके बीच वे रह रहे हैं. उनको भी उदर पूर्ती के लिए आवश्यक मात्रा मिल पा रही अथवा नहीं. अगर आवश्यक हुआ तो उन्होंने अपनी थाली में से बाँट कर अन्य को आवश्यक मात्रा मिल सके यह सुनिश्चित करने की चेष्टा रखी.
रहने के लिए अपने निवास को जीवन में उन्होंने अस्थायी ही माना , क्योंकि उन्हें इस बात का ज्ञान पूरे जीवन में रहा कि जीवन बाद धरती पर एक छोटे से टुकड़े पर उसका कोई अधिकार नहीं रह जाता है. यह अवश्य कोशिश रही कि मिले आवास को साफ़ सुथरा रख आसपास भी अन्य साफ़ सुथरे तरीके से जीवन यापन करें. सुविधा उन्हें क्या उपलब्ध है ? इस पर विचार में व्यर्थ समय गंवाने के उन्होंने इस का चिंतन और उपाय किया कि दूसरों को आवश्यक सुविधा कम से कम जो पर्याप्त मानी जाती है वह उपलब्ध हो सके. मान ,प्रतिष्ठा और प्रशंसा पर उनका मन कभी आकुल-व्याकुल नहीं रहा . यद्यपि उनके कर्मों और आचरण ने धीरे -धीरे अन्य के बीच स्वतः ही मान, प्रतिष्ठा और प्रशंसा में क्रमशः वृध्दि दिलवाई .
जीवन कि दीर्घता कितनी है इस पर नियंत्रण किसी का नहीं है, यह ज्ञान रखा . जितने उपाय संभव हैं उस अनुसार जीवन बचाव किया . और फिर जितना जीवन मिला उसे सद्कर्मों , सदाचार और परहित में लगाया . इसे ही स्वहित भी माना और जीवन सार्थकता इसी में देखी. अगर गृहस्थ रहे तो पत्नी ,बच्चे ,भाई-बहन और अन्य परिवार जन दैहिक रूप से सुन्दर हैं या नहीं इस पर चिंता न कर उनके गुण विचार और व्यवहार सुन्दर हो इसे प्रमुख किया और उसके उपाय और प्रेरणा दी. प्रतिकूलताओं को विपत्ति मानने के स्थान पर कभी अनुकूलता और कभी प्रतिकूलता को जीवन स्वरूप माना .
गगन में उड़ रहे हवाई जहाज , तारों में दौड़ रही बिजली , विश्व के एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजे जा सकने वाले सन्देश और चित्र विज्ञान में , और सदाचार को प्रेरित करते साहित्य और धर्म महान दार्शनिकों ,विचारकों और साहित्यकार का अनूठापन ही है . जिनसे मानव संस्कृति और विकास को दिशा और गति मिली .इन महा मानवों ने यह सब विश्व को सबसे अलग तरह सोच ,कर्म और आचरण से दिया . उन्होंने इसकी चिंता नहीं की दूसरे क्या कहते और करते हैं . अपने बारे में क्या कहा जा रहा है ,इससे भी उदासीन रहते हुए ही उन्होंने जीवन सार्थक कर विशेष योगदान इस विश्व और समाज को दिया .
ईश्वर की ओर जो आकर्षण है, वही प्रेम है
एक कहानी है। राम-लक्ष्मण नाव से गंगा पार कर रहे थे। नाव से उतरने पर
देखा कि राम के चरणों के स्पर्श से वह सोने की हो गई है । यह देख नाविक
अपने घर दौड़ गया और अपनी स्त्री से बोला, देख तो कैसा कांड हो गया? राम
चंद्र के चरण स्पर्श से नौका सोने की हो गई।
तब नाविक की स्त्री ने
क्या किया? घर में जितना काठ का सामान था -चौकी, बेलना, पीढ़ी (और जिस पर
बैठे रसोई पकाती है) इत्यादि सब लेकर दौड़ी, जहां रामचंद्र थे और रामचंद्र
के चरणों मे जो भी छुआ देती, सोना बन जाता। तुम जानते हो कि काठ के सामान
से सोना बहुत भारी होता है। लाते समय तो आसानी से काठ के सामान ले आई थी,
ले जाने में भारीपन से उसकी पीठ टूटने लगी। अब लेकर जाए कैसे?
तब नाविक ने कहा-''अरी ! तू तो बड़ी मूर्ख है -जिन रामचंद्र के चरण स्पर्श से काठ सोना बनता हैं, उन्हीं चरणों को अपने घर में क
्यों
नहीं रख लेती? तब जितनी इच्छा हो -सोना बना लिया करना। मूर्खता मत कर।''
भक्त इस प्रकार की मूर्खता कभी नहीं करेगा । भक्त जानता है कि ईश्वर की जो
भी इच्छा हो, दे सकते हैं ।
अपने को स्वयं के भीतर रखो, और किसी के घर
जाने की जरूरत नहीं है। तुम चाहोगे, वही पा जाओगे। अपने अंत:करण में खोजो।
जो पारसमणि, परम धन समझा जाता है, उससे जो चाहते हैं, सब पा सकते हैं।
लेकिन ऐसे कितने मणि तो चिंतामणि के सामने घर के चौखट पर पड़े हुए हैं।
जिसके पास सब कुछ है, उनके पास से फि र अन्य वस्तु क्या मांगोगे? क्या
मांगना चाहिए ईश्वर से? भक्त कहता है ईश्वर से, मैं तुमको चाहता हूं। पर
ईश्वर क्या चाहते हैं भक्त से? वे चाहते हैं कि तू अपना मन मुझे दे दे,
बाकी वस्तुएं तुम्हारी ही रहें।
यह तो बस ऐसा ही
हुआ कि घर का सब कुछ तुम्हारा रहा, परंतु ताला चाभी मेरी। अर्थात् जब
ईश्वर कहते हैं, तू अपना मन मुझे दे दे, बाकी सब तेरा रह जाएगा। तो जब तूने
मन ही दे दिया, तो बाकी क्या रहा? जो भी हो, मन ही मांग रहे है ईश्वर। तो
जो मनुष्य अपना मन नहीं दे पाता, ईश्वर उसकी ओर से मुंह घुमा लेते हैं।
किंतु मुंह फिराकर भी ईश्वर रह नहीं सकते, क्योंकि जीव उनका अत्यंत प्रिय
है। फि र उसकी ओर देखते हैं, फि र कहते हैं-''दे सकेगा, अपना मन?'' यदि जीव
ने कहा- ''दे दिया।'' तो ले लेंगे और यदि कहा कि देते नहीं बनता है, तो फि
र मुंह फि रा लेंगे। किंतु स्थायी रूप से मुंह फि राकर नहीं रह सकते, पुन:
देखने को बाध्य होते हैं।
प्रेम क्या है ? जहां पर आकर्षण किसी
क्षुद्र लाभ के प्रति नहीं हैं , आकर्षण केवल वृहत यानि अनंत सत्ता की ओर
है , उसी आकर्षण का मानसिक अध्यात्मिक नाम है प्रेम। और यह जो एक वृहत् के
प्रति आकर्षण है यही है प्रेम। भक्ति और प्रेम एक ही वस्तु है , जिसके हाथ
में भक्ति है उसी के हृदय में प्रेम है। जिसके पास प्रेम है उसी के पास
भक्ति है - दोनों एक ही वस्तु है , दोनों में कोई अंतर नहीं है। वस्तुत :
किसी वस्तु का भाव जगत से जड़ जगत में उत्सरण होता है , तब मनुष्य उस
उत्सरित वस्तु को अच्छी तरह से पहचानने लगता है और प्यार भी करने लगता है।
प्रेम है ईश्वर के प्रति आकर्षण , वृहत् के प्रति आकर्षण। जब तक यह प्रेम
भावजगत में रहता है , तब तक वह मनुष्य कुछ तो इसको समझ पाता है , कुछ नहीं
भी समझ पाता है। कारण है - भाव जगत की चीज। भाव जगत मंे प्रवेश करने पर ही
समझ में आती हैं , नहीं तो वह समझ में नहीं आती।
प्रस्तुति : आचार्य दिव्यचेत नानंद
अपने को स्वयं के भीतर रखो, और किसी के घर जाने की जरूरत नहीं है। तुम चाहोगे, वही पा जाओगे। अपने अंत:करण में खोजो। जो पारसमणि, परम धन समझा जाता है, उससे जो चाहते हैं, सब पा सकते हैं। लेकिन ऐसे कितने मणि तो चिंतामणि के सामने घर के चौखट पर पड़े हुए हैं। जिसके पास सब कुछ है, उनके पास से फि र अन्य वस्तु क्या मांगोगे? क्या मांगना चाहिए ईश्वर से? भक्त कहता है ईश्वर से, मैं तुमको चाहता हूं। पर ईश्वर क्या चाहते हैं भक्त से? वे चाहते हैं कि तू अपना मन मुझे दे दे, बाकी वस्तुएं तुम्हारी ही रहें।
यह तो बस ऐसा ही हुआ कि घर का सब कुछ तुम्हारा रहा, परंतु ताला चाभी मेरी। अर्थात् जब ईश्वर कहते हैं, तू अपना मन मुझे दे दे, बाकी सब तेरा रह जाएगा। तो जब तूने मन ही दे दिया, तो बाकी क्या रहा? जो भी हो, मन ही मांग रहे है ईश्वर। तो जो मनुष्य अपना मन नहीं दे पाता, ईश्वर उसकी ओर से मुंह घुमा लेते हैं।
किंतु मुंह फिराकर भी ईश्वर रह नहीं सकते, क्योंकि जीव उनका अत्यंत प्रिय है। फि र उसकी ओर देखते हैं, फि र कहते हैं-''दे सकेगा, अपना मन?'' यदि जीव ने कहा- ''दे दिया।'' तो ले लेंगे और यदि कहा कि देते नहीं बनता है, तो फि र मुंह फि रा लेंगे। किंतु स्थायी रूप से मुंह फि राकर नहीं रह सकते, पुन: देखने को बाध्य होते हैं।
प्रेम क्या है ? जहां पर आकर्षण किसी क्षुद्र लाभ के प्रति नहीं हैं , आकर्षण केवल वृहत यानि अनंत सत्ता की ओर है , उसी आकर्षण का मानसिक अध्यात्मिक नाम है प्रेम। और यह जो एक वृहत् के प्रति आकर्षण है यही है प्रेम। भक्ति और प्रेम एक ही वस्तु है , जिसके हाथ में भक्ति है उसी के हृदय में प्रेम है। जिसके पास प्रेम है उसी के पास भक्ति है - दोनों एक ही वस्तु है , दोनों में कोई अंतर नहीं है। वस्तुत : किसी वस्तु का भाव जगत से जड़ जगत में उत्सरण होता है , तब मनुष्य उस उत्सरित वस्तु को अच्छी तरह से पहचानने लगता है और प्यार भी करने लगता है। प्रेम है ईश्वर के प्रति आकर्षण , वृहत् के प्रति आकर्षण। जब तक यह प्रेम भावजगत में रहता है , तब तक वह मनुष्य कुछ तो इसको समझ पाता है , कुछ नहीं भी समझ पाता है। कारण है - भाव जगत की चीज। भाव जगत मंे प्रवेश करने पर ही समझ में आती हैं , नहीं तो वह समझ में नहीं आती।
प्रस्तुति : आचार्य दिव्यचेत नानंद
समर्पण भाव
सायंकाल
का समय था। ईश्वर का अस्तित्व मानने और प्रचार करने के अपराध में 8वर्ष के
बालक प्रह्लाद को आज सब के सामने मृत्यु दंड दिया जाना है। एक बालक के
मृत्युदंड को देखने के लिए असंख्य नर- नारी न्यायालय के विस्तृत प्रांगण
में एकत्रित हैं। ऊंचे- ऊंचे भवनों के झरोखों से झांक रहीं संभ्रांत
नारियां इस करुण दृश्य की कल्पना से ही शोकमग्नहो रही हैं। प्रह्लाद की
माता कयाधूकी अन्तर्व्यथाका तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता है! पति-पुत्र
के इस संघर्ष ने उनके जीवन में तो विष ही घोल दिया है। निश्चित समय पर दो
रक्षा-पुरुषों द्वारा प्रह्लाद को दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपुके सम्मुख
उपस्थित किया गया। राजा ऊंचे सिंहासन पर विराजमान था।
अभागे बालक! समय
है, अब भी अपनी भूल स्वीकार कर ले। मैं संसार में वर्ग-विहीन, धर्म-विहीन,
ईश्वर-विहीन समाज की नींव रखने जा रहा हूं। तू व्यर्थ उसमें बाधक न बन।
अन्यथा तुम्हें मृत्युदंड
मिलेगा।
क्षमा करें पिताजी,संसार का कोई प्रलोभन, कोई भय प्रह्लाद को अपने मार्ग से
नहीं हटा सकता.. प्रह्लाद का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि
हिरण्यकशिपुक्रोधावेश में खडा हो गया। वह चिल्ला कर बोला-बस, बंद करो यह
बकवास! प्रहरी, ले जाओ इस दुराग्रही को। सिंह का भोजन बनना ही इसके भाग्य
में लिखा है।
प्रांगण के मध्य लोहे के विशाल कटघरे में प्रह्लाद
निर्द्वन्द्व भाव से मृत्यु की प्रतीक्षा में खडा हो गया। श्रीकृष्ण
गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव की पावन-ध्वनि अब भी उस के मुख
से निकल रही थी। सहसा पहले से ही तैयार पिंजरे का द्वार खोल दिया गया। भूखा
सिंह एक ही छलांग में प्रह्लाद के निकट पहुंच गया। करुणा और भय आदि के
कारण जनता स्तब्ध हो गई। प्रह्लाद ने सिंह को देखा, तो बांह फैला कर
भावावेश में उसके गले से लिपटते हुए बोला, वाह मेरे नाथ, आज तो आप बडे
निराले वेश में आए, परंतु मेरी आंखों ने यहां भी आपको पहचान ही लिया, सिंह
उसके चरणों को चाटने लगा।
धन्य है, सत्य और ईश्वर प्रेम पर सर्वस्व न्योछावर करने वाला यह बालक, जिसके लिए अंत में प्रभु को नृसिंह अवतार धारण करना ही पडा।
[वीराचार्य शास्त्री]
क्षमा करें पिताजी,संसार का कोई प्रलोभन, कोई भय प्रह्लाद को अपने मार्ग से नहीं हटा सकता.. प्रह्लाद का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि हिरण्यकशिपुक्रोधावेश में खडा हो गया। वह चिल्ला कर बोला-बस, बंद करो यह बकवास! प्रहरी, ले जाओ इस दुराग्रही को। सिंह का भोजन बनना ही इसके भाग्य में लिखा है।
प्रांगण के मध्य लोहे के विशाल कटघरे में प्रह्लाद निर्द्वन्द्व भाव से मृत्यु की प्रतीक्षा में खडा हो गया। श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव की पावन-ध्वनि अब भी उस के मुख से निकल रही थी। सहसा पहले से ही तैयार पिंजरे का द्वार खोल दिया गया। भूखा सिंह एक ही छलांग में प्रह्लाद के निकट पहुंच गया। करुणा और भय आदि के कारण जनता स्तब्ध हो गई। प्रह्लाद ने सिंह को देखा, तो बांह फैला कर भावावेश में उसके गले से लिपटते हुए बोला, वाह मेरे नाथ, आज तो आप बडे निराले वेश में आए, परंतु मेरी आंखों ने यहां भी आपको पहचान ही लिया, सिंह उसके चरणों को चाटने लगा।
धन्य है, सत्य और ईश्वर प्रेम पर सर्वस्व न्योछावर करने वाला यह बालक, जिसके लिए अंत में प्रभु को नृसिंह अवतार धारण करना ही पडा।
[वीराचार्य शास्त्री]
तुम्हारा धर्म कहाँ गया था ?
“क्व ते धर्मस्तदा गतः ”
नीच व्यक्तियों को संकट के समय ही धर्म की याद आती है l
प्रसंग महाभारत का है …
कर्ण कौरवों का सेनापति था और अर्जुन के साथ उसका घनघोर युद्ध जारी था l
नीच व्यक्तियों को संकट के समय ही धर्म की याद आती है l
प्रसंग महाभारत का है …
कर्ण कौरवों का सेनापति था और अर्जुन के साथ उसका घनघोर युद्ध जारी था l
कर्ण के रथ का एक चक्का जमीन में फंस गया l
उसे बाहर निकलने के लिए कर्ण रथ के नीचे उतरा और अर्जुन को उपदेश देने लगा – “कायर पुरुष जैसे व्यवहार मत करो, शूरवीर निहत्थों पर प्रहार नहीं किया करते l धर्म के युद्ध नियम तो तुम जानते ही हो l तुम पराक्रमी भी हो l
बस मुझे रथ का यह चक्का बाहर निकलने का समय दो l मैं तुमसे या श्री कृष्ण से भयभीत नहीं हूँ, लेकिन तुमने क्षत्रीय कुल में जन्म लिया है, श्रेष्ठ वंश के पुत्र हो l हे अर्जुन ….. थोड़ी देर ठहरो “
परन्तु भगवन श्री कृष्ण ने अर्जुन को ठहरने नहीं दिया, उन्होंने कर्ण को जो उत्तर दिया वो नित्य स्मरणीय है ….
उन्होंने कहा ” नीच व्यक्तियों को संकट के समय ही धर्म की याद आती है l
1. द्रौपदी का चीर हरण करते हुए,
2. जुए के कपटी खेल के समय,
3. द्रौपदी को भरी सभा में अपनी जांघ पर बैठने का आदेश देते समय,
4. भीम को सर्प दंश करवाते समय,
5. बारह वर्ष के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद लौटे पांडवों को उनका राज्य वापिस न करते समय,
6. 16 वर्ष की आयु के अकेले अभिमन्यु को अनेक महारथियों द्वारा घेरकर उसे मृत्यु मुख में डालते समय …. तुम्हारा धर्म कहाँ गया था ?
श्री कृष्ण के प्रत्येक प्रश्न के अंत में मार्मिक प्रश्न “क्व ते धर्मस्तदा गतः ” … पूछा गया है l
इस प्रश्न से कर्ण का मन विच्छिन्न हो गया l
श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा “वत्स, देखते क्या हो, चलाओ बाण l इस व्यक्ति को धर्म की चर्चा करने का कोई अधिकार नहीं है “
सनातन इतिहास साक्षी है की समस्त शूरवीरों ने ऐसा ही किया है l
शिवाजी को जिन्दा या मुर्दा दरबार में लाने की प्रतिज्ञा लेकर निकले अफजल खान ने बिना किसी कारण के तुलजापुर और पंढरपुर के मन्दिरों को नष्ट किया था, उसकी यह रणनीति थी की शिवाजी खिसियाकर रणभूमि में में आ जाएँ l परन्तु शिवाजी की रणनीति यह रही की अफ्ज्ल्खान को जावली के जंगलों में खींच लाया जाए, अंततः शिवाजी की रणनीति और रणकौशल सफल हुआ, अफजल खान प्रतापगढ़ पहुंचा और शिवाजी ने उसे यम-सदन भेज कर विजय प्राप्त की l शिवाजी की इस रणनीति को कपट नीति कहने वाले ‘मिशनरी-हिन्दू-इतिहासकारों ’ और ‘मुस्लिम-हिन्दू-इतिहासकारो ं’ को विजय का महत्त्व नहीं पता l
सनातन इतिहास में शूरवीरों का आदमी साहस, पराक्रम, बलिदान, योगदान आदि सब अतुलनीय है… परन्तु इस बलिदान, योगदान, पराक्रम, शूरवीरता और साहस को विजय का जो फल मिलना चाहिए वह सम्भव नहीं हुआ …. यह सचमुच दुर्भाग्य की बात है l
यह सचमुच दुर्भाग्य की बात है की सनातन भारत के नागरिकों को उनका गौरवशाली इतिहास न पढ़ा कर पैशाचिक मुगलकालीन इतिहास को अत्यंत महत्त्व दिया जाता है और सनातन पीढ़ी अपने गौरवशाली इतिहास से दूर जाकर पैशाचिक चकाचौंध से मंत्रमुग्ध होती जा रही है l
पैशाचिक धर्मों के षड्यंत्रों से अनजान ये पीढ़ी …. खोखली मानवता की बात करती है तो उनसे यह पूछने की जिज्ञासा होती है कि अपने धार्मिक ग्रन्थों की उनको कितनी समझ है l
पिता की आज्ञा को शिरोधार्य क्र राजपद का त्याग करनेवाले भगवन मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम,
असली उत्तराधिकारी के वनों में रहने तक वल्कल वस्त्र धारण करते हुए घास फूस कि शैय्या पर सोनेवाले ब्रह्म-अवतार भरत,
समस्त विश्व को श्रीमद्भागवद्गीता का ज्ञान देने वाले सच्चिदानन्द सत्यनारायन भगवान श्री कृष्ण,
स्वप्न में दिया वचन पूर्ण करने वाला सत्यवादी हरिश्चन्द्र,
शरण में आये कबूतर के प्राण बचने हेतु बाज के भार सामान अपना मांस देने वाले रजा शिवी,
देवताओं की विजय के लिए अपनी अस्थियाँ देने वाले महर्षि दधीची,
ह्रदय से पति माने व्यक्ति का एक वर्ष बाद होने वाले निधन को जानते हुए भी उससे ही विवाह करने वाली और साक्षात् यमराज से विवाद करने और अपने पति को प्राप्त करने वाली सावित्री,
सारी सम्पती ठुकरा कर आत्मज्ञान के मार्ग का अनुसरण करने वाली मैत्रेयी,
पिता कि ख़ुशी के लिए आजीवन अविवाहित रहने कि ‘भीषण’ प्रतिज्ञा लेने वाले देवव्रत … पितामह भीष्म,
स्वतंत्रता के लिए लिए भटकते फिरते महाराणा प्रताप,
राजपुत्र के लिए अपने पुत्र का बलिदान देने वाली पन्ना धाय,
राजा द्वारा अन्यायपूर्वक पिता को हाथी के पैरों तले कुचलवाने के बाद भी अपनी सारी सम्पत्ति राजा के लिए दान करने वाला खंडो बल्लाल,
स्वतंत्रता के लिए फांसी के फंदे को गलहार समझकर उसे चूमकर परम-वीरगति को प्राप्त होने वाले हमरे शूरवीर स्वतंत्र सेनानी – क्रन्तिकारी,
उपरोक्त सभी हमारे आदर्श हैं,
सत्य, शील, स्वामिनिष्ठा, धर्मनिष्ठा, त्याग, बलिदान, आदमी साहस, पराक्रम, विजय आदि मूल्यों को प्रतिष्ठापित करने के लिए जिन शूरवीरों ने अपना अपना अपना त्याग किया वे सब हमारे आदर्श हैं l
इन सारे आदर्शों ने जिन मूल्यों कि स्थापना कि उन मूल्यों कि रचना …. यानी … संस्कृति l
संस्कृति और कुछ नहीं होती …संस्कृति माने जीवन मूल्यों कि मालिका l
जिनके लिए हमें जीवित रहने में आनन्द हो और मृत्यु में भी गौरव मिले, ऐसे मूल्यों की परंपरा ही संस्कृति होती है l
इन मूल्यों की रक्षा का अर्थ ही संस्कृति की रक्षा करना होता है l
ऐसे मूल्यों की परम्परा ही संस्कृति का घ्योतक है l
समय के साथ अनेक परिवर्तन होते हैं, पोशाकों में बदलाव आयेगा, घरों की रचना में बदलाव आयेगा, खानपान के तरीके भी बदलेंगे…..
परन्तु जीवन मूल्य तथा आदर्श जब तक कायम रहेंगे तब तक संस्कृति भी कायम कहेगी l यही संस्कृति राष्ट्रीयता का आधार होती है ….
राष्ट्रीयता का पोषण यानि संस्कृति का पोषण होता है… इसे ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहा जाता है l
ॐ सर्वोपरि सर्वगुण संपन्न सनातन वैदिक सनातन धर्मं….
|| सनातनधर्मः महत्मो विश्व्धर्मः ||
“विश्व महाशक्ति बनना हमारा पौराणिक जन्मसिद्ध अधिकार है, और हम इस पद को लेकर रहेंगे ।”
हम विश्व धर्म हैं,
हम विश्व राष्ट्र हैं,
हम विश्व प्राणी हैं,
हम विश्वात्मा हैं,
हम सनातन हैं,
हम विश्वगुरु हैं,
हम विश्वशक्ति हैं….
उसे बाहर निकलने के लिए कर्ण रथ के नीचे उतरा और अर्जुन को उपदेश देने लगा – “कायर पुरुष जैसे व्यवहार मत करो, शूरवीर निहत्थों पर प्रहार नहीं किया करते l धर्म के युद्ध नियम तो तुम जानते ही हो l तुम पराक्रमी भी हो l
बस मुझे रथ का यह चक्का बाहर निकलने का समय दो l मैं तुमसे या श्री कृष्ण से भयभीत नहीं हूँ, लेकिन तुमने क्षत्रीय कुल में जन्म लिया है, श्रेष्ठ वंश के पुत्र हो l हे अर्जुन ….. थोड़ी देर ठहरो “
परन्तु भगवन श्री कृष्ण ने अर्जुन को ठहरने नहीं दिया, उन्होंने कर्ण को जो उत्तर दिया वो नित्य स्मरणीय है ….
उन्होंने कहा ” नीच व्यक्तियों को संकट के समय ही धर्म की याद आती है l
1. द्रौपदी का चीर हरण करते हुए,
2. जुए के कपटी खेल के समय,
3. द्रौपदी को भरी सभा में अपनी जांघ पर बैठने का आदेश देते समय,
4. भीम को सर्प दंश करवाते समय,
5. बारह वर्ष के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद लौटे पांडवों को उनका राज्य वापिस न करते समय,
6. 16 वर्ष की आयु के अकेले अभिमन्यु को अनेक महारथियों द्वारा घेरकर उसे मृत्यु मुख में डालते समय …. तुम्हारा धर्म कहाँ गया था ?
श्री कृष्ण के प्रत्येक प्रश्न के अंत में मार्मिक प्रश्न “क्व ते धर्मस्तदा गतः ” … पूछा गया है l
इस प्रश्न से कर्ण का मन विच्छिन्न हो गया l
श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा “वत्स, देखते क्या हो, चलाओ बाण l इस व्यक्ति को धर्म की चर्चा करने का कोई अधिकार नहीं है “
सनातन इतिहास साक्षी है की समस्त शूरवीरों ने ऐसा ही किया है l
शिवाजी को जिन्दा या मुर्दा दरबार में लाने की प्रतिज्ञा लेकर निकले अफजल खान ने बिना किसी कारण के तुलजापुर और पंढरपुर के मन्दिरों को नष्ट किया था, उसकी यह रणनीति थी की शिवाजी खिसियाकर रणभूमि में में आ जाएँ l परन्तु शिवाजी की रणनीति यह रही की अफ्ज्ल्खान को जावली के जंगलों में खींच लाया जाए, अंततः शिवाजी की रणनीति और रणकौशल सफल हुआ, अफजल खान प्रतापगढ़ पहुंचा और शिवाजी ने उसे यम-सदन भेज कर विजय प्राप्त की l शिवाजी की इस रणनीति को कपट नीति कहने वाले ‘मिशनरी-हिन्दू-इतिहासकारों
सनातन इतिहास में शूरवीरों का आदमी साहस, पराक्रम, बलिदान, योगदान आदि सब अतुलनीय है… परन्तु इस बलिदान, योगदान, पराक्रम, शूरवीरता और साहस को विजय का जो फल मिलना चाहिए वह सम्भव नहीं हुआ …. यह सचमुच दुर्भाग्य की बात है l
यह सचमुच दुर्भाग्य की बात है की सनातन भारत के नागरिकों को उनका गौरवशाली इतिहास न पढ़ा कर पैशाचिक मुगलकालीन इतिहास को अत्यंत महत्त्व दिया जाता है और सनातन पीढ़ी अपने गौरवशाली इतिहास से दूर जाकर पैशाचिक चकाचौंध से मंत्रमुग्ध होती जा रही है l
पैशाचिक धर्मों के षड्यंत्रों से अनजान ये पीढ़ी …. खोखली मानवता की बात करती है तो उनसे यह पूछने की जिज्ञासा होती है कि अपने धार्मिक ग्रन्थों की उनको कितनी समझ है l
पिता की आज्ञा को शिरोधार्य क्र राजपद का त्याग करनेवाले भगवन मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम,
असली उत्तराधिकारी के वनों में रहने तक वल्कल वस्त्र धारण करते हुए घास फूस कि शैय्या पर सोनेवाले ब्रह्म-अवतार भरत,
समस्त विश्व को श्रीमद्भागवद्गीता का ज्ञान देने वाले सच्चिदानन्द सत्यनारायन भगवान श्री कृष्ण,
स्वप्न में दिया वचन पूर्ण करने वाला सत्यवादी हरिश्चन्द्र,
शरण में आये कबूतर के प्राण बचने हेतु बाज के भार सामान अपना मांस देने वाले रजा शिवी,
देवताओं की विजय के लिए अपनी अस्थियाँ देने वाले महर्षि दधीची,
ह्रदय से पति माने व्यक्ति का एक वर्ष बाद होने वाले निधन को जानते हुए भी उससे ही विवाह करने वाली और साक्षात् यमराज से विवाद करने और अपने पति को प्राप्त करने वाली सावित्री,
सारी सम्पती ठुकरा कर आत्मज्ञान के मार्ग का अनुसरण करने वाली मैत्रेयी,
पिता कि ख़ुशी के लिए आजीवन अविवाहित रहने कि ‘भीषण’ प्रतिज्ञा लेने वाले देवव्रत … पितामह भीष्म,
स्वतंत्रता के लिए लिए भटकते फिरते महाराणा प्रताप,
राजपुत्र के लिए अपने पुत्र का बलिदान देने वाली पन्ना धाय,
राजा द्वारा अन्यायपूर्वक पिता को हाथी के पैरों तले कुचलवाने के बाद भी अपनी सारी सम्पत्ति राजा के लिए दान करने वाला खंडो बल्लाल,
स्वतंत्रता के लिए फांसी के फंदे को गलहार समझकर उसे चूमकर परम-वीरगति को प्राप्त होने वाले हमरे शूरवीर स्वतंत्र सेनानी – क्रन्तिकारी,
उपरोक्त सभी हमारे आदर्श हैं,
सत्य, शील, स्वामिनिष्ठा, धर्मनिष्ठा, त्याग, बलिदान, आदमी साहस, पराक्रम, विजय आदि मूल्यों को प्रतिष्ठापित करने के लिए जिन शूरवीरों ने अपना अपना अपना त्याग किया वे सब हमारे आदर्श हैं l
इन सारे आदर्शों ने जिन मूल्यों कि स्थापना कि उन मूल्यों कि रचना …. यानी … संस्कृति l
संस्कृति और कुछ नहीं होती …संस्कृति माने जीवन मूल्यों कि मालिका l
जिनके लिए हमें जीवित रहने में आनन्द हो और मृत्यु में भी गौरव मिले, ऐसे मूल्यों की परंपरा ही संस्कृति होती है l
इन मूल्यों की रक्षा का अर्थ ही संस्कृति की रक्षा करना होता है l
ऐसे मूल्यों की परम्परा ही संस्कृति का घ्योतक है l
समय के साथ अनेक परिवर्तन होते हैं, पोशाकों में बदलाव आयेगा, घरों की रचना में बदलाव आयेगा, खानपान के तरीके भी बदलेंगे…..
परन्तु जीवन मूल्य तथा आदर्श जब तक कायम रहेंगे तब तक संस्कृति भी कायम कहेगी l यही संस्कृति राष्ट्रीयता का आधार होती है ….
राष्ट्रीयता का पोषण यानि संस्कृति का पोषण होता है… इसे ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहा जाता है l
ॐ सर्वोपरि सर्वगुण संपन्न सनातन वैदिक सनातन धर्मं….
|| सनातनधर्मः महत्मो विश्व्धर्मः ||
“विश्व महाशक्ति बनना हमारा पौराणिक जन्मसिद्ध अधिकार है, और हम इस पद को लेकर रहेंगे ।”
हम विश्व धर्म हैं,
हम विश्व राष्ट्र हैं,
हम विश्व प्राणी हैं,
हम विश्वात्मा हैं,
हम सनातन हैं,
हम विश्वगुरु हैं,
हम विश्वशक्ति हैं….
Monday, October 29, 2012
हिन्दू धर्म मे चरण स्पर्श का वैज्ञानिक आधार
“हिन्दू धर्म मे चरण स्पर्श का वैज्ञानिक आधार”
हिन्दू धर्म मे अपने से बड़े के अभिवादन के लिए चरण स्पर्श उत्तम माना गया
है ॥ चरण स्पर्श से आपको सामने वाला व्यक्ति आयु,बल,यश,ज्ञान का आशीर्वाद
देता है॥ आइये इसके वैज्ञानिक आधार की विवेचना करते हैं॥ वैज्ञानिक न्यूटन
के नियम के अनुसार इस संसार में सभी वस्तुएँ "गुरूत्वाकर्षण" के नियम से
बंधी हैं और गुरूत्व भार सदैव आकर्षित करने वाले की तरफ जाता है, हमारे
शरीर में भी यही नियम है। सिर को उत्तरी ध्रुव और पैरों को दक्षिणी ध्रुव
माना जाता है अर्थात् गुरूत्व ऊर्जा या चुंबकीय ऊर्जा या विद्युत चुंबकीय
ऊर्जा सदैव उत्तरी ध्रुव से प्रवेश कर दक्षिणी ध्रुव की ओर प्रवाहित होकर
अपना चक्र (cycle) पूरा करती है। इसका आशय यह हुआ कि मनुष्य के शरीर में
उत्तरी ध्रुव (सिर) से सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश कर दक्षिणी ध्रुव (पैरों) की
ओर प्रवाहित होती है और दक्षिणी ध्रुव पर यह ऊर्जा असीमित मात्रा मे स्थिर
हो जाती है | यहाँ ऊर्जा का केंद्र बन जाता है, यही कारण है कि व्यक्ति
सैकड़ो मील चलने के पश्चात् भी मनुष्य भी जड़ नहीं होता वो आगे चलने की
हिम्मत रख सकता है।
ऐसा पैरों में संग्रहित इस ऊर्जा के कारण ही पाता
है। शरीर क्रिया विज्ञानियों ने यह सिद्ध कर लिया है कि हाथों और पैरों की
अंगुलियों और अंगूठों के पोरों (अंतिम सिरा) में यह ऊर्जा सर्वाधिक रूप से
विद्यमान रहती है तथा यहीं से आपूर्ति और मांग की प्रक्रिया पूर्ण होती है।
पैरों से हाथों द्वारा इस ऊर्जा के ग्रहण करने की प्रक्रिया को ही हम "चरण
स्पर्श" करना कहते हैं।
इस प्रकार हिन्दू धर्म मे चरण स्पर्श की मान्यता पूर्णतया प्रामाणिक और वैज्ञानिक है।
Sunday, October 28, 2012
शुक्राचार्य
शुक्राचार्य दैत्यों के आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हैं।
महर्षि भृगु शुक्र के पिता थे। शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था।
बृहस्पति के पुत्र कच ने इनसे संजीवनी विद्या सीखी थी दैत्यों के गुरु शुक्र का वर्ण श्वेत है। उनके सिर पर सुन्दर मुकुट तथा गले में माला हैं वे श्वेत कमल के आसन पर विराजमान हैं। उनके चार हाथों में क्रमश:- दण्ड, रुद्राक्ष की माला, पात्र तथा वरदमुद्रा सुशोभित रहती है।
महर्षि भृगु के पुत्र शुक्राचार्य जी ने बृहस्पति जी से प्रतिद्वन्द्विता रखने के कारण दैत्यों का आचार्यत्व स्वीकार किया।
शुक्राचार्य दानवों के पुरोहित हैं। ये योग के आचार्य हैं। अपने शिष्य दानवों पर इनकी कृपा सर्वदा बरसती रहती है। इन्होंने भगवान शिव की कठोर तपस्या करके उनसे मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की थी। उसके बल से ये युद्ध में मरे हुए दानवों को जिंदा कर देते थे।
आचार्य शुक्र वीर्य के अधिष्ठाता हैं। दृश्य जगत में उनके लोक शुक्र तारक का भूमि एवं जीवन पर प्रभाव ज्यौतिषशास्त्र में वर्णित है।
आचार्य शुक्र नीति शास्त्र के प्रवर्तक थे। इनकी शुक्र नीति अब भी लोक में महत्वपूर्ण मानी जाती है। इनके पुत्र षण्ड और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहाँ नीति शास्त्र का अध्यापन करते थे।
मत्स्य पुराण के अनुसार शुक्राचार्य ने असुरों के कल्याण के लिये ऐसे कठोर व्रत का अनुष्ठान किया जैसा आज तक कोई नहीं कर सकां इस व्रत से इन्होंने देवाधिदेव शंकर को प्रसन्न कर लिया। शिव ने इन्हें वरदान दिया कि तुम युद्ध में देवताओं को पराजित कर दोगे और तुम्हें कोई नहीं मार सकेगा। भगवान शिव ने इन्हें धन का भी अध्यक्ष बना दिया। इसी वरदान के आधार पर शुक्राचार्य इस लोक और परलोक की सारी सम्पत्तियों के स्वामी बन गये। सम्पत्ति ही नहीं, शुक्राचार्य औषधियों, मन्त्रों तथा रसों के भी स्वामी हैं। इनकी सामर्थ्य अद्भुत है। इन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति अपने शिष्य असुरों को दे दी और स्वयं तपस्वी-जीवन ही स्वीकार किया।
ब्रह्मा की प्रेरणा से शुक्राचार्य ग्रह बनकर तीनों लोकों के प्राण का परित्राण करने लगे। कभी वृष्टि, कभी अवृष्टि, कभी भय, कभी अभय उत्पन्न कर ये प्राणियों के योग-क्षेम का कार्य पूरा करते हैं। ये ग्रह के रूप में ब्रह्मा की सभा में भी उपस्थित होते हैं। लोकों के लिये ये अनुकूल ग्रह हैं तथा वर्षा रोकने वाले ग्रहों को शान्त कर देते हैं। इनके अधिदेवता इन्द्राणी तथा प्रत्यधिदेवता इन्द्र हैं।
शुक्राचार्य दानवों के पुरोहित हैं। ये योग के आचार्य हैं। अपने शिष्य दानवों पर इनकी कृपा सर्वदा बरसती रहती है। इन्होंने भगवान शिव की कठोर तपस्या करके उनसे मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की थी। उसके बल से ये युद्ध में मरे हुए दानवों को जिंदा कर देते थे।
आचार्य शुक्र वीर्य के अधिष्ठाता हैं। दृश्य जगत में उनके लोक शुक्र तारक का भूमि एवं जीवन पर प्रभाव ज्यौतिषशास्त्र में वर्णित है।
आचार्य शुक्र नीति शास्त्र के प्रवर्तक थे। इनकी शुक्र नीति अब भी लोक में महत्वपूर्ण मानी जाती है। इनके पुत्र षण्ड और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहाँ नीति शास्त्र का अध्यापन करते थे।
मत्स्य पुराण के अनुसार शुक्राचार्य ने असुरों के कल्याण के लिये ऐसे कठोर व्रत का अनुष्ठान किया जैसा आज तक कोई नहीं कर सकां इस व्रत से इन्होंने देवाधिदेव शंकर को प्रसन्न कर लिया। शिव ने इन्हें वरदान दिया कि तुम युद्ध में देवताओं को पराजित कर दोगे और तुम्हें कोई नहीं मार सकेगा। भगवान शिव ने इन्हें धन का भी अध्यक्ष बना दिया। इसी वरदान के आधार पर शुक्राचार्य इस लोक और परलोक की सारी सम्पत्तियों के स्वामी बन गये। सम्पत्ति ही नहीं, शुक्राचार्य औषधियों, मन्त्रों तथा रसों के भी स्वामी हैं। इनकी सामर्थ्य अद्भुत है। इन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति अपने शिष्य असुरों को दे दी और स्वयं तपस्वी-जीवन ही स्वीकार किया।
ब्रह्मा की प्रेरणा से शुक्राचार्य ग्रह बनकर तीनों लोकों के प्राण का परित्राण करने लगे। कभी वृष्टि, कभी अवृष्टि, कभी भय, कभी अभय उत्पन्न कर ये प्राणियों के योग-क्षेम का कार्य पूरा करते हैं। ये ग्रह के रूप में ब्रह्मा की सभा में भी उपस्थित होते हैं। लोकों के लिये ये अनुकूल ग्रह हैं तथा वर्षा रोकने वाले ग्रहों को शान्त कर देते हैं। इनके अधिदेवता इन्द्राणी तथा प्रत्यधिदेवता इन्द्र हैं।
सबसे प्राचीन और प्रथम पुस्तक
ऋग्वेद
को संसार की सबसे प्राचीन और प्रथम पुस्तक माना है। इसी पुस्तक पर आधारित
है हिंदू धर्म। इस पुस्तक में उल्लेखित 'दर्शन' संसार की प्रत्येक पुस्तक
में मिल जाएगा। माना जाता है कि इसी पुस्तक को आधार बनाकर बाद में
यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की रचना हुई। दरअसल यह ऋग्वेद के भिन्न-भिन्न
विषयों का विभाजन और विस्तार था।
विश्व की प्रथम पुस्तक : वेद
मानव सभ्यता के सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार
पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में
रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं
जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की
1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में
शामिल किया है।
हिन्दू शब्द की उत्पत्ति : हिन्दू धर्म को सनातन,
वैदिक या आर्य धर्म भी कहते हैं। हिन्दू एक अप्रभंश शब्द है। हिंदुत्व या
हिंदू धर्म को प्राचीनकाल में सनातन धर्म कहा जाता था। एक हजार वर्ष पूर्व
हिंदू शब्द का प्रचलन नहीं था। ऋग्वेद में कई बार सप्त सिंधु का उल्लेख
मिलता है। सिंधु शब्द का अर्थ नदी या जलराशि होता है इसी आधार पर एक नदी का
नाम सिंधु नदी रखा गया, जो लद्दाख और पाक से बहती है।
भाषाविदों
का मानना है कि हिंद-आर्य भाषाओं की 'स' ध्वनि ईरानी भाषाओं की 'ह' ध्वनि
में बदल जाती है। आज भी भारत के कई इलाकों में 'स' को 'ह' उच्चारित किया
जाता है। इसलिए सप्त सिंधु अवेस्तन भाषा (पारसियों की भाषा) में जाकर हप्त
हिंदू में परिवर्तित हो गया। इसी कारण ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व में
रहने वालों को हिंदू नाम दिया। किंतु पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लोगों को
आज भी सिंधू या सिंधी कहा जाता है।
ईरानी अर्थात पारस्य देश के
पारसियों की धर्म पुस्तक 'अवेस्ता' में 'हिन्दू' और 'आर्य' शब्द का उल्लेख
मिलता है। दूसरी ओर अन्य इतिहासकारों का मानना है कि चीनी यात्री हुएनसांग
के समय में हिंदू शब्द की उत्पत्ति इंदु से हुई थी। इंदु शब्द चंद्रमा का
पर्यायवाची है। भारतीय ज्योतिषीय गणना का आधार चंद्रमास ही है। अत: चीन के
लोग भारतीयों को 'इन्तु' या 'हिंदू' कहने लगे।
आर्य शब्द का अर्थ :
आर्य समाज के लोग इसे आर्य धर्म कहते हैं, जबकि आर्य किसी जाति या धर्म का
नाम न होकर इसका अर्थ सिर्फ श्रेष्ठ ही माना जाता है। अर्थात जो मन, वचन
और कर्म से श्रेष्ठ है वही आर्य है। इस प्रकार आर्य धर्म का अर्थ श्रेष्ठ
समाज का धर्म ही होता है। प्राचीन भारत को आर्यावर्त भी कहा जाता था जिसका
तात्पर्य श्रेष्ठ जनों के निवास की भूमि था।
हिन्दू इतिहास की
भूमिका : जब हम इतिहास की बात करते हैं तो वेदों की रचना किसी एक काल में
नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल की शुरुआत 4500 ई.पू. से मानी है।
अर्थात यह धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: कृष्ण के समय में वेद व्यास द्वारा
पूरी तरह से वेद को चार भाग में विभाजित कर दिया। इस मान से लिखित रूप में
आज से 6508 वर्ष पूर्व पुराने हैं वेद। यह भी तथ्य नहीं नकारा जा सकता कि
कृष्ण के आज से 5500 वर्ष पूर्व होने के तथ्य ढूँढ लिए गए।
हिंदू
और जैन धर्म की उत्पत्ति पूर्व आर्यों की अवधारणा में है जो 4500 ई.पू.
(आज से 6500 वर्ष पूर्व) मध्य एशिया से हिमालय तक फैले थे। कहते हैं कि
आर्यों की ही एक शाखा ने पारसी धर्म की स्थापना भी की। इसके बाद क्रमश:
यहूदी धर्म 2 हजार ई.पू.। बौद्ध धर्म 500 ई.पू.। ईसाई धर्म सिर्फ 2000 वर्ष
पूर्व। इस्लाम धर्म 14 सौ साल पहले हुए।
लेकिन धार्मिक साहित्य
अनुसार हिंदू धर्म की कुछ और धारणाएँ भी हैं। मान्यता यह भी है कि 90 हजार
वर्ष पूर्व इसकी शुरुआत हुई थी। दरअसल हिंदुओं ने अपने इतिहास को गाकर,
रटकर और सूत्रों के आधार पर मुखाग्र जिंदा बनाए रखा। यही कारण रहा कि वह
इतिहास धीरे-धीरे काव्यमय और श्रंगारिक होता गया। वह दौर ऐसा था जबकि कागज
और कलम नहीं होते थे। इतिहास लिखा जाता था शिलाओं पर, पत्थरों पर और मन पर।
जब हम हिंदू धर्म के इतिहास ग्रंथ पढ़ते हैं तो ऋषि-मुनियों की परम्परा के
पूर्व मनुओं की परम्परा का उल्लेख मिलता है जिन्हें जैन धर्म में कुलकर
कहा गया है। ऐसे क्रमश: 14 मनु माने गए हैं जिन्होंने समाज को सभ्य और
तकनीकी सम्पन्न बनाने के लिए अथक प्रयास किए। धरती के प्रथम मानव का नाम
स्वायंभव मनु था और प्रथम स्त्री थी शतरूपा।
पुराणों में हिंदू
इतिहास की शुरुआत सृष्टि उत्पत्ति से ही मानी जाती है, ऐसा कहना की यहाँ से
शुरुआत हुई यह शायद उचित न होगा फिर भी वेद-पुराणों में मनु (प्रथम मानव)
से और भगवान कृष्ण की पीढ़ी तक का इसमें उल्लेख मिलता है।
श्रीकृष्ण और शंकराचार्य
श्रीकृष्ण और शंकराचार्य
जो लोग जगद्गुरु श्रीशंकराचार्यको शुष्क वेदांती ही मानते है वे बड़ी भूल
करते हैं वे कोरे वेदांती ही नहीं थे, बल्कि परम भक्त और सच्चे वैष्णव थे l
देवताओंके विषयमें जो कुछ कहा है सब उतम ही कहा है; परन्तु भगवान श्री
कृष्ण और उनके वाक्यों की ओर तो जगद्गुरुका विशेष अनुराग जान पड़ता है l
अपनी चर्पटपज्जरिकामें गाने -योग्य वस्तुएँ उन्हें केवल दो ही जान पड़ीं;
और वे थीं भगवद्गीता और विष्णुसहस्रनाम l (इन दोनोंपर उन्होंने अपनी अपूर्व
टीका भी लिखी है l) उन्हें इन गान-योग्य वस्तुओंके अतिरिक्त ध्यान-योग्य
वस्तु भी श्रीपतिरूप ही दिखायी पड़ी l
'ज्ञेयं गीता नामसहस्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्त्रम'
इतना ही नहीं, अपनी माताके उद्धारके समय उन्होंने जिन आठ सुमधुर और आकर्षक
श्लोकोंमें भगवान् श्रीकृष्णकी आराधना की थी, उन्हें सुनकर यदि भगवान्
प्रत्यक्ष खड़े हो गये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं l उनके बनाए हुए
श्रीभगवानका मानस-पूजन-स्त्रोत तथा गोविन्दाष्टक भी अत्यंत रोचक है l
अच्युताष्टक आदिमे भी यदपि वर्णन विष्णु भगवान का है, पर जगद्गुरुजीने
प्रधानता श्रीकृष्णजीके ही वर्णनको दी है l
इन सबसे बढ़कर उनकी
श्रीकृष्ण-भक्तिका सच्चा रहस्य उनके बनाये प्रबोध-सुधाकर ग्रंथमे जाता है l
यह छोटा-सा-ग्रन्थ बड़े तत्वोंसे भरा हुआ है और वेदांतका प्रायः प्रत्येक
विषय ऐसे सरल, सुबोध, स्पष्ट और भावपूर्ण श्लोकोंमें लिख दिया गया है की
देखते ही बनता है l
उनका स्पष्ट कथन है की कृष्णपदाम्भोजकी भक्तिके बिना अन्तरात्माकी शुद्धि नहीं हो सकती l
शुद्ध्यति हि नान्तरात्मा कृष्ण पदाम्भोजभक्तिमृते l
वसनमिव छारोदैभ्रक्त्या प्रचलायेत चेत: ll
आगे चलकर भक्तिका विषय समझाते हुए आप श्रीकृष्णकी प्रतिमा-पूजन और
श्रीकृष्ण-कथापर अनुरागको बहुत प्रधानता देते हैं इस सम्बन्धमें उनके
निम्नलिखित श्लोक सुनने लायक हैं-
स्वाश्रमधर्माचरणं कृष्णप्रतिमाchrनोत्सवो नित्यम l
विविधोपचारकरnaihrरिदासै: संगम: शश्वत ll
कृष्णकथासंश्रवणे महोत्सव: सत्यावादश्रच l
परयुवतो परद्रविणे परापवादे prandmukhta ll
ग्राम्यकथासुद्वेग: सुतीर्थगमनेषु तात्पर्यम l
यदुपतिकथावियोगे व्यर्थं गतमायुरिति चिंता ll
एवं कुर्वती भक्तिं कृष्णकथानुग्रहोत्पन्ना l
समुदेति सुच्छम भक्तिyrsyaan हरिरंतराविशति ll
वे यह समझ ही नहीं सकते की 'कोटि मनोज लजावन हारे' और वांछित फल देनेवाले
तथा दयाके सागर श्रीकृष्ण भगवानकी मनमोहिनी मूर्तिके रहते हुए मनुष्य क्यों
इधर-उधर आँखें भटकाया करते हैं -
कंदर्पकोटिसुभगं वांछितफलदं दयाnrवं कृष्णं l
त्यक्त्वा कमन्यविषयं नेत्रयुगं द्रष्टु मुत्सहते ll
फिर आगे चलकर उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णके चरितोंका रहस्य बड़ी उतम रीतिसे
समझाया है और तर्कपूर्ण प्रमाणोंसे यह सिद्ध कर दिया है की भगवान्
श्रीकृष्ण न तो एकदेशीय हैं और न विष्णुके अंशावतार ही हैं, बल्कि वे
सर्वान्त्यामी और सब अवतारोंके प्रवर्तक साछात परब्रह्म परमात्मा हैं l
यद्यपि साकारोप्यं तथैकदेशी विभाति यदुनाथ: l
सर्वगत: सर्वात्मा तथाप्ययं सच्चिदानन्द: ll
वे इनको विधि-हरि-हर इन तीनोंसे भी पृथक और तीनोसे भी श्रेष्ठ एक सत, चिन्मयी नीलिमा कहते हैं l
कृष्णो वै पृथगस्ती कोअप्यविकृत: सच्चिंमयीनीलिमा l
इस विशाल नीलेपनका आनंद वही लूट सकता हैं जिसने इस ओर कुछ अनुभव करनेका
प्रयास किया है l इस विकारहीन नीलिमामें जगतके सभी रंगोंका लय हो जाता है l
प्रश्न हो सकता है की जब भगवान् श्रीकृष्णका वास्तविक स्वरुप इस
प्रकारका है तब वे अवाडमनसगोचर और निर्विकार रहते हुए भी किस प्रकार
भक्तोंकी आशा पूर्ण कर उन्हें सत्य और आनंदके अमृतसे सराबोर कर देते हैं l
इसके उतरमें जगद्गुरु शंकराचार्यने कछुवा और आकाशका उदाहरण देते हुए
निम्नलिखित तीन श्लोक बड़े ही अच्छे कहे हैं -
सुतरामनन्यशरणा: chiradhyaहारमन्तरा यद्वत l
केवल्या स्नेहदृशा कच्छपतनया: प्रजीवन्ति ll
यद्यपि गगनं शून्यं तथापि जलदामृतांशुरूपेण l
चातकचकोरनाम्रोदृढभावातपुरयत्या शाम ll
तद्वदव्रजतां पुंसां दृगवाडमनसामगोचरोअपि हरि: l
कृपया फलत्यकस्मातसत्यानन्दामृतेन विपुलेन ll
अब जरा श्रीशंकराचार्यके ध्येय भगवान् श्रीगोपालका ध्यान उन्हीके शब्दोंमें कीजियें-
यामुनानिकटतटस्थितवृन्दावनकानने महारम्ये l
कल्पद्रुमतलभुमो चरणं चरणोपरि स्थाप्य ll
तिष्ठन्तं घननीलं स्वतेजसा भासयंतमिह विश्वम l
पीताम्बरपरिधानं चन्दनकपुर्रलिप्तसर्वांगम ll
आकर्णपूर्णनेत्रं कुंडलयुगमंडितश्रवणम l
मंदस्मितमुखकमलं सुकोस्तु भोदारमणिहारम ll
वलयांगुलियकाध्यानुज्ज्वलयन्तं स्वलंकारान l
गलविलुलितवन्मालं स्वतेजसापास्तकलिकालम ll
गुंजारवालिकलितं गुंजापुन्जान्विते शिरसि l
भुज्जानं सहगोपे: कुन्जान्तरvatirनं हरिं स्मरत ll
यमुनाजीके तीरपर महान रमणीय वृन्दावनमें कल्पवृछ (कदम्ब)- के नीचे
पृथ्वीपर अपने चरणपर चरण रखे भगवान् बैठे हुए हैं, आपका घन नील वर्ण है,
अपने तेजसे समस्त विश्वको प्रभासित कर रहे हैं, पीताम्बर धारण किये हैं,
समस्त अंगमें चन्दन, कर्पुर लगाए हैं, विशाल नेत्र हैं, दोनों कानोंमें
कुंडल शोभित हैं, मुखकमलपर मंद मुसुकान छा रही है l कौस्तुभमणिसे युक्त हार
पहने हुए हैं, कंकण, अंगूठी-प्रभृति अपने अलंकारोंको अपने ही प्रकाशसे
समुज्ज्वल कर रहे हैं, गलेमें वनमाला लटक रही है, अपने तेजसे कलियुगको
निराश कर रहे हैं, घुन्घचियोंसे अंगोंको सजा रखा है, सिरपर भ्रमर गुंजार कर
रहे हैं और किसी कुन्जके अन्दर बैठकर गोपोंके साथ वन-भोजन कर रहे हैं, ऐसे
श्यामसुन्दरका स्मरण करना चाहिये l
मंदारपुष्पवासितमंदानिलसेवितं परानन्दम l
मन्दाकिनीयुतपदं नमत महानंददं महापुरुषम ll
सुरभिकृतादिगवलयं सुरभिशतैरावृतं सदा परित: l
सुरभीतीछपणमहासुरभीमं यादवं नमत ll
जो कल्पवृछके पुष्पोंकी सुगन्धयुक्त मंद वायुसे सेवित हैं, श्रीगंगाजी
जिनके चरणोंमें स्थित हैं, जो महानंदस्वरुप महापुरुष हैं, जिन्होंने
सम्पूर्ण दिशाओंको अपने अंग-सुगंधसे सुगन्धित कर रखा है, सैकड़ों गौओंसे जो
सदा घिरे रहते हैं, देवताओंके भयको नाश करनेके लिये जो महान भीषण रूप धारण
करते हैं l उन्हीं यादवपतिको नमस्कार करना चाहिये l
------
पंडित श्रीबलदेवप्रसादजीमिश्र (ये लेख कल्याण के छठवें वर्ष के विशेषांक
श्रीकृष्णान्क में विक्रम संवत १९८८ में प्रकाशित हुआ था )
Friday, October 26, 2012
"भगवा" एक पवित्र रंग है
"भगवा"
एक पवित्र रंग है, जिसको सदियों से हमारे साधू-संत पूजते आ रहे है. सूर्य
में जो आग है वो रंग भी भगवा है. "केसरिया" या "भगवा" रंग शौर्य और वीरता
का प्रतिक है. इस रंग को पहनकर न जाने कितने वीरों ने अपना बलिदान दिया.
साधू-संतों का समागम हो या, हिन्दू मंदिरों कि ध्वजा हो या फिर सजावट सभी
में शान का रंग भगवा है. भगवा रंग में हिन्दू धर्म कि आस्था, दर्शन और
जीवनशैली छुपी हुई है. भगवा या केसरिया सूर्योदय और सुर्यास्त का रंग है,
मतलब हिंदू की चिरंतन, सनातनी, पुर्नजन्म की धारणाओं को बताने वाला रंग है
यह। आग और चित्ता या कि अंतिम सत्य का भी यह रंग है। इसी रंग के वस्त्र
धारण कर हिंदू, बौद्र साधू संत विदेश गए। दुनिया को शांति का धर्म संदेश
दिया। दुनिया की दूसरी सभ्यताओं, संस्कृतियों के अपने रंग है जबकि भगवा की
पहचान इसलिए है क्योंकि वह सिर्फ हिंदुस्तान में हिंदू-बौद्व-सिक्खों का
प्रतिनिधि रंग रहा है। हिंदूओं के लिए यह शौर्य और त्याग का भी रंग है।
महाराणा प्रताप और शिवाजी के झंडे भगवा ही तो थे।
इसी भगवा और इसी भगवा के साथ चिंदबरम ने आंतकवाद को जोडा है।
उन्होने
बकायदा पुलिस प्रमुखों की बैठक के भाषण में भगवा आतंकवाद को देश के लिए नई
चुनौती बताया। जाहिर है साध्वी प्रज्ञा और कुछ अज्ञात हिंदूवादी संगठनों
के लोगों की धरपकड को चिदंबरम ने भारत के लिए खतरा माना है। यदि ऐसा है तब
भी चिदंबरम देश के गृह मंत्री है। उन्हे मालूम है कि अभी तक अदालत में इन
लोगों पर लगे आरोप पुष्ट नहीं हुए है।
आज हर एक भारतीय चिदम्बरम
से कुछ सवालों के जवाब जानना चाहता है. जिसका जवाब शायद "सेक्युलरवाद कि
रोटियाँ तोड़ने वाली इस कांग्रेस के किसी भी "रीढविहीन नेता" के पास नहीं
है".
1. सूर्योदय और सूर्यास्त का रंग भी "भगवा या "केसरिया" है.
तो क्या सूर्य को आतंकवादी मान लिया जाए और "कांग्रेस" पार्टी द्वारा इसे
उदय होने से रोका जाए ..??
2. आज कांग्रेस पार्टी मुस्लिम वोट
बैंक को खुश करने के लिए "भगवा" को आतंकवादी बता रही है. उसी पार्टी के कई
बड़े नेताओं जैसे ( जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना आज़ाद,
सरदार तारासिंह इत्यादि-) ने 1931 के कराची अधिवेशन में "भगवा" को
राष्ट्रध्वज के रूप में स्वीकार किया. तो आदरणीय गृहमंत्री कृपया यह बताये
कि क्या ये सभी नेता "आतंकवादी" थे..?? अगर ऐसा है तो "कांग्रेस पार्टी" जो
जवाहारलाल नेहरू के नाम कि रोटियां तोड़ रही है उसको सबसे बड़ी "आतंकी"
पार्टी ही मन जाए ..??
3. भगवा/केसरिया रंग भारतीय तिरंगे में सबसे ऊपर है तो क्या तिरंगे को "राष्ट्रीय ध्वज" न मानकर "आतंकवादी पताका" माना जाए..??
4. महाराणा प्रताप और शिवाजी के झंडे का रंग भगवा/केसरिया था. तो क्या ये
माना जाए कि "देश" के लिए नहीं बल्कि "आतंक" के लिए लड़े थे.. ??
5.
"तिरंगे" में भगवा/केसरिया के आलावा " हरा" और "सफ़ेद" रंग भी है, तो क्या
हरा रंग "इस्लामी" आतंक का और "सफ़ेद" रंग "इसाई आतंक" का प्रतिक है..??
आज हर एक भारतीय चिदम्बरम से कुछ सवालों के जवाब जानना चाहता है. जिसका जवाब शायद "सेक्युलरवाद कि रोटियाँ तोड़ने वाली इस कांग्रेस के किसी भी "रीढविहीन नेता" के पास नहीं है".
1. सूर्योदय और सूर्यास्त का रंग भी "भगवा या "केसरिया" है. तो क्या सूर्य को आतंकवादी मान लिया जाए और "कांग्रेस" पार्टी द्वारा इसे उदय होने से रोका जाए ..??
2. आज कांग्रेस पार्टी मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने के लिए "भगवा" को आतंकवादी बता रही है. उसी पार्टी के कई बड़े नेताओं जैसे ( जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना आज़ाद, सरदार तारासिंह इत्यादि-) ने 1931 के कराची अधिवेशन में "भगवा" को राष्ट्रध्वज के रूप में स्वीकार किया. तो आदरणीय गृहमंत्री कृपया यह बताये कि क्या ये सभी नेता "आतंकवादी" थे..?? अगर ऐसा है तो "कांग्रेस पार्टी" जो जवाहारलाल नेहरू के नाम कि रोटियां तोड़ रही है उसको सबसे बड़ी "आतंकी" पार्टी ही मन जाए ..??
3. भगवा/केसरिया रंग भारतीय तिरंगे में सबसे ऊपर है तो क्या तिरंगे को "राष्ट्रीय ध्वज" न मानकर "आतंकवादी पताका" माना जाए..??
4. महाराणा प्रताप और शिवाजी के झंडे का रंग भगवा/केसरिया था. तो क्या ये माना जाए कि "देश" के लिए नहीं बल्कि "आतंक" के लिए लड़े थे.. ??
5. "तिरंगे" में भगवा/केसरिया के आलावा " हरा" और "सफ़ेद" रंग भी है, तो क्या हरा रंग "इस्लामी" आतंक का और "सफ़ेद" रंग "इसाई आतंक" का प्रतिक है..??
Thursday, October 25, 2012
कर्म के सिद्धान्त की व्याख्या
~~ कर्म के सिद्धान्त की व्याख्या ~~
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
गीता के अनुसार कर्म के सिद्धान्त के अन्तर्गत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष
चारों पुरुषार्थों का निष्काम भाव से पालन करना ही भगवान की भक्ति कहलाती है।
१. धर्मः-
शास्त्रों के अनुसार कर्म करना "धर्म" कहलाता है, शास्त्रों में वर्णित
प्रत्येक व्यक्ति के अपने "नियत कर्म यानि कर्तव्य-कर्म" (देश, समय, स्थान,
वर्ण और वर्णाश्रम के अनुसार) करना ही धर्म कहलाता है, स्वधर्म प्रत्येक
व्यक्ति का अलग-अलग और निजी होता है।
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं...
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
(गीता ३/३५)
"दूसरों के कर्तव्य-कर्म (धर्म) को भली-भाँति अनुसरण (नकल) करने की
अपेक्षा अपना कर्तव्य-कर्म (स्वधर्म) को दोष-पूर्ण ढंग से करना भी अधिक
कल्याणकारी होता है। दूसरे के कर्तव्य का अनुसरण करने से भय उत्पन्न होता
है, अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मरना भी श्रेयस्कर होता है।"
२. अर्थः-
धर्मानुसार धन का संग्रह करना ही "अर्थ" कहलाता है, किसी को भी कष्ट दिये
बिना आवश्यकता के अनुसार धन का संग्रह करना अर्थ कहलाता है, अर्थ का संग्रह
आवश्यकता के अनुसार ही करना चाहिये, आवश्यकता से अधिक धन से दोष-युक्त
कामनायें और विकार उत्पन्न होते हैं।
३. कामः-
धर्मानुसार कामनाओं की पूर्ति करना ही "काम" कहलाता है, शास्त्रों के
अनुसार कामनाओं की पूर्ति करने से ही सभी भौतिक कामनायें मिट पाती हैं,
कामनाओं की पूर्ति में ही कामनाओं का अन्त छिपा होता है, जब सभी
कर्तव्य-कर्म पूर्ण हो जाते हैं, जब केवल ईश्वर प्राप्ति की कामना ही शेष
रहती है, तभी जीव भगवान की कृपा का पात्र बन पाता है, तभी भगवान की कृपा
प्राप्त होती है।
४. मोक्षः-
धर्मानुसार सभी
कामनाओं का सहज भाव से त्याग हो जाना ही "मोक्ष" कहलाता है, भगवान की कृपा
प्राप्त होने पर ही सम्पूर्ण समर्पण के साथ ही सभी सांसारिक कामनाओं का
अन्त हो पाता है, तभी जीव को भगवान की अनन्य भक्ति प्राप्त होती है, जिसे
प्राप्त करके जीव परमानन्द स्वरूप परमात्मा में स्थित होकर परमगति को
प्राप्त हो जाता है।
जो व्यक्ति धैर्य और विश्वास के साथ
ईश्वर पर आश्रित होकर मनुष्य जीवन के चारों पुरुषार्थों का क्रमशः पालन
करता है वही परमगति प्राप्त हो पाता है।
|| अज्ञात ||
१. धर्मः-
शास्त्रों के अनुसार कर्म करना "धर्म" कहलाता है, शास्त्रों में वर्णित प्रत्येक व्यक्ति के अपने "नियत कर्म यानि कर्तव्य-कर्म" (देश, समय, स्थान, वर्ण और वर्णाश्रम के अनुसार) करना ही धर्म कहलाता है, स्वधर्म प्रत्येक व्यक्ति का अलग-अलग और निजी होता है।
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं...
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
(गीता ३/३५)
"दूसरों के कर्तव्य-कर्म (धर्म) को भली-भाँति अनुसरण (नकल) करने की अपेक्षा अपना कर्तव्य-कर्म (स्वधर्म) को दोष-पूर्ण ढंग से करना भी अधिक कल्याणकारी होता है। दूसरे के कर्तव्य का अनुसरण करने से भय उत्पन्न होता है, अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मरना भी श्रेयस्कर होता है।"
२. अर्थः-
धर्मानुसार धन का संग्रह करना ही "अर्थ" कहलाता है, किसी को भी कष्ट दिये बिना आवश्यकता के अनुसार धन का संग्रह करना अर्थ कहलाता है, अर्थ का संग्रह आवश्यकता के अनुसार ही करना चाहिये, आवश्यकता से अधिक धन से दोष-युक्त कामनायें और विकार उत्पन्न होते हैं।
३. कामः-
धर्मानुसार कामनाओं की पूर्ति करना ही "काम" कहलाता है, शास्त्रों के अनुसार कामनाओं की पूर्ति करने से ही सभी भौतिक कामनायें मिट पाती हैं, कामनाओं की पूर्ति में ही कामनाओं का अन्त छिपा होता है, जब सभी कर्तव्य-कर्म पूर्ण हो जाते हैं, जब केवल ईश्वर प्राप्ति की कामना ही शेष रहती है, तभी जीव भगवान की कृपा का पात्र बन पाता है, तभी भगवान की कृपा प्राप्त होती है।
४. मोक्षः-
धर्मानुसार सभी कामनाओं का सहज भाव से त्याग हो जाना ही "मोक्ष" कहलाता है, भगवान की कृपा प्राप्त होने पर ही सम्पूर्ण समर्पण के साथ ही सभी सांसारिक कामनाओं का अन्त हो पाता है, तभी जीव को भगवान की अनन्य भक्ति प्राप्त होती है, जिसे प्राप्त करके जीव परमानन्द स्वरूप परमात्मा में स्थित होकर परमगति को प्राप्त हो जाता है।
जो व्यक्ति धैर्य और विश्वास के साथ ईश्वर पर आश्रित होकर मनुष्य जीवन के चारों पुरुषार्थों का क्रमशः पालन करता है वही परमगति प्राप्त हो पाता है।
|| अज्ञात ||
पापांकुशा एकादशी है
पापांकुशा एकादशी है , व्रत कथा इस प्रकार है :-
युधिष्ठिर ने पूछा : हे मधुसूदन ! अब आप कृपा करके यह बताइये कि आश्विन के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है और उसका माहात्म्य क्या है ?
भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! आश्विन के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, वह ‘पापांकुशा’ के नाम से विख्यात है । वह सब पापों को हरनेवाली, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाली, शरीर को निरोग बनानेवा
युधिष्ठिर ने पूछा : हे मधुसूदन ! अब आप कृपा करके यह बताइये कि आश्विन के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है और उसका माहात्म्य क्या है ?
भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! आश्विन के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, वह ‘पापांकुशा’ के नाम से विख्यात है । वह सब पापों को हरनेवाली, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाली, शरीर को निरोग बनानेवा
ली
तथा सुन्दर स्त्री, धन तथा मित्र देनेवाली है । यदि अन्य कार्य के प्रसंग
से भी मनुष्य इस एकमात्र एकादशी को उपास कर ले तो उसे कभी यम यातना नहीं
प्राप्त होती ।
राजन् ! एकादशी के दिन उपवास और रात्रि में जागरण करनेवाले मनुष्य अनायास ही दिव्यरुपधारी, चतुर्भुज, गरुड़ की ध्वजा से युक्त, हार से सुशोभित और पीताम्बरधारी होकर भगवान विष्णु के धाम को जाते हैं । राजेन्द्र ! ऐसे पुरुष मातृपक्ष की दस, पितृपक्ष की दस तथा पत्नी के पक्ष की भी दस पीढ़ियों का उद्धार कर देते हैं । उस दिन सम्पूर्ण मनोरथ की प्राप्ति के लिए मुझ वासुदेव का पूजन करना चाहिए । जितेन्द्रिय मुनि चिरकाल तक कठोर तपस्या करके जिस फल को प्राप्त करता है, वह फल उस दिन भगवान गरुड़ध्वज को प्रणाम करने से ही मिल जाता है ।
जो पुरुष सुवर्ण, तिल, भूमि, गौ, अन्न, जल, जूते और छाते का दान करता है, वह कभी यमराज को नहीं देखता । नृपश्रेष्ठ ! दरिद्र पुरुष को भी चाहिए कि वह स्नान, जप ध्यान आदि करने के बाद यथाशक्ति होम, यज्ञ तथा दान वगैरह करके अपने प्रत्येक दिन को सफल बनाये ।
जो होम, स्नान, जप, ध्यान और यज्ञ आदि पुण्यकर्म करनेवाले हैं, उन्हें भयंकर यम यातना नहीं देखनी पड़ती । लोक में जो मानव दीर्घायु, धनाढय, कुलीन और निरोग देखे जाते हैं, वे पहले के पुण्यात्मा हैं । पुण्यकर्त्ता पुरुष ऐसे ही देखे जाते हैं । इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ, मनुष्य पाप से दुर्गति में पड़ते हैं और धर्म से स्वर्ग में जाते हैं ।
राजन् ! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, उसके अनुसार ‘पापांकुशा एकादशी’ का माहात्म्य मैंने वर्णन किया । अब और क्या सुनना चाहते हो?
राजन् ! एकादशी के दिन उपवास और रात्रि में जागरण करनेवाले मनुष्य अनायास ही दिव्यरुपधारी, चतुर्भुज, गरुड़ की ध्वजा से युक्त, हार से सुशोभित और पीताम्बरधारी होकर भगवान विष्णु के धाम को जाते हैं । राजेन्द्र ! ऐसे पुरुष मातृपक्ष की दस, पितृपक्ष की दस तथा पत्नी के पक्ष की भी दस पीढ़ियों का उद्धार कर देते हैं । उस दिन सम्पूर्ण मनोरथ की प्राप्ति के लिए मुझ वासुदेव का पूजन करना चाहिए । जितेन्द्रिय मुनि चिरकाल तक कठोर तपस्या करके जिस फल को प्राप्त करता है, वह फल उस दिन भगवान गरुड़ध्वज को प्रणाम करने से ही मिल जाता है ।
जो पुरुष सुवर्ण, तिल, भूमि, गौ, अन्न, जल, जूते और छाते का दान करता है, वह कभी यमराज को नहीं देखता । नृपश्रेष्ठ ! दरिद्र पुरुष को भी चाहिए कि वह स्नान, जप ध्यान आदि करने के बाद यथाशक्ति होम, यज्ञ तथा दान वगैरह करके अपने प्रत्येक दिन को सफल बनाये ।
जो होम, स्नान, जप, ध्यान और यज्ञ आदि पुण्यकर्म करनेवाले हैं, उन्हें भयंकर यम यातना नहीं देखनी पड़ती । लोक में जो मानव दीर्घायु, धनाढय, कुलीन और निरोग देखे जाते हैं, वे पहले के पुण्यात्मा हैं । पुण्यकर्त्ता पुरुष ऐसे ही देखे जाते हैं । इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ, मनुष्य पाप से दुर्गति में पड़ते हैं और धर्म से स्वर्ग में जाते हैं ।
राजन् ! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, उसके अनुसार ‘पापांकुशा एकादशी’ का माहात्म्य मैंने वर्णन किया । अब और क्या सुनना चाहते हो?
Tuesday, October 23, 2012
वाम मार्ग क्या है?
वाम मार्ग क्या है?
युगों युगों से अध्यात्म के महान संसार में स्वयं को जानने और परम तत्व को प्राप्त की इच्छा के चलते मानव अपने लक्ष्य को निर्धारित कर स्वयं को अनुशासन में बद्ध करके अध्यात्म के विभिन्न मार्गों के माध्यम से उस परम तत्व की खोज करता है। जिन्हें अनेक नामों से जाना जाता है। जैसे वाम मार्ग, दक्षिण मार्ग, ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग, योग मार्ग, आनन्द मार्ग, पिशाच मार्ग आदि।
हम यहां वाम मार्
युगों युगों से अध्यात्म के महान संसार में स्वयं को जानने और परम तत्व को प्राप्त की इच्छा के चलते मानव अपने लक्ष्य को निर्धारित कर स्वयं को अनुशासन में बद्ध करके अध्यात्म के विभिन्न मार्गों के माध्यम से उस परम तत्व की खोज करता है। जिन्हें अनेक नामों से जाना जाता है। जैसे वाम मार्ग, दक्षिण मार्ग, ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग, योग मार्ग, आनन्द मार्ग, पिशाच मार्ग आदि।
हम यहां वाम मार्
ग की
चर्चा करेंगे। वाम शब्द का अर्थ बांया, स्त्री से संबंधित और उलटा है। यहां
इसका अर्थ वामा अर्थात स्त्री से है। वाम मार्ग में स्त्री के सम्मान को
सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जो विभिन्न रूपों में मातृस्वरूप होती हैं।
ऐसा माना जाता है कि बिना वामा की प्रसन्नता के, बिना उसके सहयोग के किसी
भी कुल में कोई उच्चावस्था या सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती।
वाम मार्ग में जाति व्यवस्था को क्षुद्रता माना जाता है और स्त्री को शक्ति स्वरूपा। जाति से उठकर स्त्री को शक्ति स्वरूपा मानकर ही साधक उच्चावस्था को प्राप्तकर अपने लक्ष्य को पा सकते हैं, क्यों कि वाम मार्ग में स्त्री को जो सम्मान प्राप्त है, वह कहीं ओर प्राप्त हो ही नहीं सकता। विभिन्न जाति की महिलाओं को ऊर्जा / शक्ति अर्थात् सर्वोच्च शक्ति का रूप माना जाता है।
इस संबंध में रसयामल तंत्र के उत्तर तंत्र में कहा गया भी है कि
रजस्वला पुष्करं तीर्थ चाण्डाली तु महाकाशी।
चर्मकारी प्रयाग: स्याद्रजकी मथुरामता॥
वाम मार्ग में साधक, स्त्री को वह पवित्रावस्था में हो या अपवित्रावस्था में, अपने जीवन और शरीर से अधिक महत्वपूर्ण और शक्तिवाहिनी मानता है।
वाम मार्गीय तंत्र में न तो जातियां ही महत्वपूर्ण हैं और न रंगभेद। इस मार्ग में मां के नौ रूपों में भिन्न भिन्न जाति की कन्याओं को सर्वोच्च शक्तिसंपन्न मां दुर्गा का रूप मानकर पूजा जाता है।
रसयामल तंत्र के उत्तर तंत्र में इस संबंध में स्पष्टï कहा गया है कि
नटी कपालिका वेश्या रजकी नापिताङ्गना।
ब्रह्माणी शुद्रकन्या च तथा गोपालकन्यका:।
मालाकारस्य कन्या च नवकन्या प्रकीर्तिता:॥
अर्थात् नट की कन्या, अंतिम संस्कार कराने वाले की कन्या, वेश्या की कन्या, वस्त्रादि धोकर आजीविका चलाने वाले की कन्या, नापित की कन्या, ब्राह्मïण की कन्या, शूद्र कर्मकार की कन्या, गौ आदि चराकर उदरपूर्ति करने वाले की कन्या और बाग बगीचों का कार्य कर उदराभरण करने वाले की कन्या। इन सभी नौ कन्याओं को दुर्गा स्वरूपा देवी माना जाता है। माँ के नौ समान शक्तिशाली पवित्र रूपों में सर्वशक्तिमान इन नौ कन्याओं को मां दुर्गा देवी की तरह पूजा जाता है और सम्मान दिया जाता है।
नवरात्रि के पर्वों पर पारणा के समय जब इन नव दुर्गा देवी स्वरूपा कन्याओं को पुष्प, फल, भोजन और दक्षिणा आदि प्रदानकर उन्हें प्रसन्न किया जाता है और उनसे आशीर्वाद लिया जाता है। उस समय उनके भोजनादि से निवृत्ति के बाद बचे अवशिष्टï को मां का प्रसादस्वरूप मानकर ग्रहण किया जाता है।
रसयामल तंत्र के उत्तर तंत्र में इसका उल्लेख इस प्रकार किया गया है।
धूपैर्दीपैश्च नैवैद्यैर्विविधै: भगवतीश्ननन्।
विधाय वन्दितां तां च तदुच्छिष्ट स्वयंचरेत्॥
भगवान विष्णु के अवतार, सूर्यवंश के प्रतापी अयोध्या के राजा प्रभु राम द्वारा वाम मार्ग का साधन करते हुए वनवास काल के दौरान शूद्रा शबरी के द्वारा उच्छिष्ट किए गए फलों को ग्रहणकर बिना किसी अहंकार के या छुआछूत के किसी भी मुद्दे पर विचार किए बिना वाममार्ग का पालन किया।
वाममार्ग में कहा है कि अगर एक शक्तिशाली और सक्रिय (शिष्य) अपने जाति, पंथ, अभिमान, अहंकार, धन, आदि के प्रभाव में इन नौ (देवी नौ महिलाओं, जो माँ देवी दुर्गा के नौ रूपों के बराबर माना जाता है) देवियों का अपमान करता है तो वह अपनी शक्ति और ऊर्जा खो देता है, चाहे वह स्वयं देवताओं का राजा इंद्र ही क्यों न हो। यदि इंद्र भी ऐसा करेगा तो वह भी अपनी सत्ता और राज्य खो देता है।
वाम मार्ग तंत्र में स्पष्ट कहा है कि
अविचारं शक्त्युच्छिष्ठ पिबेच्छक्रपुरो यदि।
घोरञ्च नरकं याति वाममार्गात्पतेद्ध्रुवम्॥
यह मार्ग अघोर मार्ग है। भगवान् शिव को अघोरेश्वर कहा जाता है। वाम मार्ग को भगवान् शिव का मार्ग भी कहा जाता है।
यह मार्ग प्रकृति के कृतित्व निर्माण के लिए जाना जाता है, इसके माध्यम से बिना किसी भ्रम के पुनरोत्पादन, पुनर्निर्माण, विकास और क्रियात्मकता का मार्ग खुलता है।
भगवान शिव जो खुद वाम मार्ग का अनुयायी कहा जाता है। वे अर्धनारीश्वर हैं, जिसका अर्थ है - जो आधा स्त्री हो और आधा पुरुष हो।
इस पथ का अनुयायी सब झंझओं से मुक्त हो जाता है और अघोरी शिष्य कहा जाता है, जो साधना के बल पर भगवान शिव के समान हो जाता है।
महानिर्वाण तंत्र में कहा गया है-
पाशबद्धो भवेज्जीव: पाशमुक्त: सदाशिव:॥
ये भगवान् शिव ही भैरव रूप में प्रगट होते है।
भैरवोऽहम् शिवोऽहम्॥
अर्थात् मैं भैरव हूँ और मैं शिव हूं। शिव हमेशा गहराई में ध्यान केंद्रित हैं। शक्ति में स्थित हैं। बिना शक्ति के शिव शव मात्र हैं। शक्ति को धारण करने के बाद इस मार्ग का शिष्य/अनुयायी भैरव के समान है जिसका अर्थ है वह खुद को शिव के रूप में ही स्थिति पा लेता है।
-चंद्र शेखर शास्त्री
वाम मार्ग में जाति व्यवस्था को क्षुद्रता माना जाता है और स्त्री को शक्ति स्वरूपा। जाति से उठकर स्त्री को शक्ति स्वरूपा मानकर ही साधक उच्चावस्था को प्राप्तकर अपने लक्ष्य को पा सकते हैं, क्यों कि वाम मार्ग में स्त्री को जो सम्मान प्राप्त है, वह कहीं ओर प्राप्त हो ही नहीं सकता। विभिन्न जाति की महिलाओं को ऊर्जा / शक्ति अर्थात् सर्वोच्च शक्ति का रूप माना जाता है।
इस संबंध में रसयामल तंत्र के उत्तर तंत्र में कहा गया भी है कि
रजस्वला पुष्करं तीर्थ चाण्डाली तु महाकाशी।
चर्मकारी प्रयाग: स्याद्रजकी मथुरामता॥
वाम मार्ग में साधक, स्त्री को वह पवित्रावस्था में हो या अपवित्रावस्था में, अपने जीवन और शरीर से अधिक महत्वपूर्ण और शक्तिवाहिनी मानता है।
वाम मार्गीय तंत्र में न तो जातियां ही महत्वपूर्ण हैं और न रंगभेद। इस मार्ग में मां के नौ रूपों में भिन्न भिन्न जाति की कन्याओं को सर्वोच्च शक्तिसंपन्न मां दुर्गा का रूप मानकर पूजा जाता है।
रसयामल तंत्र के उत्तर तंत्र में इस संबंध में स्पष्टï कहा गया है कि
नटी कपालिका वेश्या रजकी नापिताङ्गना।
ब्रह्माणी शुद्रकन्या च तथा गोपालकन्यका:।
मालाकारस्य कन्या च नवकन्या प्रकीर्तिता:॥
अर्थात् नट की कन्या, अंतिम संस्कार कराने वाले की कन्या, वेश्या की कन्या, वस्त्रादि धोकर आजीविका चलाने वाले की कन्या, नापित की कन्या, ब्राह्मïण की कन्या, शूद्र कर्मकार की कन्या, गौ आदि चराकर उदरपूर्ति करने वाले की कन्या और बाग बगीचों का कार्य कर उदराभरण करने वाले की कन्या। इन सभी नौ कन्याओं को दुर्गा स्वरूपा देवी माना जाता है। माँ के नौ समान शक्तिशाली पवित्र रूपों में सर्वशक्तिमान इन नौ कन्याओं को मां दुर्गा देवी की तरह पूजा जाता है और सम्मान दिया जाता है।
नवरात्रि के पर्वों पर पारणा के समय जब इन नव दुर्गा देवी स्वरूपा कन्याओं को पुष्प, फल, भोजन और दक्षिणा आदि प्रदानकर उन्हें प्रसन्न किया जाता है और उनसे आशीर्वाद लिया जाता है। उस समय उनके भोजनादि से निवृत्ति के बाद बचे अवशिष्टï को मां का प्रसादस्वरूप मानकर ग्रहण किया जाता है।
रसयामल तंत्र के उत्तर तंत्र में इसका उल्लेख इस प्रकार किया गया है।
धूपैर्दीपैश्च नैवैद्यैर्विविधै: भगवतीश्ननन्।
विधाय वन्दितां तां च तदुच्छिष्ट स्वयंचरेत्॥
भगवान विष्णु के अवतार, सूर्यवंश के प्रतापी अयोध्या के राजा प्रभु राम द्वारा वाम मार्ग का साधन करते हुए वनवास काल के दौरान शूद्रा शबरी के द्वारा उच्छिष्ट किए गए फलों को ग्रहणकर बिना किसी अहंकार के या छुआछूत के किसी भी मुद्दे पर विचार किए बिना वाममार्ग का पालन किया।
वाममार्ग में कहा है कि अगर एक शक्तिशाली और सक्रिय (शिष्य) अपने जाति, पंथ, अभिमान, अहंकार, धन, आदि के प्रभाव में इन नौ (देवी नौ महिलाओं, जो माँ देवी दुर्गा के नौ रूपों के बराबर माना जाता है) देवियों का अपमान करता है तो वह अपनी शक्ति और ऊर्जा खो देता है, चाहे वह स्वयं देवताओं का राजा इंद्र ही क्यों न हो। यदि इंद्र भी ऐसा करेगा तो वह भी अपनी सत्ता और राज्य खो देता है।
वाम मार्ग तंत्र में स्पष्ट कहा है कि
अविचारं शक्त्युच्छिष्ठ पिबेच्छक्रपुरो यदि।
घोरञ्च नरकं याति वाममार्गात्पतेद्ध्रुवम्॥
यह मार्ग अघोर मार्ग है। भगवान् शिव को अघोरेश्वर कहा जाता है। वाम मार्ग को भगवान् शिव का मार्ग भी कहा जाता है।
यह मार्ग प्रकृति के कृतित्व निर्माण के लिए जाना जाता है, इसके माध्यम से बिना किसी भ्रम के पुनरोत्पादन, पुनर्निर्माण, विकास और क्रियात्मकता का मार्ग खुलता है।
भगवान शिव जो खुद वाम मार्ग का अनुयायी कहा जाता है। वे अर्धनारीश्वर हैं, जिसका अर्थ है - जो आधा स्त्री हो और आधा पुरुष हो।
इस पथ का अनुयायी सब झंझओं से मुक्त हो जाता है और अघोरी शिष्य कहा जाता है, जो साधना के बल पर भगवान शिव के समान हो जाता है।
महानिर्वाण तंत्र में कहा गया है-
पाशबद्धो भवेज्जीव: पाशमुक्त: सदाशिव:॥
ये भगवान् शिव ही भैरव रूप में प्रगट होते है।
भैरवोऽहम् शिवोऽहम्॥
अर्थात् मैं भैरव हूँ और मैं शिव हूं। शिव हमेशा गहराई में ध्यान केंद्रित हैं। शक्ति में स्थित हैं। बिना शक्ति के शिव शव मात्र हैं। शक्ति को धारण करने के बाद इस मार्ग का शिष्य/अनुयायी भैरव के समान है जिसका अर्थ है वह खुद को शिव के रूप में ही स्थिति पा लेता है।
-चंद्र शेखर शास्त्री
यज्ञों के गूढ़ रहस्यों के प्रतिपादक हैं आरण्यक
पं.चंद्रशेखर शास्त्री
वेदों के यज्ञीय विधान को स्पष्ट करने वाले ग्रंथ को ब्राह्मण कहा गया है।
जिसमें तीन कांड हैं, कर्मकांड, उपासना कांड और ज्ञान कांड। इसके उपासना
कांड को आरण्यक कहा गया है। आरण्यकों में ब्रह्मविद्या का विवेचन और यज्ञ
के गूढ़ रहस्यों का प्रतिपादन किया गया है। आत्म तत्व, ब्रह्म तत्व, ब्रह्म
और आत्मा, प्राण सिद्धान्त, ब्रह्म और जगत, पुनर्जन्म और कर्म सिद्धान्त
तथा नैतिक मूल्यों पर इनमें विस्तृत विवेचना है।
ब्रह्मचारी ऋषियों
द्वारा वेदों के दुर्गम ज्ञान को प्राणीमात्र के कल्याण के लिए सुलभ बनाने
के उद्देश्य से जनशून्य अरण्य(वन) में इस विद्या का अनुसंधानपरक पठन पाठन
किया गया, इसलिए इन्हें आरण्यक कहा जाता है।
आरण्यक आध्यात्मिक तत्वों
की यथार्थ मीमांसा और ब्रह्मविद्या के रहस्यों को समाहित किए हुए हैं।
सूक्ष्म अध्यात्मवाद के कारण नगरीय अथवा ग्रामीण कोलाहल से दूर अरण्यों में
ब्रह्मचारी और वानप्रस्थी ऋषि गुरुओं द्वारा अरण्यवासी योग्य शिष्यों को
प्रदान किया गया विशिष्ट ज्ञान ही आरण्यक ग्रंथों के रूप में उपलब्ध है।
आरण्यकों के अनुसार संपूर्ण ब्रह्माण्ड यज्ञमय है और यज्ञ ही समस्त सृष्टि
का नियन्ता है। प्राण विद्या का विवेचन आरण्यकों का विशिष्ट विषय है।
प्राण ही समस्त सृष्टि का आधार है। समस्त जगत प्राण से ही आवृत्त है। उसके
द्वारा ही सभी प्राणी धारण किए गए हैं।
आरण्यकों के बिना वेदों
को समझ पाना असंभव है। क्यों कि वेद ब्रह्मविद्या का ज्ञान है और
ब्रह्मविद्या के रहस्य आरण्यकों में ही छिपे हुए हैं। इनमें जीवन शैली और
जप तप के द्वारा ईश्वर को जानने का मार्ग बताया गया है। ये सभी आरण्यक
संवाद शैली में लिखे गए हैं। इनमें गुरु उपदेश करता और शिष्य सुनता है।
आपस्तंब धर्मसूत्र में तो मंत्र और ब्राह्मण(ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद)
का संयोजन ही वेद कहा गया है। 'मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदानामधेयम ्।
केवल तीन वेदों के आरण्यक ही उपलब्ध हैं। ऋग्वेद के दो (ऐतरेय आरण्यक एवं
शांखायन अथवा कौषीतकी आरण्यक), यजुर्वेद के तीन ( शुक्ल यजुर्वेद का
बृहदारण्यक और कृष्ण यजुर्वेद के तैत्तरीय आरण्यक व मैत्रायणी आरण्यक) तथा
सामवेद के छान्दोग्यारण्यक व जैमिनीय आरण्यक हैं। इसके अतिरिक्त सामवेद के
पूर्वाचिक खंड में आरण्यक संहिता का भी उल्लेख है। अथर्ववेद में कोई आरण्यक
नहीं है, पुनरपि पिप्लाद ब्राह्मण के गोपथ ब्राह्मण को अथर्ववेद के आरण्यक
के रूप में माना जा सकता है।
ऐतरेय आरण्यक
ऋग्वेद के इस आरण्यक के
पांच भाग हैं, जिन्हें आरण्यक ही कहा जाता है। इसके प्रथम आरण्यक में
पांच, द्वितीय में सात, तृतीय में दो, चतुर्थ में एक और पांचवें में तीन
अध्याय हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इसमें अठारह अध्याय हैं। इसके
प्रथमारण्यक में महाव्रत विवेचन है, दूसरे आरण्यक के प्रथम तीन अध्यायों
में प्राण विद्या और पुरुष का वर्णन है। चार से षष्ठम आरण्यक तक
ऐतरेयोपनिषद है। जिसमें यज्ञ के विधान का विशेष वर्णन है। इसमें बताया गया
है कि किस प्रकार अग्नि, सूर्य और वायु आहुति ग्रहण करते हैं। तीसरे आरण्यक
को संहितापनिषद कहा गया है क्यों कि इसमें संहिता, क्रम, पदपाठ वर्णन और
स्वर व्यंजन आदि के स्वरूप का विवरण है। चतुर्थ आरण्यक में महाव्रत के
पांचवें दिन में प्रयुक्त होने वाली महानाम्नी ऋचाओं का वर्णन है तथा
पांचवें आरण्य में महाव्रत के मध्यान्दिन वनक्षेत्र में पढ़े जाने वाले
निष्कैवल्य शास्त्र का विवेचन है। ऐतरेय में प्राण को ही विश्वमित्र,
वशिष्ठ, वामदेव, अत्रि और भारद्वाज बताया गया है।
शांखायन आरण्यक
इसे कौषतकि आरण्यक भी कहा गया है। यह भी ऋग्वेद का ही आरण्यक है। इसमें कुल
पंद्रह अध्याय और 137 खंड हैं। इसके पहले दो अध्यायों को ब्राह्मणभाग माना
जाता है और तीन से छ:अध्याय तक कौषीतकि उपनिषद के रूप में जाना जाता है।
षष्ठम अध्याय में कुरुक्षेत्र, मत्स्य, उशीनर, काशी, पांचाल, विदेह आदि
प्रदेशों का उल्लेख है। दशम अध्याय में यज्ञ के रहस्यों को गूढ़ विधान को और
पूजा पद्धति को लक्ष्यकर लिखा गया है। एकादश अध्याय में रोग और मृत्यु पर
विजय कैसे पाई जाए और स्वप्न का क्या अर्थ होता है, इस पर विशद वर्णन है।
बारहवां अध्याय प्रार्थनाओं के फल पर लिखा गया है। तेरहवें अध्याय में
उपनिषदों से अनेक उदाहरण लिए गए हैं। महाव्रत आदि कृत्यों के सहित इसमें भी
ऐतरेय आरण्यक के समान ही विषयों का विवेचन किया गया है।
बृहदारण्यक
शुक्ल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण की मध्यान्दिन और काण्व दोनों शाखाओं के
अंतिम छ: अध्यायों को बृहदारण्यक कहा जाता है। इसमें आरण्यक और उपनिषद
दोनों का मिश्रण है। बृहदारण्यक अन्य आरण्यकों की अपेक्षा अधिक बड़ा है।
इसके अध्यायों के भागों को ब्राह्मण कहा गया है। बृहदारण्यक में छ: अध्याय
हैं। इसके प्रथम अध्याय में अश्वमेध यज्ञ के रहस्य का विवेचन है। इससे आगे
प्रजापति के पुत्र देव और असुरों के विग्रह का वर्णन है। ऋत्विक धर्म का
विवेचन है। दूसरे अध्याय में दृप्तबालाकि गार्ग्य और अजातशत्रु का संवाद
है। इसी अध्याय के चतुर्थ भाग में याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का
विश्वप्रसिद्ध संवाद है। तीसरे और चौथे अध्याय में जनक और याज्ञवल्क्य का
संवाद है। पांचवें अध्याय में उपासना के प्रकार और गायत्री की उपासना पर
विशद विवेचन है। छठे अध्याय में पंचाग्नि विद्या और संतानोत्पत्ति पर
विवेचना है। इसमें आत्म तत्व का विस्तृत उपदेश है और बीच बीच में यज्ञ के
रहस्यों का वर्णन है।
मध्यान्दिन और काण्व दोनों ही शाखाओं के
बृहदारण्यकों में याज्ञवल्क्य और जनक का संवाद तथा ब्रह्मवादिनी मैत्रेयी व
गार्गी का संवाद है।
तैत्तरीय आरण्यक
यह कृष्ण यजुर्वेद की
तैत्तरीय शाखा का आरण्यक है। इसमें दस प्रपाठक या परिच्छेद (भाग)हैं। हर
प्रपाठक के कई अनुवाक (अध्याय) हैं, कुल मिलाकर 170 अनुवाक हैं। सातवें से
नौवें प्रपाठक को तैत्तरीयोपनिषद कहा जाता है। दशम प्रपाठक
महानारायणीयोपनिषद है। जिसे तैत्तरीय आरण्यक का परिशिष्ट माना जाता है।
इसके प्रथम प्रपाठक में अग्नि की उपासना और इष्ट चयन का वर्णन है। दूसरे
प्रपाठक में स्वाध्याय और पंच महायज्ञों के विधान का वर्णन है। तीसरे
प्रपाठक में चतुर्होम के उपयोगी मंत्रों का विवेचन है और चतुर्थ प्रपाठक
में अभिचारपरक मंत्रों का वर्णन है। पंचम प्रपाठक में यज्ञीय संकेत भाषा का
वर्णन है। षष्ठम प्रपाठक में पितृमेध संबंधी मंत्रों का वर्णन है। सप्तम
प्रपाठक में यज्ञोपवीत और यज्ञ विधान पर विस्तृत चर्चा है।
मैत्रायणी आरण्यक
यह कृष्ण यजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा से संबंधित है। इसे मैत्रायणी उपनिषद
भी कहा जाता है। इसमें सात प्रपाठक हैं। पांचवें प्रपाठक से कैत्सायनी
स्तोत्र का प्रारंभ होता है। इसमें ईश्वर को अग्नि और प्राण बताते हुए उन
पर विस्तृत विवेचन किया गया है। इसमें विश्व सृष्टि का उपाख्यान है।
प्रकृति के सत्व, रजस और तमस गुणों का संबंध ब्रह्म, विष्णु और रुद्र से
किया गया है। इसमें ऋग्वेद के साथ साथ सांख्य दर्शन के सिद्धांतों को भी
समन्वित किया है। इस आरण्यक का विषय विवेचन तीन प्रश्नों के रूप में प्रकट
होता है, पहला- आत्मा भोतिक शरीर में किस प्रकार प्रवेश पाता है। दूसरा-
परमात्मा किस प्रकार भूतात्मा बनता है और तीसरा- दु:खात्मक स्थिति से
मुक्ति किस प्रकार मिल सकती है।
तवल्कार आरण्यक
सामवेद की जैमिनीय
शाखा से संबंधित इस आरण्यक को जैमिनीय आरण्यक भी कहते हैं। इसमें चार
अध्याय हैं। जिनमें साम मंत्रों का सुंदर विवेचन किया गया है। इस आरण्यक के
चतुर्थ अध्याय को केनोपनिषद भी कहते हैं। ब्रह्म और परब्रह्म पर इसमें
विस्तृत चर्चा की गई है। तवल्कार में ब्रह्म के रहस्यमय स्वरूप का विवेचन
किया गया है। परब्रह्म की सर्वशक्तिमत्ता का विवेचन भी किया गया है।
तवल्कार में वायु, अग्नि आदि को ब्रह्म का ही विकसित रूप कहा गया है और
जीवात्मा को परब्रह्म का अंश बताया गया है।
छान्दोग्य आरण्यक
सामवेद के ताण्ड्य ब्राह्मण से संबंधित इस ब्राह्मण में दस अध्याय हैं,
प्रथम दो को आरण्यक कहा गया है, जो आख्यायिका स्वरूप है। इसके शेष आठ
अध्याय और 143 खंड छांदोग्य उपनिषद कहे जाते हैं। इसमें ओंकार उपासना, साम
उपासना, मधु विद्या, ब्रह्म उपासना, इंद्रिय परीक्षा, अश्वपति और उद्दालक
संवाद और दहर ब्रह्म की उपासना के आख्यान हैं। सामन् और उद्गीथ की
आध्यात्मिक दृष्टि से व्याख्या की गई है। इसमें तत्वज्ञान और तदुपयोगी कर्म
और उपासनाओं का विस्तृत वर्णन है। इसमें अमृत विद्या भी विवेचन है। विश्व
समाज को प्रसिद्ध वेदान्त वाक्य तत्वमसि इसी से प्राप्त हुआ है।
आरण्यक : एक दृष्टि
ऐतरेय आरण्यक: 5 आरण्यक, 18 अध्याय
शांखायन आरण्यक : 15 अध्याय, 137 खंड
बृहद आरण्यक : 6 अध्याय, 47 ब्राह्मण
तैत्तरीय आरण्यक : 10 प्रपाठक, 170 अनुवाक
मैत्रायणी आरण्यक : 7 प्रपाठक
छान्दोग्य आरण्यक : 10 अध्याय
तवल्कार आरण्यक : 4 अध्याय
प्रार्थना
प्रार्थना
जब कोई भी व्यक्ति प्रार्थना के लिए अपने हाथ उठाता है, तब वास्तव में वह
अपने भीतर की शक्ति को जगाता है ! प्रार्थना से उसमे आत्मबल आता है !
प्रार्थना दुआ या प्रेयर को जिसने अपने मन में बसाया , और जिसने भी अपने
सफ़र का साथी बनाया, प्रार्थना उसका साया बन जाती है! परमात्मा ने तुम्हारे
लिए कितने ही तरह के फूल खिलाये तथा परमात्मा के चाहने वालो ने उन फूलो को
अपने कंठ में माला की तरह किसी योगी की तरह धारण कर लिया !
इन्सान ने जब से पंच तत्वों की शक्ति को पहचाना, तभी से प्रार्थना का
जन्म होता है ! प्रकर्ति के कोष से सुरक्षा के लिए हाथ तभी से उठने लगे!आग,
हवा और पानी का कहर थमा तो इन्सान की आस्था बढी की कोई शक्ति जरुर है , जो
सब कुछ नियंत्रित करती है और उसके अधीन ही सब कुछ है ! यह सबको इतनी
जल्दी मालूम नही हो पाता कि वह शक्ति कहा और कैसी है ? वह निराकार है या
साकार ? मगर इतना ज
रुर है की जिसने भी एक
बार भगवान के आगे हाथ उठाकर प्रार्थना की , रब से दुआ मांगी उसके जीवन में
बहार जरुर आयी ! अब तो विज्ञानं भी इस परमात्मा की शक्ति को मान चूका है !
प्रयोगों में यह साबित हुआ है की प्रार्थना से एक नई उर्जा का संचार होता
है !
जब कोई व्यक्ति प्रार्थना के लिए हाथ जोड़ता है या
उठाता है या शीश नवाता है, मंदिर, मस्जिद , गुरुद्वारा , गिरजाघर या देवता
के सामने ध्यान लगाकर दुखो से छुटकारा पाने की कामना करता है , तो वह एक
तरीके से खुद को हालत से निपटने के लिए तैयार करता है ! प्रार्थना की वजह
से उसमे एक विशवास पैदा होने लगता है तुम्हे लगने लगता है की प्रार्थना के
कारन तुम्हारे जीवन से अब सब विपत्तिया टल जायेंगी और अच्छा वक्त शुरू हो
जायेगा ! ऐसा सोचते ही तुम्हारे मन में नई आध्यात्मिक शक्ति और आत्मबल का
विश्वास और अहसास होता है ! एक सकारात्मक भावना और उसमे वक्त और हालत से
लड़ने की तुम्हे शक्ति मिलती है ! मै ऐसा नहीं कहता कि प्रार्थना के कारण
तुम्हे अद्र्श्य शक्ति मिलेगी या नहीं ?लेकिन प्रार्थना के कारण जीवन में
आये परिवर्तन से तुम खुद को जीवन की जंग से लड़ने के लिए तैयार कर लेते हो !
तुममे से कोई मंगलवार को हनुमान जी के वृत करता है, कोई
गुरुवार को खानाख्वाहो में मत्था टेकता है , कोई रविवार को चर्च में
प्रार्थना करता है, कोई मस्जिद में नवाज अदा करता है, अपने-अपने धर्म और
सम्प्रदाय के अनुसार तुम अपने भले की ही कामना करते हो ! जबकि प्रार्थना
अपने लिए नहीं दुसरो के लिए करनी चाहिए? प्रार्थना सार्वभौमिक होनी चाहिए
सम्पूर्ण संसार के लिए ! कही किसी भी देश में अगर कोई प्राकर्तिक विपत्ति
आती है या विनास होता है तो सभी उस विपत्ति से निपटने में मदद करते है,
लेकिन कितने ही ऐसे मजबूर लोग भी होते है जो चाहते हुए भी मादा नहीं कर
पाते लेकिन तुम उनके लिए प्रार्थना तो कर ही सकते हो ! ( स्वामी सरस्वती)
जब कोई व्यक्ति प्रार्थना के लिए हाथ जोड़ता है या उठाता है या शीश नवाता है, मंदिर, मस्जिद , गुरुद्वारा , गिरजाघर या देवता के सामने ध्यान लगाकर दुखो से छुटकारा पाने की कामना करता है , तो वह एक तरीके से खुद को हालत से निपटने के लिए तैयार करता है ! प्रार्थना की वजह से उसमे एक विशवास पैदा होने लगता है तुम्हे लगने लगता है की प्रार्थना के कारन तुम्हारे जीवन से अब सब विपत्तिया टल जायेंगी और अच्छा वक्त शुरू हो जायेगा ! ऐसा सोचते ही तुम्हारे मन में नई आध्यात्मिक शक्ति और आत्मबल का विश्वास और अहसास होता है ! एक सकारात्मक भावना और उसमे वक्त और हालत से लड़ने की तुम्हे शक्ति मिलती है ! मै ऐसा नहीं कहता कि प्रार्थना के कारण तुम्हे अद्र्श्य शक्ति मिलेगी या नहीं ?लेकिन प्रार्थना के कारण जीवन में आये परिवर्तन से तुम खुद को जीवन की जंग से लड़ने के लिए तैयार कर लेते हो !
तुममे से कोई मंगलवार को हनुमान जी के वृत करता है, कोई गुरुवार को खानाख्वाहो में मत्था टेकता है , कोई रविवार को चर्च में प्रार्थना करता है, कोई मस्जिद में नवाज अदा करता है, अपने-अपने धर्म और सम्प्रदाय के अनुसार तुम अपने भले की ही कामना करते हो ! जबकि प्रार्थना अपने लिए नहीं दुसरो के लिए करनी चाहिए? प्रार्थना सार्वभौमिक होनी चाहिए सम्पूर्ण संसार के लिए ! कही किसी भी देश में अगर कोई प्राकर्तिक विपत्ति आती है या विनास होता है तो सभी उस विपत्ति से निपटने में मदद करते है, लेकिन कितने ही ऐसे मजबूर लोग भी होते है जो चाहते हुए भी मादा नहीं कर पाते लेकिन तुम उनके लिए प्रार्थना तो कर ही सकते हो ! ( स्वामी सरस्वती)
The Origin Of Vishnu’s Sudarshana Chakra
This
is the story of how Vishnu’s Sudarshana Chakra came into existence. The
asuras, or demons, were extremely bad. They always tortured the cosmic
gods. At one time, the cosmic gods were suffering so much from the
attacks of the demons that they went to see Lord Vishnu. They wanted to
seek his help in defeating the demons.
Vishnu said to them, “I
do not have enough power to defeat or destroy the demons. I must seek
help from Shiva. I will ask him to give me a special weapon that will
help me defeat the demons.”
When Vishnu went to Shiva, he found
Lord Shiva in trance. Vishnu did not want to disturb Shiva’s
meditation, so he started praying and praying to Shiva with the hope
that one day he would come out of his trance.
Every day, for
years and years, Vishnu prayed to Shiva, meditated on Shiva and chanted
Shiva’s name very devotedly. He offered one thousand lotus blossoms to
Shiva every day. Each time he offered Shiva a lotus blossom, he would
chant Shiva’s name.
This went on for such a long time and still
Shiva remained rapt in trance. Poor Vishnu was helpless! The gods were
being mercilessly tortured by the demons and he was unable to save them.
Finally, after many long years, Shiva came out of his trance. Vishnu’s
joy knew no bounds. He ran to gather one thousand lotus blossoms so that
he could worship Lord Shiva and ask for a special boon.
Shiva
had already decided that he would grant Vishnu the boon, but first he
wanted to play a trick on Vishnu. He secretly went to the spot where
Vishnu had placed the lotus flowers and stole one flower. Now there were
only 999 flowers.
After making all his preparations, Vishnu
began to worship Shiva most devotedly. One by one, he offered the lotus
flowers and chanted Shiva’s name. When he came to the end, he realised
that one flower was missing. He had only counted 999. That meant he had
to go and find one more lotus. Instead of doing that, he immediately
plucked out one of his eyes and placed it before Shiva.
When Shiva saw that Vishnu had such devotion for him, he said, “I will grant you anything that you ask for.”
“Please give me something that will help me to conquer the asuras,” said Vishnu.
Shiva replied, “I give you this round disc. It will help you to conquer
all your enemies. No matter how many demons come to attack you and the
other gods, you will be able to defeat them all with this disc.”
The name of the disc was the Sudarshana Chakra. When Lord Krishna took
incarnation, Vishnu gave him this chakra, because Krishna was the
embodiment of Vishnu. Krishna could immediately use the chakra at any
time; it was his own property. Sri Chaitanya also used the Sudarshana
Chakra a few times. He was able to invoke it and it would come to him.
When he wanted to kill Jagai and Madhai, for example, he invoked it.
These two ruffians saw it coming from Heaven and became extremely
frightened. Before it reached them, they surrendered to Sri Chaitanya.
The Sudarshana Chakra is not thrown. With will-power it is sent against
the enemy. It rotates very, very fast after leaving the finger and
chases the enemy. The chakra itself is round and has something like the
points of arrows all around its edge. It has tremendous occult and
spiritual power to destroy everything. Nobody can stand against the
Sudarshana Chakra.
अनोखा शिव नाम!..जो अनजाने भी बोलता रहता है हर इंसान:
र ..... हर हर .... हर हर .... हर हर महादेव !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
शास्त्र कहते हैं कि शिव नाम और गुणों की महिमा अनंत व अपार है। सरल शब्दों में समझें तो शिव ऐसे देवता हैं जिनका स्वरूप अव्यक्त और अनंत है। यानी शिव के गुण व शक्तियों की गिनती या बखान साधारण इंसान के लिए संभव नहीं।
शास्त्रों में लिखी एक बात शिव के ऐसे ही दिव्य स्वरूप को उजागर करती है। इसके मुताबिक अगर पर्वत जितना काजल लेकर, समुद्र जैसी दवात में भरकर, कल्पवृक्ष की कलम से, पृथ्वी रूपी कागज पर स्वयं ज्ञान की देवी सरस्वती शिव के गुणों को लिखना शुरू करें तो शिव के गुण व शक्तियों का वर्णन खत्म नहीं होगा।
भगवान शिव के ऐसे ही गुण व शक्तियों से जुड़ा है एक अनोखा नाम है, जो खासतौर पर शिव साधना के काल में हर शिव भक्त के कंठ में बसता है। यह नाम है - हर। खासतौर पर हर-हर महादेव का जयकारा हर शिव भक्त बोलता है।
'हर' शब्द के पीछे हरण करने का भाव है। शास्त्रों के मुताबिक शिव और शिव नाम भी सभी पापों को हर लेता है। मन, बुद्धि, विचार, कर्म, वाणी के सारे दोष शिव के 'हर' नाम से नष्ट हो जाते हैं। दूसरे अर्थों में यह पवित्र शब्द पाप, दोष और दुर्गुणों पर विजय दिलाने वाला है।
'हर' नाम की महिमा यहां तक बताई गई है कि अगर 'हर' का किसी शब्द के साथ छुपे हुए या स्वर के रूप में भी उच्चारण हो तो सारे पापों का अंत हो जाता है।
विशेष तौर पर जीवन के अंतिम समय में 'हर' शब्द किसी रूप में बोलें तो बड़े से बड़ा पाप भी धुल जाता है। शिव नाम की यह दिव्य शक्ति ही शिव को अन्य देवों में सर्वश्रेष्ठ बनाती है और वह महादेव भी पुकारे जाते हैं और पापनाश और शिव की प्रसन्नता के लिए हर-हर महादेव का जयकारा लगाया जाता है।
शास्त्र कहते हैं कि शिव नाम और गुणों की महिमा अनंत व अपार है। सरल शब्दों में समझें तो शिव ऐसे देवता हैं जिनका स्वरूप अव्यक्त और अनंत है। यानी शिव के गुण व शक्तियों की गिनती या बखान साधारण इंसान के लिए संभव नहीं।
शास्त्रों में लिखी एक बात शिव के ऐसे ही दिव्य स्वरूप को उजागर करती है। इसके मुताबिक अगर पर्वत जितना काजल लेकर, समुद्र जैसी दवात में भरकर, कल्पवृक्ष की कलम से, पृथ्वी रूपी कागज पर स्वयं ज्ञान की देवी सरस्वती शिव के गुणों को लिखना शुरू करें तो शिव के गुण व शक्तियों का वर्णन खत्म नहीं होगा।
भगवान शिव के ऐसे ही गुण व शक्तियों से जुड़ा है एक अनोखा नाम है, जो खासतौर पर शिव साधना के काल में हर शिव भक्त के कंठ में बसता है। यह नाम है - हर। खासतौर पर हर-हर महादेव का जयकारा हर शिव भक्त बोलता है।
'हर' शब्द के पीछे हरण करने का भाव है। शास्त्रों के मुताबिक शिव और शिव नाम भी सभी पापों को हर लेता है। मन, बुद्धि, विचार, कर्म, वाणी के सारे दोष शिव के 'हर' नाम से नष्ट हो जाते हैं। दूसरे अर्थों में यह पवित्र शब्द पाप, दोष और दुर्गुणों पर विजय दिलाने वाला है।
'हर' नाम की महिमा यहां तक बताई गई है कि अगर 'हर' का किसी शब्द के साथ छुपे हुए या स्वर के रूप में भी उच्चारण हो तो सारे पापों का अंत हो जाता है।
विशेष तौर पर जीवन के अंतिम समय में 'हर' शब्द किसी रूप में बोलें तो बड़े से बड़ा पाप भी धुल जाता है। शिव नाम की यह दिव्य शक्ति ही शिव को अन्य देवों में सर्वश्रेष्ठ बनाती है और वह महादेव भी पुकारे जाते हैं और पापनाश और शिव की प्रसन्नता के लिए हर-हर महादेव का जयकारा लगाया जाता है।
मनुष्य की सेवा का महत्व-----
मनुष्य की सेवा का महत्व-----
एक प्रसिद्ध संत मृत्यु के बाद जब स्वर्ग के दरवाजे पर पहुंचे तो
चित्रगुप्त उन्हें रोकते हुए बोले, 'रुकिए संत जी, अंदर जाने से पहले
लेखा-जोखा देखना पड़ता है।' चित्रगुप्त की बात संत को अच्छी नहीं लगी। वह
बोले, 'आप यह कैसा व्यवहार कर रहे हैं? बच्चे से लेकर बूढ़े तक सभी मुझे
जानते हैं। '
इस पर चित्रगुप्त बोले, 'आपको कितने लोग जानते हैं,
इसका लेखा-जोखा हमारी बही में नहीं होता, इसमें तो केवल कर्मों का
लेखा-जोखा होता है।' इसके बाद वह बही लेकर संत के जीवन का पहला हिस्सा
देखने लगे। यह देखकर संत बोले, 'आप मेरे जीवन का दूसरा भाग देखिए क्योंकि
जीवन के पहले हिस्से में तो मैंने लोगों की सेवा की है, उनके दु:ख दूर किए
हैं। जबकि जीवन के दूसरे हिस्से में मैंने जप-तप और ईश्वर की आराधना की है।
दूसरे हिस्से का लेखा-जोखा देखने पर आपको वहां पुण्य की चर्चा अवश्य
मिलेगी।'
संत की बात मानकर
चित्रगुप्त ने उनके जीवन का दूसरा हिस्सा देखा तो वहां उन्हें कुछ भी नहीं
मिला। सब कुछ कोरा था। वह फिर से उनके जीवन के आरंभ से उनका लेखा-जोखा
देखने लगे। आरंभ का लेखा-जोखा देखकर वह बोले, 'संत जी, आपका सोचना उल्टा
है। आपके अच्छे और पुण्य के कार्यों का लेखा-जोखा जीवन के आरंभ में है।' यह
सुनकर संत आश्चर्यचकित होकर बोले, 'यह कैसे संभव है?'
चित्रगुप्त
बोले, 'संत जी, जीवन के पहले हिस्से में आपने मनुष्य की सेवा की, उनके
दु:ख-दर्द कम किए। उन्हीं पुण्य के कार्यों के कारण आपको स्वर्ग में स्थान
मिला है, जबकि जप-तप और ईश्वर की आराधना आपने अपनी शांति के लिए की है।
इसलिए वे पुण्य के कार्य नहीं हैं। यदि केवल आपके जीवन के दूसरे हिस्से पर
विचार किया जाए तो आपको स्वर्ग नहीं मिलेगा।' चित्रगुप्त की बात सुनकर संत
समझ गए कि जीवन में जप-तप से बड़ा है सद्-कर्म और सच्चे मन से प्राणियों की
सेवा।
चित्रगुप्त बोले, 'संत जी, जीवन के पहले हिस्से में आपने मनुष्य की सेवा की, उनके दु:ख-दर्द कम किए। उन्हीं पुण्य के कार्यों के कारण आपको स्वर्ग में स्थान मिला है, जबकि जप-तप और ईश्वर की आराधना आपने अपनी शांति के लिए की है। इसलिए वे पुण्य के कार्य नहीं हैं। यदि केवल आपके जीवन के दूसरे हिस्से पर विचार किया जाए तो आपको स्वर्ग नहीं मिलेगा।' चित्रगुप्त की बात सुनकर संत समझ गए कि जीवन में जप-तप से बड़ा है सद्-कर्म और सच्चे मन से प्राणियों की सेवा।
जन गण मन – हमारा राष्ट्रगान
जन गण मन – हमारा राष्ट्रगान
हमारा राष्ट्रगान "जन गण मन" हमारे पूरे देश में हर राष्ट्रीय पर्व पर और
समारोहों में गाया जाता है। क्या हम इस के बारे में पूरी तरह जानते हैं? ये
"अधिनायक" और भारत भाग्यविधाता" कौन हैं जिनके सम्मान में हम ये गीत
भावविभोर हो कर समवेत स्वरों में गाते हैं?
“जन गण मन" गीत श्री
रविन्द्र नाथ टैगोर ने १९१९ में तब के ब्रिटिश शासक किंग जौर्ज पंचम के
भारत आगमन पर लिखा था। पूरे गीत के शुरु के ५ अंतरों को जिनमे राजा और रानी
का प्रशस्तिगान किया गया था पं० जवाहर लाल नेहरू जी ने उस अवसर पर गाने के
लिये चुना था। (और हम सब सोचते हैं कि यह गीत मात्रिभुमि भारत के लिये
है!)
इस गीत मे केवल १० राज्यों के ही नाम है - पंजाब, सिन्ध, गुजरात,
महाराष्ट्र, द्रविड (तमिलनाडु), उडीसा, बंगाल, विन्ध्य(मध्यप्रदेश),
हिमांचल और गंगा - जमुना का क्षेत्र (उत्तर प्रदेश) क्यों कि उस समय के
अंग्रेजी शासन में ये राज्य ही थे जहा ब्रिटिश हुकुमत थी। इसमें काश्मीर,
राजस्थान, आंध्रप्रदेश, मैसूर (करनाटक), गोआ, पोंडिचेरी, पूर्वोत्तर भारत
और केरल का जिक्र भी नहीं है जो त
ब राजा या
रजवाडों या या अन्य विदेशी मुल्कों या आदिवासी कबीलों द्वारा शासित थे पर
अब ये हमारे देश के अभिन्न अंग हैं। इसी तरह इसमें हिंद महासागर और अरब
सागर का भी जिक्र नहीं है क्योंकि तब इन पर पुर्तगालियों की हुकूमत थी
अंगरेजों की नहीं।
आइये अब इस गीत का पूरा अर्थ समझें:
ब्रिटिश शासक जौर्ज पंचम भारत की जनता के शासक हैं और भारतीय जनता का भाग्य तय करते हैं
अंतरा १: हम भारतीय सुबह उनका नाम स्मरण करते हुये जगते हैं, उन का आशीष चाहते हैं और उनकी जयगाथा का स्तुति गान करते हें
अंतरा २: हम सब धर्मों और राज्यों के लोग आपके दरबार में आपका स्नेह पाने के लिये और् आपके सुमधुर वचन सुनने के लिये आते हैं ।
अंतरा ३: महाराजा को हमारा पथप्रदर्शक होने के लिये हम उनका आभार प्रगट करते हैं।
अंतरा ४: हम अग्यानी असहाय निर्धन लोग आपके(महाराजा के) और अपनी मां समान महारानी से सुरक्षा देने की अनुकंपा करते हैं।
अंतरा ५: आपकी अनुकंपा से सोया भारत जागेगा। हम अपने महाराजा और महारानी के चरणों में झुक कर प्रणाम करते हैं।
इस प्रकार यह राष्ट्रगीत किसी भी प्रकार से हमारे देश के लिये न हो कर ब्रिटिश राजा और रानी का स्तुति गान है।
हमें अपने राष्ट्रगीत के लिये बन्किम चन्द्र चटर्जी रचित "वन्दे मातरम" या इकबाल रचित "सारे जहान से अच्छा" का चयन करना चाहिये था।
आइये अब इस गीत का पूरा अर्थ समझें:
ब्रिटिश शासक जौर्ज पंचम भारत की जनता के शासक हैं और भारतीय जनता का भाग्य तय करते हैं
अंतरा १: हम भारतीय सुबह उनका नाम स्मरण करते हुये जगते हैं, उन का आशीष चाहते हैं और उनकी जयगाथा का स्तुति गान करते हें
अंतरा २: हम सब धर्मों और राज्यों के लोग आपके दरबार में आपका स्नेह पाने के लिये और् आपके सुमधुर वचन सुनने के लिये आते हैं ।
अंतरा ३: महाराजा को हमारा पथप्रदर्शक होने के लिये हम उनका आभार प्रगट करते हैं।
अंतरा ४: हम अग्यानी असहाय निर्धन लोग आपके(महाराजा के) और अपनी मां समान महारानी से सुरक्षा देने की अनुकंपा करते हैं।
अंतरा ५: आपकी अनुकंपा से सोया भारत जागेगा। हम अपने महाराजा और महारानी के चरणों में झुक कर प्रणाम करते हैं।
इस प्रकार यह राष्ट्रगीत किसी भी प्रकार से हमारे देश के लिये न हो कर ब्रिटिश राजा और रानी का स्तुति गान है।
हमें अपने राष्ट्रगीत के लिये बन्किम चन्द्र चटर्जी रचित "वन्दे मातरम" या इकबाल रचित "सारे जहान से अच्छा" का चयन करना चाहिये था।
Monday, October 22, 2012
नवरात्र का वैज्ञानिक आधार
नवरात्र का वैज्ञानिक आधार
नवरात्र
शब्द से "नव अहोरात्रों (विशेष रात्रियां) का बोध" होता है.... और, इस समय
शक्ति के नव रूपों की उपासना की जाती है..... क्योंकि... "रात्रि" शब्द
सिद्धि का प्रतीक माना जाता है...।
जैसा कि आप सभी जानते ही हैं कि....भारत के प्राचीन ऋषि-मुनियों ने.... रात्रि को दिन की अपेक्षा अधिक महत्व दिया है...... यही कारण है कि... दीपावली, होलिका, शिवरात्रि और नवरात्र
जैसा कि आप सभी जानते ही हैं कि....भारत के प्राचीन ऋषि-मुनियों ने.... रात्रि को दिन की अपेक्षा अधिक महत्व दिया है...... यही कारण है कि... दीपावली, होलिका, शिवरात्रि और नवरात्र
आदि उत्सवों को रात में ही मनाने की परंपरा है...।
यदि , रात्रि का कोई विशेष रहस्य न होता,... तो, ऐसे उत्सवों को रात्रि न कह कर दिन ही कहा जाता..... परन्तु , दिलचस्प है कि... नवरात्र के दिन.... नवदिन नहीं कहे जाते हैं....।
लेकिन... नवरात्र के वैज्ञानिक महत्व को समझने से पहले... हम थोडा नवरात्र को समझ लेते हैं....!
मनीषियों ने वर्ष में दो बार नवरात्रों का विधान बनाया है..... मतलब कि.... विक्रम संवत के पहले दिन अर्थात चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा (पहली तिथि) से नौ दिन अर्थात नवमी तक...।
और, इसी प्रकार इसके ठीक छह मास पश्चात् ...... आश्विन मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी अर्थात विजयादशमी के एक दिन पूर्व तक नवरात्र मनाया जाता है.. ।
लेकिन, फिर भी ..... सिद्धि और साधना की दृष्टि से शारदीय नवरात्रों को ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है.... और, इन नवरात्रों में लोग अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति संचय करने के लिए अनेक प्रकार के व्रत, संयम, नियम, यज्ञ, भजन, पूजन, योग साधना आदि करते हैं...... !
यहाँ तक कि... कुछ साधक इन रात्रियों में पूरी रात पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर आंतरिक त्राटक या बीज मंत्रों के जाप द्वारा विशेष सिद्धियां प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
नवरात्रों में शक्ति के 51 पीठों पर भक्तों का समुदाय बड़े उत्साह से शक्ति की उपासना के लिए एकत्रित होता है...... और, जो उपासक इन शक्ति पीठों पर नहीं पहुंच पाते...... वे अपने निवास स्थल पर ही शक्ति का आह्वान करते हैं।
हालाँकि.... आजकल अधिकांश उपासक शक्ति पूजा रात्रि में नहीं..... बल्कि, पुरोहित को दिन में ही बुलाकर संपन्न करा देते हैं।
यहाँ तक कि....सामान्य भक्त ही नहीं.... अपितु , पंडित और साधु-महात्मा भी अब नवरात्रों में पूरी रात जागना नहीं चाहते... और, ना ही कोई आलस्य को त्यागना चाहता है।
आज कल.. . बहुत कम उपासक ही आलस्य को त्याग कर आत्मशक्ति, मानसिक शक्ति और यौगिक शक्ति की प्राप्ति के लिए रात्रि के समय का उपयोग करते देखे जाते हैं...!
जबकि... मनीषियों ने रात्रि के महत्व को अत्यंत सूक्ष्मता के साथ वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में समझने और समझाने का प्रयत्न किया.... और, अब तो यह एक सर्वमान्य वैज्ञानिक तथ्य भी है कि.... रात्रि में प्रकृति के बहुत सारे अवरोध खत्म हो जाते हैं........ और, हमारे ऋषि - मुनि आज से कितने ही हजारों-लाखों वर्ष पूर्व ही प्रकृति के इन वैज्ञानिक रहस्यों को जान चुके थे.....।
जैसा कि.... आपने भी देखा ही होगा कि..... अगर दिन में आवाज दी जाए, तो वह दूर तक नहीं जाती है , किंतु यदि रात्रि को आवाज दी जाए तो वह बहुत दूर तक जाती है.....।
इसके पीछे दिन के कोलाहल के अलावा..... एक वैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि..... दिन में सूर्य की किरणें आवाज की तरंगों और रेडियो तरंगों को आगे बढ़ने से रोक देती हैं....।
रेडियो इस बात का जीता - जागता उदाहरण है... जहाँ आपने खुद भी महसूस किया होगा कि.... कम शक्ति के रेडियो स्टेशनों को दिन में पकड़ना अर्थात सुनना मुश्किल होता है ........जबकि सूर्यास्त के बाद छोटे से छोटा रेडियो स्टेशन भी आसानी से सुना जा सकता है।
इसका... वैज्ञानिक सिद्धांत यह है कि..... सूर्य की किरणें दिन के समय रेडियो तरंगों को जिस प्रकार रोकती हैं ..... ठीक उसी प्रकार मंत्र जाप की विचार तरंगों में भी दिन के समय रुकावट पड़ती है......!
इसीलिए ऋषि - मुनियों ने रात्रि का महत्व दिन की अपेक्षा बहुत अधिक बताया है.....।
मंदिरों में घंटे और शंख की आवाज के कंपन से दूर - दूर तक वातावरण कीटाणुओं से रहित हो जाता है।
यही... रात्रि का वैज्ञानिक रहस्य है...... जो इस वैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखते हुए रात्रियों में संकल्प और उच्च अवधारणा के साथ अपने शक्तिशाली विचार तरंगों को वायुमंडल में भेजते हैं , उनकी कार्यसिद्धि अर्थात मनोकामना सिद्धि , उनके शुभ संकल्प के अनुसार उचित समय और ठीक विधि के अनुसार करने पर अवश्य होती है।
हालाँकि..... आजकल नवरात्र को नवरात्रि.... भी कहा जाता है .... परन्तु , संस्कृत व्याकरण के अनुसार "नवरात्रि कहना त्रुटिपूर्ण" है .... क्योंकि, नौ रात्रियों का समाहार.... अर्थात, समूह होने और द्वन्द सामास होने के कारण यह शब्द पुलिंग रूप ""नवरात्र"" में ही शुद्ध है।
नवरात्र के पीछे का वैज्ञानिक आधार यह कि....
पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा काल में एक साल की चार संधियाँ हैं... जिनमे से मार्च व सितंबर माह में पड़ने वाली गोल संधियों में साल के दो मुख्य नवरात्र पड़ते हैं। इस समय रोगाणु आक्रमण की सर्वाधिक संभावना होती है.... और, ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियाँ बढ़ती हैं.... अत: उस समय स्वस्थ रहने के लिए... तथा शरीर को शुद्ध रखने के लिए और तनमन को निर्मल और पूर्णत: स्वस्थ रखने के लिए की जाने वाली प्रक्रिया का नाम ""नवरात्र"" है।
अब सवाल है कि.... नवरात्र में.... नौ दिन या नौ रात को गिना जाना चाहिए....????
तो.... मैं यहाँ बता दूँ कि.....अमावस्या की रात से अष्टमी तक या पड़वा से नवमी की दोपहर तक व्रत नियम चलने से नौ रात यानी ""नवरात्र"" नाम सार्थक है। चूँकि.... यहाँ रात गिनते हैं.... इसलिए इसे नवरात्र यानि नौ रातों का समूह कहा जाता है...।
रूपक के द्वारा हमारे शरीर को नौ मुख्य द्वारों वाला कहा गया है.. और, इसके भीतर निवास करने वाली जीवनी शक्ति का नाम ही दुर्गा देवी है...।
इन मुख्य इन्द्रियों के अनुशासन, स्वच्छ्ता, तारतम्य स्थापित करने के प्रतीक रूप में, शरीर तंत्र को पूरे साल के लिए सुचारू रूप से क्रियाशील रखने के लिए नौ द्वारों की शुद्धि का पर्व नौ दिन मनाया जाता है... और, इनको व्यक्तिगत रूप से महत्व देने के लिए नौ दिन.... नौ दुर्गाओं के लिए कहे जाते हैं।
हालाँकि.... शरीर को सुचारू रखने के लिए विरेचन, सफाई या शुद्धि प्रतिदिन तो हम करते ही हैं ....किन्तु अंग-प्रत्यंगों की पूरी तरह से भीतरी सफाई करने के लिए.... हर छ: माह के अंतर से सफाई अभियान चलाया जाता है.... जिसमे , सात्विक आहार के व्रत का पालन करने से शरीर की शुध्दि, साफ सुथरे शरीर में शुद्ध बुद्धि, उत्तम विचारों से ही उत्तम कर्म, कर्मों से सच्चरित्रता और क्रमश: मन शुध्द होता है... क्योंकि, स्वच्छ मन मंदिर में ही तो ईश्वर की शक्ति का स्थायी निवास होता है।
नवरात्र में नौ देवियाँ या नव देवी इस प्रकार हैं.....
नौ दिन यानि हिन्दी माह चैत्र और आश्विन के शुक्ल पक्ष की पड़वा.... अर्थात पहली तिथि से नौवी तिथि तक प्रत्येक दिन की एक देवी..... मतलब नौ द्वार वाले दुर्ग के भीतर रहने वाली जीवनी शक्ति रूपी दुर्गा के नौ रूप हैं-
1. शैलपुत्री
2. ब्रह्मचारिणी
3. चंद्रघंटा
4. कूष्माण्डा
5. स्कन्दमाता
6. कात्यायनी
7. कालरात्रि
8. महागौरी
9. सिध्दीदात्री
इनका नौ जड़ी बूटी या ख़ास व्रत की चीजों से भी सम्बंध है.....जिन्हे नवरात्र के व्रत में प्रयोग किया जाता है-
1. कुट्टू (शैलान्न)
2. दूध-दही,
3. चौलाई (चंद्रघंटा)
4. पेठा (कूष्माण्डा)
5. श्यामक चावल (स्कन्दमाता)
6. हरी तरकारी (कात्यायनी)
7. काली मिर्च व तुलसी (कालरात्रि)
8. साबूदाना (महागौरी)
9. आंवला(सिध्दीदात्री)
और.... क्रमश: ये नौ प्राकृतिक व्रत खाद्य पदार्थ हैं।
अष्टमी या नवमी....????
यह कुल परम्परा के अनुसार तय किया जाता है... और, भविष्योत्तर पुराण में और देवी भावगत के अनुसार...... बेटों वाले परिवार में या पुत्र की चाहना वाले परिवार वालों को नवमी में व्रत खोलना चाहिए.....।
यदि , रात्रि का कोई विशेष रहस्य न होता,... तो, ऐसे उत्सवों को रात्रि न कह कर दिन ही कहा जाता..... परन्तु , दिलचस्प है कि... नवरात्र के दिन.... नवदिन नहीं कहे जाते हैं....।
लेकिन... नवरात्र के वैज्ञानिक महत्व को समझने से पहले... हम थोडा नवरात्र को समझ लेते हैं....!
मनीषियों ने वर्ष में दो बार नवरात्रों का विधान बनाया है..... मतलब कि.... विक्रम संवत के पहले दिन अर्थात चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा (पहली तिथि) से नौ दिन अर्थात नवमी तक...।
और, इसी प्रकार इसके ठीक छह मास पश्चात् ...... आश्विन मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी अर्थात विजयादशमी के एक दिन पूर्व तक नवरात्र मनाया जाता है.. ।
लेकिन, फिर भी ..... सिद्धि और साधना की दृष्टि से शारदीय नवरात्रों को ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है.... और, इन नवरात्रों में लोग अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति संचय करने के लिए अनेक प्रकार के व्रत, संयम, नियम, यज्ञ, भजन, पूजन, योग साधना आदि करते हैं...... !
यहाँ तक कि... कुछ साधक इन रात्रियों में पूरी रात पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर आंतरिक त्राटक या बीज मंत्रों के जाप द्वारा विशेष सिद्धियां प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
नवरात्रों में शक्ति के 51 पीठों पर भक्तों का समुदाय बड़े उत्साह से शक्ति की उपासना के लिए एकत्रित होता है...... और, जो उपासक इन शक्ति पीठों पर नहीं पहुंच पाते...... वे अपने निवास स्थल पर ही शक्ति का आह्वान करते हैं।
हालाँकि.... आजकल अधिकांश उपासक शक्ति पूजा रात्रि में नहीं..... बल्कि, पुरोहित को दिन में ही बुलाकर संपन्न करा देते हैं।
यहाँ तक कि....सामान्य भक्त ही नहीं.... अपितु , पंडित और साधु-महात्मा भी अब नवरात्रों में पूरी रात जागना नहीं चाहते... और, ना ही कोई आलस्य को त्यागना चाहता है।
आज कल.. . बहुत कम उपासक ही आलस्य को त्याग कर आत्मशक्ति, मानसिक शक्ति और यौगिक शक्ति की प्राप्ति के लिए रात्रि के समय का उपयोग करते देखे जाते हैं...!
जबकि... मनीषियों ने रात्रि के महत्व को अत्यंत सूक्ष्मता के साथ वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में समझने और समझाने का प्रयत्न किया.... और, अब तो यह एक सर्वमान्य वैज्ञानिक तथ्य भी है कि.... रात्रि में प्रकृति के बहुत सारे अवरोध खत्म हो जाते हैं........ और, हमारे ऋषि - मुनि आज से कितने ही हजारों-लाखों वर्ष पूर्व ही प्रकृति के इन वैज्ञानिक रहस्यों को जान चुके थे.....।
जैसा कि.... आपने भी देखा ही होगा कि..... अगर दिन में आवाज दी जाए, तो वह दूर तक नहीं जाती है , किंतु यदि रात्रि को आवाज दी जाए तो वह बहुत दूर तक जाती है.....।
इसके पीछे दिन के कोलाहल के अलावा..... एक वैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि..... दिन में सूर्य की किरणें आवाज की तरंगों और रेडियो तरंगों को आगे बढ़ने से रोक देती हैं....।
रेडियो इस बात का जीता - जागता उदाहरण है... जहाँ आपने खुद भी महसूस किया होगा कि.... कम शक्ति के रेडियो स्टेशनों को दिन में पकड़ना अर्थात सुनना मुश्किल होता है ........जबकि सूर्यास्त के बाद छोटे से छोटा रेडियो स्टेशन भी आसानी से सुना जा सकता है।
इसका... वैज्ञानिक सिद्धांत यह है कि..... सूर्य की किरणें दिन के समय रेडियो तरंगों को जिस प्रकार रोकती हैं ..... ठीक उसी प्रकार मंत्र जाप की विचार तरंगों में भी दिन के समय रुकावट पड़ती है......!
इसीलिए ऋषि - मुनियों ने रात्रि का महत्व दिन की अपेक्षा बहुत अधिक बताया है.....।
मंदिरों में घंटे और शंख की आवाज के कंपन से दूर - दूर तक वातावरण कीटाणुओं से रहित हो जाता है।
यही... रात्रि का वैज्ञानिक रहस्य है...... जो इस वैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखते हुए रात्रियों में संकल्प और उच्च अवधारणा के साथ अपने शक्तिशाली विचार तरंगों को वायुमंडल में भेजते हैं , उनकी कार्यसिद्धि अर्थात मनोकामना सिद्धि , उनके शुभ संकल्प के अनुसार उचित समय और ठीक विधि के अनुसार करने पर अवश्य होती है।
हालाँकि..... आजकल नवरात्र को नवरात्रि.... भी कहा जाता है .... परन्तु , संस्कृत व्याकरण के अनुसार "नवरात्रि कहना त्रुटिपूर्ण" है .... क्योंकि, नौ रात्रियों का समाहार.... अर्थात, समूह होने और द्वन्द सामास होने के कारण यह शब्द पुलिंग रूप ""नवरात्र"" में ही शुद्ध है।
नवरात्र के पीछे का वैज्ञानिक आधार यह कि....
पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा काल में एक साल की चार संधियाँ हैं... जिनमे से मार्च व सितंबर माह में पड़ने वाली गोल संधियों में साल के दो मुख्य नवरात्र पड़ते हैं। इस समय रोगाणु आक्रमण की सर्वाधिक संभावना होती है.... और, ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियाँ बढ़ती हैं.... अत: उस समय स्वस्थ रहने के लिए... तथा शरीर को शुद्ध रखने के लिए और तनमन को निर्मल और पूर्णत: स्वस्थ रखने के लिए की जाने वाली प्रक्रिया का नाम ""नवरात्र"" है।
अब सवाल है कि.... नवरात्र में.... नौ दिन या नौ रात को गिना जाना चाहिए....????
तो.... मैं यहाँ बता दूँ कि.....अमावस्या की रात से अष्टमी तक या पड़वा से नवमी की दोपहर तक व्रत नियम चलने से नौ रात यानी ""नवरात्र"" नाम सार्थक है। चूँकि.... यहाँ रात गिनते हैं.... इसलिए इसे नवरात्र यानि नौ रातों का समूह कहा जाता है...।
रूपक के द्वारा हमारे शरीर को नौ मुख्य द्वारों वाला कहा गया है.. और, इसके भीतर निवास करने वाली जीवनी शक्ति का नाम ही दुर्गा देवी है...।
इन मुख्य इन्द्रियों के अनुशासन, स्वच्छ्ता, तारतम्य स्थापित करने के प्रतीक रूप में, शरीर तंत्र को पूरे साल के लिए सुचारू रूप से क्रियाशील रखने के लिए नौ द्वारों की शुद्धि का पर्व नौ दिन मनाया जाता है... और, इनको व्यक्तिगत रूप से महत्व देने के लिए नौ दिन.... नौ दुर्गाओं के लिए कहे जाते हैं।
हालाँकि.... शरीर को सुचारू रखने के लिए विरेचन, सफाई या शुद्धि प्रतिदिन तो हम करते ही हैं ....किन्तु अंग-प्रत्यंगों की पूरी तरह से भीतरी सफाई करने के लिए.... हर छ: माह के अंतर से सफाई अभियान चलाया जाता है.... जिसमे , सात्विक आहार के व्रत का पालन करने से शरीर की शुध्दि, साफ सुथरे शरीर में शुद्ध बुद्धि, उत्तम विचारों से ही उत्तम कर्म, कर्मों से सच्चरित्रता और क्रमश: मन शुध्द होता है... क्योंकि, स्वच्छ मन मंदिर में ही तो ईश्वर की शक्ति का स्थायी निवास होता है।
नवरात्र में नौ देवियाँ या नव देवी इस प्रकार हैं.....
नौ दिन यानि हिन्दी माह चैत्र और आश्विन के शुक्ल पक्ष की पड़वा.... अर्थात पहली तिथि से नौवी तिथि तक प्रत्येक दिन की एक देवी..... मतलब नौ द्वार वाले दुर्ग के भीतर रहने वाली जीवनी शक्ति रूपी दुर्गा के नौ रूप हैं-
1. शैलपुत्री
2. ब्रह्मचारिणी
3. चंद्रघंटा
4. कूष्माण्डा
5. स्कन्दमाता
6. कात्यायनी
7. कालरात्रि
8. महागौरी
9. सिध्दीदात्री
इनका नौ जड़ी बूटी या ख़ास व्रत की चीजों से भी सम्बंध है.....जिन्हे नवरात्र के व्रत में प्रयोग किया जाता है-
1. कुट्टू (शैलान्न)
2. दूध-दही,
3. चौलाई (चंद्रघंटा)
4. पेठा (कूष्माण्डा)
5. श्यामक चावल (स्कन्दमाता)
6. हरी तरकारी (कात्यायनी)
7. काली मिर्च व तुलसी (कालरात्रि)
8. साबूदाना (महागौरी)
9. आंवला(सिध्दीदात्री)
और.... क्रमश: ये नौ प्राकृतिक व्रत खाद्य पदार्थ हैं।
अष्टमी या नवमी....????
यह कुल परम्परा के अनुसार तय किया जाता है... और, भविष्योत्तर पुराण में और देवी भावगत के अनुसार...... बेटों वाले परिवार में या पुत्र की चाहना वाले परिवार वालों को नवमी में व्रत खोलना चाहिए.....।
Subscribe to:
Posts (Atom)