श्रीकृष्ण और शंकराचार्य
जो लोग जगद्गुरु श्रीशंकराचार्यको शुष्क वेदांती ही मानते है वे बड़ी भूल
करते हैं वे कोरे वेदांती ही नहीं थे, बल्कि परम भक्त और सच्चे वैष्णव थे l
देवताओंके विषयमें जो कुछ कहा है सब उतम ही कहा है; परन्तु भगवान श्री
कृष्ण और उनके वाक्यों की ओर तो जगद्गुरुका विशेष अनुराग जान पड़ता है l
अपनी चर्पटपज्जरिकामें गाने -योग्य वस्तुएँ उन्हें केवल दो ही जान पड़ीं;
और वे थीं भगवद्गीता और विष्णुसहस्रनाम l (इन दोनोंपर उन्होंने अपनी अपूर्व
टीका भी लिखी है l) उन्हें इन गान-योग्य वस्तुओंके अतिरिक्त ध्यान-योग्य
वस्तु भी श्रीपतिरूप ही दिखायी पड़ी l
'ज्ञेयं गीता नामसहस्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्त्रम'
इतना ही नहीं, अपनी माताके उद्धारके समय उन्होंने जिन आठ सुमधुर और आकर्षक
श्लोकोंमें भगवान् श्रीकृष्णकी आराधना की थी, उन्हें सुनकर यदि भगवान्
प्रत्यक्ष खड़े हो गये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं l उनके बनाए हुए
श्रीभगवानका मानस-पूजन-स्त्रोत तथा गोविन्दाष्टक भी अत्यंत रोचक है l
अच्युताष्टक आदिमे भी यदपि वर्णन विष्णु भगवान का है, पर जगद्गुरुजीने
प्रधानता श्रीकृष्णजीके ही वर्णनको दी है l
इन सबसे बढ़कर उनकी
श्रीकृष्ण-भक्तिका सच्चा रहस्य उनके बनाये प्रबोध-सुधाकर ग्रंथमे जाता है l
यह छोटा-सा-ग्रन्थ बड़े तत्वोंसे भरा हुआ है और वेदांतका प्रायः प्रत्येक
विषय ऐसे सरल, सुबोध, स्पष्ट और भावपूर्ण श्लोकोंमें लिख दिया गया है की
देखते ही बनता है l
उनका स्पष्ट कथन है की कृष्णपदाम्भोजकी भक्तिके बिना अन्तरात्माकी शुद्धि नहीं हो सकती l
शुद्ध्यति हि नान्तरात्मा कृष्ण पदाम्भोजभक्तिमृते l
वसनमिव छारोदैभ्रक्त्या प्रचलायेत चेत: ll
आगे चलकर भक्तिका विषय समझाते हुए आप श्रीकृष्णकी प्रतिमा-पूजन और
श्रीकृष्ण-कथापर अनुरागको बहुत प्रधानता देते हैं इस सम्बन्धमें उनके
निम्नलिखित श्लोक सुनने लायक हैं-
स्वाश्रमधर्माचरणं कृष्णप्रतिमाchrनोत्सवो नित्यम l
विविधोपचारकरnaihrरिदासै: संगम: शश्वत ll
कृष्णकथासंश्रवणे महोत्सव: सत्यावादश्रच l
परयुवतो परद्रविणे परापवादे prandmukhta ll
ग्राम्यकथासुद्वेग: सुतीर्थगमनेषु तात्पर्यम l
यदुपतिकथावियोगे व्यर्थं गतमायुरिति चिंता ll
एवं कुर्वती भक्तिं कृष्णकथानुग्रहोत्पन्ना l
समुदेति सुच्छम भक्तिyrsyaan हरिरंतराविशति ll
वे यह समझ ही नहीं सकते की 'कोटि मनोज लजावन हारे' और वांछित फल देनेवाले
तथा दयाके सागर श्रीकृष्ण भगवानकी मनमोहिनी मूर्तिके रहते हुए मनुष्य क्यों
इधर-उधर आँखें भटकाया करते हैं -
कंदर्पकोटिसुभगं वांछितफलदं दयाnrवं कृष्णं l
त्यक्त्वा कमन्यविषयं नेत्रयुगं द्रष्टु मुत्सहते ll
फिर आगे चलकर उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णके चरितोंका रहस्य बड़ी उतम रीतिसे
समझाया है और तर्कपूर्ण प्रमाणोंसे यह सिद्ध कर दिया है की भगवान्
श्रीकृष्ण न तो एकदेशीय हैं और न विष्णुके अंशावतार ही हैं, बल्कि वे
सर्वान्त्यामी और सब अवतारोंके प्रवर्तक साछात परब्रह्म परमात्मा हैं l
यद्यपि साकारोप्यं तथैकदेशी विभाति यदुनाथ: l
सर्वगत: सर्वात्मा तथाप्ययं सच्चिदानन्द: ll
वे इनको विधि-हरि-हर इन तीनोंसे भी पृथक और तीनोसे भी श्रेष्ठ एक सत, चिन्मयी नीलिमा कहते हैं l
कृष्णो वै पृथगस्ती कोअप्यविकृत: सच्चिंमयीनीलिमा l
इस विशाल नीलेपनका आनंद वही लूट सकता हैं जिसने इस ओर कुछ अनुभव करनेका
प्रयास किया है l इस विकारहीन नीलिमामें जगतके सभी रंगोंका लय हो जाता है l
प्रश्न हो सकता है की जब भगवान् श्रीकृष्णका वास्तविक स्वरुप इस
प्रकारका है तब वे अवाडमनसगोचर और निर्विकार रहते हुए भी किस प्रकार
भक्तोंकी आशा पूर्ण कर उन्हें सत्य और आनंदके अमृतसे सराबोर कर देते हैं l
इसके उतरमें जगद्गुरु शंकराचार्यने कछुवा और आकाशका उदाहरण देते हुए
निम्नलिखित तीन श्लोक बड़े ही अच्छे कहे हैं -
सुतरामनन्यशरणा: chiradhyaहारमन्तरा यद्वत l
केवल्या स्नेहदृशा कच्छपतनया: प्रजीवन्ति ll
यद्यपि गगनं शून्यं तथापि जलदामृतांशुरूपेण l
चातकचकोरनाम्रोदृढभावातपुरयत्याशाम ll
तद्वदव्रजतां पुंसां दृगवाडमनसामगोचरोअपि हरि: l
कृपया फलत्यकस्मातसत्यानन्दामृतेन विपुलेन ll
अब जरा श्रीशंकराचार्यके ध्येय भगवान् श्रीगोपालका ध्यान उन्हीके शब्दोंमें कीजियें-
यामुनानिकटतटस्थितवृन्दावनकानने महारम्ये l
कल्पद्रुमतलभुमो चरणं चरणोपरि स्थाप्य ll
तिष्ठन्तं घननीलं स्वतेजसा भासयंतमिह विश्वम l
पीताम्बरपरिधानं चन्दनकपुर्रलिप्तसर्वांगम ll
आकर्णपूर्णनेत्रं कुंडलयुगमंडितश्रवणम l
मंदस्मितमुखकमलं सुकोस्तु भोदारमणिहारम ll
वलयांगुलियकाध्यानुज्ज्वलयन्तं स्वलंकारान l
गलविलुलितवन्मालं स्वतेजसापास्तकलिकालम ll
गुंजारवालिकलितं गुंजापुन्जान्विते शिरसि l
भुज्जानं सहगोपे: कुन्जान्तरvatirनं हरिं स्मरत ll
यमुनाजीके तीरपर महान रमणीय वृन्दावनमें कल्पवृछ (कदम्ब)- के नीचे
पृथ्वीपर अपने चरणपर चरण रखे भगवान् बैठे हुए हैं, आपका घन नील वर्ण है,
अपने तेजसे समस्त विश्वको प्रभासित कर रहे हैं, पीताम्बर धारण किये हैं,
समस्त अंगमें चन्दन, कर्पुर लगाए हैं, विशाल नेत्र हैं, दोनों कानोंमें
कुंडल शोभित हैं, मुखकमलपर मंद मुसुकान छा रही है l कौस्तुभमणिसे युक्त हार
पहने हुए हैं, कंकण, अंगूठी-प्रभृति अपने अलंकारोंको अपने ही प्रकाशसे
समुज्ज्वल कर रहे हैं, गलेमें वनमाला लटक रही है, अपने तेजसे कलियुगको
निराश कर रहे हैं, घुन्घचियोंसे अंगोंको सजा रखा है, सिरपर भ्रमर गुंजार कर
रहे हैं और किसी कुन्जके अन्दर बैठकर गोपोंके साथ वन-भोजन कर रहे हैं, ऐसे
श्यामसुन्दरका स्मरण करना चाहिये l
मंदारपुष्पवासितमंदानिलसेवितं परानन्दम l
मन्दाकिनीयुतपदं नमत महानंददं महापुरुषम ll
सुरभिकृतादिगवलयं सुरभिशतैरावृतं सदा परित: l
सुरभीतीछपणमहासुरभीमं यादवं नमत ll
जो कल्पवृछके पुष्पोंकी सुगन्धयुक्त मंद वायुसे सेवित हैं, श्रीगंगाजी
जिनके चरणोंमें स्थित हैं, जो महानंदस्वरुप महापुरुष हैं, जिन्होंने
सम्पूर्ण दिशाओंको अपने अंग-सुगंधसे सुगन्धित कर रखा है, सैकड़ों गौओंसे जो
सदा घिरे रहते हैं, देवताओंके भयको नाश करनेके लिये जो महान भीषण रूप धारण
करते हैं l उन्हीं यादवपतिको नमस्कार करना चाहिये l
------
पंडित श्रीबलदेवप्रसादजीमिश्र (ये लेख कल्याण के छठवें वर्ष के विशेषांक
श्रीकृष्णान्क में विक्रम संवत १९८८ में प्रकाशित हुआ था )
No comments:
Post a Comment