Thursday, July 7, 2016

: वातावरण परिशोधन :
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वाल्मीकि रामायण में एक कथा आती है कि यज्ञाग्नि में सीताजी ने प्रवेश किया था और उनके अग्नि में प्रवेश करने के बाद उनके स्थान पर एक नकली सीता उत्पन्न हुई थी। वही रावण के यहाँ चली गयी थीं। रावण को मारने के बाद में रामचंद्र जी जब उनको वापस अपने घर ले आये, तो गुरु वसिष्ठ कहा कि हमको तो असली सीता चाहिए। असली सीता चाहिए, तो वे वहीं से निकलेंगी, जहाँ आपने जमा कर दिया था।
उस बैंक के लॉकर में, जहाँ आपने पैसा जमा कर दिया है, वहीं से तो निकालेंगे।
यज्ञ में ही तो जमा किया था। नई वाली सीता को यज्ञाग्नि में परीक्षा ली गई। अग्नि परीक्षा के बाद वह नकली वाली सीता उसी में रह गई और असली वाली सीता उछलकर बाहर आ गई।
यही थी यज्ञाग्नि परीक्षा।
यज्ञाग्नि का हमारे अतिधन्य पुराणों में जगह-जगह पर वर्णन मिलता है । फिर क्या किया ?
रावण को मारने के पश्चात् जब भगवान् राम अयोध्या आ गये, तब गुरु वशिष्ठ विचार करने लगे। उन्होंने कहा कि, “ बेटे राम!” रावण मारा गया, कुम्भकरण मारा गया, खर-दूषण मारा गया, मेघनाद मारा गया? उसके खानदान वाले मारे गये ?
हाँ गुरुदेव।
लेकिन तुझे एक बात का ध्यान नहीं है कि सारे के सारे वातावरण में, जो राक्षसों ने असुरता के तत्व भर दिये थे, वे जब पैदा होंगे, तो हमारी नई पीढ़ी के बच्चों पर हावी हो जायेंगे।
अब आप विचार करना दो वर्ल्डवार-विश्वयुद्ध हो चुके हैं-फर्स्ट वर्ल्डवार एवं सेकेण्ड वर्ल्डवार। इन दोनों लड़ाइयों-विश्वयुद्धों में जो गोला बारूद चलाया गया है, जो आदमी मरे हैं, जो चीत्कार हुआ, जो हाहाकार पैदा हुआ है, वह लौटकर पृथ्वी पर आया है और नई पीढ़ियाँ जो पैदा होकर आ रही हैं, वे सारी की सारी उस वातावरण से प्रभावित होकर आ रही हैं। नई पीढ़ियों को देखकर हम सोचते हैं कि यह क्या हो गया है? अच्छे घरों में पैदा हुए बच्चों को क्या हो गया है? ये खराब आदत के बच्चे कहाँ से आ गये? जब हम गहराई से देखते हैं, तो पाते हैं कि यह दो महायुद्धों की वजह से जो वातावरण खराब हुआ था, उसका असर अभी भी है।
यज्ञ द्वारा विषाक्तता का निवारण गुरु वशिष्ठ जी ने रामचंद्र जी से कहा था कि आपने रावण को मारकर लंका के राक्षसों को खत्म करके जो पुरुषार्थ किया, अभी उससे भी एक बड़ा पुरुषार्थ करने की जरूरत है। वह जरूरत क्या है? यज्ञीय प्रक्रिया द्वारा सारे के सारे वातावरण को, जिसमें राक्षसपन और असुरता सूक्ष्म रूप से छाई हुई है, शोधित करना है। अन्यथा अगर यही वातावरण बना रहा, तो यह फिर से मुसीबत पैदा करेगा।
आप वाल्मीकि रामायण में पढ़िये, जिसमें उन्होंने लिखा है कि रामराज्य के स्थापित होते ही रामचंद्र जी ने दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। वह दशाश्वमेध घाट अभी भी गंगा किनारे बनारस में बना हुआ है। वहाँ भगवान् राम और गुरु वशिष्ठ ने रामराज्य की स्थापना करने के लिए उपयुक्त वातावरण बनाने के लिए अश्वमेध यज्ञ किये थे।
वे जानते थे कि यज्ञ के अतिरिक्त और कोई सहायता नहीं कर सकता।
जैसा कि मैंने आपको भगवान् रामचंद्र जी और सीताजी के बारे में बताया कि उनका सारा जीवन यज्ञीय-प्रक्रिया में चला गया।
भगवान् श्रीकृष्ण का भी ऐसे ही हुआ। पाण्डवों की विजय होने के पश्चात्, महाभारत की विजय होने के पश्चात् उन्होंने भी ऐसा ही किया। उन्होंने क्या काम किया? उन्होंने पाण्डवों से कहा कि कंस मारा गया, दुर्योधन और दुःशासन मारे गये। जरासंध वगैरह मारे गए और दूसरे मारे गये, लेकिन वातावरण में वह आसुरी गंदगी अभी भी भरी पड़ी है। यदि यह वातावरण फिर से बरसने लगा, तो मलेरिया की तरह से और दूसरे कीटाणुओं की तरह से दुनिया में फिर से तबाही लायेगा। तो क्या करना चाहिए? आसुरी मनुष्यों को मार डालना काफी नहीं है, वरन् उस वातावरण का परिशोधन करना भी अनिवार्य है। क्या करना चाहिए? श्रीकृष्ण भगवान् ने पाण्डवों को इसके लिए सलाह दी थी कि आपको ऐसा आयोजन करना चाहिए, ऐसा यज्ञ करना चाहिए, जिससे कि वातावरण का परिशोधन करने में मदद मिले। पाण्डवों ने यही किया था। उनने राजसूय यज्ञ किया था, जिसमें श्रीकृष्ण भगवान् ने पैर धोने का काम अपने जिम्मे लिया था। बहुत बड़ा आयोजन हुआ था, आपने पढ़ा-सुना होगा। पौराणिक आख्यान में।
मैं क्या कह रहा था? यह कह रहा था कि रामचंद्र जी और श्रीकृष्ण भगवान्-दोनों के दोनों इसी यज्ञीय प्रक्रिया को अपनाकर चले? सीताजी की अग्नि परीक्षा और अग्नि में से पैदा होने की बात मैंने आपसे कह दी। महाभारत में भी द्रौपदी के बारे में ऐसा ही वर्णन आता है कि वे एक यज्ञ में से पैदा हुई थीं। महाभारत की मूल भूमिका निभाने वाली एक महिला थी, जिसका नाम था-द्रौपदी। इसकी वजह से महाभारत हुआ। इसी तरह से लंका का निराकरण और रामचंद्रजी का उद्देश्य पूरा करने में एक ही महिला थी। सारे का सारा खेल उसी के लिए रचा गया। सारे के सारे राक्षसों का विनाश एवं लंका का दहन करने के लिए सीताजी की जिम्मेदारी है और उधर महाभारत में किसकी जिम्मेदारी है? द्रौपदी की जिम्मेदारी है। दोनों महिलायें यज्ञ में से उत्पन्न हुई हैं। वे यज्ञ की अनुकृतियाँ थीं। यज्ञ की प्रतिक्रिया थीं। यज्ञ की वरदान थीं।
वातावरण के बारे में मैं कह रहा था कि इसके परिशोधन से क्या होता है। आप तो इसका महत्त्व ही नहीं समझते। अगर आपकी समझ में यह नहीं आता, तो आप साईकिल लेकर चलना और यह देखना कि हवा का रुख किधर जाता है। हवा का रुख यदि आपके पीछे होगा, तो आप एक घंटे में दस मील चल लेंगे और अगर हवा का रुख सामने होगा, तो एक घंटे में आपको पाँच मील पार करना भी मुश्किल पड़ जायेगा। आपके घुटने दुखने लगेंगे और आपका कचूमर निकल जायेगा। आँखों में कूड़ा पड़ गया, सो अलग और आफत आयेगी। साईकिल कभी इधर जायेगी, कभी उधर जायेगी। नाँव में अगर हवा पीछे की तरफ होती है, तो वह अपने आप तेजी से आगे की तरफ भागती जाती है और जब हवा आगे की ओर होती है, तब मल्लाह को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, आप पता लगाना। तब मल्लाह बतायेगा कि भाई साहब! अगर हवा पीछे की तरफ हो तब तो हमारी नाँव बहुत तेज चलेगी और अगर सामने होगी, तब तो आफत ही आ जायेगी। फिर नाँव को खेना और हवा का सामना करना हमारे लिए मुश्किल पड़ता है।
मैं आपसे वातावरण की अनुकूलता के बारे में कह रहा हूँ। वर्षा ऋतु आती है, तो हवा में ठंडक होती है, वातावरण में ठंडक होती है। वातावरण में पानी होता है। पौधे तेजी से उगते हुए चले जाते हैं। क्यों साहब! हम तो गर्मी में गेहूँ बोयेंगे। गर्मी में गेहूँ बोयेंगे तो सही, जमीन भी ठीक है, खाद भी ठीक है, पानी भी लगा लेंगे, पर वातावरण अनुकूल नहीं है, इसलिए आपके गेहूँ की फसल होगी नहीं। गेहूँ उग भी जायेगा, तो फलेगा नहीं। फलेगा तो, आपके काम का साबित नहीं होगा। अच्छा तो बरसात में बोइये। बरसात में क्या बात है? बरसात में वातावरण है। इसमें पौधा उगने का वातावरण आता है, तो घास की सूखी हुई जड़ें, जो जमीन में होती हैं, उनमें कोई पानी लगाने की भी आवश्यकता नहीं होती। हवा में जैसे ही नमी आती है, सब के सब पैदा हो जाते हैं। नई घास पैदा हो जाती है। कीड़े-मकड़े पैदा हो जाते हैं। मच्छर पैदा हो जाते हैं, केंचुए पैदा हो जाते हैं और न जाने कौन-कौन पैदा हो जाते हैं? इन्हें कौन पैदा करता है? वातावरण पैदा करता है। अनुकूल वातावरण बनाने के लिए, जिसमें कि हम नये युग के अनुरूप परिस्थितियाँ पैदा कर सकें और नए युग के अनुरूप मनुष्य पैदा कर सकें। इसके लिए हमारे भौतिक प्रयत्न ही काफी नहीं हैं, वरन् हमारे सूक्ष्म आध्यात्मिक प्रयत्नों की भी आवश्यकता है। इन सूक्ष्म प्रयत्नों को, आध्यात्मिक प्रयत्नों को आप मानते हों, आप अंतर्जगत को मानते हों, सूक्ष्म जगत् को मानते हों, दैवी जगत् को मानते हों और आप दैवी-प्रतिमा को मानते हों, तो आपको यह भी मानना पड़ेगा कि केवल भौतिक प्रयत्न ही सब कुछ नहीं होते हैं, आध्यात्मिक प्रयत्नों का भी अपने आपमें मूल्य है। और आध्यात्मिक अनुकूलता और वातावरण की अनुकूलता भी अपने आपमें कुछ मायने रखती है। यह सब कैसे होगा ? यज्ञ से बनेगा वातावरण । बिना यज्ञ के वातारण का परिशोधन नहीं होगा । चाहे कुछ भी कर लो । योग्य संतान कभी उत्पन्न नहीं होंगे ।
इसलिए घर – घर में यज्ञ की प्रक्रिया शुरू करिए । बिना इसके अनिष्ट ही अनिष्ट होगा !

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