Sunday, April 29, 2012

Moksh kya he? मोक्ष क्या है?

मोक्ष  वो  सुअवसर  हे  जब  हम  सम्पूर्ण  सकारात्मक  भाव  में  होते  हे,  जब  हम  निर्विचारिता  की   स्थिति  में  होते  हे , हमारे  अन्दर  कोई  कमाना  बची  न  हो , किसी  भी  व्यक्ति  के  लिए  बुरा  भाव  न  हो , ऐसी  शून्य  की  स्थिति  में  जब  मृत्यु आती  हे  तब  हमे  मोक्ष  की  प्राप्ति  होती  हे .

मोक्ष  के  बारे  में  भी  हमारी  गलत  धारणाये  हे  जैसे  की  कोई  व्यक्ति  मर  जाता  हे  तो  लोग  इश्वर  से  प्रार्थना   करते  हे  और  मानते  हे  उससे  उस  मरनेवाले  की  आत्मा  को  शांति  प्राप्त  होगी  और  मोक्ष  मिलेगा , किसी  की  मृत्यु  पर  प्रार्थना  कर  बहुत  अच्छी  बात  हे  पर  वास्तव  में  शारीर  से  मरना  मोक्ष  नहीं  हे , जब  हमारा  सारा  लगाव, बंधन, साड़ी माया  जीते  जी  छुट  जाते   हे  और  उसके  बाद  अगर  मृत्यु  आये  तो  आत्मा  को  मोक्ष  की  स्थिति  प्राप्त  होती  हे . मोक्ष   एक  स्थिति  हे  उसको  जीते  जी  प्राप्त  करना  पड़ता  हे . होता  क्या  हे  शारीर  मरने  के  निकट  पहोंच  जाता  हे  पर  और  जीने  की  लालसा  समाप्त  नहीं  होती . एक  सड़क  पर  बुरी  हालत  में  एक  भिखारी  पड़ा  हे  उसको  भी  अगर  आप  कहोगे  की  इस  स्थिति  में  जीने  से  अच्छा  तो  मर  जाना  और  वो  बोलेगा  नहीं  नहीं  मुझे  तो  और  जीना  हे , ये  और  जीने  की  लालसा  दूसरा  जन्म  लेने  क  लिए  प्रेरित  करती  हे .

मोक्ष  के  बारे  में  एक  और  गलत  धारणा  समाज  में  हे  वो  यह  की  पुत्र  प्राप्ति  से  ही  मोक्ष  मिलता  हे . हमारी  हिन्दू  संस्कृति  में  और  ग्रंथो  में  यह  बात  लिखी  भी  हे  और  वो  एकदम  सही  हे  पर  मनुष्य  ने  इसका  गलत  मतलब  निकल  दिया  हे . पुत्र  प्राप्ति  से  मोक्ष  मिलेगा  यानि  मनुष्य  सोचता  हे  की  किसी  स्त्री  के  माध्यम  से  लड़के  का  जन्म  होना  पर  ये  सही  नहीं   हे  हमारे  ऋषियो  ने  जो  लिखा  हे  उसका  ये  मतलब  हे  एक  आत्मा  के   माध्यम  से  दूसरी  आत्मा  का  जन्म  होना , मोक्ष  की  स्थिति  तो  आत्मा  को  मिलती  हे  शारीर  को  नहीं   तो   फिर  पुत्रप्राप्ति  भी  आत्मा  को  होती  हे  न  की  शारीर  को , इसका  अर्थ  ये  होता  हे  के  अपने  आत्मजागृति  के  ज्ञान   से  किसी  दूसरी  आत्मा  की  आत्मजागृति  करवाना .
--- कृष्णा  पटेल  जे बी एस , वडोदरा 

ध्यान क्या है? what is Dhyaan?

ध्यान  यानि  वर्त्तमान  में  रहना , जहा  कोई  भूतकाल  और  भविष्यकाल  के  विचार  न  हो . ऐसे  समय  में  मन  निर्विचारिता  की  स्थिति  को  प्राप्त  करता  हे  तब  हमे  आत्मा  जिस  परमात्मा  का  अंश  हे  उसके  साथ  एक  होने  का  अनुभव  होता  हे . अर्थात  आप  मन  की  शांति  और  दिव्या  चैतन्य  का  सुखद  अनुभव  करते  हो  क्युकी  परमात्मा  की  शक्ति  विस्वचेतना  के  रूप  में  हमारे  ही  भीतर  विद्यमान  हे .

जो  इस  ध्यान  साधना सम्पूर्ण  समर्पण  क  भाव  से  करने  से  निर्विचार  स्थिति  पाने  में  अधिक  आसानी  होती  हे . जो  आप  आपके  सद्गुरु  के  प्रति  सम्पूर्ण  भाव  रखो ,जो  इश्वर  की  शक्ति  का  जिवंत  माध्यम  हे  तो  आप  आसानी  से  विस्वचेतना  की  अनुभूति  का  आनंद  ले  सकते  हो . जो  विश्व  के  कण  कण  में विद्यमान  हे . जिस  तरह  फूलो  की  सुगंध  को  शब्दों  में  वर्णन  नहीं  किया  जा  सकता  ठीक  इसी  तरह  से  सुखद  शाश्वत  आनंद  की  अनुभूति  शब्दों   से  परे  हे , अवर्णीय  हे  और  अलोकिक  हे . देखा  जाये  तो  कस्तूरी  मृग  की  तरह  शास्वत  सुख  का  खजाना  हमारे  ही  भीतर  हे  और  अगर  उसको  आसानी  से  चाहते  हो  तो  सबसे  सरल  उपाय  हे  समर्पण  ध्यान .

ध्यान  से  होने  वाले  लाभ :

ध्यान  वो  साधना  हे  जिस  से  हमारा  सम्बन्ध  विस्वचेतना  से  जुड़ता  हे , जो  परमात्मा  की  शक्ति  हे  और  वो  ही  शक्ति  हम  से  सारा  कार्य  करवाती  हे , जिस  के  परिणाम  स्वरुप  हमारे  समग्र  व्यक्तित्व  का  विकास  होता  हे .

शारीरिक  स्तर  पर : जैसे  जैसे  हमारी  ध्यान  में  प्रगति  होती  वैसे  वैसे  हमे  रोगों  से  सम्पूर्ण  मुक्ति  मिलती  हे  और  हम  तंदुरस्त  और  स्वस्थ  व्यक्ति  बन  जाते  हे  और  स्वस्थ  शारीर  में  रोगप्रतिकार  शक्ति  यानि  की  immunity power भी  बढ़ता  हे .

मानसिक  स्तर  पर : तनाव , भय , आत्मग्लानी  और  निराशा  जैसे  मानसिक  रोगों  से  मुक्ति  मिलती  हे . भूतकाल  की  दुखद  घटनाओ  से  छूटकर  मिलता  हे  और  भविष्य  की  चिन्ताओ  से  भी  छुटकारा  मिलता  हे  और  हम  वर्तमान  काल  में  शांतिपूर्ण , सुखमय  जीवन  का  आनंद  ले  सकते  हे .

सामाजिक  स्तर  पर : जीवन  में  संतोष ,शांति ,आनंद  प्राप्त  होने  से  हम  सम्पूर्ण  संतुलित  अवस्था  में  कार्य  करते  हे . जिस  से  जीवन  में  सफलता  मिलती  हे . हमारी  आर्थिक  स्थिति  भी  संतुलित  रहती  हे  और  हम  हमारे  अन्दर  परिपूर्णता  का  अनुभव  करते  हे.

आध्यात्मिक  स्तर  पर : ध्यान  द्वारा  हम  निर्विचार  स्थिति  का  अनुबह्व  करते  हे , आप  को  आत्मा  की  अनुभूति  होने  लगती  हे  और  धीरे  धीरे  हम  उस  में  प्रगति  कर  के   आत्म्शाक्षत्कर  पा  सकते  हे .
----  कृष्णा  पटेल  जे बी एस , वडोदरा 

Kundalini Energy

Is a name given to the Divine Energy that enters our body whilst we are in our mother's womb. It enters through the crown and passes through the central channel of the body and settles into the triangular structure at the base of the spine. On entering the body it energies all the chakras – the active chakras receive this energy and the inactive chakras remain weak and do not develop – for example during pregnancy if the mother has a feeling of guilt then the child's Vishuddhi chakra becomes weak since birth and he / she has throat related problems and discredit and is unsuccessful in all areas. Kundalini energy is a basic life force for the person to exist. After birth it lies dormant within the physical body until it is awakened. Kundalini is the vehicle for the expansion of consciousness, enabling the individual to fully develop his/her innate potential and rise to the level of divinity.
According to Kundalini teachings there are seven major energy centers or chakras within the physical body. Each of these energy centers affects and are affected by the way that we respond to life and the people and energies around us. Apart from Kundalini there are three major energy channels (Nadi) in our physical body

The left channel (Chandra Nadi)
The right channel (Surya Nadi)
The central channel (Madhya Nadi)
When a person is thinking about past his/her attention is in left channel, when thinking about future attention is in right channel and in thoughtless state in central channel.
Once the dormant Kundalini Energy is awakened, it travels up the spine of the person piercing seven energy centers (Chakras) and reaches the top of the head, cleansing and clearing blockages int the Chakras that stand in the way of our spiritual progress and opening the connection to the Universal Consciousness through the chakra on the top of our head called as Crown or Sahastrar chakra.

Whereas many Kundalini meditations and practises (devotional singing, spiritual worship etc.) can awaken Kundalini Energy, it may rise up to the Brow chakra from where only a living Divine Master, one of the very high Consciousness can rise the Kundalini to Crown chakra. In Samarpan Meditation with pure desire to experience the divine, just by pure wish one can experience the awakening of Kundalini energy.
------------ Krishna Patel Jbs, Vadodra

The Seven Chakras

As per explained by Krishna Patel Jbs----
1. Muladhar (Root) Chakra : It is located at the base of the spine and it is a foundation stone in our body. Here you have to be totally receptive - like a small innocent child. The Kundalini Energy is feminine power ? always be aware of the divine power in all women and must give due respect to women. Weakness in Muladhar chakra invites disease like Cancer, Piles, Aids, Sex related problems By remaining in contact with Earth element one can strengthen Muladhar Chakra.

2. Swadhishthan Chakra : It is located near the pubic area and is related to thoughts. Excessive thoughts lead to diabetes ? you can control this through regular meditations. start observing your thoughts every hour ? if you are in the past tell yourself to let go let bygones be bygones ? later if you check you are in the future ? tell yourself who knows about the future for sure ? so let it go - both the thoughts waste your energy. Due to this whatever you do is not done fully. If you save this energy you will increase your efficiency.

3. Nabhi (Navel) Chakra : It is located near the navel. Dissatisfaction is primary cause of blockage in Nabhi chakra. If your focus is your own selfish and unfulfilled desires ? this causes the nabhi chakra to be blocked. To purify this chakra you must divert attention to other?s problems instead of your own. This helps solve all problems related to this chakra. Spiritual progress begins from Nabhi chakra only and Satisfaction is the first step to progress in Meditation.

4. Hrudai (Heart) Chakra : It is located at the center of the heart, This chakra is based on faith, full faith on the Divine means a healthy developed heart chakra. Weakness in heart chakra attracts heart related disease.

5. Vishuddhi (Throat) Chakra : It is located at throat and is responsible for success in life. Problems related to Throat chakra are Guilty conscious, Deception, Work against the conscious, Dramatisum, Lies, Failure etc. In order to develop this chakra you have to firmly believe that there is only one Supreme Consciousness and that all external religions lead to One. Once this chakra develops you will be successful in your life. 

6. Agya (Brow) Chakra : It is located between eyebrows and is related to nervous system. Weakness in Agya chakra attracts mental problems. You have to forgive all in order to develop this chakra. Agya Chakra is also called the Masters abode because only a living highly developed Divine Master can raise Kundalini from Agya chakra to Sahastrar Chakra.

7. Sahastrar (Crown) Chakra : It is located at the top of the head. This is the place where Kundalini Energy finally rests, from this point you connect to the Divine Consciousness and attain the thoughtless state. The Chitta (Mind element) must be centered in the central channel - not left or right. Kundalini reaches the Sahastrar using the centered mind through the central channel. On reaching the Sahastrar there is a chemical processing which releases hormones which activate all the glands and make them healthy ? and make you feel relaxed. Whatever fatigue you feel during work is mainly due to thoughts, 90% energy is wasted due to mental thoughts and only 10% due to physical strain. By Meditation you can save and reserve this energy and use it in whatever work you do ? thus you put in full energy, concentration and commitment into your work and the outcome will be much better.

Saturday, April 28, 2012

Modern Physics Found Its Direction from Vedanta

Werner  Heisenberg,  a scientist with a spiritual bent of mind, was elated and inspired after coming to Shantiniketan. While living in Germany he had heard and read a great deal about india. He had heard many stories and praises of Ved mantras, Vedic rishis and theirAshrams. Great poet of Germany, Goethe was his most favourite poet. Werner Heisenberg had read german translation of Abhigyan Shankuntalam of Kalidas by Goethe many a times.   He knew many verses of this poem by heart. Rishi Knava and the poetic description of the natural beauty of his Ashram had always impressed him. That day in Shantiniktan he was experiencing,in real life, all that he read about – the greenery of Shantiniketan, the plants standing like youth adorned in green and the creepers embracing these plants, the multicolored scenic beauty spread all around and the air scattering enchanting fragrance. All this seemed as if Mother Nature has spread one end of her anchal (fabric) in extreme fondness for the human life.
The very first sight of Shantiniiketan had impressed Heisenberg very much. After wandering through and seeing all over he felt as if the entire ashram is personification of one of the beautiful poems of the great poet, Rabindranath Tagore, in which Vedc period, Vedic rishisand abodes of the rishis have come alive all in one. The thoughts and emotions of this poet got transformed into objects and not words and that the poet, who enfolded the endless waves of love and affection for the humanity in his heart, was the combined personification of the great poets Goethe, Kalidas and rishi Kanva. For the young Heisenberg to see him, to converse with him, to sit in his company was like the dream world coming true. For the last nine years during which he had been doing atomic researchh along with his fellow scientists; he had been writing letters to Rabindranath Tagore.
In 1920 Heisenberg along with Neils Bohr of Denmark, Louis de Broglie of France, Erwin Schrodinger and Wolfgang Pauli and Paul Dirac of England had started research on the nature of atom. The myth that the smallest particle of the matter was atom or nucleus had already been shattered. By now science had gone beyond electron, proton or neutron. Even after the discovery of baryons, mesons, tachyons and around 20 companions of these smaller particles, it was still unclear whether there was any still smaller constituents of the matter; if yes, what was that? All these scientists, ignoring the narrow boundaries of their nations and the political and diplomatic limits, were in constant touch with each other in finding the truth.
During the course of their research all these scientists at sometime or the other felt that perhaps fundamentally there was nothing like matter; as, while studying the vibrations, they had found out that the reality of the atoms was the waves of energy. After understanding this reality they abandoned the particle theory and initiated the study of wave mechanics. At this juncture Heisenberg was reminded of India and the philosophy of Indian rishis. Though he had been engaged in this research for about 9 years and during all this period he had been in correspondance with Rabindranath Tagore, in the year 1929 he decided to visit India and that day he was in Shantiniketan in the season of mild winter. After reaching Shantiniketan he gave a detailed report of his investigation, along with his associates to Babu Rabindranath Tagore and then in a dissappointed tone mentioned – “ While discovering the smallest particle of matter, now it seems that the notion of the matter is a myth; then what is the reality?”  In answer to this Rabindranath melodiously uttered a shloka (verse) from ‘Vivek Chudamani’ a composition of the great Acharya of Advaita, Adiguru Shankaracharya –


Yadidam sakalam vishwam nanarupam prateetmagyanat.
Tatsarvam brahmaiva pratyastasheshabhavanadosham.
Out of the ignorance the entire universe seems to be of varied forms and names, but in reality this is Brahma, devoid of the defects of all emotions.”


With this the poet had taught him the essence, the fundamental secret of the philosophy of Vedanta – “ The matter and all its forms are myth; to that extent the energy, which is the subtle form of matter and its variations, is also false. The reality is that all the differences whether of matter or of the various forms of the nature, all of those are illusions. What is truth is undifferentiated and that is Brahma – that is certain and everything else is uncertain”.
This concept of Vedanta, experience of Acharya Shankar, was well assimilated by Heisenberg. For many days, he was engaged in discussion on the Advaita truth of Vedanta with Rabindanath Tagore. During the course of these conversations Rabindranath  informed him about Swami Vivekananda, who had revived the Vedic wisdom in this era. He himself accompanied Heisenberg to Dakshineshwar and shown him the room where Vivekananda used to sit, listening to the teachings of his Gurudev Ramakrishna Paramhansa. Then he took him to the Belur Math, the headquarters of Ramakrishna Missions, which was established as the Yugateerth of Advaita Vedanta.There, while illucidating one saying of Vivekananda, he mentioned – “ All the differences whether these are social, biological or natural are myth. Only truth is one, which is undifferentiated and that is Brahma”.
“What is Brahma”?, Enquired the young Heisenberg with great curiosity. In reply to this, Rabindra Babbu, standing at the banks of Ganga near Belur Math pointed to the magnificent water of Ganga, ignoring all the imaginary differences of the varied shapes and temeratures of water particles and said –


Nirastmayakritasarvabhedam nityam sukham nishkalamaprameyam.
Aroopvyaktamanakhymavyayam jyotih swayam kinchididam chakasti.
“He is free from all imaginary differences; He is eternal bliss, devoid of art and is not a subject of proofs, etc. He is some unexpressed, unnamed, and indestructible light which is glowing on its own.”


After listening to the experiential verse of Acharya Shankar in the melodious voice of the poet Rabindranath, Heisenberg found a new direction for his research. After returning from India, impressed by the Advaita philosophy; he postulated the Principle of Uncertainty. After many years, on 11th April 1972 in the city of Munich in Germany, when the famous physicist Fritjof Capra visited him, Heisenberg narrated many of his experiences and said – the scientifc spirituality, pioneered by India is the need of the present Era.
This inspiration has provided the basis for the historical creation of the masterpiece “The Tao of Physics”, by Fritjof Capra. In this connection Capra met Heisenberg again in the year 1974 and showed him the manuscript of his book. Heisenberg was delighted to see that and said – “After all, the scientific study and exposition of spirituality has begun !” After that in November 1975 Fritjof Capra sent him the first copy of the published book “The Tao of Physics”. Heisenberg read that book for sure but could not write his comments as he died before he could do it. A few days before his death he mentioned to on eof his friends: “The scientists of the world should study the spiritualists of India, especially Swami Vivekananda. He is such a spiritual sage of India, whose thoughts can become the basis of modern scientific research.”


courtesy:  Dr. Pranav Pandya

भगवान के अवतार के भेद

A COMPLETE NOTE BY "ACHARYSIYARAMDAS NAIYAIK


भागवत में एते चांशकला पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्-१/३/२८ में भगवान के अंश और कला इन दो अवतारों की चर्चा हुई है !यहाँ च शब्द से पूर्णावतार का संकेत किया गया है! च शब्द जिसे साक्षात् नहीं कहा गया उसका संकेत करता है! इसीलिए विद्वान चकरोsनुक्त समुच्चयार्थकः कहते हैं! श्रीराम कृष्ण और नरसिंह भगवान में ज्ञान शक्ति बल ऐश्वर्य तेज तथा वीर्य ये छः गुण पूर्ण रूप से विराजमान है अतः ये तीनों पूर्णावतार हैं !भागवत श्रीधरी के ऊपर प्रसिद्द टीका वन्शीधरी में रामावतार के प्रसंग में नवम स्कंध में यह स्पष्ट किया गया कि श्रीराम पूर्णावतार है –
“रमन्ते योगिनोन्ते सत्यांनन्दे चिदात्मनि!
इति राम पदेनासौ परब्रह्माभिधीयते !!” –
रामतापनीयोपनिषद ! इससे यह निश्चित हुआ कि अवतार ३ प्रकार के होते हैं पूर्णावतार; अंशावतार और कलावतार! इनमे कुछ अंशावतार हैं जैसे मत्स्य कूर्म वराह आदि और कुछ कलावतार हैं जैसे सनक सनंदन नारद आदि! भगवान का जब जीव में आवेश आता है तब कलावतार होता है ! भागवतामृत में इस तथ्य की चर्चा इस प्रकार की गयी है --ज्ञान शक्ति आदि कलाओं से भगवान जिस जीव में आविष्ट होते हैं वे महान जीव कलावतार कहे जाते हैं -
“ज्ञान शक्त्यादिकलया यत्राविष्टो जनार्दनः !
त आवेशा निगद्यन्ते जीवा एव महत्तमाः !!
वैकुण्ठेपि यथा शेषो नारदः सनकादयः !!”
जैसे वैकुण्ठ मे शेषनाग नारद जी और सनकादि ! पद्म पुराण मे भी कहागया है कि सर्व व्यापक भगवान् सनकादि तथा नारद आदि मे आविष्ट होते हैं! शंख चक्र गदाधारी भगवान पृथु जी में क्रिया शक्ति के अंश से आविष्ट हुए -
"आविवेश पृथुम् देवः शंखी चक्री चतुर्भुजः !"
परशुराम जी में अपनी शक्ति के अंश से आविष्ट हुए ---
“एतत्ते कथितं देवि जामदग्नेर्महात्मनः !
शक्त्यावेशावतारस्य चरितं शार्ङ्गिणः प्रभोः!!”
और कलियुग के अन्त मे विप्रवर ब्रह्मवादी कल्कि में जगत्कर्ता भगवान प्रविष्ट होकर संसार का पालन करते हैं --
“कलेरन्ते च संप्राप्ते कल्किनं व्रह्मवादिनम् !
अनुप्रविश्य कुरुते वासुदेवो जगत् स्थितिम्!!”
भगवान के इन अवतारों में सनत कुमार नारदादि क्रमश: ज्ञान भक्ति तथा शक्ति के अंश से आविष्ट है! महाराज पृथु आदि क्रिया शक्ति के अंश से आविष्ट है! भगवान के ये आवेशावतार महाशक्ति एवं अल्पशक्ति के भेद से दो प्रकार के है! महाशक्ति के आवेश से जो सनकादि तथा नारदादि प्रकट होते है! ये अवतार कहे जाते है! एवं अल्पशक्ति के आवेश से जो जीव उत्पन्न होते है! वे विभूति कहे जाते है! जैसे मरीचि आदि !
--- आचार्य सियारामदास  नैयायिक 

विद्युत बैटरी का आविष्कार बेंजामिन फ़्रेंकलिन ने नहीं किया था


समान्यतः हम मानते हैं की विद्युत बैटरी का आविष्कार बेंजामिन फ़्रेंकलिन ने किया था, किन्तु आपको यह जानकार सुखद आश्चर्य होगा की बैटरी के बारे में सर्वप्रथम एक हिन्दू ने विश्व को बतलाया । यह जानकारी नरेश आर्य जी के सौजन्य से प्राप्त हुई है।
अगस्त्य संहिता में महर्षि अगस्त्य ने बैटरी निर्माण की विधि का वर्णन किया था । अगस्त्य संहिता में एक सूत्र हैः 
 संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌। छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥ 
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:। संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥ 
अर्थात् एक मिट्टी का बर्तन लें, उसमें अच्छी प्रकार से साफ किया गया ताम्रपत्र और शिखिग्रीवा (मोर के गर्दन जैसा पदार्थ अर्थात् कॉपरसल्फेट) डालें। फिर उस बर्तन को लकड़ी के गीले बुरादे से भर दें। उसके बाद लकड़ी के गीले बुरादे के ऊपर पारा से आच्छादित दस्त लोष्ट (mercury-amalgamated zinc sheet) रखे। इस प्रकार दोनों के संयोग से अर्थात् तारों के द्वारा जोड़ने पर मित्रावरुणशक्ति की उत्पत्ति होगी। यहाँ पर उल्लेखनीय है कि यह प्रयोग करके भी देखा गया है जिसके परिणामस्वरूप 1.138 वोल्ट तथा 23 mA धारा वाली विद्युत उत्पन्न हुई। स्वदेशी विज्ञान संशोधन संस्था (नागपुर) के द्वारा उसके चौथे वार्षिक सभा में ७ अगस्त, १९९० को इस प्रयोग का प्रदर्शन भी विद्वानों तथा सर्वसाधारण के समक्ष किया गया। अगस्त्य संहिता में आगे लिखा हैः 
अनेन जलभंगोस्ति प्राणो दानेषु वायुषु। एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यकृत्स्मृत:॥ 
अर्थात सौ कुम्भों (अर्थात् उपरोक्त प्रकार से बने तथा श्रृंखला में जोड़े ग! सौ सेलों) की शक्ति का पानी में प्रयोग करने पर पानी अपना रूप बदल कर प्राण वायु (ऑक्सीजन) और उदान वायु (हाइड्रोजन) में परिवर्तित हो जाएगा। फिर लिखा गया हैः
 वायुबन्धकवस्त्रेण निबद्धो यानमस्तके उदान स्वलघुत्वे बिभर्त्याकाशयानकम्‌। 
अर्थात् उदान वायु (हाइड्रोजन) को बन्धक वस्त्र (air tight cloth) द्वारा निबद्ध किया जाए तो वह विमान विद्या (aerodynamics) के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। स्पष्ट है कि यह आज के विद्युत बैटरी का सूत्र (Formula for Electric battery) ही है। साथ ही यह प्राचीन भारत में विमान विद्या होने की भी पुष्टि करता है।

Wednesday, April 25, 2012

रुद्राक्ष के वर्ण और धारण में अधिकार, रुद्राक्ष के मुख और धारण विधि

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------------------------------ {चेतावनी}--------------------- ------
#######जो लोक २७--दानों से कम रुद्राक्ष के दाने धारण करते हैं,
उनको शिव-दोष लगता है!
तथा किसी भी प्रकार का उपाये करने पर वह व्यक्ति दोष मुक्त नहीं होता!##########
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शिव पुराण---
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रुद्राक्ष धारण की महिमा तथा उसके विविध भेदों का वर्णन---
विद्येश्वर संहिता---अध्याय-- २५
भगवान शिव कहते हैं--महेश्वरी शिवे! मैं तुम्हारे प्रेम वश भक्तों के हित की कामना से रुद्राक्ष की महिमा वर्णन करता हूँ, सुनो!- महेशानि!--
पूर्वकाल की बात है, मैं मन को संयम में रख कर हजारों दिव्य वर्षों तक घोर तपस्या में लगा रहा! एक दिन सहसा मेरा मन क्षुब्ध हो उठा! परमेश्वरी! मैं सम्पूर्ण लोकों का उपकार करने वाला स्वतंत्र परमेश्वर हूँ! अत: उस समय मैंने लीलावश ही अपने दोनों नेत्र खोले, खोलते ही मेरे मनोहर नेत्रपुटों से खुछ जल की बूंदें गिरीं! आंसू की उन बूंदों से वहां रुद्राक्ष वृक्ष पैदा हो गया! भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये वे अश्रुबिंदु स्थावरभाव को प्राप्त हो गये! वे रुद्राक्ष मैंने विष्णुभक्त को तथा चारों वर्णों के लोगों को बाँट दिये! भूतपर अपने प्रिय रुद्राक्षों को मैंने गौड़ देश में उत्पन्न किया! मथुरा, अयोध्या, लंका, मलयाचल, सह्यागिरी, काशी तथा एनी देशों में भी उनके अंकुर उगाये! वे उत्तम रुद्राक्ष असह्य पापसमूहों का भेदन करने वाले तथा श्रुतियों के भी प्रेरक हैं! मेरी आज्ञा से ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाती के शुभाक्ष भी हैं! उन ब्राह्मणादि जाती वाले रुद्राक्षों के वर्ण श्वेत, रक्त,पीत तथा कृष्ण जानने चाहिये!
मनुष्य को चाहिये कि वे क्रमश: वर्ण के अनुसार अपनी जातिका ही रुद्राक्ष धारण करें! भोग और मोक्ष की इच्छा वाले चरों वर्णों के लोगों के और विशेषत: शिवभक्तों को शिव-पार्वती की प्रसन्नता के लिये रुद्राक्ष के फलों को अवश्य धारण करना चाहिये! आंवले के फल के बराबर हो, वह श्रेष्ट कहा है! जो बेर के बराबर हो उसे मध्यम श्रेणी का कहा गया है और जो चने के बराबर हो, उसकी गणना निम्नकोटि में की गयी है! इसे बताने का उद्देश्य है भक्तों की हितकामना! पार्वती! तुम भलीभांति प्रेमपूर्वक इस विषय को सुनो!
महेश्वरी! जो रुद्राक्ष बेर के फल के बराबर होता है, वह उतना छोटा होने पर भी लोक में उत्तम फल देने वाला तथा सुख-सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है! जो रुद्राक्ष आंबले के बराबर होता है, वह समस्त अरिष्टों का विनाश करने वाला होता है! तथा जो गुन्जाफल के समान बहुत छोटा होता है, वह सम्पूर्ण मनोरथों और फलों की सिद्धि करने वाला है! रुद्राक्ष जैसे २ छोटा होता है, वैसे २ ही अधिक फल देने वाला बताया है! एक-एक बड़े रुद्राक्ष से एक-एक छोटे रुद्राक्ष को विद्वानों ने दसगुणा अधिक फल देने वाला बताया है! पापों का नाश करने के लिये रुद्राक्ष-धारण आवश्य बताया गया है! वह निश्चय ही सम्पूर्ण अभीष्ट मनोरथों का साधक है! अत: अवश्य ही उसे धारण करना चाहिये!
महेश्वरी! लोक में मंगलमय रुद्राक्ष जैसा फल सेने वाला देखा जाता है, वैसे फलदायिनी दूसरी कोई माला नहीं दिखायी देती! देवी! समान आकार-प्रकार वाले, चकने, महबूत, स्थूल, कण्टकयुक्त{ उभरे हुए छोटे-छोटे दानों वाले} और सुन्दर रुद्राक्ष अभिलषित पदार्थों के दाता तथा सदैव भोग और मोक्ष देने वाले हैं! जिसे कीड़ों ने दूषित कर दिया हो, जो टूटा-फूटा हो, जिसमे उभरे हुए दानें न हों, जो व्रणयुक्त हो तथा जो पूरा-पूरा गोल न हो, इन पञ्च प्रकार के रुद्राक्षों को त्याग देना चाहिये! जिस रुद्राक्ष में अपने आप ही डेरा पिरोने के योग्य छिद्र हो गया हो, वही यहाँ उत्तम माना गया है! जिसमे मनुष्य के प्रयत्न से छेड़ किया गया हो, वह मध्यम श्रेणी का होता है! रुद्राक्ष धारण बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाला ही! इस जगत में ग्यारह सौ रुद्राक्ष धारण करके जिस फल को पाता है उसका वर्णन सैंकड़ों वर्षों में नहीं किया जा सकता! भक्तिमान पुरुष साढ़े पांच सौ रुद्राक्ष के दानों का सुन्दर मुकुट बना ले और उसे सिरपर धारण करे! तीन सौ साठ दानों को लंबे सूत्र में पिरोकर एक हार बना ले! वैसे२ तीन हार बनाकर भक्तिपरायण पुरुष उनका यज्ञोपवीत करे और उसे यथास्थान धारण किये रहे!

कितने रुद्राक्ष धारण करने चाहिये, यह बताकर सूतजी बोले!

सिरपर ईशान- मन्त्र से, कान में तत्पुरुष-मन्त्र से तथा गले और हृदय अघोर-मन्त्र से रुद्राक्ष धारण करना चाहिए! विद्वान् पुरुष दोनों हाथों में अघोर-बीज मन्त्र सर रुद्राक्ष धारण करे! उदर पर वामदेव मन्त्र से पंद्रह रुद्राक्षों द्वारा गुंथी हुई माला धारण करे
! अथवा अंगों सहित प्रणव का पञ्च बार जप करके रुद्राक्ष की तीन, पांच या सात मालाएं धारण करे! अथवा मूल मन्त्र { नम: शिवाय} से ही समस्त रुद्राक्षों को धारण करे! रुद्राक्षधारी पुरुष अपने खान-पान में मदिरा, मांस, लहसुन, प्याज, सहिजन, लिसोड़ा आदि को त्याग दे! गिरिराजनंदिनी उमे श्वेत रुद्राक्ष केवल ब्राह्मणों को ही धारण करना चाहिये! गहरे लाल रंग का रुद्राक्ष क्षत्रिओं के लिये हित कर बताया गया है! वैश्यों के लिये प्रतिदिन बारंबार पीले रुद्राक्ष धारण करना आवश्यक है और शूद्रों को काले रंग का रुद्राक्ष धारण करना चाहिये--यह वेदोक्त मार्ग है! ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, गृहस्थ और संन्यासी- सब को नियम पूर्वक रुद्राक्ष धारण करना उचित है!
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जैसे आजकल लोग {ज्योतिषी] कहते हैं वैसे नहीं डाले! २७ दानों से कम दाने डालने पर नाश ही होता है!
२७ दाने डालने का भी एक नियम है, उस नियमके विरुद्ध भी दाने डालने पर दोष ही लगते हैं!

ऊपर कहे अनुसार जप करने और धारण करने पर ही शुभ फल ही प्राप्ति होती है, अन्यथा दोष है लगता है!
यह शास्त्र प्रमाण-

अष्टोत्तरशतं कार्या चतुष्पन्चाशदेव वा! सप्तविंशतिमाना वा ततो हीनाधमा स्मृता!!
अर्थात- रुद्राक्ष की माला अष्टोत्तर शत १०८ की हो, वा ५२ दाने की हो, अथवा सत्ताईस दाने की हो! इससे हीन अधम कही है!
मोक्षार्थी पञ्चविंशत्या धनार्थी त्रिंशता जपेत!
पुष्टियर्थी पञ्चविंशत्या पञ्चदश्याभिचारके!!
सप्त विंशतिरुद्राक्षमालया देहसंस्थाया!
यत्करोति नर: पुण्यं सर्व कोटि गुणं भवेत्!!
यो ददाति द्वेजेभ्यश्च रुद्राक्षं भुवि सम्मुखं !
तस्य प्रीतो भवेद्रुद्र: स्वपदं च प्रयच्छति!!
रुद्राक्षान कंठदेशे दशन परिमितान्मस्तके विंशती द्वे षट कर्णप्रदेशे करयुगलकृते द्वादश द्वादशैव!
बाह्वोरिन्दों: कलाभिर्नयनयुगकृते एकमेकं शिखायां वक्षस्यष्टाधिकं य: कलयति शतकं स स्वयं नीलकंठ:!!

अर्थात

मोक्ष वा पुष्टि का अभिलाषी रुद्राक्ष के पच्च्चीस दानों से, धन का अभिलाषी ३० दानों से, किसी को मारने का अभिलाषी १५ दानों से जप करे! जो मनुष्य रुद्राक्ष के २७ दानों की माला को धारण करके पूजन करता है उसे कोटिगुना फल मिलता है! जो मनुष्य शिव के सम्मुख ब्राह्मण को रुद्राक्ष देता है उस पर रूद्र प्रसन्न होते हैं तथा उसे अपने पद को प्राप्त कराते हैं!

धारण--
कंठ में ३२, मस्तक पर ४०, दोनों हाहों में १२-१२, दोनों भुजाओं पर १६-१६, दोनों नेत्रों पर ४-४, शिखा में १ और छाती पर १०८ रुद्राक्षों को धारण करता है वह स्वयं नीलकंठ [शिव रूप] है! इस प्रकार ही रुद्राक्ष धारण करने पर फल प्राप्त होता है!

जैसे आजकल लोग {ज्योतिषी] कहते हैं वैसे नहीं डाले! २७ दानों से कम दाने डालने पर नाश ही होता है!

२७ दाने डालने का भी एक नियम है, उस नियमके विरुद्ध भी दाने डालने पर दोष ही लगते हैं!

ऊपर कहे अनुसार जप करने और धारण करने पर ही शुभ फल ही प्राप्ति होती है, अन्यथा दोष है लगता है!
यह शास्त्र प्रमाण-
जो लोक २७--दानों से कम रुद्राक्ष के दाने धारण करते हैं उनको शिव-दोष लगता है! तथा किसी भी प्रकार का उपाये करने पर वह व्यक्ति दोष मुक्त नहीं होता!
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रुद्राक्ष के वर्ण और धारण में अधिकार, रुद्राक्ष के मुख और धारण विधि---
************************************************************रुद्राक्ष के वर्ण और धारण में अधिकार, रुद्राक्ष के मुख और धारण विधि---
रुद्राक्ष चार वर्ण होता है--श्वेत,रक्त, पीत और कृष्ण! इसी वर्ण भेद से रुद्राक्ष धारण करने की विधि है- ब्राह्मण को श्वेत, क्षत्रिय को रक्त, वैश्य को पीट और शूद्र को कृष्ण वर्ण का रुद्राक्ष धारण करने की विधि है!

" सर्वाश्रमाणांवर्णानां स्त्रीशूद्राणां
शिवाज्ञया धार्या: सदैव रुद्राक्षा:"
सभी आश्रमों एवं वर्णों तथा स्त्री और शूद्र को सदैव रुद्राक्ष धारण करना चाहिये, यह शिव आज्ञा है!

रुद्राक्ष के मुख और धारण-विधि--

शास्त्रों में रुद्राक्ष एक मुख से चौदह मुख तक का वर्णन प्रशस्त है! रुद्राक्ष दो जाति के होते हैं! रुद्राक्ष और भद्राक्ष!
रुद्राक्ष के मध्य में भद्राक्षका धारण करना भी महान फलदायक होता है!

रुद्राक्ष में स्वयं छिद्र होता है! जिस रुद्राक्ष में स्वयं छिद्र होता है, वह उत्तम होता है, पुरुष-प्रयत्न से किया गया छिद्र मध्यम कोटि का माना गया है!

१-एक मुखी रुद्राक्ष के विशिष्ट महत्त्व का वर्णन इस प्रकार किया गया है!

एक मुखी रुद्राक्ष साक्षात शिव तथा परतत्व [परब्रह्म] स्वरुप है और परतत्व-प्रकाशक भी है और ब्रह्महत्या का नाद करने वाला है, इसको धारण करने का मन्त्र यह है-" ॐ ह्रीं नम:"

२-द्विमुखी रुद्राक्ष साक्षात अर्धनारीश्वर है, इसको धारण करने से शिव-पार्वती प्रसन्न हो जाते हैं! " ॐ नम:" इस मन्त्र से द्विमुखी रुद्राक्ष धारण करना चाहिये!

३-त्रिमुखी रुद्राक्ष अग्नियों [ गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि] का स्वरूप है! तीन मुख वाले रुद्राक्ष को धारण करने से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है! "ॐ क्लीं नम:" यह त्रिमुखी रुद्राक्ष धारण करने का मन्त्र है!

४-चतुर्मुखी रुद्राक्ष साक्षात ब्रह्मा जी स्वरुप है! इसको धारण करने का मन्त्र " ॐ ह्रीं नम:" है!

५-पंचमुखी र्द्राक्ष पंचदेवों [विष्णु, शिव, गणेश, सूर्य और देवी]का स्वरुप है! इसके धरा करने पर नर ह्त्या के पाप से प्राणी मुक्त हो जाता है! " ॐ ह्रीं नम:" मन्त्र से धारण करना चाहिय्र!

६-छ:मुखी रुद्राक्ष साक्षात कार्तिकेय है! इसके धारण करने से श्री एवं आरोग्य की प्राप्ति होती है! "ॐ ह्रीं नम:" इस मन्त्र से इसे धारण करना चाहिये!

७-सप्त मुखी रुद्राक्ष अनंग नामवाला है! इसके धारण करने से स्वर्णस्तेयी स्वर्ण चोरी के पाप से मुक्त हो जाता है! "ॐ हुं नम:" यह धारण करने का मन्त्र है!

८-अष्टमुखी रुद्राक्ष साक्षात विनायक है और इसके धारण करने से पञ्च पातकों का विनाशोता है! "ॐ हुं नम:" इस मंत्रसे धारण करने से परमपद की प्राप्ति होती है!

९-नवमुखी रुद्राक्ष नव दुर्गा का प्रतीक है! उसको " ॐ ह्रीं हुं नम:" इस मन्त्र से बायें भुजदंड पर धारण करने से नव शक्तियां प्रसन्न होती हैं!

१०-दशमुखी रुद्राक्ष साक्षात भगवान जनार्दन है! "ॐ ह्रीं नम:" इस मंत्रसे धारण करने पर साधक की पूर्णायु होती है और शान्ति प्राप्त करता है!

११--एकादश मुखी रुद्राक्ष " ॐ ह्रीं हुं नम:" इस मन्त्र से धारण करना चाहिये! धारक साक्षात रुद्ररूप होकर सर्वत्र विजयी होता है!

१२-द्वादश मुखी रुद्राक्ष साक्षात महाविष्णु का स्वरुप है! "ॐ क्रौं क्षौं रौं नम:" मन्त्र से धारण करने से साक्षात विष्णु को ही धारण करता है! इसे कान में धारण करे! इससे अश्वमेधादि का फल प्राप्त होता है!

१३-त्रयोदश रुद्राक्ष धारण करने से सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति पूर्वक कामदेव प्रसन्न हो जाते हैं! " ॐ ह्रीं नम:" मन्त्र से धारण करना चाहिये!

१४-चतुर्दश मुखी रुद्राक्ष रूद्र की अक्षि से उत्पन्न हुआ, वह भगवान का नेत्र-स्वरुप है! "ॐ नम:" इस मन्त्र से धारण करने पर यह रुद्राक्ष सभी व्याधियों को हर लेता है!

रुद्राक्ष धारण करने में वर्जित पदार्थ----
रुद्राक्ष धारण करने वाले को निम्नलिखित पदार्थों का वर्जन [त्याग] करना चाहिये!

मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहजन, लिसोड़ा और विडवराह ग्राम्यसूकर] इन पदार्थों का परित्याग करना चाहिये!
रुद्राक्ष को मन्त्रपूर्वक ही धारण करे! बिना मंत्रोच्चारण के रुद्राक्ष धारण करने वाला नरक में तबतक रहता है, जबतक चौदह इन्द्रोंका राज्य रहता है!

रुद्राक्ष को शुभ मुहूर्त में धारण करे!

ग्रहण में, विषुव संक्रांति [ मेषार्क तथा तुलार्क] के दिन कर्क-संक्रांति और मकर-संक्रांति, अमावास्या, पूर्णिमा एवं पूर्णा तिथि को रुद्राक्ष धारण करने से सद्य: सम्पूर्ण पापों से निवृत्ति हो जाति है!

जनेऊ पहनने से क्या लाभ?

पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया जाता था। वर्तमान में यह प्रथा लोप सी गयी है। जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है। आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते। जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।
यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं-
उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं।[1] जनेऊ पहनाने का संस्कार [2]
सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है।[3][4] यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ[5]
यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं । ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। [6]तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। [7]अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण कये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता। यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।
जनेऊ को लेकर लोगों में कई भ्रांति मौजूद है| लोग जनेऊ को धर्म से जोड़ दिए हैं जबकि सच तो कुछ और ही है| तो आइए जानें कि सच क्या है? जनेऊ पहनने से आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है| क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए अन्यथा अधर्म होता है| दरअसल इसके पीछे साइंस का गहरा रह्स्य छिपा है| दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता| आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है, एक पुरुष को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या ज़िम्मेदारी वहन करना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का| अब एक एक जनेऊ में 9 - 9 धागे होते हैं| जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9 - 9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है| अब इन 9 - 9 धांगों के अंदर से 1 - 1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें 27 - 27 धागे होते हैं| अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27 - 27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है| अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है, जिसको एकल अंक बनाने पर 36 = 3+6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक है| अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9 + 2 = 11 होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी ( 1 और 1 ) के मिलने सेबना है | 1 + 1 = 2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता है| जब हम अपने दोनो पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें अशीम शांति की प्राप्ति हो जाती है| तो यह रहा जनेऊ का वास्तविक रहस्य|

Tuesday, April 24, 2012

विष्णु के अवतार परशुराम

राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय जमदग्नि के पुत्र और विष्णु के अवतार परशुराम की जयन्ती इस बार 24 अप्रैल दिन मंगलवार को है| बताया जाता है कि इन्हें शिव से विशेष परशु प्राप्त हुआ था। इनका नाम तो राम था, किन्तु शंकर द्वारा प्रदत्त अमोघ परशु को सदैव धारण किये रहने के कारण ये परशुराम कहलाते थे। विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में गिने जाता है। जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये जामदग्न्य भी कहे जाते हैं। इनका जन्म अक्षय तृतीया (वैशाख शुक्ल तृतीया) को हुआ था। अत: इस दिन व्रत करने और उत्सव मनाने की प्रथा है। परम्परा के अनुसार इन्होंने क्षत्रियों का अनेक बार विनाश किया। क्षत्रियों के अहंकारपूर्ण दमन से विश्व को मुक्ति दिलाने के लिए इनका जन्म हुआ था।
परशुराम का जन्म-
प्राचीनकाल में कन्नौज नामक नगर में गाधि नामक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्‍चात् वहाँ भृगु जी ने आकर अपने पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्‍वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करें और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। "इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु जी ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योगशक्‍ति से भृगु जी को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगा। इस पर सत्यवती ने भृगु जी से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु जी ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। "समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुये जिनके नाम थे रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्‍वानस और परशुराम।
परशुराम ने अपने जीवनकाल में किये थे अनेक यज्ञ-
परशुराम ने अपने जीवनकाल में अनेक यज्ञ किए। यज्ञ करने के लिए उन्होंने बत्तीस हाथ ऊँची सोने की वेदी बनवायी थी। महर्षि कश्यप ने दक्षिण में पृथ्वी सहित उस वेदी को ले लिया तथा फिर परशुराम से पृथ्वी छोड़कर चले जाने के लिए कहा। परशुराम ने समुद्र पीछे हटाकर गिरिश्रेष्ठ महेंद्र पर निवास किया।
मातृ-पितृ भक्त थे परशुराम-
श्रीमद्भागवत में दृष्टांत है कि गंधर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा-तट पर जल लेने गई माता रेणुका आसक्त हो गई। तब हवन-काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्निने पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचारवश पुत्रों को माता का वध करने की आज्ञा दी।
अन्य भाइयों द्वारा साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेदन एवं समस्त भाइयों का वध कर डाला, और प्रसन्न जमदग्नि द्वारा वर मांगने का आग्रह किए जाने पर सभी के पुनर्जीवित होने एवं उनके द्वारा वध किए जाने संबंधी स्मृति नष्ट हो जाने का ही वर मांगा।
क्रोधी स्वभाव वाले थे परशुराम-
दुर्वासा की भाँति ये भी अपने क्रोधी स्वभाव के लिए विख्यात है। एक बार कार्त्तवीर्य ने परशुराम की अनुपस्थिति में आश्रम उजाड़ डाला था, जिससे परशुराम ने क्रोधित हो उसकी सहस्त्र भुजाओं को काट डाला। कार्त्तवीर्य के सम्बन्धियों ने प्रतिशोध की भावना से जमदग्नि का वध कर दिया। इस पर परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर दिया और पाँच झीलों को रक्त से भर दिया। अंत में पितरों की आकाशवाणी सुनकर उन्होंने क्षत्रियों से युद्ध करना छोड़कर तपस्या की ओर ध्यान लगाया।
परशुराम ने ली थी राम के पराक्रम की परीक्षा-
बताया जाता है कि परशुराम राम का पराक्रम सुनकर वे अयोध्या गये। दशरथ ने उनके स्वागतार्थ रामचन्द्र को भेजा। उन्हें देखते ही परशुराम ने उनके पराक्रम की परीक्षा लेनी चाही। अतः उन्हें क्षत्रियसंहारक दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा। राम के ऐसा कर लेने पर उन्हें धनुष पर एक दिव्य बाण चढ़ाकर दिखाने के लिए कहा। राम ने वह बाण चढ़ाकर परशुराम के तेज पर छोड़ दिया। बाण उनके तेज को छीनकर पुनः राम के पास लौट आया। राम ने परशुराम को दिव्य दृष्टि दी। जिससे उन्होंने राम के यथार्थ स्वरूप के दर्शन किये। परशुराम एक वर्ष तक लज्जित, तेजहीन तथा अभिमानशून्य होकर तपस्या में लगे रहे। तदनंतर पितरों से प्रेरणा पाकर उन्होंने वधूसर नामक नदी के तीर्थ पर स्नान करके अपना तेज पुनः प्राप्त किया।
-- -- श्री अनुराग मिश्र

Monday, April 23, 2012

भगवान् परशुराम -

श्रीपरशुरामजी के विषय मेँ कालिका पुराण भागवत महाभारत तथा पद्मपुराण आदि मे बहुत। प्रकाश डाला गया है । हम उनकी जयन्ती के उपलक्ष मे अपनी वाणी पवित्रकरेँ । कालिका पुराण के अनुसार -
इक्ष्वाकुपुत्रविदर्भनरेश रेणु की पुत्री रेणुका से महर्षि जमदग्नि ने विवाह किया । जिससे इनके रुमण्वान् सुषेण आदि चार पुत्र हुए तत्पश्चात् सहस्रबाहु के वध की इच्छा से इन्द्रादि देवताओ द्वारा प्रार्थना किये जाने पर स्वयँ भगवान् विष्णु ने इन जमदग्निजी के यहाँ रेणुका के गर्भ से परशुराम जी के रूप मे जन्म लिया । सबसे डी विशेषता यह कि ये अपने फरसे (परशु)। के साथ ही प्रकट हुए -
भारावतारणार्थाय जातः परशुना सह ।
सहजःपरशुस्तस्य तं जहाति कदा च न । ।
यह इनका प्रमुख आयुध है इसे कभी नही त्यागते । इसीलिए इहेँ परशुराम कहा जाता है ।
पद्मपुराण के अनुसार जमदग्नि जी ने स्वयं देवराज इन्द्र को यज्ञ से प्रसन्न करके महाबलशाली परमतेजस्वी और शत्रुसंहारक पुत्रप्राप्त किया जो सर्वलक्षणसम्पन्न एवं भगवान् विष्णु का अवतार था -
विष्णोरंशाँशभागेन सर्वलक्षणलक्षितम् । प.उ.ष.अ.241/10. पररशुरामजी गण्डकी नदी के तट पर महर्षि कश्यप से मन्त्रग्रहण करके अनेक वर्षो तक तप किये । विष्णु भगवान् ने प्रसन्न होकर इहेँ शत्रुसंहारक फरसा तथा दिव्य वैष्णव धनुष एवं अनेक अस्त्र शस्त्र देकर दुष्ट राजाओँ के विनाश का निर्देश दिया । जब ये बाहर गये हुए थे उसी समय सहस्रार्जुन आकर ध्यानस्थ जमदग्नि जी की गौ नदेने के कारण निर्मम हत्या कर डाली । माँ रेणुका छाती पीट पीट कर जोरजोर से रोने लगीँ । रुदन सुनकर परशुरामजी शीघ्र दौड़ कर आये और प्रतिज्ञा करते हुए बोले - मातः आपने 21 बार छाती पीटा है ।
अतः मैँ 21बार इन दुष्ट राजाओँ कासंहार करूँगा । ध्यान देने की बात यह है कि परशुरामजी के पिता कावध एक पापी राजा ने किया था इधर भगवान् विष्णु ने भी उन्हे दुष्ट। राजाओँ के वध की ही आज्ञा दी है -
जहि दुष्टान् नृपोत्तमान् - पद्मपुराण उत्तरखण्ड 241वाँ अध्याय श्लोक 41. अतःउन्होने मात्र दुष्ट राजाओँ का ही संहार किया सामान्यक्षत्रियो का नही । अतः उन्होने पापी राजवंश का नाश किया। सहस्रार्जुन जैसे हजारो राजा उनके हाथ से दण्ड पाकर पापमुक्त हुए। रावण का अत्याचार बढ़ने पर भी इन्होने उसेअनाचार न करने का सन्देश भेजा था। जिसे सुनाने के बाद सेनापति प्रहस्त ने लड़्केश से कहा -
परशुरामजी को केवल ब्राह्मण समझकर उनकी आज्ञा का उल्लड़्घन नही करना चाहिए इसी मे आपका कल्याण है अन्यथा आपके मित्र जमदग्निनन्दन का मन खिन्न हो जायेगा -
ब्राह्मणातिक्रमत्यागो भवतामेव भूतये ।
जामदग्न्यश्च वो मित्रमन्यथा दुर्मनायते । ।
इसलिए ये धारणा मन से निकाल देनी चाहिए कि परशुरामजी किसी जातिविशेष के विरोधी थे । वर्तमान काल मेँ जाति पाँति का भेदभाव न रखकर
अत्याचारियो आतड़्कवादियो और भ्रष्टाचारियो के विरुद्ध अस्त्र उठाने की प्रेरणा देने वालो मे सर्वश्रेष्ठ मूलपुरुष श्रीपरशुराम जी की जयन्ती हम सभी को मनाते हुए एकजुट होकर अत्याचार भ्रष्टाचार और आतड़्कवाद से लोहा लेने के लिए कृतसड़्कल्प होना है । हमइन्हे आदर्श मानकर इनका स्मरण करते हुए रण का बिगुल बजा देँ --जय जय महबली दुर्धर्ष भगवान् श्रीपरशुराम
 

Saturday, April 21, 2012

गरूत्वाकर्षण के नियम के शोधक न्यूटन या भाष्कराचार्य थे ?

लखनऊ से मेरे विद्वान् गुणी मित्र श्री सौरभ मिश्र ने अपनी पोस्ट में ये लिखा है जो में आप लोगो से प्रस्तुत करता हु .

गरूत्वाकर्षण के नियम के शोधक न्यूटन या भाष्कराचार्य थे ?

जिस समय न्यूटन के पुर्वज जंगली लोग थे ,उस समय मह्रिषी भाष्कराचार्य ने प्रथ्वी की
गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था. किन्तु आज हमें कितना
बड़ा झूंठ पढना पढता है कि गुरुत्वाकर्षण शक्ति कि खोंज न्यूटन ने की ,ये
हमारे लिए शर्म की बात है.

भास्कराचार्य सिद्धान्त की बात कहते हैं कि वस्तुओं की शक्ति बड़ी विचित्र है।
मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो
विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
आगे कहते हैं-

आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं
गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति
समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश

अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी
पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर
जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश
में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ
संतुलन बनाए रखती हैं।

ऐसे ही अगर यह कहा जाय की विज्ञान के सारे
आधारभूत अविष्कार भारत भूमि पर हमारे विशेषज्ञ ऋषि मुनियों द्वारा हुए तो
इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ! सबके प्रमाण उपलब्ध हैं ! आवश्यकता
स्वभाषा में विज्ञान की शिक्षा दिए जाने की है !
अगर आप अपनी पोस्ट को
अपनी भाषा हिंदी में लिखें तो निश्चय ही आपका प्रभाव और भी बढ़ जायेगा .
हिंदी हमारे देश भारत वर्ष की राष्ट्र भाषा है .....प्रयोग कीजिये ...अच्छा
लगता है ..इसके प्रयोग से हमारा मान सम्मान और भी बढ़ जाता
---- श्री सौरभ मिश्र, लखनऊ

अर्थ रामायण का

श्री अनुराग मिश्र द्वारा फेसबुक के "भक्ति शास्त्रं" ग्रुप में बतायी बातो को आपके लिए प्रस्तुत है

आदिकवि वाल्मीकि कृत रामायण न केवल इस अर्थ में अद्वितीय है कि यह देश-विदेश की अनेक भाषाओं के साहित्य की विभिन्न विधाओं में विरचित तीन सौ से भी अधिक मौलिक रचनाओं का उपजीव्य है, प्रत्युत इस संदर्भ में भी कि इसने भारत के अतिरिक्त अनेक देशों के नाट्य, संगीत, मूर्ति तथा चित्र कलाओं को प्रभावित किया है और कि भारतीय इतिहास के प्राचीन स्रोतों में इसके मूल को तलाशने के सारे प्रयासों की विफलता के बावजूद यह होमर कृत 'इलियाड' तथा 'ओडिसी', वर्जिल कृत 'आइनाइड' और दांते कृत 'डिवाइन कॉमेडी' की तरह संसार का एक श्रेष्ठ महाकाव्य है।

'रामायण' का विश्लेषित रुप 'राम का अयन' है जिसका अर्थ है 'राम का यात्रा पथ', क्योंकि अयन यात्रापथवाची है। इसकी अर्थवत्ता इस तथ्य में भी अंतर्निहित है कि यह मूलत: राम की दो विजय यात्राओं पर आधारित है जिसमें प्रथम यात्रा यदि प्रेम-संयोग, हास-परिहास तथा आनंद-उल्लास से परिपूर्ण है, तो दूसरी क्लेश, क्लांति, वियोग, व्याकुलता, विवशता और वेदना से आवृत्त। विश्व के अधिकतर विद्वान दूसरी यात्रा को ही रामकथा का मूल आधार मानते हैं। एक श्लोकी रामायण में राम वन गमन से रावण वध तक की कथा ही रुपायित हुई है।

अदौ राम तपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम्।
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव संभाषणम्।
वालि निग्रहणं समुद्र तरणं लंका पुरी दास्हम्।
पाश्चाद् रावण कुंभकर्ण हननं तद्धि रामायणम्।

जीवन के त्रासद यथार्थ को रुपायित करने वाली राम कथा में सीता का अपहरण और उनकी खोज अत्यधिक रोमांचक है। रामकथा की विदेश-यात्रा के संदर्भ में सीता की खोज-यात्रा का विशेष महत्व है। वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड के चालीस से तेतालीस अध्यायों के बीच इसका विस्तृत वर्ण हुआ है जो 'दिग्वर्णन' के नाम से विख्यात है। इसके अंतर्गत वानर राज बालि ने विभिन्न दिशाओं में जाने वाले दूतों को अलग-अलग दिशा निर्देश दिया जिससे एशिया के समकालीन भूगोल की जानकारी मिलती है। इस दिशा में कई महत्वपूर्ण शोध हुए है जिससे वाल्मीकी द्वारा वर्णित स्थानों को विश्व के आधुनिक मानचित्र पर पहचानने का प्रयत्न किया गया है।

कपिराज सुग्रीव ने पूर्व दिशा में जाने वाले दूतों के सात राज्यों से सुशोभित यवद्वीप (जावा), सुवर्ण द्वीप (सुमात्रा) तथा रुप्यक द्वीप में यत्नपूर्वक जनकसुता को तलाशने का आदेश दिया था। इसी क्रम में यह भी कहा गया था कि यव द्वीप के आगे शिशिर नामक पर्वत है जिसका शिखर स्वर्ग को स्पर्श करता है और जिसके ऊपर देवता तथा दानव निवास करते हैं।

यनिवन्तों यव द्वीपं सप्तराज्योपशोभितम्।
सुवर्ण रुप्यक द्वीपं सुवर्णाकर मंडितम्।
जवद्वीप अतिक्रम्य शिशिरो नाम पर्वत:।
दिवं स्पृशति श्रृंगं देवदानव सेवित:।१

दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास का आरंभ इसी दस्तावेती सबूत से होता है। इंडोनेशिया के बोर्नियो द्वीप में तीसरी शताब्दी को उत्तरार्ध से ही भारतीय संस्कृति की विद्यमानता के पुख्ता सबूत मिलते हैं। बोर्नियों द्वीप के एक संस्कृत शिलालेख में मूलवर्मा की प्रशस्ति उत्कीर्ण है जो इस प्रकार है-

श्रीमत: श्री नरेन्द्रस्य कुंडगस्य महात्मन:।
पुत्रोश्ववर्मा विख्यात: वंशकर्ता यथांशुमान्।।
तस्य पुत्रा महात्मान: तपोबलदमान्वित:।
तेषांत्रयानाम्प्रवर: तपोबलदमान्वित:।।
श्री मूलवम्र्मा राजन्द्रोयष्ट्वा वहुसुवर्णकम्।
तस्य यज्ञस्य यूपोयं द्विजेन्द्रस्सम्प्रकल्पित:।।२

इस शिला लेख में मूल वर्मा के पिता अश्ववर्मा तथा पितामह कुंडग का उल्लेख है। बोर्नियों में भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा के स्थापित होने में भी काफी समय लगा होगा। तात्पर्य यह कि भारतवासी मूल वर्मा के राजत्वकाल से बहुत पहले उस क्षेत्र में पहुँच गये थे।

जावा द्वीप और उसके निकटवर्ती क्षेत्र के वर्णन के बाद द्रुतगामी शोणनद तथा काले मेघ के समान दिलाई दिखाई देने वाले समुद्र का उल्लेख हुआ है जिसमें भारी गर्जना होती रहती है। इसी समुद्र के तट पर गरुड़ की निवास भूमि शल्मलीक द्वीप है जहाँ भयंकर मानदेह नामक राक्षस रहते हैं जो सुरा समुद्र के मध्यवर्ती शैल शिखरों पर लटके रहते है। सुरा समुद्र के आगे घृत और दधि के समुद्र हैं। फिर, श्वेत आभावाले क्षीर समुद्र के दर्शन होते हैं। उस समुद्र के मध्य ॠषभ नामक श्वेत पर्वत है जिसके ऊपर सुदर्शन नामक सरोवर है। क्षीर समुद्र के बाद स्वादिष्ट जलवाला एक भयावह समुद्र है जिसके बीच एक विशाल घोड़े का मुख है जिससे आग निकलती रहती है।३

'महाभारत' में एक कथा है कि भृगुवंशी और्व ॠषि के क्रोध से जो अग्नि ज्वाला उत्पन्न हुई, उससे संसार के विनाश की संभावना थी। ऐसी स्थिति में उन्होंने उस अग्नि को समुद्र में डाल दिया। सागर में जहाँ वह अग्नि विसर्जित हुई, घोड़े की मुखाकृति (वड़वामुख) बन गयी और उससे लपटें निकलने लगीं। इसी कारण उसका नाम वड़वानल पड़ा। आधुनिक समीक्षकों की मान्यता है कि इससे प्रशांत महासागर क्षेत्र की किसी ज्वालामुखी का संकेत मिलता है। वह स्थल मलस्क्का से फिलिप्पींस जाने वाले जलमार्ग के बीच हो सकता है।४ यथार्थ यह है कि इंडोनेशिया से फिलिप्पींस द्वीप समूहों के बीच अक्सर ज्वालामुखी के विस्फोट होते रहते हैं जिसके अनेक ऐतिहासिक प्रमाण हैं। दधि, धृत और सुरा समुद्र का संबंध श्वेत आभा वाले क्षीर सागर की तरह जल के रंगों के संकेतक प्रतीत होते हैं।

बड़वामुख से तेरह योजना उत्तर जातरुप नामक सोने का पहाड़ है जहाँ पृथ्वी को धारण करने वाले शेष नाग बैठे दिखाई पड़ते हैं। उस पर्वत के ऊपर ताड़ के चिन्हों वाला सुवर्ण ध्वज फहराता रहता है। यही ताल ध्वज पूर्व दिशा की सीमा है। उसके बाद सुवर्णमय उदय पर्वत है जिसके शिखर का नाम सौमनस है। सूर्य उत्तर से घूमकर जम्बू द्वीप की परिक्रमा करते हुए जब सैमनस पर स्थित होते हैं, तब इस क्षेत्र में स्पष्टता से उनके दर्शन होते हैं। सौमनस सूर्य के समान प्रकाशमान दृष्टिगत होते हैं। उस पर्वत के आगे का क्षेत्र अज्ञात है।५

जातरुप का अर्थ सोना होता है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि जातरुप पर्वत का संबंध प्रशांत महासागर के पार मैक्सिको के स्वर्ण-उत्पादक पर्वतों से हो सकता है। मक्षिका का अर्थ सोना होता है। मैक्सिको शब्द मक्षिका से ही विकसित माना गया है। यह भी संभव है कि मैक्सिको की उत्पत्ति सोने के खान में काम करने वाली आदिम जाति मैक्सिका से हुई है।६ मैक्सिको में एशियाई संस्कृति के प्राचीन
अवशेष मिलने से इस अवधारणा से पुष्टि होती है।

बालखिल्य ॠषियों का उल्लेख विष्णु-पुराण और रघुवंश में हुआ है जहाँ उनकी संख्या साठ हज़ार और आकृति अँगूठे से भी छोटी बतायी गयी है। कहा गया है कि वे सभी सूर्य के रथ के घोड़े हैं। इससे अनुमान किया जाता है कि यहाँ सूर्य की असंख्य किरणों का ही मानवीकरण हुआ है।७ उदय पर्वत का सौमनस नामक सुवर्णमय शिखर और प्रकाशपुंज के रुप में बालखिल्य ॠषियों के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि इस स्थल पर प्रशांत महासागर में सूर्योदय के भव्य दृश्य का ही भावमय एवं अतिरंजित चित्रण हुआ है।

वाल्मीकि रामायण में पूर्व दिशा में जाने वाले दूतों के दिशा निर्देशन की तरह दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में जाने वाले दूतों को भी मार्ग का निर्देश दिया गया है। इसी क्रम में उत्तर में ध्रुव प्रदेश, दक्षिण में लंका के दक्षिण के हिंद महासागरीय क्षेत्र और पश्चिम में अटलांटिक तक की भू-आकृतियों का काव्यमय चित्रण हुआ है जिससे समकालीन एशिया महादेश के भूगोल की जानकारी मिलती है। इस संदर्भ में उत्तर-ध्रुव प्रदेश का एक मनोरंजक चित्र उल्लेखनीय है।

बैखानस सरोवर के आगे न तो सूर्य तथा न चंद्रमा दिखाई पड़ते हैं और न नक्षत्र तथा मेघमाला ही। उस प्रदेश के बाद शैलोदा नामक नदी है जिसके तट पर वंशी की ध्वनि करने वाले कीचक नामक बाँस मिलते हैं। उन्हीं बाँसों का बेरा बनाकर लोग शैलोदा को पारकर उत्तर-कुरु जाते है जहाँ सिद्ध पुरुष निवास करते हैं। उत्तर-कुरु के बाद समुद्र है जिसके मध्य भाग में सोमगिरि का सुवर्गमय शिखर दिखाई पड़ता है। वह क्षेत्र सूर्य से रहित है, फिर भी वह सोमगिरि के प्रभा से सदा प्रभावित होता रहता है।८ ऐसा मालूम पड़ता है कि यहाँ उत्तरीध्रुव प्रदेश का वर्णन हुआ है जहाँ छह महीनों तक सूर्य दिखाई नहीं पड़ता और छह महीनों तक क्षितिज के छोड़पर उसके दर्शन भी होते हैं, तो वह अल्पकाल के बाद ही आँखों से ओझल हो जाता है। ऐसी स्थिति में सूर्य की प्रभा से उद्भासित सोमगिरि के हिमशिखर निश्चय ही सुवर्णमय दीखते होंगे। अंतत: यह भी यथार्थ है कि सूर्य से रहित होने पर भी उत्तर-ध्रुव पूरी तरह अंधकारमय नहीं है।

सतु देशो विसूर्योऽपि तस्य मासा प्रकाशते।
सूर्य लक्ष्याभिविज्ञेयस्तपतेव विवास्वता।९

राम कथा की विदेश-यात्रा के संदर्भ में वाल्मीकि रामायण का दिग्वर्णन इस अर्थ में प्रासंगिक है कि कालांतर में यह कथा उन स्थलों पर पहुँच ही नहीं गयी, बल्कि फलती-फूलती भी रही। बर्मा, थाईलैंड, कंपूचिया, लाओस, वियतनाम, मलयेशिया, इंडोनेशिया, फिलिपींस, तिब्बत, चीन, जापान, मंगोलिया, तुर्किस्तान, श्रीलंका और नेपाल की प्राचीन भाषाओं में राम कथा पर आधारित बहुत सारी साहित्यिक कृतियाँ है। अनेक देशों में यह कथा शिलाचित्रों की विशाल श्रृखलाओं में मौजूद हैं। इनके शिलालेखी प्रमाण भी मिलते है। अनेक देशों में प्राचीन काल से ही रामलीला का प्रचलन है। कुछ देशों में रामायण के घटना स्थलों का स्थानीकरण भी हुआ है।
 -----  श्री अनुराग मिश्र , सौगोर , मध्य प्रदेश

Friday, April 20, 2012

पिता



पिता…पिता जीवन है, सम्बल है, शक्ति है,
पिता…पिता सृष्टी मे निर्माण की अभिव्यक्ती है,
पिता अँगुली पकडे बच्चे का सहारा है,
पिता कभी कुछ खट्टा कभी खारा है,
पिता…पिता पालन है, पोषण है, परिवार का अनुशासन है,
पिता…पिता धौंस से चलना वाला प्रेम का प्रशासन है,
पिता…पिता रोटी है, कपडा है, मकान है,
पिता…पिता छोटे से परिंदे का बडा आसमान है,
पिता…पिता अप्रदर्शित-अनंत प्यार है,
पिता है तो बच्चों को इंतज़ार है,
पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं,
पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं,
पिता से परिवार में प्रतिपल राग है,
पिता से ही माँ की बिंदी और सुहाग है,
पिता परमात्मा की जगत के प्रति आसक्ती है,
पिता गृहस्थ आश्रम में उच्च स्थिती की भक्ती है,
पिता अपनी इच्छाओं का हनन और परिवार की पूर्ती है,
पिता…पिता रक्त निगले हुए संस्कारों की मूर्ती है,
पिता…पिता एक जीवन को जीवन का दान है,
पिता…पिता दुनिया दिखाने का एहसान है,
पिता…पिता सुरक्षा है, अगर सिर पर हाथ है,
पिता नहीं तो बचपन अनाथ है,
पिता नहीं तो बचपन अनाथ है,
तो पिता से बडा तुम अपना नाम करो,
पिता का अपमान नहीं उनपर अभिमान करो,
क्योंकि माँ-बाप की कमी को कोई बाँट नहीं सकता,
और ईश्वर भी इनके आशिषों को काट नहीं सकता,
विश्व में किसी भी देवता का स्थान दूजा है,
माँ-बाप की सेवा ही सबसे बडी पूजा है,
विश्व में किसी भी तिर्थ की यात्रा व्यर्थ हैं,
यदि बेटे के होते माँ-बाप असमर्थ हैं,
वो खुशनसीब हैं माँ-बाप जिनके साथ होते हैं,
क्योंकि माँ-बाप के आशिषों के हाथ हज़ारों हाथ होते हैं
क्योंकि माँ-बाप के आशिषों के हाथ हज़ारों हाथ होते

Wednesday, April 18, 2012

क्या वेद में वेदाध्ययन व कर्मकांड पर स्त्री निषेध हे?

----  श्री गौरी राय द्वारा फेस बुक पर लिखे गए स्तातुस में से साभार
क्या वेद में वेदाध्ययन व कर्मकांड पर स्त्री निषेध हे? और क्या यह बात तर्क
के आधार पर साबित की जा सकती हे?

- वेदों के अध्ययन में स्त्री निषेध नहीं हे.

- वस्तुतः सत्य यह हे की वेदों में केवल अध्ययन के आधार पर स्त्री निषेध नहीं
हे. कोई भी स्त्री (रजस्वला अवस्था में ना हों तो) वह वेदों का अध्ययन कर सकती
हे. किन्तु केवल ७ दिन (रजस्वला अवस्था के) वह वेदाध्ययन से दूर रहे. यह
स्पष्ट प्रमाण हे की स्त्री वेदाध्ययन कर सकती हे.
- हमारे वेदों में संध्या, अरुंधती, गार्गी, अपाला, मैत्रेयी. सावित्री,
अनसूया, शाण्डिली. वाचक्रवी, देवहुति इत्यादि अनेक स्त्री हुए हे जिन्होंने
स्वतन्त्र वैदिक सूक्त की मन्त्र द्रष्टा की अवस्था प्राप्त की हे.
- स्त्री उपनयन धारण कर सकती थी ऐसे कई द्रष्टान्त व प्रमाण भी हमारे वेदों
में हे.
- और ब्रह्मविद्या अवस्था में स्त्री-पुरुष इत्यादि पात्र ना होकर केवल ज्ञान
की पात्रता का स्वीकार होने के कारण भी स्त्री का अधिकार अबाधित हे.

- वेदों के कर्मकांड विभाग में स्त्री निषेध अवश्य हे.

- यह बात के ४ प्रमाण हे.
- १. प्रत्यक्ष प्रमाण (क्युकी भुत से वर्त्तमान तक स्त्री कर्मकांड की अवस्था
देखि गई नहीं हे.)
- २. श्रुति प्रमाण (श्रुति में कही भी कर्मकांड विभाग में स्त्री के अधिकार
का प्रमाण नहीं हे.)
- ३. नैतिक मर्यादा
- ४. स्त्री के दायित्व का सन्मान.
- किन्तु यह चार प्रमाणों को जाने दे और तर्क पर विचार करे तो...
- कर्मकांड एक अनंत वास्तु हे अगर स्त्री को वैदिक कर्मकांड में अधिकार दिया
भी जाता हे तो उनको आजीवन वैदिक कर्मकांड का बिना खंडन किए निर्वाह करना होगा.
जी स्त्री योनी में संभव इस लिए नहीं हे क्युकी उनको हर मॉस में रजस्वला धर्म
में का निर्वाह करना होता हे. और वह समय में स्त्री के कर्मकांड आदि धर्म का
खंडन होगा. जो वैदिक अनुशाशन में अयुक्त हे.
- अगर रजस्वला धर्म की पूर्ण निवृत्ति के बाद भी स्त्री को कर्मकांड का
निर्वाह का आदेश दिया जाए तो गर्भावस्था और बालक पोषण इत्यादि कर्मो का हनन
होगा. अगर इत्यादि धर्मो का खंडन के विकल्प में कर्मकांड होता हे तो परिणाम
संभव नहीं हे.
- स्त्री का मुख्य कर्म पति सेवा और कुटुंब व्यवस्था का निर्वहन हे. जो की
कर्मकांड अधिकार से खंडित होगा और समूचे कुटुंब का नाश होगा.
- मानव सहज स्वभाव और स्त्री मानसिकता काम प्रधान होती हे. अतः केवल कर्मकांड
से उसकी शुद्धि ना होने के कारण काम प्रधान मन कर्मकांड के उत्तरदायित्व का
दूषित परिणाम घोषित कर सकता हे.

- विशेष- (ज्योतिप्रकाश सत्यकाम दाश जी से साभार...)


- पुराकालेषु नारीणां मौन्जिवन्धन उपनयनमिष्यते
अध्यापनं च वेदानां सवित्रिवाचनं तथा
सावित्री वाचनं कुर्युः प्रणव व्याह्रुति विना -यम स्मृति.
means in past ladies got right for reading veda,chanting savitri mantra
upanayana .but they should not chant savitri with pranava or vyahruti....


- द्विविधाः स्त्रियः सन्ति-ब्रह्मवादिन्यः,सद्योवधू ..
ब्रह्मवादिनीनाम् उपनयनं अग्न्याध्यानं वेदाध्ययनं भैक्षचर्यां स्वपति गृहे
सद्योवधूनां उपनयनं कृत्वा विवाहः कार्यः =हारीत स्मृति...
means harita muni says there are two types of ladies..one are
brahmavaadini(lopamudra,maitrayee etc) and other are sadyavadhu(the girl
who is going to marry).for both of them upanayana etc ,vedadhyana etc done
in husband house(स्वपति गृहे )..for girls going to marry the upanayana
should be done before they marry.

- and one thing i can say the current practice of mangalsutra is
nothing.but substitute of yajnopaveeta which rishi patnis used to wear
during marriage.now the yajnopaveeta became mangalasutra,still in some
vedic brahmin society they do upanayana sanskaar of girls before they climb
marriage mandapa.

भगवान शिव और विश्व की इतिहास (Lord Shiva and world history)

  कुछ माह पहले ही 'ईश्वरकण' की खोज के प्रयोग से हलचल पैदा करने वाली 'नाभिकीय अनुसंधान यूरोपीय संगठन' (CERN) का नाम तो विज्ञान प्रेमियों को याद होगा। ११३ देशों के ६०८ अनुसंधान संस्थानों के ७९३१ वैज्ञानिक तथा इंजीनियर इस संस्थान में अनुसंधानरत हैं। यह फ़्रान्स और स्विट्ज़रलैण्ड दोनों देशों की‌ भूमि में १०० मीटर गहरे में स्थित है। यह अनेक अर्थों में विश्व की विशालतम भौतिकी‌ की प्रयोगशाला है।
१९८४ में यहां के दो वैज्ञानिकों को बोसान कणों की खोज के लिये नोबेल से सम्मानित किया गया। १९९२ में ज़ार्ज शर्पैक को कणसंसूचक के आविष्कार के लिये नोबेल से सम्मानित किया गया।१९९५ में यहां 'प्रति हाइड्रोजन ' अणुओं का निर्माण किया गया। वैसे तो इसकी उपलब्धियों की सूची लम्बी है, किन्तु इस समय यह फ़िर गरम चर्चा में है क्योंकि इसके एक प्रयोग से ऐसा निष्कर्ष- सा निकलता दिखता है कि एक अवपरमाणुक कण ने प्रकाश के वेग को हरा दिया है।
यह तो आइन्स्टाइन को अर्थात एक दृष्टि से आधुनिक भौतिकी के एक आधार स्तंभ को ध्वस्त कर सकने वाली खोज है। अभी‌ इस क्रान्तिकारी खोज की जाँच पड़ताल चल रही है। सरलरूप से कहें तब इस प्रयोगशाला में मुल कणों को तेज से तेज दौड़ाया जाता है, अर्थात यह प्रयोगशाला 'कण त्वरक' है जो मूलकणों को प्रकाश वेग के निकटतम त्वरित वेग (particle accelerator) प्रदान करने की क्षमता रखती है, और फ़िर यह उनमें, यदि मैं विनोद में कहूं तब, मुर्गों के समान टक्कर कराती है (अतएव इसका नाम विशाल हेड्रान संघट्टक भी है ) और यह इस तरह नए कणों का निर्माण कर सकती है, और प्रयोगशाला में‌ ही यह ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की‌ सूक्ष्मरूप में रचना कर सकती है। न केवल यह आकार और प्रकार में विशालतम है वरन कार्य में‌ सूक्ष्मतम कणों के व्यवहार की‌ खोज करती है, जिनके अध्ययन से इस विराट ब्रह्माण्ड की संरचना समझने के लिये भी मदद मिलती है।
संभवत: आपको विश्वास न हो कि इस विशालतम भौतिकी प्रयोगशाला केन्द्र में शिव जी कहना चाहिये कि नटराज की एक विशाल प्रतिमा स्थापित है ! जिस तरह शिव जी का ताण्डव नृत्य सृष्टि के विनाश और पुन: निर्माण का द्योतक है उसी‌ तरह इस ब्रह्माण्ड में सूक्ष्मतम कण नृत्य करते हैं, एक दूसरे को नष्ट करते हैं, और नए कणों की रचना करते हैं। अर्थात शिव जी का ताण्डव नृत्य ब्रह्माण्ड में हो रहे मूल कणों के 'नृत्य' का प्रतीक है।
१९७५ में फ़्रिट्याफ़ काप्रा, एक प्रसिद्ध अमैरिकी भौतिकी वैज्ञानिक ने 'द डाओ आफ़ फ़िज़िक्स' नाम की एक अनोखी पुस्तक लिखी, यह उनकी पाँचवी 'अंतर्राष्ट्रीय सर्वाधिक प्रिय पुस्तक सिद्ध हुई, इसके २३ भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। इस पुस्तक में‌ काप्रा ने शिव के ताण्डव और अवपरमाण्विक कणों के ऊर्जा नृत्य का संबन्ध दर्शाया है; "यह ऊर्जा नृत्य विनाश तथा रचना की स्पंदमान लयात्मक अनंत प्रक्रिया है। अतएव आधुनिक भौतिकी वैज्ञानिक के लिये हिन्दू पुराणों में वर्णित शिव का नृत्य समस्त ब्रह्माण्ड में अवपरमाण्विक कणॊं का नृत्य है, जो कि समस्त अस्तित्व तथा प्राकृतिक घटनाओं का आधार है।" वे आगे कहते हैं, "आधुनिक भौतिकी में‌ पदार्थ निष्क्रिय और जड़ नहीं‌ है वरन सतत नृत्य में रत है।" इस तरह आधुनिक भौतिकी तथा हिन्दू ज्ञान दोनों ही दृढ़ हैं कि ब्रह्माण्ड को गत्यात्मक ही समझना चाहिये, इसकी‌ निर्मिति स्थैतिक नहीं है।
नेपाल में
 पशुपतिनाथ क्षेत्र नेपाल में हिंदुओं का सबसे पवित्र तीर्थस्थान है। यह मंदिर प्राचीन श्लेस्मान्तक वन मे बागमती नदी के किनारे अवस्थित है। यह मंदिर युनेस्को अनुसार एक विश्व धरोहर क्षेत्र है। यहां पर मंदिरों की लंबी श्रृंखला, श्मशान घाट, धार्मिक स्‍नान और साधुओं की टोलियां देख सकते हैं। भगवान शिव को समर्पित पशुपतिनाथ मंदिर बागमती नदी के किनार बना है। नेपाल में बागमती को गंगा नदी समान श्रद्धापूर्वक पवित्र माना जाता है। इस मंदिर को भगवान शिव का एक घर माना जाता है। प्रतिवर्ष हजारों श्रद्धालु यहां दर्शनों के लिए आते हैं।
पाकिस्तान
ऎतिहासिक पृष्टभूमि
जहानाबाद जिला ऎतिहासिक दृषिकोण से अत्यंत महत्ववाला क्षेत्र है। प्रसिदॄ पुस्तक "आईना-ए-अकबरी" मे इस स्थान का जिक्र किया गया है। 17 वीं शताब्दी मे औरंगजेब के शासनकाल मे यहाँ एक भीषण अकाल पड़ा था। भूख के कारण प्रतिदिन सैकङों लोग काल का ग्रास बन रहे थे। ऎसी परिस्थिति मे मुगल बादशाह ने अपनी बहन जहानआरा के नेतृत्व मे एक दल अकाल राहत कार्य हेतु भेजा। जहानआरा के स्मृति मे इस स्थान का नाम जहानआराबाद जो कालांतर मे "जहानाबाद" के नाम से हुआ। प्राचीनकाल के इतिहास की ओर रुख करें तो यह क्षेत्र मगध का एक छोटा सा हिस्सा था। इस जिला के मखदुमपुर प्रखंड मे अवस्थित बराबर पहाङ भौगोलिक, ऎतिहासिक धार्मिक एवं पर्यटन की दृष्टि से प्राचीन काल से ही अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है। प्रखंड मुख्यालय से 11 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस पर्वत की चोटी के मध्य मे बाबा सिद्धेश्वरनाथ उर्फ भगवान शंकर का अत्यंत प्राचीन मन्दिर है। मगध सेनापति बाणावर ने अपने प्रवास के दौरान एक विशाल मन्दिर का निर्माण कराया था। जो आज दबा पडा है। इसी पर्वत की चोटी पर सम्राट अशोक ने अपनी एक रानी की मांग पर आजीवक सम्प्रदाय के साधुओ के लिए गुफाओ का निर्माण कराया। जो आज भी उसी स्थिति मे विद्धमान है। ये गुफाए विश्व की प्रथम मानव निर्मित गुफाओ के रुप मे जानी जाती है। अशोक के पोत्र दशरथ ने भी बोद्ध भिक्षुओ के लिए कुछ गुफाओ का निर्माण कराया गुफाओ के अदर ग्रेनाइट पत्थर चिकनाहट की कला अभूतपूर्व है। पत्थर छूने पर ऎसा प्रतीत होता है मानो मिस्त्री अभी उठकर बाहर गए हो। ऎसा माना जाता है कि इसी पर्वत पर खुदा तालाब पर ब्राहण विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ कर बुद्ध यहाँ से फल्गु नदी के मार्ग से बोध-गया गए थे। अतः ऎतिहासिक द्रष्टि से इस स्थान का बहुत महत्व है। प्रसिद्ध पुस्तक " ए पसेज टू इडिया" में बराबर की मालावार के रुप मे प्रस्तुत किया गया है। 01 अगस्त 1986 ई0 को इसके इतिहास मे एक नया अध्याय का श्री गणेश हुआ जो स्वर्णाक्षरों से लिखे जाने योग्य है। उपर्युक्त तिथि को जहानाबाद एक जिले के रुप मे जग- जाहिर हुआ।
चीन देश मे चम्पा
वर्तमान ‘अनाम’ का अधिकांश भाग इस क्षेत्र में समाहित था। इसका विस्तार 140 से 100 उत्तरी देशान्तर के बीच में था। हिन्दचीन में भारतीयों का सर्वाधिक प्राचीन उपनिवेश 'चम्पा' था। ईसवी सन् से पूर्व ही भारतवासी इस देश में प्रविष्ट हो चुके थे। उस काल मे चम्पा राज्य सुख, वैभव और समृद्धि से भरपूर अनेक नगरों तथा अति सुन्दर हिन्दू व शिव मन्दिरों से सुशोभित था। वहाँ के ‘मिसांग’ और ‘डांग डुआंग’ नाग के दो नगर आज भी दर्शनीय मन्दिरों के लिए प्रसिद्ध हैं। यहाँ के हिन्दू निवासी हिन्दू देवी-देवताओं की उपासना करते थे। चम्पा की वास्तुकला और तक्षण-कला सर्वश्रेष्ठ थी। इस राज्य में संस्कृत भाषा और हिन्दू धर्म तथा संस्कृति का व्यापक प्रसार था। मंगोलों और अनामियों के भीषण आक्रमणों ने सोलहवीं सदी में भारत के इस औपनिवेशिक राज्य का अन्त कर दिया। चम्पापुरी के वर्तमान अवशेषों में यहाँ के प्राचीन भारतीय धर्म व संस्कृति की सुन्दर झलक
अफगानिस्तान में इस्लाम के आगमन के पहले अनेक हिन्दू राजाओं का भी राज रहा| ऐसा नहीं है कि ये राजा काशी, पाटलिपुत्र्, अयोध्या आदि से कन्धार या काबुल गए थे| ये एकदम स्थानीय अफगान या पठान या आर्यवंशीय राजा थे| इनके राजवंश को ‘हिन्दूशाही‘ के नाम से ही जाना जाता है| यह नाम उस समय के अरब इतिहासकारों ने ही दिया था| सन्र 843 में कल्लार नामक राजा ने हिन्दूशाही की स्थापना की| तत्कालीन सिक्कों से पता चलता है कि कल्लार के पहले भी रूतविल या रणथल, स्पालपति और लगतुरमान नामक हिन्दू या बौद्घ राजाओं का गांधार प्रदेश में राज था| ये राजा जाति से तुर्क थे लेकिन इनके ज़माने की शिव, दुर्गा और कार्तिकेय की मूतियाँ भी उपलब्ध हुई हैं| ये स्वयं को कनिष्क का वंशज भी मानते थे| अल-बेरूनी के अनुसार हिन्दूशाही राजाओं में कुछ तुर्क और कुछ हिन्दू थे| हिन्दू राजाओं को ‘काबुलशाह‘ या ‘महाराज धर्मपति‘ कहा जाता था| इन राजाओं में कल्लार, सामन्तदेव, भीम, अष्टपाल, जयपाल, आनन्दपाल, त्रिलोचनपाल, भीमपाल आदि उल्लेखनीय हैं| इन राजाओं ने लगभग साढ़े तीन सौ साल तक अरब आततायियों और लुटेरों को जबर्दस्त टक्कर दी और उन्हें सिंधु नदी पार करके भारत में नहीं घुसने दिया| लेकिन 1019 में महमूद गज़नी से त्रिलोचनपाल की हार के साथ अफगानिस्तान का इतिहास पलटा खा गया| फिर भी अफगानिस्तान को मुसलमान बनने में पैगम्बर मुहम्मद के बाद लगभग चार सौ साल लग गए
ग्रीक की इतिहास चीनी यात्री युवानच्वांग के अनुसार- कान्यकुब्ज प्रदेश की परिधि 400 ली या 670 मील थी। वास्तव में हर्षवर्धन (606-647 ई.) के समय में कान्यकुब्ज की अभूतपूर्व उन्नति हुई थी और उस समय शायद यह भारत का सबसे बड़ा एवं समृद्धशाली नगर था। युवानच्वांग लिखता है कि नगर के पश्चिमोत्तर में अशोक का बनवाया हुआ एक स्तूप था, जहाँ पर पूर्वकथा के अनुसार गौतम बुद्ध ने सात दिन ठहकर प्रवचन किया था। इस विशाल स्तूप के पास ही अन्य छोटे स्तूप भी थे, और एक विहार में बुद्ध का दाँत भी सुरक्षित था, जिसके दर्शन के लिए सैकड़ों यात्री आते थे। युवानच्वांग ने नगर के दक्षिणपूर्व में अशोक द्वारा निर्मित एक अन्य स्तूप का भी वर्णन किया है जो कि दो सौ फुट ऊँचा था। किंवदन्ती है कि गौतम बुद्ध इस स्थान पर छः मास तक ठहरे थे।
युवानच्वांग ने कान्यकुब्ज के सौ बौद्ध विहारों और दो सौ देव-मन्दिरों का उल्लेख किया है। वह लिखता है कि 'नगर लगभग पाँच मील लम्बा और डेढ़ मील चौड़ा है और चतुर्दिक सुरक्षित है। नगर के सौंन्दर्य और उसकी सम्पन्नता का अनुमान उसके विशाल प्रासादों, रमणीय उद्यानों, स्वच्छ जल से पूर्ण तड़ागों और सुदूर देशों से प्राप्त वस्तुओं से सजे हुए संग्रहालयों से किया जा सकता है'। उसके निवासियों की भद्र वेशभूषा, उनके सुन्दर रेशमी वस्त्र, उनका विद्या प्रेम तथा शास्त्रानुराग और कुलीन तथा धनवान कुटुम्बों की अपार संख्या, ये सभी बातें कन्नौज को तत्कालीन नगरों की रानी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त थीं। युवानच्वांग ने नगर के देवालयों में महेश्वर शिव और सूर्य के मन्दिरों का भी ज़िक्र किया है। ये दोनों क़ीमती नीले पत्थर के बने थे और उनमें अनेक सुन्दर मूर्तियाँ उत्खनित थीं। युवानच्वांग के अनुसार कन्नौज के देवालय, बौद्ध विहारों के समान ही भव्य और विशाल थे। प्रत्येक देवालय में एक सहस्र व्यक्ति पूजा के लिए नियुक्त थे और मन्दिर दिन-रात नगाड़ों तथा संगीत के घोष से गूँजते रहते थे। युवानच्वांग ने कान्यकुब्ज के भद्रविहार नामक बौद्ध महाविद्यालय का भी उल्लेख किया है, जहाँ पर वह 635 ई. में तीन मास तक रहा था। यहीं रहकर उसने आर्य वीरसेन से बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन किया था।
प्राचीन समय मे पृथ्वी के मध्य मे स्थित सुमेरु (मेरु) पर्वत के उत्तर मे चार दिव्य जाती नाग, यक्ष, गांधर्व, कुंभन का वर्णन मिलता है। सुमेरु पर्वत के ऊपर सपाट प्रदेश मे सुरलोक व नीचे पाताललोक या असुरलोक होने की मान्यता है। जंबुद्वीप सुमेरु के दक्षिण मे होने का वर्णन मिलता है। संभवतः यह भारतीय उपखंड के स्खलन व जावा द्वीप के स्थिरीकरण से पहले की स्थिति का वर्णन हो सकता है।
प्राचीन मेसोपोटेमिया (सुरप्रदेश/सुमेरिया/सिरिया) के अभीर या सुराभीर नाग ब्राह्मणो की ओर से विश्व को कृषिशास्त्र, गोवंशपालन या पशुपालन आधारित अर्थतंत्र, भाषा लेखन लिपि, चित्र व मूर्तिकला, स्थापत्य कला (नगर शैली), नगर रचना (उन्ही के नाम से नगर शब्द), खाध्यपदार्थो मे खमीरिकरण या किण्वन (fermentation) प्रक्रिया की तकनीक (अचार, आटा/ब्रेड/नान, घोल/batter, सिरका, सुरा) इत्यादि जैसी सदैव उपयोगी भेट मिली है जो वर्तमान युग मे भी मानव जीवन और अर्थतन्त्र की द्रष्टि से अति महत्वपूर्ण है।
बाइबल मे उल्लेखित अपनी समृद्धि के लिए प्रसिद्ध ओफिर (सोफिर) क्षेत्र और बन्दरगाह भी अभीर (सूराभीर) का ही द्योतक है। ग्रीक भाषा मे ओफिर का अर्थ नाग होता है। हिब्रू भाषा मे ‘अबीर’ ‘Knight’ याने शूरवीर योद्धा या सामंत के अर्थ मे प्रयोग होता है। संस्कृत मे अभीर का अर्थ नीडर होता है। भारतवर्ष मे ‘अभीर’ अभीर-वंशी-राजा के अर्थ मे भी प्रयोग हुआ है। आज भी इस्राइल मे ओफिर शीर्ष नाम का प्रयोग होता है। यह जानना भी रसप्रद होगा की कोप्टिक भाषा (मिस्र/इजिप्त) मे ‘सोफिर’ भारतवर्ष के संदर्भ मे प्रयोग होता था।
सोफिर बन्दरगाह से हर तीन साल मे क्षेत्र के अभीर राजा सोलोमन को सोना, चाँदी, गंधसार (संदल), अनमोल रत्न, हाथीदांत, वानर, मयूर, इत्यादि प्राप्त होते थे। इसमे ओफिर पर्वत (वर्तमान मे गुनुङ्ग लेदान पर्वत, मुयार, मलेशिया-जहा उस काल मे अभीरों का दबदबा था) से भी सोने और अन्य वस्तुओ के प्रेषण आते थे। ओफिर नामक स्थल ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, कनाडा, यूएसए मे भी पाये जाते है और रोचक बात यह है की इनमेसे अधिक्तर कहीं न कही सोने से संबंधीत है।
अभीर राजा सोलोमन द्वारा बनवाए गए मंदिरो मे गर्भगृह (holiest of the holy chamber) के मध्य मे इष्ट देवता ईश्वर के प्रतीक पवित्र पत्थर (शिवलिंग) ‘कलाल’ का स्थापन होता था जो की महारुद्र भगवान शिव के कालकाल या कालांतक स्वरूप का द्योतक है। (Kalal or Qalal actually means Sacred Stone referring to deity(Shivlinga) placed at the centre of the Holiest of the Holy inside chamber (Garbhgruha) of the temples of Soloman). यह मंदिरो की रूपरेखा आश्चर्यजनक रूप से शिवालय एवं शाकाद्वीपीय या भोजक ब्राह्मणो द्वारा बनाए गए सूर्यमंदिरो से मिलती जुलती है। माना जाता है की भोजक ब्राह्मण मूलतः अश्वका प्रदेश या प्राचीन महाद्वीप कंबोज एवं साका से आए है। विष्णुपुराण मे कंभोजको को योद्धा एवं ज्ञानी (ब्राह्मण) और मित्र दर्शाया गया है। सोलोमन के मंदिरो मे ईश्वर के प्रतीक पवित्र पत्थर (कलाल) को अतिपवित्र स्थान (गर्भगृह) के मध्य मे रखा जाता था। मंदिरो मे बाहरी पवित्र स्थान Holy Chamber (मण्डप), ब्रेज़न या मोलटन सी (कुंड), सामने ओक्सेन (नंदी), परिक्रमा पथ, इत्यादि होते थे। बेबीलोनियन (असुर/Assyrian) आक्रमणों मे इन मंदिरो को नष्ट कर दीया गया था। कलाल (शिवलिंग), पवित्र कमान, पात्र (Vessel) एवं मंदिर का अन्य सामान अक्रांताओ से बचाने के लिए छुपा दिया गया था। कुछ लोग काबा के पवित्र पत्थर को भी इसी संदर्भ मे देखते है।
‘कलाल’ प्राचीन सोलोमन-बेबीलोनियन काल से भी पहले से प्रयोग किया जाता रहा अति पवित्र शब्द है जो त्रिनेत्रेश्वर रुद्र भगवान शिव के कालकाल या कालाहारी (कालांतक) स्वरूप का द्योतक है।
अरब की प्राचीन समृद्ध वैदिक संस्कृति और भारत
अरब देश का भारत, भृगु के पुत्र शुक्राचार्य तथा उनके पोत्र और्व से ऐतिहासिक संबंध प्रमाणित है, यहाँ तक कि "हिस्ट्री ऑफ पर्शिया" के लेखक साइक्स का मत है कि अरब का नाम और्व के ही नाम पर पड़ा, जो विकृत होकर "अरब" हो गया। भारत के उत्तर-पश्चिम में इलावर्त था, जहाँ दैत्य और दानव बसते थे, इस इलावर्त में एशियाई रूस का दक्षिणी-पश्चिमी भाग, ईरान का पूर्वी भाग तथा गिलगित का निकटवर्ती क्षेत्र सम्मिलित था। आदित्यों का आवास स्थान-देवलोक भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित हिमालयी क्षेत्रों में रहा था। बेबीलोन की प्राचीन गुफाओं में पुरातात्त्विक खोज में जो भित्ति चित्र मिले है, उनमें भगवान शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं के अनन्य उपासक करते हुए उत्कीर्ण किया गया है।
इस्लाम मजहब के प्रवर्तक मोहम्मद स्वयं भी वैदिक परिवार में हिन्दू के रूप में जन्में थे, और जब उन्होंने अपने हिन्दू परिवार की परम्परा और वंश से संबंध तोड़ने और स्वयं को पैगम्बर घोषित करना निश्चित किया, तब संयुक्त हिन्दू परिवार छिन्न-भिन्न हो गया और काबा में स्थित महाकाय शिवलिंग (संगे अस्वद) के रक्षार्थ हुए युद्ध में पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम को भी अपने प्राण गंवाने पड़े। उमर-बिन-ए-हश्शाम का अरब में एवं केन्द्र काबा (मक्का) में इतना अधिक सम्मान होता था कि सम्पूर्ण अरबी समाज, जो कि भगवान शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं के अनन्य उपासक थे, उन्हें अबुल हाकम अर्थात 'ज्ञान का पिता' कहते थे। बाद में मोहम्मद के नये सम्प्रदाय ने उन्हें ईष्यावश अबुल जिहाल 'अज्ञान का पिता' कहकर उनकी निन्दा की।
जब मोहम्मद ने मक्का पर आक्रमण किया, उस समय वहाँ बृहस्पति, मंगल, अश्विनी कुमार, गरूड़, नृसिंह की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थी। साथ ही एक मूर्ति वहाँ विश्वविजेता महाराजा बलि की भी थी, और दानी होने की प्रसिद्धि से उसका एक हाथ सोने का बना था। 'Holul' के नाम से अभिहित यह मूर्ति वहाँ इब्राहम और इस्माइल की मूर्त्तियो के बराबर रखी थी। मोहम्मद ने उन सब मूर्त्तियों को तोड़कर वहाँ बने कुएँ में फेंक दिया, किन्तु तोड़े गये शिवलिंग का एक टुकडा आज भी काबा में सम्मानपूर्वक न केवल प्रतिष्ठित है, वरन् हज करने जाने वाले मुसलमान उस काले (अश्वेत) प्रस्तर खण्ड अर्थात 'संगे अस्वद' को आदर मान देते हुए चूमते है।
यह मंदिर रामायण काल से भी अधिक प्राचीन है । यह रामायण से सम्बन्धित श्रीलंका का सबसे महत्वपूर्ण एवं भगवान शिव का सबसे प्राचीन व एतिहासिक मंदिर है । मुनेश्वरम्‌ का अर्थ है (मुनि+ईश्वरम) । भगवान शिव का प्रथम मंदिर । शिवलिंगम यहाँ पहले से ही (श्रीराम के आने से पूर्व) स्थापित था । इसका अर्थ है कि राजा रावण इस मंदिर में भगवान शिव की पूजा करते थे । श्रीराम और रावण के युद्ध एवं रावण की मृत्यु के पश्चात्‌ जब श्रीराम विमान से अयोध्या वापस जा रहे थे तो ब्रह्महस्थि दोष के कारण विमान में कंपन होने लगा और जब विमान मुनेश्वरम्‌ मन्दिर के ऊपर पहुँचा तो कम्पन रुक गया । श्रीराम जानते थे कि राजा रावण प्रतिदिन मुनेश्वरम्‌ मन्दिर में शिवजी की पूजा करने के लिए जाते थे । अतः श्रीराम ने अपना विमान मुनेश्वरम्‌ में रोका और भगवान से कोई मार्ग दिखाने की प्रार्थना की तब भगवान शिव ने सुझाव दिया कि ब्रह्महस्थि दोष को दूर करने के लिए चार लिंग मन्दिरों की स्थापना चारों कोनों पर करो तत्पश्चात्‌ श्रीराम ने लंका के चारों कोनों पर एक-एक लिंग की स्थापना की । इनमें से एक लिंग (रामेश्वरम्‌) भारत में है । लंकापुर में चारों कोनों पर मन्नावरी, तिरुकोनेश्वरम्‌, तिरुकेथेश्वरम्‌ एवं रामेश्वरम्‌ (भारत में) स्थापित है ।
कोई यह न समजे की भगवान शिव केवल भारत में पूजित है । विदेशो में भी कई स्थानों पर शिव मुर्तिया अथवा शिवलिंग प्राप्त हुए है कल्याण के शिवांक के अनुसार उत्तरी अफ्रीका के इजिप्त में तथा अन्य कई प्रान्तों में नंदी पर विराजमान शिव की अनेक मुर्तिया है वहा के लोग बेल पत्र और दूध से इनकी पूजा करते है । तुर्किस्थान के बबिलन नगर में १२०० फिट का महा शिवलिंग है । पहले ही कहा गया की शिव सम्प्रदायों से ऊपर है। मुसलमान भाइयो के तीर्थ मक्का में भी मक्केश्वर नमक शिवलिंग होना शिव का लीला ही है वहा के जमजम नमक कुएं में भी एक शिव लिंग है जिसकी पूजा खजूर की पतियों से होती है इस कारण यह है की इस्लाम में खजूर का बहूत महत्व है । अमेरिका के ब्रेजील में न जाने कितने प्राचीन शिवलिंग है । स्क्यात्लैंड में एक स्वर्णमंडित शिवलिंग है जिसकी पूजा वहा के निवासी बहूत श्रदा से करते है । indochaina में भी शिवालय और शिलालेख उपलब्ध है । यहाँ विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं । शिव निश्चय ही विश्वदेव है
-----   जगन्नाथ   कारंजे 

TOUCHINF FEET OF ELDERS / SAINTS IN INDIAN CULTURE / बड़ो बुझुर्गो और संत महात्माओं के चरण स्पर्श


DIFFERENT VIEWS ON THE TOPIC
1.      Indians touch the feet of saints, sages and their elders,parents.There are several benefits behind this convention. According to scriptures, the act of touching feet is a mark of kindness and in return the elders bless the person which reduces his/her misfortune and calms down the mind.
There are some physical, mental and ideological developments are associated with it. The person is not only benefited with the blessings but unconsciously the person reveals his/her modesty and humble nature.
-It is also a sort of exercise. There are three methods of touching the feet. The first is to lean forward and touch the feet, second way is to sit on knees and the third one is the 'Sashtaang Pranaam'.
-Leaning forward and touching the feet stretches the waist and back bone.
-The second method relieves pain of the knees as the person bend his/her knees. All the joints of the body get stretched in the third method which removes stress and cures body pain.
-Besides these, bowing down increases blood circulation which is beneficial for a good health.
-Touching the feet reduces ego as it indicates respect and subservience. When the feeling of respect and dedication arouse automatically it suppress the egoistic nature of the person.
-Touching the feet of elders and parents before venturing any new task or assignment, ensures success and confidence.
With all these benefits and advantages, the custom is being practiced whole heartedly and it indicates India's rich heritage.
2.      Touching feet of Elders or Saints is a unification of point of SHRADDHA & KARUNA .
" SHRADDHA " reduces "ego" & lower emotions along with
Solar plexus chakra .
" KARUNA " activates HERT- CHAKRA of the saints or elders.
" SHRADDHA " increases receptivity of the person ,while
" KARUNA " Start to discharge energy from HEART CHAKRA towards
the person who is reseptive with " SHRADDHA "
THIS TECHNIQUE IS ALSO APPLICABLE IN DIVINE PUJA.
IF THER IS NO SHRADDHA TOWARD GOD,
DEVOTEE CANT GET " KARUNA " [ Energy of blessings] FROM GOD.
THUS,
WHEN WE TOUCH THE FEET OF ELDERS /SAINTS WITH 'SHRADDHA'
WE RECEIVE ENERGY OF 'KARUNA' / BLESSINGS FROM THEM.
3.      It is not merely 'touching' somebody's feet!
The ancient practice is to 'submit' ourselves, along with our 'bio-data' for their evaluation, information, guidance, grace, blessings etc.
The process is getting connected to their 'energies'.
When we touch, the palms are receptive centres.
When consciously allowed a touch, the feet become 'giving' out channels. Then the left and right are connected to the other person's right and left respectively. So the circuit is completed. The transfer of 'life-energy', the positive vibrations flow, in full awareness, with full knowledge about the right type, kind, and measure(that is why the bio-data).
While giving the biodata before actually prostrating (eight limbs touching the ground, known as Sa-Ashtanga-namaskar), the palms are placed gently on ears and the biodata is 'pronounced' in a proper chronological order, mentioning the root of heritage, ancestry, right from a sage, who started that lineage.
Oh! So much of it there in it.
Most of it is very difficult to be grasped by a logical mind (since the very perception requires 'beynd-sensory-level-perceptions'!). So very difficult to accept this explanation.
To what ever extent the 'diluted' explanation appeals, people follow this tradtion to that 'diluted' extent (just bowing, lightly touching with few of fingers of one hand, or just a short-cut of touching the knees etc!). The benefits too are proportinately 'truncated'!
Science is ill-equipped to fathom the deeper significance of such tradions.....
So, the absence of proof need not be proof of absence!!
Good going.
Happy to note that there are a few around, ready and inquisitive to take a look at these 'silly-looking' traditional practices!
A little more details may be liked by those inquisitive.
It may not be the case that ALL those persons, whose feet we touch are equally capable of giving all types of benefits. At the least they should be capable of acting like a mobile battery charger. A good charger may not hold that charge, but can charge a mobile well, affording good ‘talk-time’. By mere reason of being elderly, though themselves physically weak, some elders can become chargers of energy when we touch their feet, since they MIGHT have acquired that knack of plugging themselves to ‘existence’ the universal energy! The younger ones who might be good processor-chips, cannot do well without that periodical re-charge and back up energy!
Then, during the lifetime of the great famous person Bhagwan Ramana Maharishi, it is said that there were volunteers around him to warn the visitors, not to look into his eyes, while they touch his feet! Usually, when we bend to touch, our head remains bent down, so very little chances of eye-to-eye contact. Yet there was that abundant caution, ONLY in case of this ‘Being’. Even now we can see that unusual ‘glow’ or ‘charge’ in the eyes when we look at photographs of Ramana Maharishi, and this seems to ‘substantiate’ the practice!
In puranas(Ramayana), it seems Ravana was more skilled and yet lost to Rama , simply because Ravana was reluctant to touch anybody’s feet, where as Rama was an embodiment of humility, and never lost a chance to pay respects, seeking blessings by touching a ‘worthy’ elder’s feet!
(And by the way, one of the answerers happened to ‘touch’ a very significant ‘point’. Usually, such aspects are not revealed so casually/carelessly! It may be counter-productive if noticed and grasped by negative type of people! Obviously, it does not warrant any further elaboration to its reference.)