परशुराम (जामदग्न्य) भगवान परशुराम महर्षि जमदग्नि के महान् पराक्रमी पुत्र थे, जिन्होंने इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार किया था। भृगुवंश में पैदा होने के कारण, जमदग्नि एवं परशुराम ‘भार्गव’ पैतृक नाम से ख्यातनाम थे। भार्गव वंश के ब्राह्मण पश्चिम भारत पर राज्य करने वाले हैहय राजाओं के कुलगुरु थे। भार्गववंश के ब्राह्मण आनर्त (गुजरात) देश के रहने वाले थे। पश्चात् हैहय राजाओं से भार्गवों का झगड़ा हो गया एवं वे उत्तरभारत के, कान्यकुब्ज देश में रहने गये । फिर भी, बारह पीढियों तक हैहय एवं भार्गव का वैर चलता रहा । इसीलिये प्राचीन इतिहास में २५५० ई. पू. से २३५० ई.पू. तक यह काल ‘भार्गव-हैहय’ नाम से पहचाना जाता है । हैहय एवं भार्गवों के वैर की चरम सीमा परशुराम जामदग्न्य के काल में पहुँचे गयी, एवं परशुराम ने हैहयों का और संबंधित क्षत्रियों का इक्कीस बार संहार किया । इसी कारण ब्राह्मतेज की मूर्तिमंत एवं ज्वलंत प्रतिमा बन कर, परशुराम इस विशिष्ट काल के इतिहास में अमर हो गया है । ‘राम भार्गवेय’ नामक एक वैदिक ऋषि का नाम एक सूक्तद्रष्टा के रुप में आया है [ऋ.१०.११०] । ‘सर्वानुक्रमणी’ के अनुसार यही परशुराम है । ‘राम भार्गवेय’ श्यापर्ण लोगों के पुरोहित थे । ‘राम भार्गवेय’ एवं परशुराम एक ही था यह निश्चित से नहीं कहा जा सकता । हैहय राजा कार्तवीर्य एवं परशुराम के युद्ध का निर्देश अथर्ववेद में संक्षिप्त रुप में आया है [अ.वे.५.१८.१०] । अथर्ववेद के अनुसार, कार्तवीर्य राजा ने जमदग्नि ऋषि की धेनु हठात् ले जाने का प्रयत्न किया । इसलिये परशुराम द्वारा कार्तवीर्य एवं उनके वंश का पराभव हुआ । परशुराम महर्षि जमदग्नि के पॉंच पुत्रों में से कनिष्ठ पुत्र थे । इनकी माता का नाम ‘कामली रेणुका’ था जो इक्ष्वाकु वंश के राजा की पुत्री थी । परशुराम धनुर्विद्या में ही नहीं, बल्कि अन्य सभी अस्त्र-शस्त्र सम्बन्धी विद्याओं में प्रवीण थे [ब्रह्म.१०] । वे भगवान विष्णु का अवतार थे [पद्म.उ.२४८];[ मत्स्य.४७.२४४];[ वायु.९१.८८,३६.९०] । इनका जन्म वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था [रेणु.१४] । वे १९ वें त्रेतायुग में उत्पन्न हुआ थे [दे.भा.४.१६] । त्रेता तथा द्वापर युगों के संधिकाल में परशुराम का अवतार हुआ था [म.आ.२.३] । शिक्षा उपनयन के उपरांत वे शालग्राम पर्वत पर गये । वहॉं महर्षि कश्यप ने इनको मंत्रोपदेश दिया [पद्म.३.२४१] । इसके अतिरिक्त इन्होंने भगवान शड्कर को प्रसन्न कर धनुर्वेद, शस्त्रास्त्रविद्या एवं मंत्र प्रयोगादि का ज्ञान प्राप्त किया [रेणु.१५];[ ब्रह्मांड.३.२२-५६-६०] । शिष्य तपस्या से वापस आते समय, राह में शालग्राम शिखर पर शान्ता के पुत्र को लकडबग्घे से मुक्त करा कर वे उसे अपने साथ ले आये । वही आगे चल कर, अकृतव्रण नाम से परशुराम के शिष्य के रूप में प्रसिद्ध हुआ । आश्रम महर्षि जमदग्नि का आश्रम नर्मदा के तट पर था [ब्रह्मांड.३.२३.२६] । भगवान परशुराम का आश्रम भी वहीं स्थित था। रेणुकावध एक बार महर्षि जमदग्नि रेणुका पर क्रोधित हो गये तथा परशुराम को उनका वध करने की आज्ञा दे दी, जिनका परशुराम ने पालन किया [म.व.११६.१४] । महर्षि जमदग्नि इस पर प्रसन्न हुये तथा इनकी इच्छानुसार रेणुका को पुनः जीवित कर उन्हें वरदान दिया कि – तुम अजेय हो, तथा स्वेच्छा पर ही मृत्यु को प्राप्त हो सकते हो [विष्णुधर्म.१.३६.११] । अस्त्रविद्या भगवान परशुराम को निम्नलिखित अस्त्र-शस्त्रों की जानकारी प्राप्त थीः— ब्रह्मास्त्र, वैष्णव, रौद्र, आग्नेय, वासव, नैऋत, याम्य, कौबेर, वारुण, वायव्य, सौम्य, सौर, पार्वत, चक्र, वज्र, पाश, सर्व, गांधर्व, स्वापन, भौत, पाशुपत, ऐशीक, तर्जन, प्रास, भारुड, नर्तन, अस्त्ररोधन, आदित्य, रैवत, मानव, अक्षिसंतर्जन, भीम, जृम्भण, रोधन, सौपर्ण, पर्जन्य, राक्षस, मोहन, कालास्त्र, दानवास्त्र, ब्रह्मशिरस[विष्णुधर्म १.५०] ।
हैहयों से शत्रुत्व
हैहय राजा कृतवीर्य ने अपने कुलगुरु ’ऋचीक और्व भार्गव’ को बहुत धन दिया था । पश्चात् वह धन वापस करने का ऋचीक ने इन्कार कर दिया । उस कारण कृतवीर्य के पुत्र सहस्त्रार्जुन (कार्तवीर्य अर्जुन) ने ऋचीक के उपर हाथ चलाया, जिस कारण अपने अन्य भार्गव बांधवों के साथ वह कान्यकुब्ज को भाग गये । ऋचीक स्वयं अत्यंत स्वाभिमानी एवं अस्त्रविद्या में कुशल थे । कान्यकुब्ज पहुँचते ही, हैहयों से अपमान का बदला लेने की वह कोशिश करने लगे । उस कार्य के लिये, उन्होंने नाना प्रकार के शस्त्रास्त्र इकठ्ठा किये एवं उत्तर भारत के शक्तिशाली राजाओं को अपने पक्ष में लाने का प्रयत्न करने लगे। इस हेतु से, कान्यकुब्ज देश के गाधि राजा की कन्या सत्यवती के साथ विवाह किया एवं अपने पुत्र जमदग्नि का विवाह अयोध्या के राजवंश में से रेणु राजा की कन्या रेणुका के साथ कराया । इस तरह, कान्यकुब्ज एवं अयोध्या के ये दो देश भार्गवों के पक्ष में आ गये । कामधेनुहरण महर्षि जमदग्नि भी पराक्रमी एवं अस्त्रविद्या में निपुण थे पर उनके पुत्र परशुराम उनसे भी अधिक पराक्रमी थे । एक बार परशुराम जब तप करने गये, तब कार्तवीर्य अर्जुन जमदग्नि से मिलने उसके आश्रम में आये । तपश्चर्या को जाने के पहले, अपनी कामधेनु नामक गौ परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि के पास अमानत रुप मे रखी थी । कार्तवीर्य ने उस गौ को महर्षि जमदग्नि से छीनने की कोशिश की । कामधेनु के शरीर से उत्पन्न हुये हजारों यवनों ने कार्तवीर्य का वध करने का प्रयत्न किया । किंतु अंत में जमदग्नि को घूंसे लगा कर, एवं उसका आश्रम जला कर कार्तवीर्य कामधेनु के साथ अपने राज्य में वापस चला गया । तपश्चर्या से लौटते ही, परशुराम को कार्तवीर्य की दुष्टता ज्ञात हुई, जिसके पश्चात उन्होंने तुरंत कार्तवीर्य के वध की प्रतिज्ञा ली। पुराणों के अनुसार, कार्ववीर्यवध की इस प्रतिज्ञा से इनको परावृत्त करने का प्रयत्न जमदग्नि ऋषि ने किया । उन्होंने कहा कि – ‘ब्राह्मणों के लिये यह कार्य अत्याधिक अशोभनीय है’। परंतु भगवान परशुराम ने कहा कि, ‘दुष्टों का दमन न करने से परिणाम बुरा हो सकता है’। जिसके पश्चात महर्षि जमदग्नि ने इस कृत्य के लिये ब्रह्मा जी की, तथा ब्रह्मा जी ने भगवान शंकर जी की सम्मति लेने के लिये कहा । सम्मति प्राप्त कर यह सरस्वती के किनारे, अगस्त्य ऋषि के पास आये, तथा उनकी आज्ञा से गंगा के उद्गम के पास जा कर, इन्होने तपश्चर्या की । इस तरह देवों का आशीर्वाद प्राप्त कर, परशुराम नर्मदा के किनारे आये । वहॉं से कार्तवीर्य के पास दूत भेज कर, उन्होंने कारतवीर्य को युद्ध का आह्वान किया । यद्यपि हैहय एवं भार्गवों के शत्रुत्व का इतिहास जान लेने पर, महर्षि जमदग्नि ने परशुराम को कार्तवीर्य वध से परावृत्त करने की कोशिश की थी ।
युद्ध
भगवान परशुराम की प्रतिज्ञा सुन कर, कार्तवीर्य ने भी युद्ध का आह्वान स्वीकार किया, एवं सेनापति को सेना सजाने के लिये कहा । अनेक अक्षौहिणी सेनाओं के सहित कार्तवीर्य युद्धभूमि पर आये। जिनका परशुराम ने नर्मदा के उत्तर किनारे पर मुकाबला किया । युद्ध के शुरु में कार्तवीर्य की ओर से मत्स्य राजा ने परशुराम पर जोरदार आक्रमण किये। बडी सुलभता के साथ परशुराम ने कार्तवीर्य का वध कर दिया । बृहद्वल, सोमदत्त एवं विदर्भ, मिथिला, निषध, तथा मगध देश के राजाओं का भी परशुराम ने वध किया । सात अक्षौहिणी सैन्य तथा एक लाख क्षत्रियों के साथ आये हुये सूर्यवंशज सुचन्द को परशुराम ने भद्रकाली की कृपा से परास्त दिया । सुचन्द्र के पुत्र पुष्कराक्ष को भी सिर से पैर तक काट कर, मार डाला । कार्तवीर्यवध बाद में प्रत्यक्ष कार्तवीर्य तथा उनके सौ पुत्रों के साथ भगवान परशुराम का युद्ध हुआ । शुरु में कार्तवीर्य ने परशुराम को बेहोश कर दिया । किन्तु, अन्त में परशुराम के कार्तवीर्य एवं उसके पुत्रों का सौ अक्षोहिणी सेनासहित नाश कर दिया [ब्रह्माड३.३९.११९];[ म.द्रो.परि.१क्र .८] । महाभारत के अनुसार, परशुराम ने कार्तवीर्य के सहस्त्र बाहू काट दिये, एवं एक सामान्य श्वापद या कुत्ते जैसा उसका वध किया [म.शां.४९.४१] । कार्तवीर्य के शूर, वृषास्य, वृष, शोरसेन तथा जयध्वज नामक पुत्रों ने पलायन किया । उन्होंने हिमालय की तराई में स्थित अरण्य में आश्रय लिया । परशुराम ने युद्ध समाप्त किया । पश्चात् यह नर्मदा में स्नान कर के शिवजी के पास गये । वहॉं गणेशजी ने इनको कहा ‘शिवजी के पास जाने का यह समय नहीं है’। फिर क्रुद्ध हो कर अपने फरसे से इन्होंने गणेशजी का एक दॉंत तोड दिया [ब्रह्मांड.३.४२]। पश्चात् जगदाग्नि के आश्रम में आ कर, इन्होंने कार्तवीर्यवध का सारा वृत्तांत सुनाया । क्षत्रिय हत्या के दोषहरण के लिये, जमदग्नि ने परशुराम को बारह वर्षो तक तप कर के प्रायश्चित्त करने के लिये कहा । फिर परशुराम प्रायश्चित करने के लिये महेंद्र पर्वत चले गये । मत्स्यपुराण के अनुसार, वे कैलास पर्वत पर गणेश जी की आराधना करने गए [मत्स्य.३६] । जिधर जिधर वे जाते थे, वहॉं क्षत्रिय डर के मारे छिप जाते थे, तथा अन्य सारे लोग इनकी जय जयकार करते थे [ब्रह्मांड.३.४४] । जमदग्निवध परशुराम तपश्चर्या में निमग्न ही थे कि, इधर कार्तवीर्य के पुत्रों ने तपस्या के लिये समाधि लगाये हुए जमदग्नि ऋषि का वध कर दिया, तथा वे उनका सिर ले कर भाग गये । ब्रह्मांड के अनुसार, महर्षि जमदग्नि का वध कार्तवीर्य के अमात्य चंद्रगुप्त ने किया [ब्रह्मांड. ३.२९.१४] । बारह वर्षों के बाद, परशुराम जब तपश्चर्या से वापस आ रहे था, तब मार्ग में उन्हें महर्षि जमदग्नि के वध की घटना सुनायी गयी । जमदग्नि के आश्रम में आते ही, रेणुका ने इक्कीस बार छाती पीट कर जमदग्निवध की कथा फिर दोहरायी । फिर क्रोधातुर हो कर, परशुराम ने केवल हैहयों का ही नहीं, बल्कि पृथ्वी पर से सारे क्षत्रियों के वध करने की, एवं पृथ्वी को निःक्षत्रिय बनाने की दृढ प्रतिज्ञा की ।
मातृतीर्थ की स्थापना
परशुराम के प्रतिज्ञा की यह कथा ‘रेणुकामहात्म्य’ में कुछ अलग ढंग से दी गयी है । कार्तवीर्य जब जमदग्नि से मिलने उसके आश्रय में गये, तब कामधेनु की प्राप्ति के लिये उन्होंने महर्षि जमदग्नि का वध किया । फिर अपने पिता का और्ध्वदैहिक करने के लिये, परशुराम एक डोली में जमदग्नि का शव, एवं रेणुका को बैठा कर, ‘कन्याकुब्जाश्रम’ से बाहर निकले । अनेक तीर्थस्थान एवं जंगलों को पार करते हुए, वह दक्षिण मार्ग से पश्चिम घाट के मल्लकी नामक दत्तात्रेय क्षेत्र में आये । मातृतीर्थ वहॉं कुछ काल तक विश्राम करने के उपरांत वे चलने वाले ही थे, कि इतने में आकाशवाणी हुयी ‘अपने पिता का अग्निसंस्कार तुम इसी जगह करों’। आकाशवाणी के कथनानुसार, परशुराम ने दत्तात्रेय की अनुमति से, जमदग्नि का अंतिम संस्कार किया । रेणुका भी अपने पति के शव के साथ अग्नि में सती हो गयी । बाद में परशुराम ने मातृ-पितृप्रेम से विह्रल हो कर इन्हें पुकारा । फिर दोनों उस स्थान पर प्रत्यक्ष उपस्थित हो गये । इसी कारण उस स्थान को ‘मातृतीर्थ’ (महाराष्ट्र में स्थित आधुनिक माहूर) नाम दिया गया । इस मातृतीर्थ में परशुराम की माता रेणुका स्वयं वास करती है । इस स्थान पर रेणुका ने परशुराम को आज्ञा दी, ‘तुम कार्तवीर्य का वध करो, एवं पृथ्वी को निःक्षत्रिय बना दो’। नर्मदा के किनारे मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम था । वहॉं मार्कण्डेय ऋषि का आशीर्वाद लेकर, परशुराम ने कार्तवीर्य का वध किया एवं पृथ्वी निःक्षत्रिय करने की अपनी प्रतिज्ञा निभाने के लिये, यह आगे बढे [रेणु. ३७-४०] ।
हैहयविनाश
अपनी प्रतिज्ञा निभाने के लिये, परशुराम ने सर्वप्रथम अपने गुरु अगस्त्य का स्मरण किया । फिर अगस्त्य ने इनको उत्तम रथ एवं आयुध दिये । सहसाह इनका सारथि बना [ब्रह्मांड.३.४६.१४] । रुद्रद्वारा दिया गया ‘अभित्रजित्’ शंख इन्होंने फूँका । कार्तवीर्य के शूरसेनादि पॉंच पुत्रों ने अन्य राजाओं को साथ ले कर, परशुराम का सामना करने का प्रयत्न किया । उनको वध कर, अन्य क्षत्रियों का वध करने का सत्र इन्होंने शुरु किया । हैहय राजाओं की राजधानी माहिष्मती नगरी को उन्होंने जला कर भस्म कर डाला था। हैहयों में से वीतिहोत्र केवल बच गया, शेष हैहय मारे गये । हैहयविनाश का यह रौद्र कृत्य पूरा कर, परशुराम महेंद्र पर्वत पर तपस्या करने के लिये चले गये । नये क्षत्रिय पैदा होते ही, उनका वध वरने की उनकी प्रतिज्ञा थी । उस कारण वह दस वर्षो तक लगातार तपस्या करते थे, एवं दो वर्षों तक महेंद्र पर्वत से उतर कर, नये पैदा हुए क्षत्रियों को अत्यंत निष्ठुरता से मार देते थे । इस प्रकार इक्कीस बार इन्होंने पृथ्वी भार के क्षत्रियों का वध कर, उसे निःक्षत्रिय बना दिया [ब्रह्मांड.३.४६] गुणावती के उत्तर में तथा खांडवारण्य के दक्षिण में जो पहाडियॉं हैं, उनकी तराई में क्षत्रियों से भगवन परशुराम का युद्ध हुआ था । वहॉं उन्होंने दस हजार वीरों को मात दे। जिसके पश्चात् कश्मीर, दरद, कुंति, क्षुद्रक, मालव, अंग, वंग कलिंग, विदेह, ताम्रलिप्त, रक्षोवाह, वीतिहोत्र, त्रिगर्त, मार्तिकावत, शिबि इत्यादि अनेक देश के राजाओं का इन्होने वध कर दिया । बाद में गया जाकर चन्द्रपाद नामक स्थान पर उन्होंने अपने पिता महर्षि जमदग्नि का श्राद्ध किया [पद्म.स्व.२६] । इस प्रकार अद्भुत कर्म कर के परशुराम प्रतिज्ञा से मुक्त हुए । पितरों को यह क्षत्रियहत्या पसन्द न आई । उन्होंने इस कार्य से छुटकारा पाने तथा पाप से मुक्ति प्राप्त करने के लिये, प्रायश्चित करने के लिये कहा [म.आ.२.४.१२] । पितरों की आज्ञा का पालन कर, यह अकृतव्रण के साथ सिद्धवन की ओर गये । रथ, सारथि, धनुष आदि को त्याग कर इसने पुनः ब्राह्मण धर्म स्वीकार किया । सब तीर्थो पर स्नान कर इसने तीन बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा की, और महेन्द्र पर्वत पर स्थायी निवास बनाया ।
अश्वमेधयज्ञ
पश्चात् जीती हुयी सारी, पृथ्वी कश्यप ऋषि को दान देने के लिये, परशुराम ने एक महान् अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया । उस यज्ञ के लिये, बत्तीस हॉंथ सुवर्णवेदी इन्होने बनायी, एवं निम्नलिखित ऋषिओं को यज्ञधिकार दिये—काश्यप (अश्वर्यु), गौतम (उद्नातृ), विश्वामित्र (होतृ) तथा मार्कण्डेय (ब्रह्मा), भरदाज, अग्निवेश्यादि ऋषियों ने भी इस यज्ञ में भाग लिया । इस प्रकार यज्ञ समाप्त कर परशुराम ने महेन्द्र पर्वत को छोड कर, शेष पृथ्वी कश्यप को दान दे दी [म.शां.४९];[ अनु. १३७.१२] । पश्चात् ‘दीपप्रतिष्ठाख्य’ नामक व्रत किया [ब्रह्मांड ३.४७] । नवीन वध कांड इस व्यवहार के कारण, परशुराम के बारे में लोगों के हृदय में तिरस्कार की भावना भर गयी । कुछ दिनों के उपरांत विश्वमित्र-पौत्र तथा रैम्यपुत्र परावसु ने भरी सभा में उन्हें चिढाया तथा कहा कि ‘पृथ्वी निःक्षत्रिय करने की प्रतिज्ञा आपने की । परन्तु ययाति के यज्ञ के लिये एकत्रित प्रतर्दन प्रभृति लोग क्या क्षत्रिय नहीं है । इससे संतप्त हो कर परशुराम ने पुनः शस्त्र हाथ में लिया, तथा पहले निरपराधी मानकर छोडे गये क्षत्रियों का वध किया । अन्त में सम्पूर्ण पृथ्वी का दान कर स्वयं महेन्द्र पर्वत पर रहने के लिये चले गये [म.द्रो.परि,.क्र.२६ पंक्ति ८६६] । अभिमन्यु की मृत्यु से शोकग्रस्त युधिष्ठिर को यह कथा बताकर नारद ने शांत किया । शेष क्षत्रिय परशुराम के हत्याकांड से बहुत ही थोडे क्षत्रिय बच सके । उनके नाम इस प्रकार हैः— हैहय राजा वीतिहोत्र—यह अपने स्त्रियों के अंतःपुर में छिपने से बच गया । पौरव राजा ऋक्षवान—यह यक्षवान् पर्वतों के रीघों में जाकर छिपने से बच गया । अयोध्या का राजा सर्वकर्मन्—पराशर ऋषि ने शूद्र के समान सेवा कर इसे बचाया । मगवराज बृहद्रथ—गृध्रकुट पर्वत पर रहने वाले बंदरों ने इसकी रक्षा की । अंगराज चित्ररथ—गंगातीर पर रहने वाले गौतम’ ने इसकी रक्षा की । शिबीराजा गोपालि—गायों ने इसकी रक्षा की । प्रतर्दनपुत्र वत्स—इसकी रक्षा गोवत्सों ने की । मरुत्त–इसे समुद्र ने बचाया । इन राजाओं के वंश के लोग क्षत्रिय होते हुये भी, शिल्पकार, स्वर्णकार आदि कनिष्ठ श्रेणी के व्यवसाय करने पर विवश हुये । इस प्रकार परशुराम के कारण, चारों ओर अराजकता फैल गया । उस अराजकता को नष्ट करने के लिये, कश्यप ने चारों ओर के क्षत्रियों को ढूंढना पुनः प्रारंभ किया, एवं उनके राज्याभिषेक कर सुराज्य स्थापित करने की कोशिश की [म.शां.४९-५७-६०] । ‘शूर्पारक’ की स्थापना अवशिष्ट क्षत्रियों के बचाव के लिये, कश्यप ने परशुराम को दक्षिण सागर के पश्चिमी किनारे जाने के लिये कहा । ‘शूर्पारक’ नामक प्रदेश समुद्र से प्राप्त कर, परशुराम वहॉं रहने लगा । भृगुकच्छ (भडोचि) से ले कर कन्याकुमारी तक का पश्चिम समुद्र तट का प्रदेश ‘परशुराम देश’ या ‘शूर्पारक’ नाम से प्रसिद्ध हुआ । शूर्पारक प्रान्त की स्थापना के कई अन्य कारण भी पुराणों में प्राप्त हैं । सगरपुत्रों द्वारा गंगा नदी खोदी जाने पर, ‘गोकर्ण’ का प्रदेश समुद्र में डूबने का भय उत्पन्न हुआ । वहॉं रहनेवाले शुष्क आदि ब्राह्मणों ने महेंद्र पर्वत जा कर, परशुराम से प्रार्थना की । फिर गोकर्णवासियों के लिये नयी बस्ती बसाने के लिये, परशुराम ने समुद्र पीछे हटा कर, दक्षिणोत्तर चार सौ योजने लम्बे शूर्पारक देश की स्थापना की इस प्रकार परशुराम हैहयों का संपूर्ण विनाश न कर सके । परशुराम के पश्चात्, हैहय लोग ‘तालजंघ’ सामूहिक नाम से पुनः एकत्र हुये । ‘तालजंघ’ सामूहिक नाम से पुनः एकत्र हुये । तालजंघों में पॉंच उपजातियों का समावेश था, जिनके नाम थेः—वीतहोत्र, शर्यात, भोज, अवन्ति, कुण्डरिक [मत्स्य.४३.४८-४९];[ वायु. ९४.५१-५२] । उन लोगों ने कान्यकुब्ज, कोमल, काशी आदि देशों पर बार बार आक्रमण किये, एवं कान्यकुब्ज राज्य का संपूर्ण विनाश किया ।
महाभारत में परशुराम
सौभपति शाल्व के हाथों से एक बार परशुराम पराजित हुए । फिर कृष्ण ने शाल्व का वध किया [म.स.परि.१.क्र.२१. पंक्ति. ४७४-४८५] । करवीर श्रुंगाल के उन्मत्त कृत्यों की शिकायत परशुराम ने बलराम एवं कृष्ण के पास की । फिर उसका वध भी कृष्ण ने किया [ह.वं.२.४४] । सैंहिकेय शाल्व का वध भी कृष्ण ने परशुराम के कहने पर ही किया [ह.वं.२.४४] । सैंहिकेय शाल्व के वध के बाद, भगवान शंकर ने परशुराम को ‘शंकरगीता’ का ज्ञान कराया [विष्णु-धर्म.१.५२.६५] । जरासंघ के आक्रमण से डर कर, बलराम तथा कृष्ण राजधानी के लिये नये स्थान ढूँढ रहे थे । उस समय उनकी भेंट परशुराम से हुयी थी । परशुराम ने उन्हें गोमंत पर्वत पर रह पर जरासंध से दुर्गयुद्ध करने की सलाह दी [ह.वं,.२.३९] । महेंद्र पर्वत पर जब यह रहते थे , तब अष्टमी तथा चतुर्दशी के ही दिन केवल अभ्यागतों से मिलते थे [म.व.११५.६] । पूर्व समुद्र की ओर भ्रमण करते हुये युधिष्ठिर की भेंट एक दिन परशुराम से हुयी थी । बाद में युधिष्ठिर गोदावरी नदी के मुख की ओर चला गये [म.व.११७-११८]। शूर्पारक बसाने के पूर्व परशुराम महेंद्र पर्वत पर रहते थे । उसके उपरांत शूर्पारक में रहने लगे [ब्रह्मांड. ३.५८] । भीष्माचार्य को परशुराम ने अस्त्रविद्या सिखायी थी । भीष्म अम्बा का वरण करे, इस हेतु से इन गुरुशिष्यों का युद्ध भी हुआ था । एक महीने तक युद्ध चलता रहा. अन्त में परशुराम ने भीष्म को पराजित किया [म.उ.१८६.८] । अपने को ब्राह्मण बताकर कर्ण ने परशुराम से शिक्षा प्राप्त की थी । बाद में परशुराम को यह भेद पता चला, और उन्होंने उसे शाप दिया । परशुराम ने द्रोण को ब्रह्मास्त्र सिखाया था । दंभोद्भव राक्षस की कथा सुनाकर, परशुराम ने दुर्योधन को युद्ध से परावृत्त करने का प्रयत्न किया था [म.उ.८४] । बम्बई के वाल्केश्वर मंदिर के शिवलिंग की स्थापना परशुराम ने की थी [स्कंद. सह्याद्रि.२-१] । रामायण में परशुराम रामायण में भी परशुराम क निर्देश कई बार आया है । सीता-स्वयंवर के समय राम ने शिव के धनुष को तोड दिया । अपने गुरु शिव का, अपमान सहन न कर, परशुराम राम से युद्ध करने के लिये तत्पर हुए । किंतु उस युद्ध में राम ने परशुराम को पराजित किया, एवं परशुराम के संकेत पर उनके तपसामर्थ्य को नष्ट कर दिया [वा.रा.बा.७४-७६] । कालविपर्यास परशुराम के महाभारत एवं रामायण में प्राप्त निर्देश कालविपर्यास हैं । जैसे पहले ही कहा है, परशुराम रामायण एवं महाभारत के बहुत ही पूर्वकालीन थे । इस कालविषर्यास का स्पष्टीकरण महाभारत एवं पुराणों में, परशुराम को चिरंजीव कह कर दिया गया है । परशुराम के स्थान परशुराम के जीवन से संबंधित अनेक स्थान भारतवर्ष में उपलब्ध हैं । वहॉं परशुराम की उपासना आज भी की जाती है । उनमें से कई स्थान इस प्रकार हैं— जमदाग्नि आश्रम (पंचतीर्थी)—परशुराम का जन्मस्थान एवं सहस्त्रार्जुन का वधस्थान । यह उत्तरप्रदेश में मेरठ के पाद हिंडन (प्राचीन ‘हर’) नदी के किनारे है । यहॉं पॉंच नदियों का संगम है । इसलिये इसे ‘पंचतीर्थी’ कहते है । यहॉं ‘परशुरामेश्वर’ नामक शिवमंदिर है । मातृतीर्थ (महाराष्ट्र में स्थित आधुनिक ‘माहुर’ ग्राम)—रेणुका दहनस्थन । महेंद्रपर्वत (आधुनिक ‘पूरबघाट)—परशुराम का तपस्यास्थान क्षत्रियों का संहर करने के पश्चात् परशुराम यहॉं रहता था । परशुराम ने समस्त पृत्घ्वी कश्यप को दान में दी, उस समय महेंद्रपर्वत भी कश्यप को दान में प्राप्त हुआ । फिर परशुराम’ शूर्पारक’ के नये बस्ती में निवास के लिये गये । शूर्पारक (बंबई के पास स्थित आधुनिक ‘सोपारा’ग्राम)—परशुराम का तपस्यास्थान । समुद्र को हटा कर, परशुराम ने इस स्थान को बसाया था । गोकर्णक्षेत्र (दक्षिण हिंदुस्थान में कारवार जिले में स्थित ‘गोकर्ण’ग्राम)—परशुराम का तपस्यास्थान । समुद्र में डुबते हुये इस क्षेत्र का रक्षण परशुराम ने किया था । जंबुवन (राजस्थान में कोटा के पास चर्मण्वती नदी के पास स्थित आधुनिक ‘केशवदेवराय-पाटन’ ग्राम)—परशुराम का तपस्यास्थान । इक्कीस बार पृथ्वी निःक्षत्रिय करने के बाद परशुराम ने यहॉं तपस्या की थी । परशुरामतीर्थ (नर्मदा नदी के मुख में स्थित आधुनिक ‘लोहार्या’ ग्राम)—परशुराम का तपस्या स्थान । परशुरामताल (पंजाब में सिमला के पास ‘रेणुका-तीर्थ’ पर स्थित पवित्र तालाव)—परशुराम के पवित्रस्थान । यहॉं के पर्वत का नाम ‘जमदग्निपर्वत’ है । रेणुकागिरि (अलवार-रेवाडी रेलपार्ग पर खैरथल से ५ मील दूर स्थित आधुनिक ‘रैनागिरि’ ग्राम)–परशुराम का आश्रमस्थान । चिपलून (महाराष्ट्र में स्थित आधुनिक चिपलून ग्राम)—परशुराम का पवित्रस्थान । यहॉं परशुराम का मंदिर है । रामह्रद (कुरुक्षेत्र के सीमा में स्थित एक तीर्थस्थान)—परशुराम का तीर्थ स्नान । यहॉं परशुराम ने पॉंच कुंडों की स्थापना की थी [म.व.८१.२२-३३] । इसे ‘समंतपंचक’ भी कहते है । परशुराम जयंती वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन, रात्रि के पहले ‘प्रहर’ में परशुरामजयंती का समारोह किया जाता है [धर्मसिंधु. पृ.९] । यह समारोह अधिकतर दक्षिण हिंदुस्थान में होता है, सौराष्ट्र में यह नहीं किया जाता है । इस समारोह में, निम्नलिखित मंत्र के साथ, परशुराम को ‘अर्घ्य’ प्रदान किया जाता है— जमदग्निसुतो वीर क्षत्रियान्तकरः प्रभो । ग्रहाणार्घ्य मया दत्तं कृपया परमेश्वर ॥ परशुराम साम्प्रदाय के ग्रंथ परशुरामकल्पसूत्र’ नामक एक तांत्रिकसांप्रदाय का ग्रंथ परशुराम के नाम से प्रसिद्ध है । ‘परशुरामप्रताप’ नामक और भी एक ग्रंथ उपलब्ध है । परशुराम शक संवत् मलाबार में अभी तक ‘परशुराम शक’ चालू है । उस शक का वर्ष सौर रीति का है, एवं वर्षारंभ ‘सिंहमास’ से होता है । इस शक का ‘चक्र’ एक हजार साल का होता है । अभी इस शक का चौथा चक्र चालू है । इस शक को ‘कोल्लमआंडु’ (पश्चिम का वर्ष) कहते है [भा. ज्यो. ३७७] ।