Wednesday, May 30, 2012

जैसा अन्न वैसा मन

जापान के डॉ ईमोटो ने एक प्रयोग किया . उन्होंने पानी को अलग अलग विचारों से प्रभावित किया . फिर उसे जमा कर उसके कणों ( crystals ) की फोटो ली . तब उन्होंने पाया की जिस पानी को प्रेम की भावना प्रेषित की उसके कण बहुत ही सुन्दर और षटकोणीय पाए गए पर जिस पानी को नफरत की भावना प्रेषित की गयी उसके कण ठीक से बने ही नहीं . खाने में एक बड़ा अंश पानी का होता है ; चाहे वो फल हो , सब्जी हो या पकाया हुआ अन्न . अगर हम किसी ऐसे व्यक्ति के हाथ का बना खाना खा ले जिसकी सोच में हिंसा या व्याभिचार हो तो वह विचार उस अन्न को प्रभावित करेंगे और वह अन्न हमें .इसीलिए हमें बहुत सावधानी बरतनी चाहिए की खाना बनाने वाले के विचार कैसे है . अगर हम भगवान को ध्यान में रख भोग के लिए हलवा बनाते है तो उस हलवे का स्वाद अन्य दिनों से निराला होगा जबकि सामग्री और बनाने वाला वही होगा . आजकल बाहर का खाना खाने की प्रवृत्ति बढती जा रही है . उस खाने को चाहे वो शाकाहारी ही क्यों ना हो ; उसे बनाने वाले के विचार अगर तामसिक है तो ऐसा खाना हमारे विचार भी गंदे कर सकता है .
फिर भी अगर हमें किसी मजबूरी में बाहर का खाना 
खाना ही पड़े तो क्या करे . हमें अन्न परोस कर उस पर ध्यान लगा कर उसे भगवान को अर्पित करना चाहिए . मन में शुद्ध विचार ला उस परपिता परमात्मा का ध्यान लगाये . तो वह अन्न फिर शुद्ध हो सकता है . अब उस भोजन को शांत भाव से मन लगा कर चबा चबा कर ग्रहण करे .

काली के विभिन्न भेद


काली के अलद-अलग तंत्रों में अनेक भेद हैं । कुछ पूर्व में बतलाये गये हैं । अन्यच्च आठ भेद इस प्रकार हैं -
१॰ संहार-काली, २॰ दक्षिण-काली, ३॰ भद्र-काली, ४॰ गुह्य-काली, ५॰ महा-काली, ६॰ वीर-काली, ७॰ उग्र-काली तथा ८॰ चण्ड-काली ।
‘कालिका-पुराण’ में उल्लेख हैं कि आदि-सृष्टि में भगवती ने महिषासुर को “उग्र-चण्डी” रुप से मारा एवं द्वितीयसृष्टि में ‘उग्र-चण्डी’ ही “महा-काली” अथवा महामाया कहलाई ।
योगनिद्रा महामाया जगद्धात्री जगन्मयी । भुजैः षोडशभिर्युक्ताः इसी का नाम “भद्रकाली” भी है । भगवती कात्यायनी ‘दशभुजा’ वाली दुर्गा है, उसी को “उग्र-काली” कहा है । कालिकापुराणे – कात्यायनीमुग्रकाली दुर्गामिति तु तांविदुः । “संहार-काली” की चार भुजाएँ हैं यही ‘धूम्र-लोचन’ का वध करने वाली हैं । “वीर-काली” अष्ट-भुजा हैं, इन्होंने ही चण्ड का विनाश किया “भुजैरष्टाभिरतुलैर्व्याप्याशेषं वमौ नमः” इसी ‘वीर-काली’ विषय में दुर्गा-सप्तशती में कहा हैं । “चण्ड-काली” की बत्तीस भुजाएँ हैं एवं शुम्भ का वध किया था । यथा – चण्डकाली तु या प्रोक्ता द्वात्रिंशद् भुज शोभिता ।
समयाचार रहस्य में उपरोक्त स्वरुपों से सम्बन्धित अन्य स्वरुप भेदों का वर्णन किया है ।
संहार-काली – १॰ प्रत्यंगिरा, २॰ भवानी, ३॰ वाग्वादिनी, ४॰ शिवा, ५॰ भेदों से युक्त भैरवी, ६॰ योगिनी, ७॰ शाकिनी, ८॰ चण्डिका, ९॰ रक्तचामुण्डा से सभी संहार-कालिका के भेद स्वरुप हैं । संहार कालिका का महामंत्र १२५ वर्ण का ‘मुण्ड-माला तंत्र’ में लिखा हैं, जो प्रबल-शत्रु-नाशक हैं ।
दक्षिण-कालिका -कराली, विकराली, उमा, मुञ्जुघोषा, चन्द्र-रेखा, चित्र-रेखा, त्रिजटा, द्विजा, एकजटा, नीलपताका, बत्तीस प्रकार की यक्षिणी, तारा और छिन्नमस्ता ये सभी दक्षिण कालिका के स्वरुप हैं ।
भद्र-काली - वारुणी, वामनी, राक्षसी, रावणी, आग्नेयी, महामारी, घुर्घुरी, सिंहवक्त्रा, भुजंगी, गारुडी, आसुरी-दुर्गा ये सभी भद्र-काली के विभिन्न रुप हैं ।
श्मशान-काली – भेदों से युक्त मातंगी, सिद्धकाली, धूमावती, आर्द्रपटी चामुण्डा, नीला, नीलसरस्वती, घर्मटी, भर्कटी, उन्मुखी तथा हंसी ये सभी श्मशान-कालिका के भेद रुप हैं ।
महा-काली - महामाया, वैष्णवी, नारसिंही, वाराही, ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, इत्यादि अष्ट-शक्तियाँ, भेदों से युक्त-धारा, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा इत्यादि सब नदियाँ महाकाली का स्वरुप हैं ।
उग्र-काली - शूलिनी, जय-दुर्गा, महिषमर्दिनी दुर्गा, शैल-पुत्री इत्यादि नव-दुर्गाएँ, भ्रामरी, शाकम्भरी, बंध-मोक्षणिका ये सब उग्रकाली के विभिन्न नाम रुप हैं ।
वीर-काली -श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, पद्मावती, अन्नपूर्णा, रक्त-दंतिका, बाला-त्रिपुर-सुंदरी, षोडशी की एवं काली की षोडश नित्यायें, कालरात्ति, वशीनी, बगलामुखी ये सभी वीरकाली ये सभी वीरकाली के नाम भेद रुप हैं ।
—अनुराग मिश्र 

Vedic Planetery system

 
Vedic Scriputres gives few distance from one planet to another which the Mordern Science just found out recently but not with much details as mentioned in our Vedic Text.

*NOTE 1 YOJANA = 13KMS

Distance from Dhruvaloka (the pole star) to the Sun
is 3,800,000 yojanas

Distance from Dhruvaloka to Maharloka/Rishiloka 10,000,000 yojanas

Distance from Maharloka to Janaloka 20,000,000 yojanas

Distance from Janaloka to Tapoloka 80,000,000 yojanas

Distance from Tapoloka to Satyaloka/Brahmloka 120,000,000 yojanas

Distance from the Sun to Satyaloka 233,800,000 yojanas (3,039,400,000 kms)

Covering of the Universe 260,000,000 yojanas (3,380,000,000 kms) away from the Sun, each covering layer is 10 times bigger than previous

Distance from the Sun to the Earth Lower planetary systems called Atala, Vitala, Sutala, Talatala, Mahatala, Rasatala and Patala can be read in Brahma Sahita & other purans.

Distance from lower planets to Shesha Naga lying on the Garbhodaka Ocean 30,000 yojanas

The information is Given by His Divine Grace Srila Prabhupada from the vedic Scriptures.

If we go through our Science text the distance is somewhat the same & if by any means it is wrong it would be corrected & would be matched with our Vedic Calculations in future.

Tuesday, May 29, 2012

संस्कृति टिकाने के लिए समाज का महत्व :

व्यक्तिगत तथा सामजिक विकास किस प्रकार साध्य हो सकता है ? जिसमे इन दोनो बातों का विचार किया जाता है उसे संस्कृति कहते हैं .
संस्कृति अर्थात व्यक्तिगत एवँ सामाजिक विकास का तत्वज्ञान .

समाज की आवश्यकता क्या है ? समाज किस लिए चाहिए ??
व्यक्तिगत विकास का संविधान तथा नियम, नीति , मूल्य बनाए रखने का काम समाज करता है .
इसलिए संस्कृति को टिकाने के लिए समाज की आवश्यकता है .
व्यक्ति नाशवान है ..समाज नित्य है .
अवतार , संत , ऋषि आदि आये और चले गए , परन्तु समाज ने ही उनके विचारों को बनाए रखा ...साथ ही समाज आज भी विद्यमान है .
एक पीढ़ी ने दूसरी पीढ़ी को , दूसरी ने तीसरी पीढ़ी को ........
इस प्रकार विचारों व भावनाओं का सामाजिकीकरण होता आया है .समाज पुरुष बैल की तरह विचारधारा को पीढ़ियों से पीढियों मे पहुचाता रहता है .
इससे तत्वज्ञान को नित्यता मिलती है ...और इसके परिणाम स्वरूप संस्कृति देखने को मिलती है .
समाज है तो स्रष्टि है , व्यष्टि है , समाज ही प्रसार है , हर व्यक्ति के सामाजिक सरोकार अलग हैं समाज के प्रति हर मनुष्य के अलग दृष्टिकोण हैं, समाज को लेके उसके अनुभव भिन्न हैं फिर भी उसके पास जो हही है वो समाज का ही दिया है
हर व्यक्ति खुद एवं समाज के मध्य के अंतर्संबंधों से एक जटिल आवरण कि सृष्टि करता है , और समाज का प्रभाव व्यक्ति पर ही अधिक पड़ता है व्यक्ति का समाज पर प्रभाव अत्यंत क्षीण होता है तथापि कुछ लोकोत्तर पुरुष हैं जो समाज पर अपना प्रभाव छोडते हैं !
किन्तु यदि अध्यात्म कि बात की जाए तो वो घोर व्यक्तिगत है हर मनुष्य के अध्यात्मिक अनुभव विशिष्ट हैं , अधिक क्या समाज श्रृष्टि के प्रसार का द्योतक है तो अध्यात्म व्यक्ति को समाज से पृथक एक्सत्तात्मक जगत में ले जाता है जहाँ दूसरा कोई है ही नहीं!

समज एवँ समाज :

संस्कृत भाषा मे 'समज' व 'समाज' ऐसे दो शब्द हैं .
'समज' शब्द पशुओं के समूहों के लिए प्रयुक्त किया जाता है "समज: पशुनाम संघः "
अर्थात ध्येयहीन व एकसूत्र मे ना गुंथे हुए समूह को 'समाज' कहते हैं .
मानव समूह के लिए 'समाज' शब्द प्रयुक्त करते हैं क्योकि उनके पास ध्येय , विचार व कार्य है .
बहुत से लोग एकत्रित हो गए इससे समाज नहीं बनता . समाज एक विशिष्ट धारणा है .
जिनके सुख दुःख , राग द्वेष , और वैयक्तिक अहंकार एक हुए हैं ऐसा वर्ग यानी समाज .
जिनके निष्ठा केन्द्र , श्रद्धा केन्द्र , पुण्यभूमि , पवित्र विचार व आदर्श पुरुष एक हैं , वह यानी समाज .स्वार्थ के लिए एकत्रित समूहों को समाज नहीं कहा जाता .
इस जगत मे प्रत्येक व्यक्ति का अपना अपना अहंकार होता है .यह समाज के लिए एक प्रमुख बाधा है . कुटुंब मे भी अहंकार आदि की समस्याएं आती ही है . पति पत्नी के मध्य भी यह आता ही है .
पर ऐसे आमने सामने आये हुए अहंकारों को संवादी बनाने मे ही संस्कारिता है.
अर्थात जिस समूह मे अनेक व्यक्ति होते हैं ..भिन्न भिन्न स्वभाव , गुन , धर्म वाले ...उनके अहंकारों मे संवादिता प्रस्थापित हुई होनी चाहिए .और ध्येय के प्रति समर्पण और आपस के भाव सम्बन्ध , धर्म , आध्यात्म ,भक्ति आदि तत्वों की विशिष्ट वैचारिक धारणा से ऐसी संवादिता प्राप्त की जा सकती है .

पुरु वंश का वर्णन


हम जानते हैं कि सारी सृष्टी परमपिता ब्रम्हा से उत्पन्न हुई है इसलिए उनके बाद से पुरुवंश की पचास पीढ़ियों का वर्णन इस प्रकार है. आप दिए गए नंबरों से उनकी पीढ़ी का पता लगा सकते है.
१. परमपिता ब्रम्हा से प्रजापति दक्ष हुए.
२. दक्ष से अदिति हुए.
३. अदिति से बिस्ववान हुए.
४. बिस्ववान से मनु हुए जिनके नाम से हम लोग मानव कहलाते हैं.
५. मनु से इला हुए.
६. इला से पुरुरवा हुए जिन्होंने उर्वशी से विवाह किया.
७. पुरुरवा से आयु हुए.
८. आयु से नहुष हुए जो इन्द्र के पद पर भी आसीन हुए परन्तु सप्तर्षियों के श्राप के कारण पदच्युत हुए.
९. नहुष के बड़े पुत्र यति थे जो सन्यासी हो गए इसलिए उनके दुसरे पुत्र ययाति राजा हुए. ययाति के पुत्रों से ही समस्त वंश चले. ययाति के पांच पुत्र थे. देवयानी से यदु और तर्वासु तथा शर्मिष्ठा से दृहू, अनु, एवं पुरु. यदु से यादवों का यदुकुल चला जिसमे आगे चलकर श्रीकृष्ण ने जन्म लिया. तर्वासु से मलेछ, दृहू से भोज तथा पुरु से सबसे प्रतापी पुरुवंश चला. अनु का वंश ज्यादा नहीं चला.
१०. पुरु के कौशल्या से जन्मेजय हुए.
११. जन्मेजय के अनंता से प्रचिंवान हुए.
१२. प्रचिंवान के अश्म्की से संयाति हुए.
१३. संयाति के वारंगी से अहंयाति हुए.
१४. अहंयाति के भानुमती से सार्वभौम हुए.
१५. सार्वभौम के सुनंदा से जयत्सेन हुए.
१६. जयत्सेन के सुश्रवा से अवाचीन हुए.
१७. अवाचीन के मर्यादा से अरिह हुए.
१८. अरिह के खल्वंगी से महाभौम हुए.
१९. महाभौम के शुयशा से अनुतनायी हुए.
२०. अनुतनायी के कामा से अक्रोधन हुए.
२१. अक्रोधन के कराम्भा से देवातिथि हुए.
२२. देवातिथि के मर्यादा से अरिह हुए.
२३. अरिह के सुदेवा से ऋक्ष हुए.
२४. ऋक्ष के ज्वाला से मतिनार हुए.
२५. मतिनार के सरस्वती से तंसु हुए.
२६. तंसु के कालिंदी से इलिन हुए.
२७. इलिन के राथान्तरी से दुष्यंत हुए.
२८. दुष्यंत के शकुंतला से भरत हुए जिनके नाम पर हमारा देश भारतवर्ष कहलाता है.
२९. भरत के सुनंदा से भमन्यु हुए.
३०. भमन्यु के विजय से सुहोत्र हुए.
३१. सुहोत्र के सुवर्णा से हस्ती हुए जिनके नाम पर पूरे प्रदेश का नाम हस्तिनापुर पड़ा.
३२. हस्ती के यशोधरा से विकुंठन हुए.
३३. विकुंठन के सुदेवा से अजमीढ़ हुए.
३४. अजमीढ़ से संवरण हुए.
३५. संवरण के तपती से कुरु हुए जिनके नाम से ये वंश कुरुवंश कहलाया.
३६. कुरु के शुभांगी से विदुरथ हुए.
३७. विदुरथ के संप्रिया से अनाश्वा हुए.
३८. अनाश्वा के अमृता से परीक्षित हुए.
३९. परीक्षित के सुयशा से भीमसेन हुए.
४०. भीमसेन के कुमारी से प्रतिश्रावा हुए.
४१. प्रतिश्रावा से प्रतीप हुए.
४२. प्रतीप के सुनंदा से तीन पुत्र देवापि, बाह्लीक एवं शांतनु का जन्म हुआ. देवापि किशोरावस्था में ही सन्यासी हो गए एवं बाह्लीक युवावस्था में अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ने में लग गए इसलिए सबसे छोटे पुत्र शांतनु को गद्दी मिली.
४३. शांतनु कि गंगा से देवव्रत हुए जो आगे चलकर भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए. भीष्म का वंश आगे नहीं बढा क्योंकि उन्होंने आजीवन ब्रम्हचारी रहने की प्रतिज्ञा कि थी. शांतनु की दूसरी पत्नी सत्यवती से चित्रांगद और विचित्रवीर्य हुए. चित्रांगद की मृत्यु युवावस्था में ही हो गयी. विचित्रवीर्य कि दो रानियाँ थी, अम्बिका और अम्बालिका. विचिचित्रवीर्य भी संतान प्राप्ति के पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गए, लेकिन महर्षि व्यास कि कृपा से उनका वंश आगे चला.
४४. विचित्रवीर्य के महर्षि व्यास की कृपा से अम्बिका से ध्रितराष्ट्र, अम्बालिका से पांडू तथा अम्बिका की दासी से विदुर का जन्म हुआ.
४५. ध्रितराष्ट्र से दुर्योधन, दुहशासन, इत्यादि १०० पुत्र एवं दुशाला नमक पुत्री हुए. इनकी एक वैश्य कन्या से युयुत्सु नमक पुत्र भी हुआ जो दुर्योधन से छोटा और दुहशाशन से बड़ा था. इतने पुत्रों के बाद भी इनका वंश आगे नहीं चला क्योंकि इनके समूल वंश का नाश महाभारत के युद्घ में हो गया. किन्दम ऋषि के श्राप के कारण पांडू संतान उत्पत्ति में असमर्थ थे. उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों को दुर्वासा ऋषि के मंत्र से संतान उत्पत्ति की आज्ञा दी. कुंती के धर्मराज से युधिष्ठिर, पवनदेव से भीम और इन्द्रदेव से अर्जुन हुए तथा माद्री के अश्वनीकुमारों से नकुल और सहदेव का जन्म हुआ. इन पांचो के जन्म में एक एक साल का अंतर था. जिस दिन भीम का जन्म हुआ उसी दिन दुर्योधन का भी जन्म हुआ.
४६. युधिष्ठिर के द्रौपदी से प्रतिविन्ध्य एवं देविका से यौधेय हुए. भीम के द्रौपदी से सुतसोम, जलन्धरा से सवर्ग तथा हिडिम्बा से घतोत्कच हुआ. घटोत्कच का पुत्र बर्बरीक हुआ. नकुल के द्रौपदी से शतानीक एवं करेनुमती से निरमित्र हुए. सह्देव के द्रौपदी से श्रुतकर्मा तथा विजया से सुहोत्र हुए. इन चारो भाइयों के वंश नहीं चले. अर्जुन के द्रौपदी से श्रुतकीर्ति, सुभद्रा से अभिमन्यु, उलूपी से इलावान, तथा चित्रांगदा से बभ्रुवाहन हुए. इनमे से केवल अभिमन्यु का वंश आगे चला.
४७. अभिमन्यु के उत्तरा से परीक्षित हुए. इन्हें ऋषि के श्रापवश तक्षक ने कटा और ये मृत्यु को प्राप्त हुए.
४८. परीक्षित से जन्मेजय हुए. इन्होने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए सर्पयज्ञ करवाया जिसमे सर्पों के कई जातियां समाप्त हो गयी, लेकिन तक्षक जीवित बच गया.
४९. जन्मेजय से शतानीक तथा शंकुकर्ण हुए.
५०. शतानीक से अश्वामेघ्दत्त हुए.

कोर्ट में सब से पहले गीता पर क्यों हाथ रखवाते हैं? कोर्ट में वेद , रामायण या उपनिषद क्यों नहीं रखते?

कोर्ट में सब से पहले गीता पर क्यों हाथ रखवाते हैं? कोर्ट में वेद , रामायण या उपनिषद क्यों नहीं रखते?
सर्वप्रथम अत्यंत बोधप्रद प्रश्न के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद
मेरे विचार से सर्व शास्त्रमयी गीता धर्म व अधर्म के टकराव का निरूपण नहीं करती वरण गीता के माध्यम से दो धर्मों के संघर्ष का निरूपण एवँ सामाधान भगवान योगेश्वर ने स्व मुख से किया है ....ये दो धर्म थे क्षात्र धर्म ( स्व धर्म ) और करुणा धर्म / दया धर्म
गीता के श्रवण का पात्र अर्जुन मोह व स्वधर्म के बीच संघर्षरत योद्धा का प्रतिनिधि है

आज के अर्जुनों के मध्य भी समय समय ऐसी दुविधापूर्ण स्थिति अवश्य आती है ...परन्तु उनको कृष्ण ना मिलने से उनकी स्थिति सेक्सपीयर के विभिन्न पात्रों के सामान हो जाती है ......वो मार्गदर्शन ना पाकर या तो स्वयं को नष्ट कर लेते हैं या अन्य लोगों के विनास आदि का करण बनाते हैं .

महाभारत के युद्ध प्रसंग मे उपरोक्त दुविधापूर्ण मनः स्थिति आने पर अर्जुन भगवान की शरण मे जाता है व कहता है ....शिष्यस्तेSहं साधि माम त्वां प्रपन्नं ..अर्थात अब मै आपकी शरण हूँ ..मै आपका शिष्य हूँ ..मै अपनी सम्पूर्ण जिम्मेदारी आपको प्रदान करता हूँ ...मेरा श्रेय व प्रेय क्या है ..हे प्रभु अब आप ही देखिये .
यथा योग्यं तथा कुरु ..जो मेरे योग्य हो ...जिसमे मेरा परम हित हो वही आप करो व वही मार्ग आप मुझे बताओ ..अब मै आपकी ही शरण हूँ ...

भगवान आत्यंतिक प्रेम से जिस प्रकार बछड़े के वात्सल्य से प्रेरित माँ अपने स्तनों मे दूध लाती है व अपने वत्स को प्रेम से दुग्ध पान कराती है ..(उसी प्रकार अर्जुन के इस अधिकारित्व से उनके शिष्यत्व स्वीकार करने के कारण) अर्जुन के साथ इस प्रकार का आत्यंतिक न्याय करते हुए माँ समान गीता पान कराकर समाधान करते हैं .......
>>हमारी न्याय व्यवस्था जिन उच्च आदर्शों को लेकर चली है ..उसमे प्रथम आवश्यक तत्व जो मुझे लगता है वह है ..सज्जनों को न्याय पर विश्वास एवँ दुर्जनों को न्याय व्यवस्था के श्रेष्ठ होने की वजह से भय
गीता को स्पर्श करा कर सपथ दिलाने के पीछे ऐसा भाव हो सकता है कि मै कृष्ण स्वरुप न्याय व्यवस्था मे पूर्ण आस्था रखता हूँ ...और इस वजह से मै न्यायालय के सामने जिस प्रकार अर्जुन ने शिष्य भाव से भगवान को अपने मन का पूर्ण सत्य बता कर ...अपनी पूर्ण जिम्मेदारी दे दी थी ..उसी प्रकार मै भी उसी गीता को सामने रख कर उसे स्पर्श कर उसकी सौगंध खाकर ..न्याय व्यवस्था पर पूर्ण विश्वास के साथ सम्पूर्ण सत्य न्यायालय के सामने रखूँगा ....

अन्तःकरण क्या है ?

हमारे दर्शन जगत् मे प्रमा = यथार्थ ज्ञान के साधन को करण कहते है । जैसे यह घड़ा है इस प्रत्यक्षज्ञान का साधन नेत्र है अतः नेत्र प्रत्यक्षज्ञान का करण है यह नेत्र इन्द्रिय चाक्षुष प्रत्यक्ष ज्ञान का करण है । इसी प्रकार अन्य इन्द्रिया जैसे श्रोत्र घ्राण त्वक् और रसना ये भी क्रमशः शब्द गन्ध स्पर्श तथा रस के प्रत्यक्ष मे करण है ये ज्ञान के बाह्य करण है । किन्तु हमे किसी वस्तु का स्मरण होता है उसमे ये इन्द्रिया करण नही है क्योकि सभी का यह अनुभव है कि स्मरण मन से किया जाता है -मनसा स्मरामि । न्याय दर्शन के आरम्अभिक ग्रन्थ तर्कसड़्ग्रह मे सुख दुःख आदि समस्त ज्ञानो का करण मन को कहा गया है आपका मन कही और जगह हो तो आप दूसरी बात नही सुन पायेगे इसे अध्येता अच्छी तररह समझ सकता है । अतः मन किसके प्रति मनस्त्वेन किसके प्रति इन्द्रियत्वेन कारण है हम इस गम्भीरता मे न जाकर भी इतना निर्णय कर। सकते है कि मन भी मानस प्रत्यक्ष का कारण है । सुख दुखादि का प्रत्यक्ष मानस है। अतः इसका करण जो मन है वह भी नेत्रादि की भांति करण होने से इन्द्रिय है । चूंकि नेत्रादि बाह्य है औरमन। ऐसा नही ह अतः बाह्य करण नेत्रादि से भिन्न मन अन्तःकरण है । इसमे सभी आस्तिक दार्शनिक सहमत है । किन्तु वेदान्त मे इस मन रूप अन्तःकरण मे कार्यभेद से भेद माना गया ---मनो बुद्धिरहड़्कारश्चित्तं करणमान्तरम् । संशयो निश्चयो गर्वः स्मरणं विषया अमी । -श0क0भा01पृष्ठ53. संशय = सड़्कल्प विकल्पादि वृत्ति के समय उसे मन। निश्चयात्मिका वृत्ति होने पर बुद्धि स्मरणात्मकवृत्ति के समय चित्त कहतेहै उस अन्तःकरण को यह पैर से सिर तक रहता है । नैयायिको से यहा थोड़ी भिन्नता है । मीमांसकगण मन को विभु मानते है । संशयइच्छा सड़्कलप आदि मन के ही धर्म है--कामः सड़्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धऽश्रद्धा---- सर्वंमन एव ---वृहदारण्यक1/5/3.मैत्रा06/30. इसीलिए नैयायिक 1 मन ही माने । बुद्धि वे पृथक मानते है । यहा श्रुतिमेउसे भी गिनया गया है ।
योगदर्शन मे -योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः 1/2 सूत्रघटक चित्त पदसे मन ही लिया गया है अर्थात् मन की वृत्तियो का निरोध ही योग है । चित्त का अर्थ माइन्ड (बुद्कधि)रना ठीक नही;क्योकि गीता के छठे अध्याय मेयोग पर जैसा प्रकाश। डाला गया है उसकीसमता पातञ्जलयोगसूत्रो के साथ द्खने लायक है यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया6/20.योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः-यो0सू01/2. अब आसन क विषय मे मिलान कीजिएस्थिरं सुखमासनम् -- यो0सू02/46. शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः-गीता -6/11.योगसूत्र मे चित्त की वृत्तिया बतलाकर उनके निरोध का उपाय बतलाते है --अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः1/12.इधर गीता मे भगवान् मुरलीधर कहते है --असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते । । 6/35 यहा योगसूत्र और गीता का मिलान कीजिए । वहा जो चित्त शब्द से कहा गया वही यहा गीता मे मन शब्द से सड़्केतित किया गया है । अतः योगसूत्र मे चित्त शब्द मन का बोधक है बुद्धि का नही।
ध्यातव्य है कि गीता मे मन को इन्द्रिय कहा गया है मनः षष्ठानीन्द्रियाणि--15/6.और बुद्धि को मन से भिन्न बतलाया गया है -- मनसस्तु परा बुद्धिः-3/42+कठो03/10.
एक अन्तःकरण के ही कार्य भेद से चार भेद है और उनमे परस्पर वैलक्षण्य है । और इधर मन को ही बन्धन तथा मोक्षका कारण कहा गया है --
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः । बन्धाय विषयासड़्गि मुक्त्यै निर्विषयं मनः। । वि0पु0+मैत्रा06/34. अतः पूर्वोक्त विवेचन से सिद्ध हुआ कि योगदर्शन मे चित्त शब्द से मन का ही ग्रहण है माइण्ड का नही । 
-----------आचार्य  सियारामदास  नैयायिक 
 

सनातन धर्म की सही परिभाषा क्या है? What is Sanaatan Dharma?

Many people over the world, mostly people in the Indian subcontinent and specially Hindus are well acquainted with the terminology sanaatana dharma, but many or most of them confuse the term with Hinduism. Sanatana means ancient-most or without beginning. Dharma stands for [eternal] principles. Hinduism accepts and embraces, like a mainstream, so many religions, most of them theist and many atheist Faiths.

Each religion necessarily has a particular prophet, text and discipline or assemblage {like a church or a mosque} for its very definition and identification. Dharma, otherwise known as Hinduism over the world, does not bind anybody with any prophet, any text, or any assemblage or discipline; instead, it grants absolute freedom to every individual to choose his prophet, text and discipline. A Hindu can even subscribe to an atheist philosophy or belief as in the case of the Samkhya, Nyaya or Vaisheshika etc or prefer not to be interested about the existence or otherwise of God, as did Buddha and Mahaveer and still be treated as a great man of dharma and a Hindu. In this sense, Hinduism is not a religion but is rather a commonplace for a multiplicity of religions, both theist and atheist. Sanatana Dharma is one of them, a theist religion. However, as far as I have discovered, most Hindus respect it for its attractive word-to-word meaning, but many of them not knowing the basic theme of this Religion.....

In the above backdrop, I felt it proper to place here just a very brief mention of the five basic features of Sanatana Dharma. These are, believing and acceptance of:

1. Panchayajna: the five sacrifices [to cleanse the sin of killing],....

2. Sodasha-samskaara: the sixteen purifications [by rituals],....

3. Punarjanma and karmafala: rebirth and [having to reap] the fruits of actions,....

4. Ishwara as both the psychological [nimitta] and material [upaadaana] cause of creation, and....

5. Avataaravaada: the fact of God incarnating again and again.

.. ..

One who does not accept any one or more of the above five principles can be accepted as a man of dharma, a pious person, if he otherwise is so, and may be a Hindu, but not one belonging to sanatana dharma

Let us see briefly, what these five basic features are:

I. The Five Sacrifices

For very livelihood, man has to kill micro animals – even if unintentionally - and commits sin everyday by way of:.... 1. breathing, 2. stepping and walking, 3. filtering water, 4. processing and grinding grains etc into eatable food and 5. cooking Thus he commits sins against God’s creation and creatures. In order to do penance [prayashchitta] for these sins, one has to routinely perform five sacrifices [yajnas]. Performance of these sacrifices through rituals is recommended, but not compulsory. To seek penance, one is free either to perform rituals like lighting the sacrificial fire or to mentally beg apology to these lesser animals five times daily in the name of God. All are not rich enough to afford performance of rituals for penance.

II.The Sixteen Purifications....

These are as listed below:

Garbhaadhaana: The first coming together of the husband & wife for bringing about conception.

Pumsvana: Ceremony performed when the first signs of conception are seen, and is to be performed when someone desires a male child.

Seemantonayana: A ceremony of parting of the hairs of the expectant mother to keep her spirits high & positive. Special music is arranged for her.

Jaatakarma: After the birth of the child, the child is given a secret name, he is given taste of honey & ghee, mother starts the first breast-feeding after chanting of a mantra.

Naama-karana: In this ceremony the child is given a formal name. Performed on the 11th day.

Nishkramana: In this the formal darshan of sun & moon is done for the child.

Annapraashana: This ceremony is performed, when the child is given solid food (anna) for the first time.

Chudaakarana: Cuda means the 'lock or tuft of hair' kept after the remaining part is shaved off.

Karna-vedha: Done in 7th or 8th month. Piercing of the ears.

Upanayan: The thread ceremony. The child is thereafter authorized to perform all rituals.

Vedaarambha: Studies of Vedas begins with the guru [teacher].

Samaavartan: Convocation and returning home.

Vivaaha: Marriage ceremony.

Vaanprastha: As old age approaches, the person retires for a life of tapas (austerity) & studies.

Sanyaasa: Before leaving the body, a Hinddu sheds all sense of responsibility & relationships to awake & revel in the timeless truth.

Antyeshti: The last rites done after the death.

Of these, the first three are pre-natal samskaaras; the next six pertain to childhood; the subsequent three are for boyhood; marriage, the thirteenth pertains to youth and manhood; the next two are for later age and the sixteenth is the last of samkaaras for a man. Antyesti is the last samskaara and other rituals like annual shraaddha etc are not requisites of Sanatana Dharma, but are later incorporations into Hinduism.....

III. Rebirth and the Fruit [Result] of Actions....

Sanatana Dharma firmly states the law of conservation of consciousness [before and after death]. As such it asserts that if the Purusha [the Self within] could assume and adopt a living body once, it is only natural that it is capable of and has been doing so and shall be doing so till the end of a cycle of such rebirths. It is important to note here that all the Indian subcontinent born faiths including the atheist religions rest their foundation in rebirth. In addition, all these religions assert that only by being able to assume new living bodies repeatedly, every soul gets justice to achieve perfection, in this life or a future one. Exactly as every amoeba is the Buddha involved [the Buddha being the amoeba evolved] in the Darwinian thinking, in all these religions belief in re-incarnation and reaping the fruits of action is a basic ingredient. The Self has to reincarnate itself repeatedly in fresh living bodies in order to prosper in the path of Truth until it makes itself completely unattached and liberated. Since not all are born in equal circumstances and with equal opportunities, it is only prudent to accept that God has to give opportunity after opportunity, life after life to every soul to move towards its fulfillment so that it can finally rest in the blissful eternal Truth. And for atheists, the law of conservation of consciousness or life-force is more scientific than the law of conservation of mass and of energy.

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IV. Ishwara [God] as Both the Psychological and the Material Cause of the Universe.

Like all other theist religions, Sanatana Dharma accepts that the entire creation is the result of God’s desire, so this aspect hardly calls for any clarification. Nevertheless, it attempts to explore deeper about the source of material with which the universe is created. Like other theist religions, it accepts that when nothing was there, God alone existed. So where could he get the raw material from? If He is formless, then he cannot contain material. Further, in the beginning, there being nothing besides him, this creation would not have been possible. The reason is simple: if God did not have any material body, and at the same time, there was nothing besides him, then procuring the raw material for the creation was impossible. Assuming that anything is created out of nothing is a gross violation of exact science. From where could he get the material for the universe otherwise than from himself? If one is to suppose that the material also exists separately, then it consumes a great or major portion of the universe, eternally consuming away space where God cannot exist. This will lead to a situation where two things are eternal, one is God and the other, matter, but none is universal, each one taking away space from the other. This will end the concept of one universal God. Sanatana Dharma solves this absurdity by its discovery that the material for the creation forms part of God’s body from where objects are projected. The universe is an integral and inseparable part of God’s body, which always exists howsoever sublime it may be.....

By implication, the belief that God is necessarily formless loses credence. But what can be the form of the universal material and how can there be material without form? The form may be extremely sublime, undetectable, unperceivable and even unconceivable. So one can call it formless in the senses in which many scientific facts use the phraseology “tends to”. For example, science states two parallel lines tend to meet at infinity. In reality, they can never meet. And both these statements are true. So also, Sanatana Dharma accepts God both with and without form. At the same time, it proclaims that God cannot be expressed in terms of form or formlessness. He transcends concepts, which are mere byproducts of the mind.

V. The Recurrently Reincarnating God

Sanatan Dharma believes that in order to protect the saints and to destroy the evil, God reincarnates himself. It is not essential that He assume only a human body to incarnate himself: it can be of any other animal body also. This is an eternal phenomenon. One must observe that for God’s reincarnation, two conditions are necessary. One is, evil is so much that even the existence of saints becomes extremely difficult. The other condition is: the evil forces need destruction and the saner elements of the world do not possess sufficient strength to do it. At such times only and not at all times God descends down to the world by sending a miniature version of Himself, say His own Image, but with strength enough to re-establish religiousness and to annihilate the evil.

For Him, it is an easy task. Just as he can create innumerable living and nonliving beings, what surprise that He is capable enough of creating his own, small representative [having quality and form like the rest of His creation] and known as Bhagawaan? His descending down to a specific place of the world does not make the rest of the universe Godless or anyway defficient. It is proclaimed in the Upanishads, “poornamadah poornamidam poornaat poornam udachyate; poornasya poornamaadaaya poornamevaaavashishyate” [that is whole, this is whole, what ever comes out of the whole is whole, and when the whole is taken out of the whole, what remains is still whole]. Everything is whole and complete....
---- By Maneesh Kumar

Powerful Spiritual & Physical Weapons from Ancient Hindu Texts

(CHAKRA) There are many examples of symbolism and descriptions of weapons in Hinduism scriptures. Here is a list of the weapons/astras that are mentioned in various hindu texts and epics such as the Ramayana and Mahabharata. A few of these weapons in modern day are just used for religious symbols, but some have evolved and can be connected to other similar weapons used all around the world.
Brahma's Arrow
Brahma's Arrow

Brahma’s Arrow
In the Ramayana, Lord Rama faced Ravana where he shot arrows and knocked off each of Ravana’s ten heads, but they  grew back immediately. The new heads doubled Ravana’s strength so Lord Rama fired the arrow of Brahma that had been imparted to him by Agastya, a sage and heavenly historian, while Rama, Sita, and Lakshmana were exiled in Dandaka Forest. The arrow of Brahma burst Ravana’s chest, passed through his body, and returned to Rama’s quiver. Ravana was destroyed and Rama was able to return home in victory. The arrow of Brahma that Rama shot had feathers of winds. The points were sun and flames. The shaft was Mount Meru, the hub of the universe and where Brahma lived.
Asi 
A legend concerning the sword appears in the Shantiparva section of Mahabharata where a demon-like being sprang from the midst of the sacrificial fires scattering flames all around. His teeth were sharp and terrible, stomach lean and skinny and stature very tall and slim. He was of exceeding energy and power. Simultaneously, the earth started shaking, there were turmoils in the oceans, the forceful winds started howling all around, the trees started falling and being torn apart, and the meteors started blazing through the skies! Brahma declared: The ‘being’ I have conceived is Asi. It shall effect the destruction of the enemies of the gods and restore the Dharma. Upon this, the creature assumed the form of a blazing, sharp-edged sword, glowing like the flames at the end of the Kalpa.

Arjuna
Arjuna
Brahmastra & Brahmashira
It is sometimes known as the Brahma Astra. As described in a number of the Puranas, it was considered the deadliest weapon. It was said that when the Brahmastra was discharged, there was neither a counter attack nor a defense that could stop it, except by Brahmadanda, a stick also created by Brahma.  It was believed to be obtained by meditating on the Creator in the Vedas, Lord Brahma; it could only be used once in a lifetime. The user would have to display immense amounts of mental concentration. According to ancient Sanskrit writings, the Brahmastra is invoked by a key phrase or invocation that is bestowed upon the user when given this weapon. Through this invocation the user can call upon the weapon and use it via a medium against his adversary. Since Brahma is considered the Creator in Sanatana Dharma, it is believed by Hindus that Brahmastra was created by him for the purpose of upholding Dharma and Satya, to be used by anyone who wished to destroy an enemy who would also happen to be a part of his (Brahma’s) creation. The target, when hit by Brahmastra, would be utterly destroyed. Brahma had created a weapon even more powerful than the Brahmastra, called the Brahmashira. The Brahmashira was never used in war, as it had four times more power than the Brahmastra, i.e. Fourth power square, as the name suggests, since Brahma has Four Heads. Only Arjuna and Ashwatthama possessed the knowledge to summon the Brahmashira. The Brahmastra was an elite weapon with only a handful of greatest of religious and devoted archers (ref) maheshwarananda, Swami.”the vedic system” having access to it. It could not be acquired by mere training or meditation, it could only be bestowed upon a warrior by Lord Shiva or Lord Brahma. It required great sacrifice and devotion to be granted a Brahmastra, only a few people in the Mahabharata had this weapon at their disposal.

Vishnu's Sudarshan Chakra
Vishnu's Sudarshan Chakra
Sudarshan Chakra
The Sudarshana Chakra is a spinning, disk-like super weapon with 108 serrated edges used by Lord Vishnu. Its shape is of a circle with a sharp outer edge. Earliest references to the chakram come from the Indian epics Mahabharata and Ramayana where the Sudarshana Chakra is the weapon of the god Vishnu.  The use of Sudarshana Chakra is occasionally mentioned in the Hindu texts of Rigveda, Yajurveda and Puranas, as an ultimate weapon to eliminate the enemy of law, order and preservation. Such enemies are enumerated variously as rakshasas, asura, and vikrutatma. In one such instance, as scribed in the stanzas of the Mahabharat, Lord Shri Krishna, the Avatar of Lord Vishnu, beheads Shishupala with the use of the Sudarshana Chakra, for his rapacious behaviour (committing 100 mistakes each worthy of death) at the Rajsuya yagna celebration of Emperor Yudhishthira.

Ayyanar's Chentu
Ayyanar's Chentu

Chentu
A chentu is a horse whip which looks like a crooked stick, and is a typical attribute of  Lord Ayyanar, Krishna in his aspect as Rajagopala, and Shiva with Nandi. The attribute of chentu, which is etymologically derived from a Tamil word, generally appears in Southern India, especially in Hindu images of Tamil Nadu state, India.



Ganesha's Ankusa
Ganesha's Ankusa
Ankusa 
The elephant/hathi goad or Ankusa (Sanskrit) is a tool employed in the handling and training of elephants. It consists of a hook (usually bronze or steel) which is attached to a handle. The hook is inserted into the elephant’s sensitive skin, either slightly or more deeply, to cause pain and induce the elephant to behave in a certain manner. A relief at Sanchi and a fresco at the Ajanta Caves depict a three person crew on the war elephant, the driver with an elephant goad, what appears to be a noble warrior behind the driver and another attendant on the posterior of the elephant. 2 elephant goads, perfectly preserved were recovered from an archaeological site at Taxila and are dated from 3rd century BCE to the 1st century CE.

Arjuna uses Gandiva
Arjuna uses Gandiva
Gandiva
Gandiva is a holy bow created by Brahman of old, not to be confused with Brahma, the Creator. Brahma held it first for a thousand years. The bow was worshiped by Devas, Gandharvas and Danavas. Arjuna used it in Kurukshetra war and he was invincible. It is said that beside Lord Krishna no one except Arjuna could wield the bow in the mortal world. The bow, when twanged made the sound of thunder. Gandiva is parallel in its fame to its famous wielder. The name of Arjuna and Gandiva are spoken in single breath.


Khatvanga
Khatvanga is a long, club or staff originally created to be used as a weapon. It is a divine weapon of polysemic significance and accoutrement of chthonic deities and ‘left-handed path’ (Sanskrit: vamamarga) holy people in Dharmic Traditions such as Shaivism. The Khatvanga was adopted by some lineages of historical Tantra though it preceded such traditions. Lord Shiva as well as Lord Rudra carried the Khatwang as a staff.
Narayanastra
The personal missile of lord Vishnu in his Narayan form. This astra in turn fires millions of deadly missiles simultaneously. The intensity of the shower increases with increase in resistance. The only way of defense towards this missile, is to show total submission before the missiles hit. This in turn will cause this weapon to stop and spare the target. Ashwathama, a Kuru warrior-hero in the epic Mahabharata unleashes this weapon on the Pandava forces. Lord Krishna, who is an Avatar of Vishnu tells the Pandavas and their warriors to drop their weapons and lie down on the ground, so that they all surrender completely to the power of the weapon. This secret of nullifying the power of this weapon by this method was known only to three warriors namely Drona, Aswathama, and Krishna. Even Arjuna was not aware of this secret. It was also said that this weapon can be used only once in a war and if one tries to use it twice, then it would devour the user’s own army.

Parshurama's Parashu
Parshurama's Parashu
Parashu
The parashu is an Indian battle-axe. It is generally wielded with two hands but could also be used with only one. The parashu was the choice weapon of Lord Parashurama, sixth Avatar of Vishnu. Parashurama was the guru of Dronacharya, the guru who instructed the Pandavas in the epic of the Mahabharata. Bhishma and Karna, half brother of Pandava also took instruction in weaponry from Parashurama, a disciple of lord Shiva, and was known to have terrible temper having lost his father to the evil Asura. Parashurama’s parashu had supernatural powers. It had four cutting edges, one on each end of the blade head and one on each end of the shaft.


Shiva's Pashupata
Shiva's Pashupata
Pashupatastra
The Pashupatastra is the most destructive personal weapon of Lord Shiva, discharged by the mind, the eyes, words, or a bow. Never to be used against lesser enemies or by lesser warriors, the Pashupatastra is capable of destroying creation and vanquishing all beings. It was used in the Mahabharata war by Arjuna to kill Jayadratha. It was used against Lakshmana by Meghanada. It is returned without causing any harm since it can be used only to uphold Dharma.



Shiva's Trishul
Shiva's Trishul
Trishula
A trishula  is a type of Indian trident but also found in Southeast Asia. It is commonly used as a Hindu & Buddhist religious symbol. The word means “3 spear” in Sanskrit and Pali. The trishula is wielded by Lord  Shiva and is said to have been used to sever the original head of Lord Ganesh. Durga also holds trishula, as one of her many weapons. There are many other gods and deities, who hold the weapon trishula. The three points have various meanings and significance, and, common to Hindu religion, have many stories behind them. They are commonly said to represent various trinities—creation, maintenance and destruction, past, present and future, the three guna. When looked upon as a weapon of Shiva, the trishula is said to destroy the three worlds: the physical world, the world of the forefathers (representing culture drawn from the past) and the world of the mind (representing the processes of sensing and acting). The three worlds are supposed to be destroyed by Shiva into a single non-dual plane of existence, that is bliss alone. The trisula’s central point represents Shushmana, and that is why it is longer than the other two, representing ida and pingala.

Indra's Vajra
Indra's Vajra
Vajra
The vajra is believed to represent firmness of spirit and spiritual power. As a material device, the vajra is a ritual object, a short metal weapon, originally used as a kind of fist iron. The earliest mention of the Vajra is in the Rigveda, believed to have been composed between 1700 and 1100 BCE. It is described as the weapon of Indra. Indra is described as using the Vajra to kill sinners. The Rigveda states that the weapon was made for Indra by Tvastar, the maker of divine instruments. It is similar to the Japanese weapon called Yawara


Murugan's Vel
Murugan's Vel
Vel
The Vel is the divine javelin (spear) of the Lord Murugan. Goddess Parvati presented the Vel to Murugan as an emobodiment of Her shakti or power in order to vanquish the evil asura Soorapadman. According to the Skanda Purana , Murugan used His Vel to defeat all the evil forces of Soorapadman. Murugan, too keen for the deception, hurled his Vel and split the mango tree in to two halves, one becoming Seval (a rooster) and the other Mayil (a peacock). Murugan, henceforth, had the peacock as His vahanam and the rooster became the emblem on His battle flag. The Vel became the symbol of valour, and of the triumph of good over evil. The spear used by ancient Tamils in warfare is also commonly known by this name.

Hanuman's Gada
Hanuman's Gada
Gada
A Gada (also known as a mace) is a blunt weapon, a type of club or virge—that uses a round and very heavy head on the end of a handle to deliver powerful blows. The usage of gadas in warfare was very prevalent in the Indian epics of Ramayana and Mahabarata. The gada is also carried in the right hand of Lord Hanuman, where is can symbolize self-sovereinty, the authority of governance and the power to rule.

Why Veda is misunderstood by centuries?


The modern timeline also produces Commentators like The Sayana, the Yaska or the European Pundits who found language of veda such complicated and jumbled and attributed them something different that mankind ever imagined. They not only deteriorating to find the significance of the Veda, but misinterpreted and try to manipulate it. More specifically the modern Islamists are in a mission to wipe out every scriptures of humanity present on earth including the vedas. They twisted, toggled and co-relate the divine language of the vedas with different philosophy, mythology and personality. Like the European Pundits (of past), they reclaim that The Hindus (Aryans) used to worship the Sun, Moon, Stars, Planets, the Dawn, the Night, the Wind and the Storm, Rivers, Streams, Sea, Mountains, Trees and such visible objects, as they are the play of multiple Gods, and in addition it also foretold other religion like Islam.

Completely incapable of understanding the divine language of Veda, by willing or not willing they came out of such extraordinary stories full of unnatural strange and book of prophecy. An example will illustrate this in more details. Maulana Abdul Haq (1888–1977) a so called scholar tagged his name with that Hindu name "Vidyarthi" and wrote a book “Muhammad being prophecized in Hindu scriptures” some time back in 1940s He originally wrote Muhammad in World Scriptures in Urdu as Mithaq-un-nabiyyin, published in 1936. Then he had it translated into English and it appeared under the present title in 1940. A little later he published a second part in Urdu. He then went on to expand the English version considerably, which was published in 3 volumes between 1966 and 1975. At the end this man joined in Lahore Ahmadiyya Movement and died as Ahmadiyya Muslim following another fellow from Punjab " Hadhrat Mirza Ghulam Ahmad". Maulana Abdul Haq Vidyarthi wrote the following

(a) Brahma, the Creator in the Hindu Trinity, is declared to be actually Abraham. The initial letter A in Abraham has apparently been moved to the end making it Brahma. We are told "This analysis is accurate when one writes the two words in Arabic script, a language close to that spoken by Prophet Abraham". This immediately raises the problem of what language Abraham actually spoke and also that "a language close to that spoken" is not the same thing as the actual language. Also since the analysis is based on only phonetic similarity and on changing the position of the alphabets, the Hindus can with equal justice claim that Ramadan/Ramazan is actually a corruption of 'Ramanavami'.

Let us take a look at the linguistic root of Brahma.
The term Brah comes from the root Bri which means "to worship, to select, to surround". When an h is added to Bri it becomes Briha meaning to "increase, to grow". By addition of 'an', we have the word Brahman who in veda (Hinduism) is the Supreme God. Brahman thus is the original word. Brahman is without form, without gender and cannot be plural. The cosmos came into being by its will alone. When Brahman is imagined as a masculine being engaged in the act of creation, then it is called Brahma. When Brahman is imagined as a feminine being, who is the source of energy without which the act of creation cannot take place, then it is called Brahmani. Brahma thus has nothing to do with Abraham (incidentally we can also claim that Abraham comes from Brahma), but comes from Brahman and is clearly the God of creation/the creative aspect of God and not a human.

(b) "Similarly, Abraham’s first wife Sarah is mentioned in the Vedas as Saraswati". This again depends on mere phonetic similarity. Unfortunately, when we study the Rigvedic verses we see that Saraswati was actually a river. There is great dispute as to where this river was, but there is no doubt that it is a river. Rigveda again and again declares it to be a river with descriptions of flowing down from the mountains into the sea and it is worshipped as a river-goddess.

Later on in the modern era another scholar for dollar Dr. Zakir Naik borrowed all the work of Maulana Abdul Haq and continues this imaginary voyage. He profoundly quotes some common incomplete verse from veda like "na tasya pratima asti”, "shudhama poapvidham" etc. and generates confusion to his as well as his followers mind. Veda never told about the Image of God neither the Image is not God. The concept of veda is complete different to this twisted meaning. The complete verse of this Yajurveda means-

न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यशः | हिरण्यगर्भऽ इत्येष मा मा हिंन्सिदितेषा यस्मान्न जातऽ इत्येषः ||

"Na Tasya Pratima Asti, Yasya Nam Mahadyash |Hiranyagarbh Ityesha Ma Ma Hinsidityesha Yasmanna Jat Ityesha" - Yajur Ved 32:3

The supreme god who is described in verses like Hiranyagarbh (YV 25:10), Yasmanna Jat (YV 8:36), Ma Ma Hinsit (YV 12:102), whose name and glory is extremely broad but he/she does not have any pattern. (Which means, the Brahman does not have any specific pattern but by your meditational intellectual you can imagine his pattern)

Thus time after time, period after period, with lack of knowledge, dedication and will the profound simple & divine language of veda becomes mysterious, uncertain and irrational. But there are paths indicated by several sages from the past to the present to understand the divine words of veda. We will discuss it in near future.

--- G N Krishnaswami

Monday, May 28, 2012

Electricity & वेद (Véda)

Both the origins of Hinduism and Hindu Civilization are in the mist of antiquity. Unlike every other religion, it was not founded by any specific person, nor is there a founding date. Internally, it presents itself as eternal truths (Sanatana Dharma). What is known however, is that it is the oldest religion in the world and also one of the few which incorporated what we consider religion today along with all of the sciences (ranging from mathematics to astronomy to architecture) as part of its teachings. In modern terms, while Hinduism is considered to be a religion, it is in actuality a much broader set of teachings that cover everything useful in life. 
 
Today our topic of discussion is Electricity & Veda, Samhita.
 
The ancient text of Agastya Samhita describes the method of making electric battery, and that water can be split into oxygen and hydrogen.
 
"Sansthapya Mrinmaya Patre
Tamrapatram Susanskritam
Chhadyechhikhigriven Chardrarbhih
Kashthpamsubhih.
Dastaloshto Nidhatavyah
Pardachhaditastah
Sanyogajjayte Tejo
Mitravarunsangyitam"
 
"Place a well-cleaned copper plate in an earthenware vessel. Cover it first by copper sulfate and then by moist sawdust. After that, put a mercury-amalgamated zinc sheet on top of the sawdust to avoid polarization. The contact will produce an energy known by the twin name of Mitra-Varuna. Water will be split by this current into Pranavayu and Udanavayu. A chain of one hundred jars is said to give a very effective force. (p. 422)
 
When a cell was prepared according to Agastya Samhita and measured, it gives open circuit voltage as 1.138 volts, and short circuit current as 23 mA.
 
 
Anen Jalbhangosti Prano Daneshu
Vayushu
Evam Shatanam
Kumbhanamsanyogkaryakritsmritah.
 
If we use the power of 100 earthen pots on water, then water will change its form into life-giving oxygen and floating hydrogen.
 
Vayubandhakvastren Nibaddho
Yanmastake
Udanah Swalaghutve
Bibhartyakashayanakam.
 
If hydrogen is contained in an air tight cloth, it can be used in aerodynamics, i.e. it will fly in air.
 
Kritrimswarnarajatalepah
Satkritiruchyate?(Shukra Niti)
A layer of polish of artificial gold or silver is called satkriti (good deed.)
Yavksharamyodhanau
Sushaktjalsannidhau.
Aachhadyati Tattamram Swarnen
Rajten Va
Suvarnliptam Tattamram
Shatkumbhmiti Smritam.?(Agastya Samhita)
 
In an iron vessel and in a strong acidic medium, gold or silver nitrate covers copper with a layer of gold or silver. The copper that is covered by gold is called shatakumbha or artificial gold.
 
 
According to the descriptions found in Atharvaveda, electrical energy can be utilized in many useful applications such as creation of powerful engines, illumination, agricultural machinery, hydroelectric power plants, manufacturing plants, biomedical engineering, extraction of medicines, etc. and thus serve to greatly enhance the daily life of people.
 
Chapter 1: Hymn VII
Verse 2: Nav Yo Navati Puro bibhed bahvotjasaa
Ahi Cha vritrahaavadheet
 
Electricity , which breaks, by the energy of its arms the 99 cities, destroys the cloud, which covers the rays of the sun, the source of all energy and power.
 
This initial description describes the inherent properties of of electrical energy. Here the "arms of electricity" refers to positive and negative currents. The 99 cities refers to the 99 elements, as known to modern day scientists. In Vedic terminology, these essential elements were known as "Bhogas".
 
Verse 3: Sa na Indrah Shivah sakhashwavad gomadvavama
Urudhaarev dohate
 
That very electric power may be our peaceful friend, providing us with the horse-power to drive our machines, light to light up our houses, and power to produce grains in the fields. Let it bring on prosperity and well-being for us by flowing into numerous currents.
 
These verses clearly refer to the various useful applications of electricity. The mention of horse powered driving machines is a direct reference to electronically powered vehicles like automobiles, aircraft, etc.
 
Verse 4: Indra Kratuvidang sutang somang harya purushtut
Piba vrishaswa taatripim
 
Let electricity, so highly spoken of by many learned people, help extract the essence of medicines, thus produced by those, who are well-versed in manufacturing things. Let it keep safe and shower, on us the rain, satisfying all.
 
In modern times, we have discovered that certain electronic devices such as centrifuges, deep refrigeration, etc. are extremely helpful in deriving medicinal extracts. Apparently our ancient scientists were well aware of these methods and perhaps even more advanced than us in their knowledge. The last sentence refers reverentially to the role of electricity, which in the form of lightning is instrumental in creating life giving rain for the entire planet. The picture that emerges from these verses is that of an extremely advanced culture, that utilized superlative technology and yet maintained an enormous respect and reverence for the ecosystem and the natural environment.
 
Chapter 2: Hymn XV
Verse 2: Adha te vishwamanu haasadishtaya aapo nimneva savanaa havishmatah
Yatparvate na samasheeta haryata indrasya vajrah shnathita hiranyayah
 
Just as all productive works of the manufacturer depend upon waters flowing down with speed, so do all the desired objects of him depend upon you (Electricity), as its powerful striking force cannot be obstructed by any cloud, or mountain in the way. It smashes all impediments, with its radiant energy.
 
Verse 3: Asmay Bheemaaya namasaa samadhwara usho na shubhra aa bharaa paneeyase
Yasya dhaam shravase naamendriyam jyotirkaari harito naayase
 
O well-versed engineer make use of this terrible electric power fit to be utilized for useful purposes by controlling it, for non-violent, brilliant light like the dawn. It has the potentiality to help hearing, control energy and spread light in all quarters.
 
This confirms the fact that electricity was a topic that was researched and explored in great detail. Skilled electrical engineers used to devise specific utilities and controls for electric power. Illumination was certainly one of its widely used applications. From the last line, we can also glean the information that electronic devices were used as hearing aids and sound magnifiers. Sophisticated systems for controlling electricity and measuring electricity were in place, and electronic panels that aided in controlling other forms of energy were also used.
 
MILITARY USAGE OF ELECTRICITY:
 
Now let's turn to the truly amazing descriptions of electricity being utilized as a weapon in military combat.
The Electro-Magnetic Pulse (EMP) effect was first observed during the early testing of high altitude air-burst nuclear weapons. The effect is characterized by the production of a very short (hundreds of nanoseconds) but intense electromagnetic pulse, which propagates away from its source with ever diminishing intensity, governed by the theory of electromagnetism. The Electro-Magnetic Pulse is in effect an electromagnetic shock wave.
 
 
This pulse of energy produces a powerful electromagnetic field, particularly within the vicinity of the weapon burst. The field can be sufficiently strong to produce short lived transient voltages of thousands of Volts (ie kiloVolts) on exposed electrical conductors, such as wires, or conductive tracks on printed circuit boards, where exposed.
 
What amazes one is the fact that Vedic Rishis clearly KNEW about the EMP effect and have composed vivid descriptions of the usage of electric weapons as the verses below will demonstrate:
 
Chapter 2: Hymn XV
Verse 6: Twam tamindra parvatam mahaamurum vajrena vajrinparvshashchakartitha
Avaasrijo nivritaah satarvaa apah satraa vishwam dadhishe kevalam sahah
 
Just as the thundering electricity reduces the vast cloud to nothing by its thunderbolt, so do you, O King, equipped with piercing weapons like the thunderbolt, smash into pieces the vast armies of the enemy, consisting of various units, by your striking power like the thunderbolt. Just as the waters of the cloud released by the electricity, fall down and flow over the earth, similarly the well-equipped armies of the enemy; being subdued by the might of the king are duly regulated by him. Truly do you alone, O King, hold all the power to subdue the foes.
 
The inference is quite obviously to weapons utilizing electricity. "Piercing weapons like the thunderbolt" is a clear pointer to surges of exceedingly high voltage. The lethal electric weapons are used to counter various units of the army. This is another clue, for as discussed above, the EMP effect can be used to advantage for a number of targets ranging from computers, to communication systems. Apparently electricity was employed as one of the primary weapons in military combat during the Vedic era.
 
Chapter 3: Hymn XXX
Verse 1: Pra te mahe vidathe shansisham hari pra te vanve vanusho haryatam madam
Dhritam na yo haribhishcharu sechat aa tva vishantu harivparsang girah
 
O electricity, I fully praise thy two forces of protection and destruction in this great universe, which is a great sacrificial place or battlefield of life. I highly cherish your beautiful exhilaration, destroying the evil forces of the enemy. You shower various forms of fortunes through your blessing powers of speedy action, like waters from the clouds. Let all praises find their abode in you of charming splendor.
 
Here again, we find the mention of the dual nature of electrical energy. It can be destructive as in the EMP effect, and it can be protective as in the cerebrospinal system.
 
Verse 3: So asya vajro harito ya aayso harinirkaamo harira gabhastyoh
Dhumni sushipro harimanyusayaka indre ni roopa harita mimikshire
 
Here is the blue-green colored thunderbolt of iron of the king. There is also the beautiful horse of iron of high speed. Here is also the horsepower of the rays of electricity. There is also the shining arrow, capable of destroying the pride of the enemy and having a very high speed. In short many kinds of weapons have been made through electric power for the king.
 
These verses appear to be describing different sorts of electrical weapons. The "beautiful horse of iron of high speed" apparently refers to some type of metallic car/aircraft which can reach extremely high speeds. The horsepower for the engine for a craft or automobile of this sort was provided by electricity. The "shining arrow" can mean an exceptionally powerful ballistic missile loaded with an electric warhead.
 
Verse 4: Divi na keturadhi dhaayi haryato vivayachadvajro harito na ranghaya
Tudadahi harishipro ya aayasah sahastrashokaa abhavadharibharah
 
Like a radiant spot, it is well placed in the heavens, then with a high speed, the terribly destructive missile, made of iron, possessing speed of electric power, crushing the serpent natured enemy, becomes lit up with thousands of lights and loaded with destructive ray of various kinds.
 
This makes the previous verse even more apparent. The missile being described seems to generate immense power and would be exceptionally destructive. It is possible that the electric weapons used by Vedic society may have been equivalent in destructive power to nuclear weapons, or perhaps even more lethal.
 
There are many more such references to electrical energy in the Atharvaveda, however in the interests of keeping this article to a reasonable length, some of the verses are omitted.
 
*** The Atharva Veda (Sanskrit Text with English Translation) translated by Devi Chand and published by Mushiram Manoharlal Publishers Pvt Ltd has been used to compose this article***

कश्यप ऋषि से सम्पूर्ण जाति की उत्पत्ति

महर्षि कश्यप ब्रम्हा के मानस पुत्र मरीचि के पुत्र थे. इस प्रकार वे ब्रम्हा के पोते हुए. महर्षि कश्यप ने ब्रम्हा के पुत्र प्रजापति दक्ष की १७ कन्याओं से विवाह किया. संसार की सारी जातियां महर्षि कश्यप की इन्ही १७ पत्नियों की संतानें मानी जाति हैं. इसी कारण महर्षि कश्यप की पत्नियों को लोकमाता भी कहा जाता है. उनकी पत्नियों और उनसे उत्पन्न संतानों का वर्णन नीचे है.
अदिति: आदित्य (देवता). ये १२ कहलाते हैं. ये हैं अंश, अयारमा, भग, मित्र, वरुण, पूषा, त्वस्त्र, विष्णु, विवस्वत, सावित्री, इन्द्र और धात्रि या त्रिविक्रम (भगवन वामन).
दिति: दैत्य और मरुत. दिति के पहले दो पुत्र हुए: हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप. इनसे सिंहिका नमक एक पुत्री भी हुई. इन दोनों का संहार भगवन विष्णु ने क्रमशः वराह और नरसिंह अवतार लेकर कर दिया. इनकी मृत्यु के पश्चात् दिति ने फिर से आग्रह कर महर्षि कश्यप द्वारा गर्भ धारण किया. इन्द्र ने इनके गर्भ के सात टुकड़े कर दिए जिससे सात मरुतों का जन्म हुआ. इनमे से ४ इन्द्र के साथ, एक ब्रम्ह्लोक, एक इन्द्रलोक और एक वायु के रूप में विचरते हैं.
दनु: दानव जाति. ये कुल ६१ थे पर प्रमुख चालीस माने जाते हैं. वे हैं विप्रचित्त, शंबर, नमुचि, पुलोमा, असिलोमा, केशी, दुर्जय, अयःशिरी, अश्वशिरा, अश्वशंकु, गगनमूर्धा, स्वर्भानु, अश्व, अश्वपति, घूपवर्वा, अजक, अश्वीग्रीव, सूक्ष्म, तुहुंड़, एकपद, एकचक्र, विरूपाक्ष, महोदर, निचंद्र, निकुंभ, कुजट, कपट, शरभ, शलभ, सूर्य, चंद्र, एकाक्ष, अमृतप, प्रलब, नरक, वातापी, शठ, गविष्ठ, वनायु और दीघजिह्व. इनमें जो चंद्र और सूर्य नाम आए हैं वै देवता चंद्र और सूर्य से भिन्न हैं.
काष्ठा: अश्व और अन्य खुर वाले पशु.
अनिष्ठा: गन्धर्व या यक्ष जाति. ये उपदेवता माने जाते हैं जिनका स्थान राक्षसों से ऊपर होता है. ये संगीत के अधिष्ठाता भी माने जाते हैं. गन्धर्व काफी मुक्त स्वाभाव के माने जाते हैं और इस जाति में विवाह से पहले संतान उत्पत्ति आम मानी जाती थी. गन्धर्व विवाह बहुत ही प्रसिद्ध विवाह पद्धति थी जो राक्षसों और यक्षों में बहुत आम थी जिसके लिए कोई कर्मकांड की आवश्यकता नहीं होती थी. प्रसिद्ध गन्धर्वों या यक्षों में कुबेर और चित्रसेन के नाम बहुत प्रसिद्ध है.
सुरसा: राक्षस जाति. ये जाति विधान और मैत्री में विश्वास नहीं रखती और चीजों को हड़प करने वाली मानी जाति है. कई लोगों का कहना है की राक्षस जाति की शुरुआत रावण द्वारा की गयी. दैत्य, दानव और राक्षस जातियां एक सी लगती जरुर हैं लेकिन उनमे अंतर था. दैत्य जाति अत्यंत बर्बर और निरंकुश थी. दानव लोग लूटपाट और हत्याएं कर अपना जीवन बिताते थे तथा मानव मांस खाना इनका शौक होता था. राक्षस इन दोनों जातियों की अपेक्षा अधिक संस्कारी और शिक्षित होते थे. रावण जैसा विद्वान् इसका उदाहरण है. राक्षस जाति का मानना था कि वे रक्षा करते हैं. एक तरह से राक्षस जाति इन सब में क्षत्रियों की भांति थी और इनका रहन सहन, जीवन और ऐश्वर्य दैत्यों और दानवों की अपेक्षा अधिक अच्छा होता था.
इला: वृक्ष और समस्त वनस्पति.
मुनि: समस्त अप्सरागण. ये स्वर्गलोक की नर्तकियां कहलाती थीं जिनका काम देवताओं का मनोरंजन करना और उन्हें प्रसन्न रखना था. उर्वशी, मेनका, रम्भा एवं तिलोत्तमा इत्यादि कुछ मुख्य अप्सराएँ हैं.
क्रोधवषा: सर्प जाति, बिच्छू और अन्य विषैले जीव और सरीसृप.
सुरभि: सम्पूर्ण गोवंश (गाय, भैंस, बैल इत्यादि). इसके आलावा इनसे ११ रुद्रों का जन्म हुआ जो भगवान शंकर के अंशावतार माने जाते हैं. भगवान शंकर ने महर्षि कश्यप की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें अपने अंशावतार के पिता होने का वरदान दिया था. वे हैं: कपाली, पिंगल, भीम, विरूपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिर्बुधन्य, शम्भू, चंड एवं भव.
सरमा: हिंसक और शिकारी पशु, कुत्ते इत्यादि.
ताम्रा: गीध, बाज और अन्य शिकारी पक्षी.
तिमि: मछलियाँ और अन्य समस्त जलचर.
विनता: अरुण और गरुड़. अरुण सूर्य के सारथि बन गए और गरुड़ भगवान विष्णु के वाहन.
कद्रू: समस्त नाग जाति. कद्रू से १००० नागों की जातियों का जन्म हुआ. इनमे आठ मुख्य नागकुल चले. वे थे वासुकी, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंख, चूड, महापद्म और धनञ्जय. सर्प जाति और नाग जाति अलग अलग थी. सर्पों का मतलब जहाँ सरीसृपों की जाति से है वहीँ नाग जाति उपदेवताओं की श्रेणी में आती है जिनका उपरी हिस्सा मनुष्यों की तरह और निचला हिस्सा सर्पों की तरह होता था. ये जाति पाताल में निवास करती है और सर्पों से अधिक शक्तिशाली, लुप्त और रहस्यमयी मानी जाती है.
पतंगी: पक्षियों की समस्त जाति.
यामिनी: कीट पतंगों की समस्त जाति.
इसके अलावा महर्षि कश्यप ने वैश्वानर की दो पुत्रियों पुलोमा और कालका के साथ भी विवाह किया. पुलोमा से पौलोम नमक दानव वंश चला और कालका से ६०००० दैत्यों ने जन्म लिया जो कालिकेय कहलाये. रावण की बहन शूर्पनखा का पति विद्युत्जिह्य भी कालिकेय दैत्य था जो रावण के हाथों मारा गया था.

----  अनुराग मिश्र

हनुमान के जन्म की कथा

                      
श्रीराम हाथ जोड़कर अगस्त्य मुनि से बोले, "मुनिराज! इसमें सन्देह नहीं कि बालि और रावण दोनों ही भारी बलवान थे, परन्तु मेरा विचार है कि हनुमान उन दोनों से अधिक बलवान हैं। इनमें शूरवीरता, बल, धैर्य, नीति, सद्‍गुण सभी उनसे अधिक हैं। यदि मुझे ये न मिलते तो भला क्या जानकी का पता लग सकता था? मेरे समझ में यह नहीं आया कि जब बालि और सुग्रीव में झगड़ा हुआ तो इन्होंने अपने मित्र सुग्रीव की सहायता करके बालि को क्यों नहीं मार डाला। आप कृपा करके हनुमानजी के बारे में मुझे सब कुछ बताइये।" रघुनाथजी के वचन सुनकर महर्षि अगस्त्य बोले, "हे रघुनन्दन! आप ठीक कहते हैं। हनुमानजी अद्‍भुत बलवान, पराक्रमी और सद्‍गुण सम्पन्न हैं, परन्तु ऋषियों के शाप के कारण इन्हें अपने बल का पता नहीं था। मैं आपको इनके विषय में सब कुछ बताता हूँ। इनके पिता केसरी सुमेरु पर्वत पर राज्य करते थे। उनकी पत्‍नी का नाम अंजना था। इनके जन्म के पश्‍चात् एक दिन इनकी माता फल लाने के लिये इन्हें आश्रम में छोड़कर चली गईं। जब शिशु हनुमान को भूख लगी तो वे उगते हुये सूर्य को फल समझकर उसे पकड़ने के लिये आकाश में उड़ने लगे। उनकी सहायता के लिये पवन भी बहुत तेजी से चला। उधर भगवान सूर्य ने उसे अबोध शिशु समझकर अपने तेज से नहीं जलने दिया। जिस समय हनुमान सूर्य को पकड़ने के लिये लपके, उसी समय राहु सूर्य पर ग्रहण लगाना चाहता था। हनुमानजी ने सूर्य के ऊपरी भाग में जब राहु का स्पर्श किया तो वह भयभीत होकर वहाँ से भाग गया। उसने इन्द्र के पास जाकर शिकायत की कि देवराज! आपने मुझे अपनी क्षुधा शान्त करने के साधन के रूप में सूर्य और चन्द्र दिये थे। आज जब अमावस्या के दिन मैं सूर्य को ग्रस्त करने के लिये गया तो मैंने देखा कि एक दूसरा राहु सूर्य को पकड़ने जा रहा है।

"राहु की बात सुनकर इन्द्र घबरा गये और राहु को साथ लेकर सूर्य की ओर चल पड़े। राहु को देखकर हनुमान जी सूर्य को छोड़कर राहु पर झपटे। राहु ने इन्द्र को रक्षा के लिये पुकारा तो उन्होंने हनुमान जी पर वज्र का प्रहार किया जिससे वे एक पर्वत पर जा गिरे और उनकी बायीं ठुड्डी टूट गई। हनुमान की यह दशा देखकर वायुदेव को क्रोध आया। उन्होंने उसी क्षण अपनी गति रोक ली। इससे कोई भी प्राणी साँस न ले सका और सब पीड़ा से तड़पने लगे। तब सारे सुर, असुर, यक्ष, किन्नर आदि ब्रह्मा जी की शरण में गये। ब्रह्मा उन सबको लेकर वायुदेव के पास गये। वे मृत हनुमान को गोद में लिये उदास बैठे थे। जब ब्रह्मा जी ने उन्हें जीवित कर दिया तो वायुदेव ने अपनी गति का संचार करके सब प्राणियों की पीड़ा दूर की। चूँकि इन्द्र के वज्र से हनुमान जी की हनु (ठुड्डी) टूट गई थी, इसलिये तब से उनका नाम हनुमान हो गया। फिर प्रसन्न होकर सूर्य ने हनुमान को अपने तेज का सौंवा भाग दिया। वरुण, यम, कुबेर, विश्‍वकर्मा आदि ने उन्हें अजेय पराक्रमी, अवध्य होने, नाना रूप धारण करने की क्षमता आदि के वर दिया। इस प्रकार नाना शक्‍तियों से सम्पन्न हो जाने पर निर्भय होकर वे ऋषि-मुनियों के साथ शरारत करने लगे। किसी के वल्कल फाड़ देते, किसी की कोई वस्तु नष्ट कर देते। इससे क्रुद्ध होकर ऋषियों ने इन्हें शाप दिया कि तुम अपने बल और शक्‍ति को भूल जाओगे। किसी के याद दिलाने पर ही तुम्हें उनका ज्ञान होगा। तब से उन्हें अपने बल और शक्‍ति का स्मरण नहीं रहा। बालि और सुग्रीव के पिता ऋक्षराजा थे। चिरकाल तक राज्य करने के पश्‍चात् जब ऋक्षरजा का देहान्त हुआ तो बालि राजा बना। बालि और सुग्रीव में बचपन से ही प्रेम था। जब उन दोनों में बैर हुआ तो सुग्रीव के सहायक होते हुये भी शाप के कारण हनुमान अपने बल से अनजान बने रहे।" हनुमान के जीवन की यह कथा सुनकर सबको बड़ा आश्‍चर्य हुआ। जब अगस्त्य तथा अन्य मुनि अयोध्या से विदा होकर जाने लगे तो श्रीराम ने उनसे कहा, "मेरी इच्छा है कि पुरवासी और देशवासियों को अपने-अपने कार्यों में लगाकर मैं यज्ञों का अनुष्ठान करूँ। आपसे प्रार्थना है कि आप सब उन यज्ञों में अवश्य पधारकर भाग लेने की कृपा करें।" सब ऋषियों ने उसमें भाग लेने की अपनी स्वीकृति प्रदान की। फिर वे वहाँ से विदा होकर अपने-अपने आश्रम को चले गये।

अभ्यागतों की विदाई: अब श्री रघुनाथ जी नियमपूर्क प्रतिदिन राजसभा में बैठकर राजकाज संभालकर शासन चलाने लगे। कुछ दिन पश्‍चात् राजा जनक विदा होकर मिथिला के लिये रवाना हो गये। इसके पश्‍चात् कैकेय नरेश युधाजित, काशिराज प्रतर्दन तथा अन्य आगत राजा महाराजा भी विनयपूर्वक अयोध्या से विदा हुये। फिर उन्होंने सुग्रीव, हनुमान, अंगद, नील, नल, केसरी कुमुद, गन्धमादन, सुषेण, पनस, वीरमैन्द, द्विविद, जाम्बवन्त, गवाक्ष, विनत, धूम्र, बलीमुख, प्रजंघ, सन्नाद, दरीमुख, दधिमुख, इन्द्रजानु तथा अन्य वानर यूथपतियों को नाना प्रकार के वस्त्राभूषण-रत्‍नादि देकर सम्मानित किया। फिर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करके उन्हें विदा किया। फिर वे विभीषण को विदा करते हुये उनसे बोले, "राक्षसराज! तुम धर्मपूर्वक लंका पर शासन करना। तुम धर्मात्मा हो। मुझे विश्‍वास है कि तुम कभी धर्म विरुद्ध कोई कार्य नहीं करोगे। अपनी प्रजा का पुत्रवत् पालन करना।" विदा होने से पहले हनुमान बोले, "प्रभो! मुझे ऐसा वर दीजिये कि आपके प्रति मेरी अटूट भक्‍ति सदा बनी रहे। आपके सिवा कहीं और मेरा आन्तरिक अनुराग न हो। इस पृथ्वी पर जब तक राम कथा प्रचलित रहे, तब तक मेरे प्राण इस शरीर में ही बसे रहें।" हनुमान की बात सुनकर श्रीराम ने उन्हें हृदय से लगा लिया और बोले, "ऐसा ही होगा।" संसार में जब तक मेरी कथा प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारे प्राण भी तुम्हारे शरीर में बने रहेंगे। तुमने जो उपकार किये हैं, उनके लिये मैं सदा तुम्हारा ऋणी रहूँगा।" फिर वे सब लोग श्रीराम का गुणगान करते हुये वहाँ से विदा हुये। विभीषण, सुग्रीव, हनुमान आदि के विदा हो जाने पर भरत बोले, "राघव! आपको राजसिंहासन पर बैठे एक मास हुआ है। इस अवधि में सभी लोग स्वस्थ और निरोग दिखाई देते हैं। बूढ़े आदमियों के पास भी मृत्यु फटकने में हिचकती है। सभी बाल-युवा नर-नारियों के शरीर हृष्ट-पुष्ट और कान्तिमय प्रतीत होते हैं। पुरवासियों में प्रसन्नता की लहर दौड़ रही है। मेघ समय पर अमृत के समान जल बरसाते हैं। हवा ऐसी चलती है कि उसका स्पर्श सुखद और शीतल जान पड़ता है।" भरत की ये बातें सुनकर श्रीराम अत्यन्त प्रसन्न हुये।

पुरवासियों में अशुभ चर्चा: जब अयोध्या में शासन करते हुये काफी समय बीत गया तब एक दिन रामचन्द्रजी सीता के गर्भवती होने का समाचार पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुये। वे सीता से बोले, "विदेहनन्दिनी! अब तुम शीघ्र इक्ष्वाकुवंश को पुत्ररत्न प्रदान करोगी। इस समय तुम्हारी क्या इच्छा है? मैं तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूरा करूँगा। तुम निःसंकोच होकर अपने मन की बात कहो।" पति के मृदु वचन सुनकर सीताजी मुस्कुराकर बोलीं, "स्वामी! मेरी इच्छा एक बार उन पवित्र तपोवनों को देखने की हो रही है। मैं कुछ समय उन महर्षि तपस्वियों के पास रहना चाहती हूँ जो कन्द-मूल-फल खाकर गंगा के तट पर तपस्या करते हैं। कम से कम एक रात्रि वहाँ विनास करके मैं उन्हें उग्र तपस्या करते देखना चाहती हूँ। इस समय यही मेरी अभिलाषा है।" प्राणप्रिया पत्‍नी की अभिलाषा जानकर रघुनन्दन बोले, "सीते! तुम्हारी अभिलाषा मैं अवश्य पूरी करूँगा। तुम निश्‍चिंत रहो। कल प्रातःकाल ही मैं तुम्हें गंगातट वासी ऋषियों के आश्रम की ओर भेजने की व्यवस्था करा दूँगा।" सीता को आश्‍वासन देकर श्रीराम राजदरबार में चले गये। राजदरबार से निवृत हो वे अपने मित्रों में बैठकर हास्य विनोद की वार्ता करने लगे। मित्रमण्डली में उनके बालसखा विजय, मधुवत्त, काश्यप, मंगल, कुल, सुराजि, कालिय, भद्र, दन्तवक्त्र और सुभागध थे। बातो ही बातों में रामचन्द्र ने पूछा, "भद्र! आजकल नगर में किस बात की चर्चा विशेषरूप से होती है? नगर और जनपद के लोग मेरे, सीता, भरत-लक्ष्मण आदि भाइयों और माता कैकेयी के विषय में क्या-क्या बातें करते हैं? प्रायः देखा जाता है कि राजा यदि आचार-विचार से हीन हो तो सर्वत्र उसकी निन्दा होती है।"

भद्र ने उत्तर दिया, "सौम्य! सर्वत्र आपके विषय में अच्छी ही चर्चा सुनने को मिलती है। दशग्रीव पर जो आपने विजय प्राप्त की है, उसको लेकर सब लोग आपकी खूब प्रशंसा करते हैं और आपकी वीरता के कहानी अपने बच्चों को बड़े उत्साह से सुनाते हैं।" रघुनाथ बोले "भद्र! ऐसा नहीं हो सकता कि सब लोग मेरे विषय में सब अच्छी ही बातें कहें। कुछ ऐसी भी बातें हो सकती हैं जो उन्हें अच्छी न लगती हों। संसार में सभी प्रवृति के लोग होते हैं। इसलिये तुमने जो कुछ भी सुना हो निश्‍चिंत होकर बेखटके कहो। यदि उन्हें मुझमें कोई दोष दिखाई देता होगा तो मैं उसे दूर करने की चेष्ट करूँगा।" यह सुनकर भद्र बोला, "वे कहते हैं कि श्रीराम ने समुद्र पर पुल बाँध कर ऐसा दुष्कर कार्य किया है जिसे देवता भी नहीं कर सकते। रावण को मारकर वानरों को भी वश में कर लिया परन्तु एक बात खटकती है। रावण को मारकर उस सीता को घर ले आये जो इतने दिनों तक रावण के पास रही। फिर सीता से घृणा करने के बजाय उन्होंने उसे कैसे अपने पास रख लिया? भला सीता का चरित्र क्या वहाँ पवित्र रहा होगा? अब प्रजाजन भी ऐसी स्त्रियों को अपने घरों में रखने लगेंगे क्योंकि जैसा राजा करता है, प्रजा भी वैसा ही करती है। इस प्रकार सारे नगर निवासी भिन्न-भिन्न प्रकार की बातें करते हैं।"

भद्र की बात का अन्य साथियों ने भी यह कहकर समर्थन किया कि 'हमने भी ऐसी बातें लोगों के मुख से सुनी हैं।' सबकी बात सुनकर राजा राम ने उन्हें विदा किया और इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगे। फिर उन्होंने द्वारपाल को आज्ञा देकर अपने तीनों भाइयों को बुलाया। भाइयों ने आकर उन्हें सादर प्रणाम किया और देखा, श्रीराम बहुत उदास हैं तथा उनके नेत्रों में आँसू डबडबा रहे हैं। श्रीराम ने बड़े आदर से अपने भाइयों को अपने पास बिठाकर कहा, "बन्धुओं! मैंने तुम्हें इसलिये बुलाया है कि मैं तुम्हें उस चर्चा की जानकारी दे दूँ जो पुरवासियों में मेरे और सीता के विषय में चल रही है। उनमें सीता के चरित्र के विषय में घोर अपवाद फैला हुआ है और मेरे विषय में भी उनके मन में घृणा के भाव हैं। लक्ष्मण! यह तो तुम जानते ही हो कि सीता ने अपने चरित्र की पवित्रता सिद्ध करने के लिये सबके सामने अग्नि में प्रवेश किया था और उस समय स्वयं अग्निदेव ने उन्हें निर्दोष बताया था। इस प्रकार विशुद्ध आचार वाली सीता को स्वयं देवराज इन्द्र ने मेरे हाथों में सौंपा था। फिर भी अयोध्या में यह अपवाद फैल रहा है और लोग मेरी निन्दा कर रहे हैं। मैं लोक निन्दा के भय से अपने प्राणों को और तुम्हें भी त्याग सकता हूँ, फिर सीता का परित्याग करना तो मेरे लिये तनिक भी कठिन नहीं होगा। इसलिये लक्ष्मण! कल प्रातः तुम सारथी सुमन्त के साथ सीता को ले जाकर राज्य की सीमा से बाहर छोड़ आओ। गंगा के उस पार तमसा के तट पर महर्षि वाल्मीकि का आश्रम है। उसके निकट उन्हें छोड़कर लौट आना। मैं तुम लोगों को अपने चरणों और जीवन की शपथ देता हूँ, मेरे निर्णय के विरुद्ध कोई कुछ मत कहना। सीता ने गंगातट पर ऋषियों के आश्रम देखने की इच्छा प्रकट की थी, वह भी पूरी हो जायेगी।" फिर गहरी साँस भरकर नेत्रों में आये आँसू पोंछकर वे मौन हो गये।

---- अनुराग मिश्र