सिंधुघाटी
सभ्यता के कुछ अवशेषों का अध्ययन करते हुए वैज्ञानिकों के एक समूह ने
सिंधु लिपि में लिखित एक शिलालेख पढ़ा जिसमें पवित्र संख्या 108 का
महत्त्त्व वर्णित था। वैज्ञानिक वह लिखावट पढ़कर आश्चर्यचकित रह गये। लिखा
था, सूर्य के व्यास एवं पृथ्वी के व्यास का अनुपात 108 है।
सिंधुघाटी सभ्यता युगीन उक्त शिलोलेख यद्यपि इतना ही बताता है कि भगवान भास्कर जो भूमंडल आलोकित करते हैं आकार अर्थात् व्यास या परिधि में 108 गुना बडे़ हैं, तथापि वैज्ञानिक यह जानने में जुटे हैं कि शताब्दियों पूर्व मनुष्य ने सूर्य का व्यास और पृथ्वी का व्यास किस प्रकार जाना होगा। यदि ग्रहों की गति से संबंधित किसी गणितीय सूत्र (जैसा कि प्राचीन भारतीय ज्योतिष शास्त्र ग्रहों की गति पर आधारित है) से सूर्य और उसके ग्रह पृथ्वी के व्यासों का अनुपात निकाला गया है तो भी उस काल में ग्रह के वेग, उसकी सूर्य से दूरी और सूर्य के द्रव्यमान के बीच संबंध ज्ञात था, ऐसा लगता है। यह तभी संभव है जब गुरूत्वाकर्षण सिद्धांत और केप्लर के ग्रह-गति नियम एक बड़ी सीमा तक ज्ञात हों। साथ ही सूर्य और पृथ्वी के गुरूत्वीय त्वरण ज्ञात करने के प्रायोगिक उपकरण, विशेषकर सूर्य के गुरूत्वीय क्षेत्र में गति निरीक्षण के लिए दूरबीन, समयमापक घड़ी, अंतरिक्ष में उड़ने वाले विमान आदि भी उस समय थे, यह माना जाना चाहिये।
आधुनिक युग के लिए यह भले ही नई जानकारी नहीं हो किंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यदि सिंधुघाटी सभ्यता युगीन शिलालेख का वाक्यांश उस समय की स्थिति के अनुरूप पूरी तरह सही था तो आज पृथ्वी या तो उस समय की तुलना में कुछ सिकुड़ गई है या सूर्य उस समय की तुलना में कुछ फैल गया है। कारण यह है कि आज के सूर्य के व्यास के माध्यमान 1392700 किलोमीटर में पृथ्वी के व्यास के माध्यमान 12736 किलोमीटर का भाग लगाने से अनुपात 109.35 प्राप्त होता है। भौतिकी के एक सूत्र के अनुसार सूर्य के व्यास और पृथ्वी के व्यास का अनुपात दोनों के द्रव्यमानों के अनुपात तथा दोनों के गुरूत्वीय त्वरणों के अनुपात के अनुपात का वर्गमूल होता है। सूर्य पृथ्वी से 333445 गुना द्रव्यमान तथा 28 गुना गुरूत्वीय त्वरण रखता है। इस दृष्टि से दोनों के व्यासों का अनुपात भी
= 109.13 प्राप्त होता है।
पुनश्च, गणना करने से (लेखक द्वारा) ज्ञात होता है यदि पृथ्वी का द्रव्यमान सिंधु सभ्यताकाल से आज तक समान रहा तो सिकुड़कर पृथ्वी का घनत्व पहले से 1.038 गुना हो गया और यदि पृथ्वी का घनत्व समान रहा तो पृथ्वी से आज के द्रव्यमान का 3.8 प्रतिशत अर्थात 2.27 ग 1020 टन द्रव्यमान छिटक कर बिखर गया या अलग कर दिया गया।
भौतिकी के एक सूत्र के अनुसार यदि किसी आकाशीय पिंड के द्रव्यमान और त्रिज्या में परिवर्तन हो तो पुराने गुरूत्वीय त्वरण और नये गुरूत्वीय त्वरण का अनुपात पुराने और नये द्रव्यमानों के अनुपात तथा नयी त्रिज्या और पुरानी त्रिज्या के अनुपात के वर्ग के गुणनफल के बराबर होता है। अतः सिंधु सभ्यताकालीन पृथ्वी के गुरूत्वीय त्वरण और वर्तमान पृथ्वी के गुरूत्वीय त्वरण का अनुपात 1.0348 (108 109.35)2 =1.0094 सिद्ध होता है। चूंकि आज पृथ्वी का माध्य गुरूत्वीय त्वरण 9.8 मीटर प्रति सेंकड प्रति सेंकड है अतः सिंधु सभ्यताकाल में वह 9.8 ग 1.0094 =9.892 मीटर प्रति सेकंड प्रति सेकंड होना सिद्ध होता है।
आधुनिक काल में पृथ्वी के द्रव्यमान क्षय का एक कारण तकनीकी के विकास के साथ शोध की दृष्टि से चन्द्रमा, मंगल एवं अंतरिक्ष मे रॉकेट भेजना और संचार की दृष्टि से कृत्रिम उपग्रह स्थापित करना है। प्राचीन काल में भी इस प्रकार के तकनीकी विकास की संभावना नकारी नहीं जा सकती। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में पृथ्वी से दूसरे लोकों में विमानों द्वारा जाने की कथाएॅं मिलती हैं। पृथ्वी के द्रव्यमान क्षय के मानवीय गतिविधि के अतिरिक्त प्राकृतिक कारण भी हो सकते हैं। उदाहरणार्थ किसी छोटे तीव्र आकाशीय पिंड से टकराकर पृथ्वी का कुछ भाग छिटककर उसके गुरूत्वीय क्षेत्र से परे हो जाये। वैसे उल्कापात के रूप में पृथ्वी की द्रव्यमान वृद्धि भी होती रही है।
जो भी हो, चूंकि 108 एक पवित्र संख्या है, अतः इसका पर्यावरणीय महत्त्त्व होना चाहिये। सूर्य का व्यास पृथ्वी के व्यास का ठीक 108 गुना किसी कालखंड में रहा है तो वह आज क्यों नहीं है, यह पर्यावरण की दृष्टि से भी विचारणीय विषय हो सकता है।
गणना
माना कि पृथ्वी की वर्तमान त्रिज्या त्र और सिंधु सभ्यता कालीन त्रिज्या त्र’ है और सूर्य की त्रिज्या अपरिवर्तित त्र“ है।
अतः त्र”/त्र’ = 108 एवं त्र”/त्र = 109.35
अतः त्र’/त्र = 109.35/108
अतः त्र’/त्र -1 = 109.35/108
अतः त्र’ – त्र/त्र = (109.35 – 108/108) = 1.35/108 = 0.0125
अतः सिंधु सभ्यता कालीन पृथ्वी की त्रिज्या आज की पृथ्वी की त्रिज्या से 1.25 प्रतिशत अधिक सिद्ध होती है।
सिंधु सभ्यताकालीन पृथ्वी का आयतन = (4/3) ग (22/7) ग त्र
वर्तमान पृथ्वी का आयतन = (4/3) ग (22/7) ग त्र
अतः दोनों आयतनों का अनुपात = ( त्र‘ /त्र) = (109.35/108) = 1.038
अतः वर्तमान पृथ्वी आयतन की तुलना में सिंधु सभ्यताकालीन पृथ्वी का आयतन 1.038 गुना था। यदि पृथ्वी का द्रव्यमान समान रहा तो आज पृथ्वी का घनत्व पहले से 1.038 गुना है
अतः आयतन क्षय का अनुपात = 1.038 – 1 = 0.038 ( वर्तमान पृथ्वी के आयतन की तुलना में)
अतः सिंधु सभ्यताकालीन पृथ्वी का आयतन आज की पृथ्वी के आयतन से 3.8 प्रतिशत अधिक सिद्ध होता हैं।
यदि मान लिया जाये कि सिंधु सभ्यताकालीन पृथ्वी और वर्तमान पृथ्वी का घनत्व समान रहा तो पृथ्वी के आज के द्रव्यमान का 3.8 प्रतिशत सिंधु सभ्यता काल से आज तक क्षय हुआ।
वर्तमान में पृथ्वी का द्रव्यमान = 5.977ग10 टन
अतः द्रव्यमान क्षय (यदि घनत्व अपिरिवर्तित है) = 0.038ग5.977 ग10 =2.27 ग10 टन
सिंधुघाटी सभ्यता युगीन उक्त शिलोलेख यद्यपि इतना ही बताता है कि भगवान भास्कर जो भूमंडल आलोकित करते हैं आकार अर्थात् व्यास या परिधि में 108 गुना बडे़ हैं, तथापि वैज्ञानिक यह जानने में जुटे हैं कि शताब्दियों पूर्व मनुष्य ने सूर्य का व्यास और पृथ्वी का व्यास किस प्रकार जाना होगा। यदि ग्रहों की गति से संबंधित किसी गणितीय सूत्र (जैसा कि प्राचीन भारतीय ज्योतिष शास्त्र ग्रहों की गति पर आधारित है) से सूर्य और उसके ग्रह पृथ्वी के व्यासों का अनुपात निकाला गया है तो भी उस काल में ग्रह के वेग, उसकी सूर्य से दूरी और सूर्य के द्रव्यमान के बीच संबंध ज्ञात था, ऐसा लगता है। यह तभी संभव है जब गुरूत्वाकर्षण सिद्धांत और केप्लर के ग्रह-गति नियम एक बड़ी सीमा तक ज्ञात हों। साथ ही सूर्य और पृथ्वी के गुरूत्वीय त्वरण ज्ञात करने के प्रायोगिक उपकरण, विशेषकर सूर्य के गुरूत्वीय क्षेत्र में गति निरीक्षण के लिए दूरबीन, समयमापक घड़ी, अंतरिक्ष में उड़ने वाले विमान आदि भी उस समय थे, यह माना जाना चाहिये।
आधुनिक युग के लिए यह भले ही नई जानकारी नहीं हो किंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यदि सिंधुघाटी सभ्यता युगीन शिलालेख का वाक्यांश उस समय की स्थिति के अनुरूप पूरी तरह सही था तो आज पृथ्वी या तो उस समय की तुलना में कुछ सिकुड़ गई है या सूर्य उस समय की तुलना में कुछ फैल गया है। कारण यह है कि आज के सूर्य के व्यास के माध्यमान 1392700 किलोमीटर में पृथ्वी के व्यास के माध्यमान 12736 किलोमीटर का भाग लगाने से अनुपात 109.35 प्राप्त होता है। भौतिकी के एक सूत्र के अनुसार सूर्य के व्यास और पृथ्वी के व्यास का अनुपात दोनों के द्रव्यमानों के अनुपात तथा दोनों के गुरूत्वीय त्वरणों के अनुपात के अनुपात का वर्गमूल होता है। सूर्य पृथ्वी से 333445 गुना द्रव्यमान तथा 28 गुना गुरूत्वीय त्वरण रखता है। इस दृष्टि से दोनों के व्यासों का अनुपात भी
= 109.13 प्राप्त होता है।
पुनश्च, गणना करने से (लेखक द्वारा) ज्ञात होता है यदि पृथ्वी का द्रव्यमान सिंधु सभ्यताकाल से आज तक समान रहा तो सिकुड़कर पृथ्वी का घनत्व पहले से 1.038 गुना हो गया और यदि पृथ्वी का घनत्व समान रहा तो पृथ्वी से आज के द्रव्यमान का 3.8 प्रतिशत अर्थात 2.27 ग 1020 टन द्रव्यमान छिटक कर बिखर गया या अलग कर दिया गया।
भौतिकी के एक सूत्र के अनुसार यदि किसी आकाशीय पिंड के द्रव्यमान और त्रिज्या में परिवर्तन हो तो पुराने गुरूत्वीय त्वरण और नये गुरूत्वीय त्वरण का अनुपात पुराने और नये द्रव्यमानों के अनुपात तथा नयी त्रिज्या और पुरानी त्रिज्या के अनुपात के वर्ग के गुणनफल के बराबर होता है। अतः सिंधु सभ्यताकालीन पृथ्वी के गुरूत्वीय त्वरण और वर्तमान पृथ्वी के गुरूत्वीय त्वरण का अनुपात 1.0348 (108 109.35)2 =1.0094 सिद्ध होता है। चूंकि आज पृथ्वी का माध्य गुरूत्वीय त्वरण 9.8 मीटर प्रति सेंकड प्रति सेंकड है अतः सिंधु सभ्यताकाल में वह 9.8 ग 1.0094 =9.892 मीटर प्रति सेकंड प्रति सेकंड होना सिद्ध होता है।
आधुनिक काल में पृथ्वी के द्रव्यमान क्षय का एक कारण तकनीकी के विकास के साथ शोध की दृष्टि से चन्द्रमा, मंगल एवं अंतरिक्ष मे रॉकेट भेजना और संचार की दृष्टि से कृत्रिम उपग्रह स्थापित करना है। प्राचीन काल में भी इस प्रकार के तकनीकी विकास की संभावना नकारी नहीं जा सकती। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में पृथ्वी से दूसरे लोकों में विमानों द्वारा जाने की कथाएॅं मिलती हैं। पृथ्वी के द्रव्यमान क्षय के मानवीय गतिविधि के अतिरिक्त प्राकृतिक कारण भी हो सकते हैं। उदाहरणार्थ किसी छोटे तीव्र आकाशीय पिंड से टकराकर पृथ्वी का कुछ भाग छिटककर उसके गुरूत्वीय क्षेत्र से परे हो जाये। वैसे उल्कापात के रूप में पृथ्वी की द्रव्यमान वृद्धि भी होती रही है।
जो भी हो, चूंकि 108 एक पवित्र संख्या है, अतः इसका पर्यावरणीय महत्त्त्व होना चाहिये। सूर्य का व्यास पृथ्वी के व्यास का ठीक 108 गुना किसी कालखंड में रहा है तो वह आज क्यों नहीं है, यह पर्यावरण की दृष्टि से भी विचारणीय विषय हो सकता है।
गणना
माना कि पृथ्वी की वर्तमान त्रिज्या त्र और सिंधु सभ्यता कालीन त्रिज्या त्र’ है और सूर्य की त्रिज्या अपरिवर्तित त्र“ है।
अतः त्र”/त्र’ = 108 एवं त्र”/त्र = 109.35
अतः त्र’/त्र = 109.35/108
अतः त्र’/त्र -1 = 109.35/108
अतः त्र’ – त्र/त्र = (109.35 – 108/108) = 1.35/108 = 0.0125
अतः सिंधु सभ्यता कालीन पृथ्वी की त्रिज्या आज की पृथ्वी की त्रिज्या से 1.25 प्रतिशत अधिक सिद्ध होती है।
सिंधु सभ्यताकालीन पृथ्वी का आयतन = (4/3) ग (22/7) ग त्र
वर्तमान पृथ्वी का आयतन = (4/3) ग (22/7) ग त्र
अतः दोनों आयतनों का अनुपात = ( त्र‘ /त्र) = (109.35/108) = 1.038
अतः वर्तमान पृथ्वी आयतन की तुलना में सिंधु सभ्यताकालीन पृथ्वी का आयतन 1.038 गुना था। यदि पृथ्वी का द्रव्यमान समान रहा तो आज पृथ्वी का घनत्व पहले से 1.038 गुना है
अतः आयतन क्षय का अनुपात = 1.038 – 1 = 0.038 ( वर्तमान पृथ्वी के आयतन की तुलना में)
अतः सिंधु सभ्यताकालीन पृथ्वी का आयतन आज की पृथ्वी के आयतन से 3.8 प्रतिशत अधिक सिद्ध होता हैं।
यदि मान लिया जाये कि सिंधु सभ्यताकालीन पृथ्वी और वर्तमान पृथ्वी का घनत्व समान रहा तो पृथ्वी के आज के द्रव्यमान का 3.8 प्रतिशत सिंधु सभ्यता काल से आज तक क्षय हुआ।
वर्तमान में पृथ्वी का द्रव्यमान = 5.977ग10 टन
अतः द्रव्यमान क्षय (यदि घनत्व अपिरिवर्तित है) = 0.038ग5.977 ग10 =2.27 ग10 टन
— श्री अनुराग मिश्र
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