ग्रह
सुख-दु:ख, रोग, कष्ट, सम्पत्ति, विपत्ति का कारण नहीं होते। इन फलों की
प्राप्ति का कारण तो मनुष्य के शुभाशुभ कर्म ही होते हैं। मनुष्य ने जो
कुशल या अकुशल कर्म पूर्व-जन्मों में किये होते हैं, जन्म कुंडली में ग्रह
उन्हीं के अनुसार, राशियों एवं भावों में विभिन्न स्थितियों में बैठकर
भावीफल की सूचना देते हैं। प्रश्न कुंडली के ग्रह वर्तमान में किये कर्मों
की सूचना देते हैं। इस प्रकार चिकित्सा ज्योतिष के पाठकों को यह स्पष्ट रूप
से हृदयंगम कर लेना चाहिए कि ग्रह रोगों के कारक नहीं है। वस्तुत: ग्रह तो
सूचक मात्र होते हैं। अत: जहाँ कहीं भी ज्योतिष में ग्रहों के कारकत्व
शब्द का प्रयोग किया जाता है तब उसका तात्पर्य ग्रहों का सूचकत्व समझना
चाहिये। जिस व्याधि का निर्णय चिकित्सकों द्वारा शास्त्रोक्त विधि से किया
जाकर चिकित्सा की जावे फिर भी वह व्याधि शान्त न हो तब उसे कर्मज व्याधि
जाननी चाहिये। उसकी चिकित्सा भेषज के साथ अनुष्ठानों, मंत्र, तंत्रादि
द्वारा करनी चाहिये। जैसा कि कहा गया है-
‘‘यथा शास्त्रं तु निर्णीतो यथा व्यार्धि चिकित्सित:।
न शमं याति यो व्याधि: स ज्ञेय: कर्मजं बुधै:।।
पुण्यैश्च भेषजै: शान्ता: ते ज्ञेया: कर्म दोषजै:।
विज्ञेया: दोषजास्त्वन्ये केवला वाऽथ संकरा:।।
दैव को ही भाग्य कहा जाता है। यह भाग्य कर्म से ही बनता है। पूर्व-जन्म का कर्म ही भाग्य या दैव रूप में व्यक्ति को सुख-दु:ख का भोग करवाता है। रोग पाप कर्म के फलस्वरूप ही होते हैं। मनुष्य की असावधानियाँ भी पाप हैं। महर्षि चरक अपने ग्रंथ चरक संहिता में दैव तथा तथा कर्मज व्याधियों की व्याख्या करते हुए शारीस्थान में समझाते हैं-
‘‘नहिकर्म महत् किंचित् फलं यस्य न भुञ्जते।
क्रियाध्ना कर्म जारोगा: प्रशमंयान्ति तत्क्षयात्।।
निर्दिष्टं दैव शब्देन कर्मं यत् पौर्व दैहिकम्।
हेतु स्तदपि कालेन रोगाणामुपलभ्यते।।
वर्तमान जन्म में रोगों का कारण प्रज्ञपराध कहा है-
‘‘धी धृति स्मृति विभृष्ट: कर्मयत् कुरुते ऽशुभम्।
प्रज्ञापराधं तं विद्यात् सर्वदोष प्रकोपणम्।।
आधुनिक समय में हम प्रतिदिन देख रहे हैं कि महँगे नैदानिक उपकरणों एवं तकनीकों की सहायता से मानव शरीर के अंगों-प्रत्यंगों तथा धातुओं-उपधातुओं के परीक्षणोपरान्त भी डॉक्टर किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पाते हैं। ऐसे में समझदार आस्तिक लोग ज्योतिषशास्त्र के द्वारा रोग निदान में सहयोग लेकर रूग्विनिश्चय कर निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचते हैं और तद्नुसार औषधोपचार तथा अनुष्ठान का सहारा लेकर व्याधि से छुटकारा प्राप्त कर सुखी होते हैं।
जो चिकित्सक ज्योतिष के जानकर होते हैं वे अपने जीवन में औरों की अपेक्षा अधिक यशस्वी और लोकोपकारक सिद्ध होते हैं। आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थों में उल्लेख है कि ‘‘वैद्यों को बहुश्रुत होना चाहिए।’’ बहुश्रुत का तात्पर्य है कि उसने चिकित्साशास्त्र के अलावा ज्योतिषशास्त्र तथा अन्य शास्त्रों का भी अध्ययन किया हो। प्रवीण वैद्य बिना नाड़ी परीक्षा तथा अन्य प्रकार के परीक्षणों के बिना रोग का निदान नहीं कर सकता परन्तु एक प्रवीण ज्योतिषी गणना द्वारा ही शारीरिक रोगों का विवरण तथा आंगिक विकृति के बारे में सम्यक् रूप से जानकारी दे सकता है। यही कारण है कि बड़े-बड़े कुशल चिकित्सक कठिन एवं असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्तियों के विषय में ज्योतिषीय परामर्श ग्रहण कर सफलता अर्जित करते हैं।
ज्योतिषशास्त्र भी एक विज्ञान है जो कार्य कारण संबंध पर निर्भर है। चिकित्सकों द्वारा ज्योतिशशास्त्र का अध्ययन कर रोग पीड़ितों की अधिक सेवा की जा सकती है तथा रोग निदान के संबंध में अंधेरे में भटकने को रोकने में मदद मिल सकती है। समाज के
धन अपव्यय से बचा जा सकता है। यह एक बहुत अच्छी बात होगी कि विद्यालयों, विश्वविद्यालयों तथा विभिन्न पद्धतियों के चिकित्सा महाविद्यालयों में चिकित्सा तथा स्वास्थ्य विषयों के साथ ही ज्योतिष शिक्षा अनिवार्य कर दी जावे तथा प्रत्येक चिकित्सक (वैद्य, हकीम, एलोपैथ, होम्योपैथ) परोपकार की भावना से आप्लावित अन्त:करण से चिकित्सा कार्य करे।
नीचे चिकित्साशास्त्र की विभिन्न शाखाओं में इस शास्त्र (चिकित्सकीय ज्योतिष) का क्या उपयोग है इस पर प्रकाश डाला जा रहा है-
(i) कायचिकित्सा में उपयोग :- कायचिकित्सकों के लिये यह विषय अतीव उपयोगी है। रोग की अवधि निश्चित करने में इसका पूरा सहयोग रहता है। रोग भेषजसाध्य है अथवा शस्त्रकर्म द्वारा साध्य है ? इसका निर्णय करने में भी सहयोग मिलता है। रोगी किस मुहूर्त में वैद्य के पास जावे जिससे उसके रोग का निदान त्रुटि रहित हो ? पुरानी बीमारियों हेतु मुहूर्त का विचार आवश्यक होता है परन्तु संकटकालीन स्थिति में मुहूर्त का विचार नहीं होता।
(ii) शल्य शास्त्र में उपयोग :- रोग औषधि से ठीक होगा अथवा शल्यकर्म (ऑपरेशन) के द्वारा इसका निर्णय कर ग्रहों के आधार पर रोगी की सहन-शक्ति सत्व तथा सामर्थ्य को जानकर ठीक मुहूर्त में आपरेशन पूर्ण सफलता प्रदान करता है।
(iii) प्रसूति तंत्र में उपयोग :- ज्योतिषीय गणनाओं द्वारा ग्रह स्थिति-वशात् यह निश्चय करने में सुविधा रहती है कि प्रसूता का प्रसव सरलतापूर्वक होगा या कष्टपूर्वक ? एतदर्थ प्रसवकालीन ग्रहस्थिति को ध्यान में रखकर निर्णय किया जाता है।
(iv)बाल रोग चिकित्सा में उपयोग :- आयुर्वेद में आधुनिक पीड़िया-ट्रिक्स को कौमार भृत्य नाम दिया गया है। यदि प्रसूतागार का निर्माण वास्तुशास्त्र में बताये नियमों तथा पदार्थों (मैटेरियल्स) के अनुसार हो तो उसमें जन्मने वाले बालक हेतु शुभ होगा। घर के भीतर भी बालक का शयन कक्ष ज्योतिष शास्त्र के मानदंडों के अनुसार बनाना शुभ होता है। बालारिष्ट को योगों का ज्ञान करके बालक को निरोग रखने में मदद मिलती है। प्रसूता के स्तन्य (दूध) की मात्रा स्तनपायी शिशु हेतु पर्याप्त रहेगी अथवा अपर्याप्त रहेगी। इसे चिकित्सा ज्योतिष द्वारा ही जाना जा सकता है। बालग्रहों तथा पूतना आदि के कष्टों में बालकों की रक्षा की जा सकती है।
(v)विष विज्ञान में उपयोग :- विष विज्ञान को आयुर्वेद में अगदतंत्र कहा गया है। गद का अर्थ रोग तथा विष होता है अर्थात् कोई भी विजातीय पदार्थ जो शरीर के बाह्य या आभ्यांतरिक संपर्क में आने पर शरीर को हानि पहुँचाता है उसे गद या विष कहते हैं। अरबी में इसे जहर तथा आंग्ल भाषा में पॉइजन तथा टॉक्सिन कहा जाता है। कभी-कभी कोई ऐसा अनिष्टकारी समय होता है जिसमें प्राणिज, खनिज अथवा जान्तव किसी भी प्रकार के विष प्रयुक्त होने पर वह रोगी के लिये मृत्युकारक अथवा मरणासन्न स्थिति उत्पन्न करने वाला होता है। इसी प्रकार किसी अश्विनी नक्षत्र में जन्मे हुए व्यक्ति पर कुचला का हानिकर प्रभाव न्यूनतम होगा क्योंकि कुचला अश्विनी नक्षत्र का वृक्ष है।
(vi)पशु चिकित्सा एवं पशुपालन में उपयोग :- विशिष्ट ग्रह स्थिति में उत्पन्न दुधारू पशु तद्नुसार कम या अधिक दूध देने वाले होते हैं। वृष लग्न में उत्पन्न गाय या बैल ठीक रहते हैं परन्तु सिंह लग्न या धनु लग्न या मेष लग्न में प्रसूत होने वाले पशु अधिक मरखा (मरखना) होते हैं। कर्क या मकर या मीन लग्नोत्पन्न गाय, भैसें, यदि किसी पापग्रह से हष्ट न हों तो खूब दुधारू होते हैं, शुक्र एवं चन्द्र की दृष्टि लग्न एवं सप्तम भाव पर होने से पशु में दूध की मात्रा बढ़ाने वाली है। यह अनुभूत है। अल्प मात्रा में दूध देने वाले को यदि विहित मुहूर्त में शतावरी आदि वनस्पतियों का सेवन कराने पर उनके दूध में पर्याप्त वृद्धि उपलक्षित होती है।
(vii)भैषज्य निर्माण शास्त्र में उपयोग :- भेषज्य निर्माण हेतु यदि किसी विज्ञ ज्योतिषी से मुहूर्त पूछकर निर्माण कार्य किया जावे तो चूर्ण, बटी, धृत, तैल, आसव, अरिष्ट, अर्क, अवलेह (इतरीफल, माजून लऊक आदि भी) रस, भस्म, रसायन, प्रतिविष एण्टीबायोटिक्स आदि के घान अत्यन्त गुणकारी निर्मित होते हैं। कृत्तिका नक्षत्र में भष्म श्रेष्ठ बनती है। अश्वनी नक्षत्र में वाजीकरण योगों का निर्माण उत्तम रहता है।
(viii)मनोविज्ञान की सभी शाखाओं में उपयोग :- चिकित्सकीय ज्योतिषशास्त्र का उपयोग मनोविज्ञान की सभी शाखाओं में लाभप्रद है। जन्म कुंडली के भावों में ग्रहों तथा राशियों की स्थिति पर से जातक का मानसिक विकास बौद्धिक विकास तथा बुद्धि उपलब्धि का भावी अनुमान सरलतापूर्वक किया जा सकता है। इतना ही नहीं व्यक्ति की मूल प्रवृत्तियों की भविष्यवाणी भी जन्मकालीन ग्रह योगों के आधार पर की जावेगी। संबंधित जातक की मानसिक संरचना की भी जानकारी देने में जन्म कुंडली पूर्णत: सक्षम होती है। भविष्य में जातक को होने वाली व्याधियों (मनोरोगों) यथा-उन्माद, अपस्मार, अपतंत्रक, अवसाद, स्मृतिभ्रंश आदि का स्पष्ट संकेत जन्मकालीन ग्रहस्थिति वशात् प्राप्त हो जाता है।
बाल मनोवैज्ञानिक बालकों के रुझान, रुचि आदि की जानकारी करने में जन्म कुंडली का सहयोग लेकर लाभ उठा सकते हैं। बालक की अभिरुचि शिक्षा के किन-किन विषयों में होगी इसका पूर्वाभास कर सकते हैं। बालक के साथ कोमलता या कठोरता का व्यवहार उसके व्यक्तित्व के विकास में कितना साधक या बाधक होगा, इसको जान सकते हैं। घर से भागने वाले बालकों की कुंडली में उनके पलायनकर्त्ता होने के निश्चित संकेत होते हैं।
यौन मनोविज्ञान के क्षेत्र में चिकित्सा ज्योतिष का उपयोग भरपूर लाभकारी रहेगा। इसकी सहायता से कोई स्त्री या पुरुष अतिकामुक, हीन कामुक या नपुंसक है, यह पता कर सकते हैं। पुंका तथा स्त्री कामोन्माद जैसी व्याधियों का पता पूर्व में ही लगाकर उनके बचाव हेतु उपाय किये जा सकते हैं।
उद्योगों एवं व्यावसायिक प्रबन्धन के क्षेत्र में इस विज्ञान की सहायता से नियोक्ता अपने कर्मचारियों एवं श्रमिकों के कर्मठ, आलसी, झगड़ालू, मन्द बुद्धि या तीक्ष्ण बुद्धि होने का पता लगा सकते हैं। अपराधों के अन्वेषण में भी इससे सहायता मिलती है।
प्राचीन समय में सभी पीयूषपाणि आयुर्वेदीय चिकित्सक ज्योतिषशास्त्र के ज्ञाता होते थे और वे किसी भी गम्भीर रोग की चिकित्सा से पूर्व ज्योतिष के आधार पर रोगी के आयुष्य तथा साध्यासाध्यता का विचार किया करते थे। जिसका आयुष्य ही नष्ट हो चुका है उसकी चिकित्सा से लाभ ? ‘‘श्रीमददेवीभागवत’’ महापुराण में एक कथा आई है जिसके अनुसार महर्षि कश्यप को जब यह ज्ञात हुआ कि राजा परीक्षित की मृत्यु सर्पदंश से होगी तब महर्षि ने सोचा कि मुझे अपनी सर्पविद्या से राजा परीक्षित के प्राणों की रक्षा करनी चाहिए। महर्षि कश्यप उस काल के ख्याति प्राप्त ‘‘विष वैज्ञानिक’’ थे। महर्षि ने राजमहल की ओर प्रस्थान किया, मार्ग में उन्हें तक्षक नाग मिला जो राजा परीक्षित को डसने जा रहा था। तक्षक ने ब्राह्मण का वेष बनाकर कश्यप से पूछा, ‘‘भगवान् आप कहाँ जा रहे हैं ?’’ कश्यप ने उत्तर दिया ‘‘मुझे ज्ञात हुआ है कि राजा परीक्षित की मृत्यु तक्षक के दंश से होगी। मैं अपने अगद प्रयोग द्वारा राजा के शरीर को विष रहित कर दूँगा जिससे धन और यश की प्राप्ति होगी।’’ तक्षक अपनी छदम् वेष त्यागकर वास्तविक रूप में प्रकट हो गया और कहा, ‘‘मैं इस हरे-भरे वृक्ष पर दंश का प्रयोग कर रहा हूँ। हे महर्षि। आप अपनी विद्या का प्रयोग दिखाएँ।’’ और तक्षक के विष प्रयोग से उस वृक्ष को कृष्ण वर्ण और शुष्क प्राय: कर दिया। महर्षि कश्यप ने अपने अगद प्रयोग से उस वृक्ष को पूर्ववत हरा-भरा कर दिया। यह देखकर तक्षक के मन में निराशा हुई। तब तक्षक ने महर्षि कश्यप से निवेदन किया कि, ‘‘आपका उपचार फलदायी तभी होगा जब राजा का आयुष्य शेष होगा। यदि वह गतायुष हो गया है तो आपको अपने कार्य में यश प्राप्त नहीं होगा।’’ कश्यप ने तत्काल ज्योतिष गणना करके पता लगाया कि राजा की आयु में कुछ घड़ी शेष हैं। ऐसा जानकर वे अपने स्थान को लौट गए। तक्षक के उससे विष को संस्कृत में तक्षकिन् कहते हैं। आजकल का अंग्रेजी में प्रयुक्त शब्द ‘Toxin’ उससे व्युत्पन्न हुआ। इस घटना की तरह पुराणों में अनेक घटनाओं का वर्णन है। जिनसे यह ज्ञात होता है कि प्राचीन वैद्य रोग निदान एवं साध्यासाध्यता के लिए पदे-पदे ज्योतिषशास्त्र की सहायता लेते थे।
योग-रत्नाकर में कहा है कि-
‘‘औषधं मंगलं मंत्रो, हयन्याश्च विविधा: क्रिया।
यस्यायुस्तस्य सिध्यन्ति न सिध्यन्ति गतायुषि।।
अर्थात औषध, अनुष्ठान, मंत्र यंत्र तंत्रादि उसी रोगी के लिये सिद्ध होते हैं जिसकी आयु शेष होती है। जिसकी आयु शेष नहीं है; उसके लिए इन क्रियाओं से कोई सफलता की आशा नहीं की जा सकती। यद्यपि रोगी तथा रोग को देख-परखकर रोग की साध्या-साध्यता तथा आसन्न मृत्यु आदि के ज्ञान हेतु चरस संहिता, सुश्रुत संहिता, भेल संहिता, अष्टांग संग्रह, अष्टांग हृदय, चक्रदत्त, शारंगधर, भाव प्रकाश, माधव निदान, योगरत्नाकर तथा कश्यपसंहिता आदि आयुर्वेदीय ग्रन्थों में अनेक सूत्र दिये गए हैं परन्तु रोगी या किसी भी व्यक्ति की आयु का निर्णय यथार्थ रूप में बिना ज्योतिष की सहायता के संभव नहीं है। आयुर्वेदीय सूत्रों के सहारे तो रोग की आकस्मिक स्थिति में ही आयुष्य का निर्णय हो पाता है, उसके आधार पर छ: माह से अधिक पूर्व से निर्णय नहीं हो सकता है। चिकित्सक रोगी की आयु का स्वामी नहीं है। जैसाकि कथन है-
‘‘रोगस्तत्व परिज्ञानं वेदनायाश्च निग्रह:।
एतद् वैद्यस्य वैद्यत्वं न वैद्यो प्रभुरायुष:।।
----- श्री अनुराग मिश्र
‘‘यथा शास्त्रं तु निर्णीतो यथा व्यार्धि चिकित्सित:।
न शमं याति यो व्याधि: स ज्ञेय: कर्मजं बुधै:।।
पुण्यैश्च भेषजै: शान्ता: ते ज्ञेया: कर्म दोषजै:।
विज्ञेया: दोषजास्त्वन्ये केवला वाऽथ संकरा:।।
दैव को ही भाग्य कहा जाता है। यह भाग्य कर्म से ही बनता है। पूर्व-जन्म का कर्म ही भाग्य या दैव रूप में व्यक्ति को सुख-दु:ख का भोग करवाता है। रोग पाप कर्म के फलस्वरूप ही होते हैं। मनुष्य की असावधानियाँ भी पाप हैं। महर्षि चरक अपने ग्रंथ चरक संहिता में दैव तथा तथा कर्मज व्याधियों की व्याख्या करते हुए शारीस्थान में समझाते हैं-
‘‘नहिकर्म महत् किंचित् फलं यस्य न भुञ्जते।
क्रियाध्ना कर्म जारोगा: प्रशमंयान्ति तत्क्षयात्।।
निर्दिष्टं दैव शब्देन कर्मं यत् पौर्व दैहिकम्।
हेतु स्तदपि कालेन रोगाणामुपलभ्यते।।
वर्तमान जन्म में रोगों का कारण प्रज्ञपराध कहा है-
‘‘धी धृति स्मृति विभृष्ट: कर्मयत् कुरुते ऽशुभम्।
प्रज्ञापराधं तं विद्यात् सर्वदोष प्रकोपणम्।।
आधुनिक समय में हम प्रतिदिन देख रहे हैं कि महँगे नैदानिक उपकरणों एवं तकनीकों की सहायता से मानव शरीर के अंगों-प्रत्यंगों तथा धातुओं-उपधातुओं के परीक्षणोपरान्त भी डॉक्टर किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पाते हैं। ऐसे में समझदार आस्तिक लोग ज्योतिषशास्त्र के द्वारा रोग निदान में सहयोग लेकर रूग्विनिश्चय कर निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचते हैं और तद्नुसार औषधोपचार तथा अनुष्ठान का सहारा लेकर व्याधि से छुटकारा प्राप्त कर सुखी होते हैं।
जो चिकित्सक ज्योतिष के जानकर होते हैं वे अपने जीवन में औरों की अपेक्षा अधिक यशस्वी और लोकोपकारक सिद्ध होते हैं। आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थों में उल्लेख है कि ‘‘वैद्यों को बहुश्रुत होना चाहिए।’’ बहुश्रुत का तात्पर्य है कि उसने चिकित्साशास्त्र के अलावा ज्योतिषशास्त्र तथा अन्य शास्त्रों का भी अध्ययन किया हो। प्रवीण वैद्य बिना नाड़ी परीक्षा तथा अन्य प्रकार के परीक्षणों के बिना रोग का निदान नहीं कर सकता परन्तु एक प्रवीण ज्योतिषी गणना द्वारा ही शारीरिक रोगों का विवरण तथा आंगिक विकृति के बारे में सम्यक् रूप से जानकारी दे सकता है। यही कारण है कि बड़े-बड़े कुशल चिकित्सक कठिन एवं असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्तियों के विषय में ज्योतिषीय परामर्श ग्रहण कर सफलता अर्जित करते हैं।
ज्योतिषशास्त्र भी एक विज्ञान है जो कार्य कारण संबंध पर निर्भर है। चिकित्सकों द्वारा ज्योतिशशास्त्र का अध्ययन कर रोग पीड़ितों की अधिक सेवा की जा सकती है तथा रोग निदान के संबंध में अंधेरे में भटकने को रोकने में मदद मिल सकती है। समाज के
धन अपव्यय से बचा जा सकता है। यह एक बहुत अच्छी बात होगी कि विद्यालयों, विश्वविद्यालयों तथा विभिन्न पद्धतियों के चिकित्सा महाविद्यालयों में चिकित्सा तथा स्वास्थ्य विषयों के साथ ही ज्योतिष शिक्षा अनिवार्य कर दी जावे तथा प्रत्येक चिकित्सक (वैद्य, हकीम, एलोपैथ, होम्योपैथ) परोपकार की भावना से आप्लावित अन्त:करण से चिकित्सा कार्य करे।
नीचे चिकित्साशास्त्र की विभिन्न शाखाओं में इस शास्त्र (चिकित्सकीय ज्योतिष) का क्या उपयोग है इस पर प्रकाश डाला जा रहा है-
(i) कायचिकित्सा में उपयोग :- कायचिकित्सकों के लिये यह विषय अतीव उपयोगी है। रोग की अवधि निश्चित करने में इसका पूरा सहयोग रहता है। रोग भेषजसाध्य है अथवा शस्त्रकर्म द्वारा साध्य है ? इसका निर्णय करने में भी सहयोग मिलता है। रोगी किस मुहूर्त में वैद्य के पास जावे जिससे उसके रोग का निदान त्रुटि रहित हो ? पुरानी बीमारियों हेतु मुहूर्त का विचार आवश्यक होता है परन्तु संकटकालीन स्थिति में मुहूर्त का विचार नहीं होता।
(ii) शल्य शास्त्र में उपयोग :- रोग औषधि से ठीक होगा अथवा शल्यकर्म (ऑपरेशन) के द्वारा इसका निर्णय कर ग्रहों के आधार पर रोगी की सहन-शक्ति सत्व तथा सामर्थ्य को जानकर ठीक मुहूर्त में आपरेशन पूर्ण सफलता प्रदान करता है।
(iii) प्रसूति तंत्र में उपयोग :- ज्योतिषीय गणनाओं द्वारा ग्रह स्थिति-वशात् यह निश्चय करने में सुविधा रहती है कि प्रसूता का प्रसव सरलतापूर्वक होगा या कष्टपूर्वक ? एतदर्थ प्रसवकालीन ग्रहस्थिति को ध्यान में रखकर निर्णय किया जाता है।
(iv)बाल रोग चिकित्सा में उपयोग :- आयुर्वेद में आधुनिक पीड़िया-ट्रिक्स को कौमार भृत्य नाम दिया गया है। यदि प्रसूतागार का निर्माण वास्तुशास्त्र में बताये नियमों तथा पदार्थों (मैटेरियल्स) के अनुसार हो तो उसमें जन्मने वाले बालक हेतु शुभ होगा। घर के भीतर भी बालक का शयन कक्ष ज्योतिष शास्त्र के मानदंडों के अनुसार बनाना शुभ होता है। बालारिष्ट को योगों का ज्ञान करके बालक को निरोग रखने में मदद मिलती है। प्रसूता के स्तन्य (दूध) की मात्रा स्तनपायी शिशु हेतु पर्याप्त रहेगी अथवा अपर्याप्त रहेगी। इसे चिकित्सा ज्योतिष द्वारा ही जाना जा सकता है। बालग्रहों तथा पूतना आदि के कष्टों में बालकों की रक्षा की जा सकती है।
(v)विष विज्ञान में उपयोग :- विष विज्ञान को आयुर्वेद में अगदतंत्र कहा गया है। गद का अर्थ रोग तथा विष होता है अर्थात् कोई भी विजातीय पदार्थ जो शरीर के बाह्य या आभ्यांतरिक संपर्क में आने पर शरीर को हानि पहुँचाता है उसे गद या विष कहते हैं। अरबी में इसे जहर तथा आंग्ल भाषा में पॉइजन तथा टॉक्सिन कहा जाता है। कभी-कभी कोई ऐसा अनिष्टकारी समय होता है जिसमें प्राणिज, खनिज अथवा जान्तव किसी भी प्रकार के विष प्रयुक्त होने पर वह रोगी के लिये मृत्युकारक अथवा मरणासन्न स्थिति उत्पन्न करने वाला होता है। इसी प्रकार किसी अश्विनी नक्षत्र में जन्मे हुए व्यक्ति पर कुचला का हानिकर प्रभाव न्यूनतम होगा क्योंकि कुचला अश्विनी नक्षत्र का वृक्ष है।
(vi)पशु चिकित्सा एवं पशुपालन में उपयोग :- विशिष्ट ग्रह स्थिति में उत्पन्न दुधारू पशु तद्नुसार कम या अधिक दूध देने वाले होते हैं। वृष लग्न में उत्पन्न गाय या बैल ठीक रहते हैं परन्तु सिंह लग्न या धनु लग्न या मेष लग्न में प्रसूत होने वाले पशु अधिक मरखा (मरखना) होते हैं। कर्क या मकर या मीन लग्नोत्पन्न गाय, भैसें, यदि किसी पापग्रह से हष्ट न हों तो खूब दुधारू होते हैं, शुक्र एवं चन्द्र की दृष्टि लग्न एवं सप्तम भाव पर होने से पशु में दूध की मात्रा बढ़ाने वाली है। यह अनुभूत है। अल्प मात्रा में दूध देने वाले को यदि विहित मुहूर्त में शतावरी आदि वनस्पतियों का सेवन कराने पर उनके दूध में पर्याप्त वृद्धि उपलक्षित होती है।
(vii)भैषज्य निर्माण शास्त्र में उपयोग :- भेषज्य निर्माण हेतु यदि किसी विज्ञ ज्योतिषी से मुहूर्त पूछकर निर्माण कार्य किया जावे तो चूर्ण, बटी, धृत, तैल, आसव, अरिष्ट, अर्क, अवलेह (इतरीफल, माजून लऊक आदि भी) रस, भस्म, रसायन, प्रतिविष एण्टीबायोटिक्स आदि के घान अत्यन्त गुणकारी निर्मित होते हैं। कृत्तिका नक्षत्र में भष्म श्रेष्ठ बनती है। अश्वनी नक्षत्र में वाजीकरण योगों का निर्माण उत्तम रहता है।
(viii)मनोविज्ञान की सभी शाखाओं में उपयोग :- चिकित्सकीय ज्योतिषशास्त्र का उपयोग मनोविज्ञान की सभी शाखाओं में लाभप्रद है। जन्म कुंडली के भावों में ग्रहों तथा राशियों की स्थिति पर से जातक का मानसिक विकास बौद्धिक विकास तथा बुद्धि उपलब्धि का भावी अनुमान सरलतापूर्वक किया जा सकता है। इतना ही नहीं व्यक्ति की मूल प्रवृत्तियों की भविष्यवाणी भी जन्मकालीन ग्रह योगों के आधार पर की जावेगी। संबंधित जातक की मानसिक संरचना की भी जानकारी देने में जन्म कुंडली पूर्णत: सक्षम होती है। भविष्य में जातक को होने वाली व्याधियों (मनोरोगों) यथा-उन्माद, अपस्मार, अपतंत्रक, अवसाद, स्मृतिभ्रंश आदि का स्पष्ट संकेत जन्मकालीन ग्रहस्थिति वशात् प्राप्त हो जाता है।
बाल मनोवैज्ञानिक बालकों के रुझान, रुचि आदि की जानकारी करने में जन्म कुंडली का सहयोग लेकर लाभ उठा सकते हैं। बालक की अभिरुचि शिक्षा के किन-किन विषयों में होगी इसका पूर्वाभास कर सकते हैं। बालक के साथ कोमलता या कठोरता का व्यवहार उसके व्यक्तित्व के विकास में कितना साधक या बाधक होगा, इसको जान सकते हैं। घर से भागने वाले बालकों की कुंडली में उनके पलायनकर्त्ता होने के निश्चित संकेत होते हैं।
यौन मनोविज्ञान के क्षेत्र में चिकित्सा ज्योतिष का उपयोग भरपूर लाभकारी रहेगा। इसकी सहायता से कोई स्त्री या पुरुष अतिकामुक, हीन कामुक या नपुंसक है, यह पता कर सकते हैं। पुंका तथा स्त्री कामोन्माद जैसी व्याधियों का पता पूर्व में ही लगाकर उनके बचाव हेतु उपाय किये जा सकते हैं।
उद्योगों एवं व्यावसायिक प्रबन्धन के क्षेत्र में इस विज्ञान की सहायता से नियोक्ता अपने कर्मचारियों एवं श्रमिकों के कर्मठ, आलसी, झगड़ालू, मन्द बुद्धि या तीक्ष्ण बुद्धि होने का पता लगा सकते हैं। अपराधों के अन्वेषण में भी इससे सहायता मिलती है।
प्राचीन समय में सभी पीयूषपाणि आयुर्वेदीय चिकित्सक ज्योतिषशास्त्र के ज्ञाता होते थे और वे किसी भी गम्भीर रोग की चिकित्सा से पूर्व ज्योतिष के आधार पर रोगी के आयुष्य तथा साध्यासाध्यता का विचार किया करते थे। जिसका आयुष्य ही नष्ट हो चुका है उसकी चिकित्सा से लाभ ? ‘‘श्रीमददेवीभागवत’’ महापुराण में एक कथा आई है जिसके अनुसार महर्षि कश्यप को जब यह ज्ञात हुआ कि राजा परीक्षित की मृत्यु सर्पदंश से होगी तब महर्षि ने सोचा कि मुझे अपनी सर्पविद्या से राजा परीक्षित के प्राणों की रक्षा करनी चाहिए। महर्षि कश्यप उस काल के ख्याति प्राप्त ‘‘विष वैज्ञानिक’’ थे। महर्षि ने राजमहल की ओर प्रस्थान किया, मार्ग में उन्हें तक्षक नाग मिला जो राजा परीक्षित को डसने जा रहा था। तक्षक ने ब्राह्मण का वेष बनाकर कश्यप से पूछा, ‘‘भगवान् आप कहाँ जा रहे हैं ?’’ कश्यप ने उत्तर दिया ‘‘मुझे ज्ञात हुआ है कि राजा परीक्षित की मृत्यु तक्षक के दंश से होगी। मैं अपने अगद प्रयोग द्वारा राजा के शरीर को विष रहित कर दूँगा जिससे धन और यश की प्राप्ति होगी।’’ तक्षक अपनी छदम् वेष त्यागकर वास्तविक रूप में प्रकट हो गया और कहा, ‘‘मैं इस हरे-भरे वृक्ष पर दंश का प्रयोग कर रहा हूँ। हे महर्षि। आप अपनी विद्या का प्रयोग दिखाएँ।’’ और तक्षक के विष प्रयोग से उस वृक्ष को कृष्ण वर्ण और शुष्क प्राय: कर दिया। महर्षि कश्यप ने अपने अगद प्रयोग से उस वृक्ष को पूर्ववत हरा-भरा कर दिया। यह देखकर तक्षक के मन में निराशा हुई। तब तक्षक ने महर्षि कश्यप से निवेदन किया कि, ‘‘आपका उपचार फलदायी तभी होगा जब राजा का आयुष्य शेष होगा। यदि वह गतायुष हो गया है तो आपको अपने कार्य में यश प्राप्त नहीं होगा।’’ कश्यप ने तत्काल ज्योतिष गणना करके पता लगाया कि राजा की आयु में कुछ घड़ी शेष हैं। ऐसा जानकर वे अपने स्थान को लौट गए। तक्षक के उससे विष को संस्कृत में तक्षकिन् कहते हैं। आजकल का अंग्रेजी में प्रयुक्त शब्द ‘Toxin’ उससे व्युत्पन्न हुआ। इस घटना की तरह पुराणों में अनेक घटनाओं का वर्णन है। जिनसे यह ज्ञात होता है कि प्राचीन वैद्य रोग निदान एवं साध्यासाध्यता के लिए पदे-पदे ज्योतिषशास्त्र की सहायता लेते थे।
योग-रत्नाकर में कहा है कि-
‘‘औषधं मंगलं मंत्रो, हयन्याश्च विविधा: क्रिया।
यस्यायुस्तस्य सिध्यन्ति न सिध्यन्ति गतायुषि।।
अर्थात औषध, अनुष्ठान, मंत्र यंत्र तंत्रादि उसी रोगी के लिये सिद्ध होते हैं जिसकी आयु शेष होती है। जिसकी आयु शेष नहीं है; उसके लिए इन क्रियाओं से कोई सफलता की आशा नहीं की जा सकती। यद्यपि रोगी तथा रोग को देख-परखकर रोग की साध्या-साध्यता तथा आसन्न मृत्यु आदि के ज्ञान हेतु चरस संहिता, सुश्रुत संहिता, भेल संहिता, अष्टांग संग्रह, अष्टांग हृदय, चक्रदत्त, शारंगधर, भाव प्रकाश, माधव निदान, योगरत्नाकर तथा कश्यपसंहिता आदि आयुर्वेदीय ग्रन्थों में अनेक सूत्र दिये गए हैं परन्तु रोगी या किसी भी व्यक्ति की आयु का निर्णय यथार्थ रूप में बिना ज्योतिष की सहायता के संभव नहीं है। आयुर्वेदीय सूत्रों के सहारे तो रोग की आकस्मिक स्थिति में ही आयुष्य का निर्णय हो पाता है, उसके आधार पर छ: माह से अधिक पूर्व से निर्णय नहीं हो सकता है। चिकित्सक रोगी की आयु का स्वामी नहीं है। जैसाकि कथन है-
‘‘रोगस्तत्व परिज्ञानं वेदनायाश्च निग्रह:।
एतद् वैद्यस्य वैद्यत्वं न वैद्यो प्रभुरायुष:।।
----- श्री अनुराग मिश्र
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