१ श्री जगन्नाथ कारंजे --- मनुस्मृति का वचन है- 'विप्राणं ज्ञानतो ज्येष्ठम् क्षत्रियाणं तु वीर्यतः।' अर्थात् ब्राह्मण की प्रतिष्ठा ज्ञान से है तथा क्षत्रिय की बल वीर्य से। जावालि का पुत्र सत्यकाम जाबालि अज्ञात वर्ण होते हुए भी सत्यवक्ता होने के कारण ब्रह्म-विद्या का अधिकारी समझा गया।
२ श्री समर्पण त्रिवेदी द्वारा पूछा गया सवाल .... सृष्टि के आरम्भ में चारों वर्णों की उत्पत्ति किस आधार पर की गई? ज्ञान,बल,व्यापर,सेवा !
--ठीक हे. बताइए. ज्ञान, बल, व्यापर सेवा. किस आधार पर स्थिर किये जाते हे?
३ श्री विभु गोविन्द जी का जवाब --- जावालि का पुत्र सत्यकाम जाबालि अज्ञात वर्ण होते हुए भी सत्यवक्ता होने के कारण ब्रह्म-विद्या का अधिकारी समझा गया। महोदय सत्यकाम ब्रह्मण पुत्र था !
४ श्री समर्पण त्रिवेदी द्वारा पूछा गया सवाल ....सत्यकाम ब्राह्मण पुत्र था.... कोइ प्रमाण?
५ विभु गोविन्द जी का जवाब --- गुण ,कर्म,स्वभाव, संस्कार ! आचार्य स्वयं कहते है तू सत्य विद है इसलिए तू ब्रह्मण है इसलिए तेरा उपनयन करूँगा !
६ श्री समर्पण त्रिवेदी द्वारा पूछा गया सवाल ....स्वयं स्पष्ट हे. यदि प्राथमिक व प्रारंभिक वर्ण व्यवस्था, गुण ,कर्म,स्वभाव, संस्कार आधारित थी, जो मंत्रद्रष्टा ऋषियो ने खड़ी की तो हम किस आधार पर जन्म से वर्ण माने? आचार्य स्वयं कहते है तू सत्य विद है इसलिए तू ब्रह्मण है इसलिए तेरा उपनयन करूँगा | यह परीक्षा क्या अर्थ निकलती हे? क्या ऋषि ने सत्यकाम के गुण देखे अथवा जन्म? इसका अर्थ यह हे की जो सत्य इत्यादि गुणों से युक्त हे वह ब्राह्मण हे. हे या नहीं?
७ श्री विभु गोविन्द जी का जवाब ----- संस्कार ,गुण, क्या ब्रह्मण पुत्रो में जन्मतः नहीं दिखलाई पड़ते ? क्या सिंह का पुत्र में सिंह गुण धर्मो का लोप देखा जाता है?
८ श्री समर्पण त्रिवेदी द्वारा पूछा गया सवाल --- क्या जन्म के साथ कोई डॉक्टर हो सकता हे विभु जी?
९ श्री विभु गोविन्द जी का जवाब -----ऋषि ने जान लिया ब्राह्मणत्व गुण ब्रह्मण बालक से लोप नहीं हो सकता था , यदि ऐसा तर्क करे तो जन्म वर्ण क असिद्धि कैसी होंगी ! ये तर्क भी ठीक नहीं ! क्योकि डॉक्टर आदि की व्वयस्था की तुलना वर्ण व्वस्था से कैसे करे , 5 वर्ष में ब्रह्मण पुत्र का उपने करे , 8 वर्ष में क्षत्रिय पुत्र का ,12 वर्ष में वैश्य का उपने करे एन शाश्त्रीय व्वयस्था का ढंग वैसा कैसे बतलाये !
(व्यक्ति
जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से
विप्र हो सकता है। किंतु जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण कहलाने का
सच्चा अधिकारी है।)
भगवान यास्क के इस वचन से ये संस्कार और वेद की महत्वता बताई है , ब्रह्मण का परम लक्ष है ईश्वर ,मोक्ष इत्यादी ! संस्कार rahit मनुष्य शुद्र ही है , संस्कार के कारन उसे द्विज कहा जाता है ! और द्विज मात्र ३ वर्णों कहा जाता है ब्रह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य ! इस प्रमाण से ये तो सिद्ध हो जाता है ब्रह्मण का ब्राह्मणत्व क्या है ? लेकिन ये सिद्ध नहीं होता की जन्म से वर्ण नहीं
१० श्री जगन्नाथ कारंजे ----- यदि ब्राह्मण का पुत्र विद्या
प्राप्ति में असफल रह जाए तो शूद्र बन जाता है | इसी तरह शूद्र या दस्यु का
पुत्र भी विद्या प्राप्ति के उपरांत ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण को
प्राप्त कर सकता है |यह सम्पूर्ण व्यवस्था विशुद्ध रूप से गुणवत्ता पर
आधारित है | जिस प्रकार शिक्षा पूरी करने के बाद आज उपाधियाँ दी जाती हैं
उसी प्रकार वैदिक व्यवस्था में यज्ञोपवीत दिया जाता था | प्रत्येक वर्ण के
लिए निर्धारित कर्तव्यकर्म का पालन व निर्वहन न करने पर यज्ञोपवीत वापस
लेने का भी प्रावधान था |८. वैदिक इतिहास में वर्ण परिवर्तन के अनेक प्रमाण
उपस्थित हैं,भगवान यास्क के इस वचन से ये संस्कार और वेद की महत्वता बताई है , ब्रह्मण का परम लक्ष है ईश्वर ,मोक्ष इत्यादी ! संस्कार rahit मनुष्य शुद्र ही है , संस्कार के कारन उसे द्विज कहा जाता है ! और द्विज मात्र ३ वर्णों कहा जाता है ब्रह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य ! इस प्रमाण से ये तो सिद्ध हो जाता है ब्रह्मण का ब्राह्मणत्व क्या है ? लेकिन ये सिद्ध नहीं होता की जन्म से वर्ण नहीं
अतः वैदिक ज्ञान के अनुसार सभी मनुष्यों को चारों वर्णों के गुणों को धारण करने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए | यही पुरुष सूक्त का मूल तत्व है | वेद के वशिष्ठ, विश्वामित्र, अंगीरा, गौतम, वामदेव और कण्व आदि ऋषि चारों वर्णों के गुणों को प्रदर्शित करते हैं | यह सभी ऋषि वेद मंत्रों के द्रष्टा थे (वेद मंत्रों के अर्थ का प्रकाश किया) दस्युओं के संहारक थे | इन्होंने शारीरिक श्रम भी किया तथा हम इन्हें समाज के हितार्थ अर्थ व्यवस्था का प्रबंधन करते हुए भी पाते हैं | हमें भी इनका अनुकरण करना चाहिए |
सार रूप में, वैदिक समाज मानव मात्र को एक ही जाति, एक ही नस्ल मानता है | वैदिक समाज में श्रम का गौरव पूर्ण स्थान है और प्रत्येक व्यक्ति अपनी रूचि से वर्ण चुनने का समान अवसर पाता है | किसी भी किस्म के जन्म आधारित भेद मूलक तत्व वेदों में नहीं मिलते |
अतः हम भी समाज में व्याप्त जन्म आधारित भेदभाव को ठुकरा कर, एक दूसरे को भाई-बहन के रूप में स्वीकारें और अखंड समाज की रचना करें |
११ श्री विभु गोविन्द ---- (यदि ब्राह्मण का पुत्र विद्या प्राप्ति में असफल रह जाए तो शूद्र बन जाता है | इसी तरह शूद्र या दस्यु का पुत्र भी विद्या प्राप्ति के उपरांत ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण को प्राप्त कर सकता है |यह सम्पूर्ण व्यवस्था विशुद्ध रूप से गुणवत्ता पर आधारित है | जिस प्रकार शिक्षा पूरी करने के बाद आज उपाधियाँ दी जाती हैं उसी प्रकार वैदिक व्यवस्था में यज्ञोपवीत दिया जाता था | प्रत्येक वर्ण के लिए निर्धारित कर्तव्यकर्म का पालन व निर्वहन न करने पर यज्ञोपवीत वापस लेने का भी प्रावधान था |८. वैदिक इतिहास में वर्ण परिवर्तन के अनेक प्रमाण उपस्थित हैं !)
ये सब असंगत लगती है क्योकि यदि विद्या प्राप्त कर
न सका , तो उसमे आपके द्वारा वर्णित सत्य, दया, करुना ,प्रेम आदि तो गुण
उसमे होंगे ही जिसके कारन वो शुद्र की स्थति कैसे प्राप्त करेगा ! क्या आप
स्मृति ग्रंथो से ये प्रमाण दिखला सकेंगे ? अथवा ५ वर्ष में ब्रह्मण के
पुत्र का उपनयन में , ८ वर्ष के क्षत्रिय पुत्र ,१२ वर्ष में वैश्य पुत्र
में क्या समान योग्यता देखकर ये निर्धारित किया जाता है ? क्या आप स्मृति
ग्रंथो से भी दिखला सकते है , योग्यता के अनुशार ब्रह्मण उपनयन ,क्षत्रिय
उपनयन में परवर्तित हुवा , अथवा क्षत्रिय उपनयन ब्रह्मण के उपनयन के अनुरूप
करने की आज्ञा स्मृति ग्रंथो से बतला सकते है !
१२ श्री समर्थ श्री --- विभु गोविन्द जी आपका
शास्त्रीय ज्ञान गंभीर है आप यथार्थ परक प्रस्तुतिकरण करके हितोपदेश कर रहे
हैं ,,जगन्नाथ जी या समर्पण जी वर्तमान परिस्थितियों से प्रभावित हैं जवकि
आप विशुद्ध शास्त्र मर्यादा के साथ सप्रमाण अपना पक्ष रख रहे हैं
१३ श्री विभु गोविन्द ---- वर्ण
व्वस्था आपके अनुशार प्रतिपादित भी समाज में रोष का कारन बनेगी ही ,
क्योंकी विद्या ग्रहण करने की कोई आयु नहीं और आपके अनुशार ब्रह्मण पुत्र
यदि विद्या में असफल हुए तो वे शुद्र बन जाते है , ये सिद्धांत ही गलत हो
जायेगा , क्योकि ८० वर्ष की आयु में उपनयन
नहीं होता है और आगे चलकर वो असफल ब्रह्मण पुत्र विद्वान हो गया तो उसका
उपनयन संभव नहीं हो सकेगा , और जिसका उपनयन संभव नहीं उसे वेद आदि शाश्त्रो
में अधिकार नहीं ! इससे ही आपके द्वारा प्रतिपादित नियम ही समाज में महान
अराजकता को जन्म दे देंगी !
चतुर्ण वर्ण में कोई भेदभाव नहीं
मानते , लेकिन जैसे नारी ही संतान उत्त्पन्न कर सकती है पुरुष नहीं इस विषय
पर जैसे ईश्वर में पक्षपात का आरोप करना अनुचित है वैसे ही वर्ण व्वयस्था
जानी जाये !
१४ श्री विद्यास्वामी एम् एन --- आर्यों का सामाजिक संगठन बहुत
सुगठित, सुश्लिष्ट तथा निर्दोष था । उनके समाज के आधार वर्ण व्यवस्था थी।
उनके समाज में पाँच जन थे – (१)ब्राह्मण, (२)क्षत्रिय , (३)वैश्य, (४)
शूद्र तथा (५)निषाद । इनमें प्रथम चार जन वर्ण कहलाते थे । यह ‘वर्ण’ शब्द संस्कृत
√वृ=वरणे(to choose)से सिद्ध किया जाय तो जो जिस कर्म को अपनाया उस कर्म
के अनुसार ‘ब्राह्मण’इत्यादि नाम बन गया । पांचवा जन ‘निषाद’ संभवतः
आर्योंसे भिन्न किन्तु आर्यों के रीति-रीवाजों तथा धार्मिक क्रियायों को
स्वीकार करने बालों का रहा होगा ।
आर्यों में वर्ण-व्यवस्था जन्मना नहीं मनी जाती थी । कोई क्षत्रिय अपना क्षात्र कर्म छोड़ कर यदि ब्राह्मण का कर्म करने लग जाता था , तो वह सर्वात्मना ब्राह्मण ही हो जाता था । वह पुरोहित बन कर यज्ञ भी करवाया करता था [द्रष्टव्य : स शन्तनुः कनीयानभिषेचयाञ्चक्रे । देवपिस्तपः प्रपेदे । तमुवाच देवापिः – पुरोहितस्तेऽसानि यजयामि च त्वेति ।निरुक्त २.१०।]
ब्राह्मणों के चार प्रमुख कर्तव्य होते थे – (१)ब्रह्मचर्य, (२) स्वाध्याय(अध्ययन और अध्यापन), (३)संयमपूर्ण सादा जीवन(तप:), (४)दान (विद्या का तथा शक्ति होने पर धन का)[अस्त्यस्मासु ब्रह्मचर्यमध्ययनं तपो दानकर्मेत्यृषिरवोचत्-इति निरुक्त ६.२५)। इन चार कर्मों से पहले दो तो निश्चित रूप से विद्या से संबद्ध हैं । अतः ब्राह्मण वर्ण का सर्वोपरि कर्तव्य विद्या की रक्षा था । विद्या की रक्षा के तीन उपाय माने जाते थे – (१)स्वयं स्वाध्याय करना,(२) सत्पात्र को अपनी विद्या देना , (३) अपात्र तथा कुपात्र को विद्या न देना ।
आर्यों में वर्ण-व्यवस्था जन्मना नहीं मनी जाती थी । कोई क्षत्रिय अपना क्षात्र कर्म छोड़ कर यदि ब्राह्मण का कर्म करने लग जाता था , तो वह सर्वात्मना ब्राह्मण ही हो जाता था । वह पुरोहित बन कर यज्ञ भी करवाया करता था [द्रष्टव्य : स शन्तनुः कनीयानभिषेचयाञ्चक्रे । देवपिस्तपः प्रपेदे । तमुवाच देवापिः – पुरोहितस्तेऽसानि यजयामि च त्वेति ।निरुक्त २.१०।]
ब्राह्मणों के चार प्रमुख कर्तव्य होते थे – (१)ब्रह्मचर्य, (२) स्वाध्याय(अध्ययन और अध्यापन), (३)संयमपूर्ण सादा जीवन(तप:), (४)दान (विद्या का तथा शक्ति होने पर धन का)[अस्त्यस्मासु ब्रह्मचर्यमध्ययनं तपो दानकर्मेत्यृषिरवोचत्-इति निरुक्त ६.२५)। इन चार कर्मों से पहले दो तो निश्चित रूप से विद्या से संबद्ध हैं । अतः ब्राह्मण वर्ण का सर्वोपरि कर्तव्य विद्या की रक्षा था । विद्या की रक्षा के तीन उपाय माने जाते थे – (१)स्वयं स्वाध्याय करना,(२) सत्पात्र को अपनी विद्या देना , (३) अपात्र तथा कुपात्र को विद्या न देना ।
ये थी कुछ विद्वानों में हुई शुध्ध चर्चा के अंश, कुछ त्रुटी हो तो क्षमा करे इसमें हमारा कुछ नहीं है जो था अक्षर सह Facebook के Indian Philosophy Group यहाँ हुई चर्चा के अंश है|
No comments:
Post a Comment