संस्कृत भाषा मे 'समज' व 'समाज' ऐसे दो शब्द हैं .
'समज' शब्द पशुओं के समूहों के लिए प्रयुक्त किया जाता है "समज: पशुनाम संघः "
अर्थात ध्येयहीन व एकसूत्र मे ना गुंथे हुए समूह को 'समाज' कहते हैं .
मानव समूह के लिए 'समाज' शब्द प्रयुक्त करते हैं क्योकि उनके पास ध्येय , विचार व कार्य है .
बहुत से लोग एकत्रित हो गए इससे समाज नहीं बनता . समाज एक विशिष्ट धारणा है .
जिनके सुख दुःख , राग द्वेष , और वैयक्तिक अहंकार एक हुए हैं ऐसा वर्ग यानी समाज .
जिनके निष्ठा केन्द्र , श्रद्धा केन्द्र , पुण्यभूमि , पवित्र विचार व
आदर्श पुरुष एक हैं , वह यानी समाज .स्वार्थ के लिए एकत्रित समूहों को समाज
नहीं कहा जाता .
इस जगत मे प्रत्येक व्यक्ति का अपना अपना अहंकार
होता है .यह समाज के लिए एक प्रमुख बाधा है . कुटुंब मे भी अहंकार आदि की
समस्याएं आती ही है . पति पत्नी के मध्य भी यह आता ही है .
पर ऐसे आमने सामने आये हुए अहंकारों को संवादी बनाने मे ही संस्कारिता है.
अर्थात जिस समूह मे अनेक व्यक्ति होते हैं ..भिन्न भिन्न स्वभाव , गुन ,
धर्म वाले ...उनके अहंकारों मे संवादिता प्रस्थापित हुई होनी चाहिए .और
ध्येय के प्रति समर्पण और आपस के भाव सम्बन्ध , धर्म , आध्यात्म ,भक्ति आदि
तत्वों की विशिष्ट वैचारिक धारणा से ऐसी संवादिता प्राप्त की जा सकती है .
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