व्यक्तिगत तथा सामजिक विकास किस प्रकार साध्य हो सकता है ? जिसमे इन दोनो बातों का विचार किया जाता है उसे संस्कृति कहते हैं .
संस्कृति अर्थात व्यक्तिगत एवँ सामाजिक विकास का तत्वज्ञान .
समाज की आवश्यकता क्या है ? समाज किस लिए चाहिए ??
व्यक्तिगत विकास का संविधान तथा नियम, नीति , मूल्य बनाए रखने का काम समाज करता है .
इसलिए संस्कृति को टिकाने के लिए समाज की आवश्यकता है .
व्यक्ति नाशवान है ..समाज नित्य है .
अवतार , संत , ऋषि आदि आये और चले गए , परन्तु समाज ने ही उनके विचारों को बनाए रखा ...साथ ही समाज आज भी विद्यमान है .
एक पीढ़ी ने दूसरी पीढ़ी को , दूसरी ने तीसरी पीढ़ी को ........
इस प्रकार विचारों व भावनाओं का सामाजिकीकरण होता आया है .समाज पुरुष बैल
की तरह विचारधारा को पीढ़ियों से पीढियों मे पहुचाता रहता है .
इससे तत्वज्ञान को नित्यता मिलती है ...और इसके परिणाम स्वरूप संस्कृति देखने को मिलती है .
समाज है तो स्रष्टि है ,
व्यष्टि है , समाज ही प्रसार है , हर व्यक्ति के सामाजिक सरोकार अलग हैं
समाज के प्रति हर मनुष्य के अलग दृष्टिकोण हैं, समाज को लेके उसके अनुभव
भिन्न हैं फिर भी उसके पास जो हही है वो समाज का ही दिया है
हर
व्यक्ति खुद एवं समाज के मध्य के अंतर्संबंधों से एक जटिल आवरण कि सृष्टि
करता है , और समाज का प्रभाव व्यक्ति पर ही अधिक पड़ता है व्यक्ति का समाज
पर प्रभाव अत्यंत क्षीण होता है तथापि कुछ लोकोत्तर पुरुष हैं जो समाज पर
अपना प्रभाव छोडते हैं !
किन्तु यदि अध्यात्म कि बात की जाए तो वो घोर
व्यक्तिगत है हर मनुष्य के अध्यात्मिक अनुभव विशिष्ट हैं , अधिक क्या समाज
श्रृष्टि के प्रसार का द्योतक है तो अध्यात्म व्यक्ति को समाज से पृथक
एक्सत्तात्मक जगत में ले जाता है जहाँ दूसरा कोई है ही नहीं!
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