Tuesday, May 29, 2012

अन्तःकरण क्या है ?

हमारे दर्शन जगत् मे प्रमा = यथार्थ ज्ञान के साधन को करण कहते है । जैसे यह घड़ा है इस प्रत्यक्षज्ञान का साधन नेत्र है अतः नेत्र प्रत्यक्षज्ञान का करण है यह नेत्र इन्द्रिय चाक्षुष प्रत्यक्ष ज्ञान का करण है । इसी प्रकार अन्य इन्द्रिया जैसे श्रोत्र घ्राण त्वक् और रसना ये भी क्रमशः शब्द गन्ध स्पर्श तथा रस के प्रत्यक्ष मे करण है ये ज्ञान के बाह्य करण है । किन्तु हमे किसी वस्तु का स्मरण होता है उसमे ये इन्द्रिया करण नही है क्योकि सभी का यह अनुभव है कि स्मरण मन से किया जाता है -मनसा स्मरामि । न्याय दर्शन के आरम्अभिक ग्रन्थ तर्कसड़्ग्रह मे सुख दुःख आदि समस्त ज्ञानो का करण मन को कहा गया है आपका मन कही और जगह हो तो आप दूसरी बात नही सुन पायेगे इसे अध्येता अच्छी तररह समझ सकता है । अतः मन किसके प्रति मनस्त्वेन किसके प्रति इन्द्रियत्वेन कारण है हम इस गम्भीरता मे न जाकर भी इतना निर्णय कर। सकते है कि मन भी मानस प्रत्यक्ष का कारण है । सुख दुखादि का प्रत्यक्ष मानस है। अतः इसका करण जो मन है वह भी नेत्रादि की भांति करण होने से इन्द्रिय है । चूंकि नेत्रादि बाह्य है औरमन। ऐसा नही ह अतः बाह्य करण नेत्रादि से भिन्न मन अन्तःकरण है । इसमे सभी आस्तिक दार्शनिक सहमत है । किन्तु वेदान्त मे इस मन रूप अन्तःकरण मे कार्यभेद से भेद माना गया ---मनो बुद्धिरहड़्कारश्चित्तं करणमान्तरम् । संशयो निश्चयो गर्वः स्मरणं विषया अमी । -श0क0भा01पृष्ठ53. संशय = सड़्कल्प विकल्पादि वृत्ति के समय उसे मन। निश्चयात्मिका वृत्ति होने पर बुद्धि स्मरणात्मकवृत्ति के समय चित्त कहतेहै उस अन्तःकरण को यह पैर से सिर तक रहता है । नैयायिको से यहा थोड़ी भिन्नता है । मीमांसकगण मन को विभु मानते है । संशयइच्छा सड़्कलप आदि मन के ही धर्म है--कामः सड़्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धऽश्रद्धा---- सर्वंमन एव ---वृहदारण्यक1/5/3.मैत्रा06/30. इसीलिए नैयायिक 1 मन ही माने । बुद्धि वे पृथक मानते है । यहा श्रुतिमेउसे भी गिनया गया है ।
योगदर्शन मे -योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः 1/2 सूत्रघटक चित्त पदसे मन ही लिया गया है अर्थात् मन की वृत्तियो का निरोध ही योग है । चित्त का अर्थ माइन्ड (बुद्कधि)रना ठीक नही;क्योकि गीता के छठे अध्याय मेयोग पर जैसा प्रकाश। डाला गया है उसकीसमता पातञ्जलयोगसूत्रो के साथ द्खने लायक है यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया6/20.योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः-यो0सू01/2. अब आसन क विषय मे मिलान कीजिएस्थिरं सुखमासनम् -- यो0सू02/46. शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः-गीता -6/11.योगसूत्र मे चित्त की वृत्तिया बतलाकर उनके निरोध का उपाय बतलाते है --अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः1/12.इधर गीता मे भगवान् मुरलीधर कहते है --असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते । । 6/35 यहा योगसूत्र और गीता का मिलान कीजिए । वहा जो चित्त शब्द से कहा गया वही यहा गीता मे मन शब्द से सड़्केतित किया गया है । अतः योगसूत्र मे चित्त शब्द मन का बोधक है बुद्धि का नही।
ध्यातव्य है कि गीता मे मन को इन्द्रिय कहा गया है मनः षष्ठानीन्द्रियाणि--15/6.और बुद्धि को मन से भिन्न बतलाया गया है -- मनसस्तु परा बुद्धिः-3/42+कठो03/10.
एक अन्तःकरण के ही कार्य भेद से चार भेद है और उनमे परस्पर वैलक्षण्य है । और इधर मन को ही बन्धन तथा मोक्षका कारण कहा गया है --
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः । बन्धाय विषयासड़्गि मुक्त्यै निर्विषयं मनः। । वि0पु0+मैत्रा06/34. अतः पूर्वोक्त विवेचन से सिद्ध हुआ कि योगदर्शन मे चित्त शब्द से मन का ही ग्रहण है माइण्ड का नही । 
-----------आचार्य  सियारामदास  नैयायिक 
 

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