Friday, May 18, 2012

ईश्वर

जगत् की सृष्टि पालन और प्रलय करने वाले को ईश्वर भगवान् ब्रह्म आदि नामों से कहते हैं --- यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते......तद्विजिज्ञासस्वतद्ब्रह्मेति-तैत्तिरीयोपनिषद् । अब प्रश्न उठता है कि भगवान् ने किसी को सुखी और बडा बना दिया तथा किसी को दुखी और निर्धन आदि अतः वह पक्ष पाती राग द्वेषपूर्ण है । इसका समाधान भगवान् व्यास। ने दिया कि बात ऐसी नही है कि ईश्वर सृष्टि करने मे स्वतन्त्र है वह जीवों के अच्छे बुरे कर्मो के आधार से सृष्टि आदि करता है अच्छे कर्म का फल अच्छा और बुरे कर्म का फल बुरा देता है इसलिए ईश्वर मे वषमता या निर्दयता का आरोप नही गा सकते----वैषम्य नैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात्तथा हि दर्शयति - ब्रह्मसूत्रअध्याय2/1/33. कौन कौन कर्म अच्छे या बुरे है -इसका निर्णय वेद शास्त्र किम्वा स्मृति आदि से होता है। धर्म अर्थ काम मोक्ष के लिए किस किस कर्म का आचरण करें इसका परिज्ञान शास्त्रो से होगा । श्रुति स्मति भगवान की आज्ञा है -- श्रुतिस्मृती ममैवाज्ञे .... । इन्ही केद्व्रा बताये मार्ग से मे चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति करनी है । मानव शरीर प्राप्त करने का चरम फल है मोक्ष । इसे लिए निष्काम कर्म योग ज्ञानयोग तथा भक्ति योग ये 3 साधन बतलाये गये हैं । भक्ति के आलम्बन भगवान हैं । गीता भागवत नारदभक्सूत्रादि मे इसका पूर्णतया प्रतिपादन किया गया है कि भक्ति से कुछ भी दुर्लभ नही । इसलए कहा गया कि कामनाशून्य अनन्य भक्त हो यासम्पूर्ण कामनाओं वाला हो या मात्रमोक्षकी ही कामना हो ऐसा प्राणी तीव्र भक्तियोग सेपरमात्मा का पूजन करे-------
अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् । । ---भा0पु02/3/10.यहां यजेत इस विधि लिड़् से पूजन का विधान किया गया है और इन। निष्काम तथा सकाम सभी भक्तों को उदारधीः शब्द से उदार कहा गया है भिखमंगा या भिखारी नही । अर्थात् भक्त कैसा भी क्यो न हो वह भगवान कीई दृष्टि मे उदार ही है । गीता मे भगवान इसी तथ्य को सुस्पष्ट करते हुए कसते हैं कि 4प्रकार के लोग मेएरा भजन करते हैं आर्त (दःख नाश की कामना वाले) तत्वजिज्ञासु अर्थार्थी (ऐश्वर्य की कामना वाले) और ज्ञानी ----
चतुर्विधा भजन्ते मां जना सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।।
---गीता7/16. इन सबको भगवान अपने श्रीमुख से उदार कहते हैं --- उदारा सर्व एवैते--7/18. इनमे अर्थार्थी भक्तो को जो अनेक विधि से भगवान की पूजा करते हैं उन्हे कतिपय शास्त्र रहस्यानभिज्ञ जन भिखारी या भिखमन्गा समझने की भूल कर बैठते हैं । चूंकि शास्त्रकी एक मर्यादा है अतः भगवान अर्चन कीर्तन स्मरण वन्दन आदि 9 प्रकार की भक्ति मे किसी एक का अवलम्बन लेने से भक्त का कार्य पूर्ण कर देते हैं । कर्तव्य करना भक्त का कार्य फल देना भगवान का कार्य । उन्हे आजकल के अधिकारियो की भांति घूसखोर भी नही कह सकते ;क्योंकि कार्य पूर्ण होने पर भी घूसखोर स्व कर्तव्य का पालन नही करता । जबकि भगवान स्वतः कल्म निष्पन्न होते ही फल दे देते है उसका भी एक समय निश्चित होता है । बीज डालने के बाद फल मिलने मे कई महीने लग जाते हैं । भगवान अपनी प्रशंसा नही सुनना चाहते । किन्तु दःखदायक पापों के विनाश के लिए उनके कीर्तन स्तुति आदि का विधान शाष्त्र करते हैं अतः वे तदनुरूप। फल देते हैं ....
यत्कीर्तनं यत्स्मरणं यदीक्षणं
यद् वन्दनं यच्छ्रवणं यदर्हणम् ।
लोकस्य सद्यो विधुनोति कल्मषं
तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ।।
....भागवत2/4/15.
साहित्य मे 4प्रकार के नायकों का वर्णन किया गया है जिसमे सर्वश्रेष्ठ धीरोदात्त नायक है उसकी सबसे बडी विशेषता है कि न तो वह अपनी प्रशंसा करता है और न सुनना चाहता है । साहित्यदर्पणकार विश्वनाथजी उसके लिए अविकत्थनः शब्द का प्रयोग किये हैं और उन नायकों में श्रीराम का नाम सर्वप्रथम लिए है ---यथा रामयुधिष्ठिरादिः । इसलिए परमात्मा को चापलूसी पसंद नही है । भक्ति के कई भेद आचार्यों ने स्वीकार किया है। .....
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पाद सेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् । ।
---भाखवत7/5/23.यहां स्मरण को छोड़कर शेष 8 भक्तियो में मन के साथ अन्य इन्द्रिय आदि का सहयोग अपक्षित है । अतः भक्ति को मात्रमानसिक क्रिया कहना भी भूल ही है ;क्योकि अर्चन वन्दन आदि केवल मन के कार्य नही हैं । श्रवण भक्ति मे महाराज परीक्षित् कीर्तन मे शुकदेवजी स्मरण मे प्रह्लादजी पादसेवन मे श्रीलक्ष्मीमाँ पूजन मे महाराज पृथु वन्दन मे श्री अक्रूरजी दास्यभक्ति में श्रीहनुमानजी सख्यभक्ति मे धनुर्धर पार्थ आत्मनिवेदन मे महाराज बलि अग्रगण्य माने गये है । -
विष्णोस्तु श्रवणे परीक्षिदभूद् वैयासिकिः कीर्तने
प्रह्लादः स्मरणे तदड़्घ्रिभजने लक्ष्मीः पृथुः पूजने ।
अक्रूरस्त्वभिवन्दनेऽथ हनुमान्दास्येऽथ सख्येऽर्जुनः
सर्वस्वात्मनिवेदने बलिरभूत्कैवल्यमेषां पदम् ।।
---प्रबोधचन्द्रोदयकी टीका मे उद्धृत
इन महा पुरुषों के व्यक्तित्व से मानव क्या राक्षस भी परिचित थे और आज भी हम सब हैं । क्या ये चापलूस थे ? या इनके द्वारा भगवान के प्रति किया गया सत्कर्म घूस था । क्या इनके द्वरा किये गये सभी कर्म केवल मानसिक थे ? उत्तर मिलेगा- नही । अतः भक्ति मात्रमानसिक करिया नही है । जरा भक्ति मार्ग में कदम। रखो तब पता चलेगा -भक्ति क्या है ।
:->:->:->:->:->:->जयश्रीराम:<:<:<:<:<:<
-- आचार्यसियाराम्दास  नैयायिक 

No comments:

Post a Comment