Friday, May 25, 2012

काल अर्थात समय को समय से बांधा नहीं जा सकता।

काल अर्थात समय को समय से बांधा नहीं जा सकता। कोई भी व्यक्ति किसी निष्चित दिन का दावा नहीं कर सकता कि इस दिन से किसी युग का परिवर्तन, किसी युग का अन्तिम दिन या किसी युग के प्रारम्भ का दिन है। क्योंकि हम दिन, दिनांक या कैलेण्डर का निर्धारण ब्रह्माण्डीय गतिविधि अर्थात सूर्य, चाँद, ग्रह इत्यादि के गति को आधार बनाकर निर्धारित करते है। इसी प्रकार युग का निर्धारण पूर्णतया मानव मन की केन्द्रित स्थिति से निर्धारित होता है न कि किसी निर्धारित अवधि के द्वारा। मन की केन्द्रित स्थिति निम्न स्थितियों में होती है-

0 या 5. स्थिति - अदृष्य मार्ग से मन का आत्मीय केन्द्रित स्थिति।
1. स्थिति - व्यक्तिगत प्रमाणित अदृष्य मार्ग से मन का आत्मीय केन्द्रित स्थिति अर्थात व्यक्तिगत प्रमाणित माध्यम द्वारा आत्मा पर केन्द्रित मन। यह स्थिति सतयुग की अन्तिम स्थिति है।
2. स्थिति -सार्वजनिक प्रमाणित अदृष्य मार्ग से मन का आत्मीय केन्द्रित स्थिति अर्थात सार्वजनिक प्रमाणित माध्यम - प्रकृति व ब्रह्माण्ड द्वारा आत्मा पर केन्द्रित मन। यह स्थिति त्रेतायुग की अन्तिम स्थिति है।
3. स्थिति - व्यक्तिगत प्रमाणित दृष्य मार्ग से मन का आत्मीय केन्द्रित स्थिति अर्थात व्यक्तिगत प्रमाणित व्यक्ति व भौतिक वस्तु माध्यम द्वारा आत्मा पर केन्द्रित मन। यह स्थिति द्वापर युग की अन्तिम स्थिति है।
4. स्थिति - सार्वजनिक प्रमाणित दृष्य मार्ग से मन का आत्मीय केन्द्रित स्थिति अर्थात सार्वजनिक प्रमाणित व्यक्ति व भौतिक वस्तु माध्यम द्वारा आत्मा पर केन्द्रित मन। यह स्थिति कलियुग की अन्तिम स्थिति है।
0 या 5. स्थिति - दृष्य मार्ग से मन का आत्मीय केन्द्रित स्थिति।
उपरोक्त स्थिति में स्थित मन से ही उस युग में शात्र-साहित्यों की रचना होती रही है। और उस अनुसार ही प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्थिति का पता लगा सकता है कि वह किस युग में जी रहा है।
उपरोक्त में से कोई भी स्थिति जब व्यक्तिगत होती है तब वह व्यक्ति उस युग में स्थित होता है चाहे समाज या सम्पूर्ण विष्व किसी भी युग में क्यों न हो। इसी प्रकार जब उपरोक्त स्थिति में से कोई भी स्थिति में समाज या सम्पूर्ण विष्व अर्थात अधिकतम व्यक्ति उस स्थिति में स्थित होते है तब समाज या सम्पूर्ण विष्व उस युग में स्थित हो जाता है।

युगानुसार धर्म
शात्र-साहित्य
0/5. युगाब्द के शात्र-साहित्य
ईष्वर कृत - वेद
शात्र-साहित्य
. प्रथम वेद- ऋृगवेद - इसमें देवताओं का आह्वान करने के लिए मन्त्र हैं। यही सर्वप्रथम वेद है। यह वेद मुख्यतः ऋशि-मुनियों के लिए होता है। इसमें ”ऋक्“ संज्ञक (पद्यबद्ध) मन्त्रों की अधिकता के कारण इसका नाम ऋग्वेद हुआ। इसमें होतृवर्ग के लिए उपयोगी गद्यात्मक (यजुः) स्वरूप के भी कुछ मन्त्र है।
. परिचय - मंत्रो की संख्या - 1098, वर्ग - 15
. रचनाकार-ऋृशि गृत्समद भार्गव परिवार, विष्वामित्र कौषिक परिवार, बामदेव अंगिरस परिवार, भारद्वाज अंगिरस, कण्व परिवार, वषिश्ठ, घोर, जमदग्नि, तीन राजाओं-त्रसदस्यु, अजमीढ़ तथा पुरमीढ़।
. सम्बन्धित संहिता - षाकल
. सम्बन्धित ब्राह्मण - एतरेय, कौषतिकि या शाख्यन
. सम्बन्धित आरण्यक - एतरेय तथा कौषतिकि
र. सम्बन्धित उपनिशद् - एतरेय तथा कौषतिकि

ख. द्वितीय वेद- सामवेद - इसमें यज्ञ में गाने के लिए संगीतमय मन्त्र हैं। यह वेद मुख्यतः गन्धर्वं लोगों के लिए होता है। इसमें गायन पद्धति के निश्चित मन्त्र होने के कारण इसका नाम सामवेद है जो उद्रातृवर्ग के उपयोगी हैं।
अ. परिचय - 1810 छन्द, 75 को छोड़कर सभी ऋृगवेद में उपलब्ध।
भाग-1 आर्चिक (6 प्रपाठ)
भाग-2 उत्तरार्चिक (9 प्रपाठ)
भारतीय संगीत इतिहास का महत्वपूर्ण स्रोत।
ब. सम्बन्धित संहिता - कौथुभ, राजायनी तथा जैमिनीय।
स. सम्बन्धित ब्राह्मण - पंचविष या ताण्डव महा ब्राह्मण, शड़िविष, जैमिनीय या तलबकार, छान्दोग्य ब्राह्मण, सामविधान, देवताध्याय, वंष, संहितोपनिशद्।
द. सम्बन्धित आरण्यक - जैमिनीय तथा छन्दोग्य।
य. सम्बन्धित उपनिशद् - केन या तलबकार तथा छन्दोग्य।

ग. तृतीय वेद- यजुवेद - इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिए गद्य मन्त्र हैं। यह वेद मुख्यतः क्षत्रियों के लिए होता है। इसमें गद्यात्मक मन्त्रों की अधिकता के कारण इसका नाम यजुर्वेद है। इसमें कुछ पद्यबद्ध मन्त्र भी हैं, जो अध्वर्युवर्ग के उपयोगी है। यजुर्वेद के दो विभाग हैं- शुक्लयजुर्वेद और कृश्णयजुर्वेद।
अ. परिचय - शाखा - 1: कृश्ण यजुर्वेद
शाखा - 2: षुक्ल यजुर्वेद
ब. सम्बन्धित संहिता - मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, कपिश्ठल कठ, तैत्तिरीय, वाजसनेयी
स. सम्बन्धित ब्राह्मण - तैत्रिरीय तथा षतपथ।
द. सम्बन्धित आरण्यक - तैत्तिरीय, षतपथ तथा बृहदारण्यक ।
य. सम्बन्धित उपनिशद् - मैत्राययी, कठ, ष्वेताष्वर, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक तथा ईष।

घ. चतुर्थ वेद- अथर्ववेद - इसमें जादू, चमत्कार, आरोग्य, यज्ञ के लिए मन्त्र हैं। यह वेद मुख्यतः व्यपारियों के लिए होता है। इसमें पद्यात्मक मन्त्रों के साथ कुछ गद्यात्मक मन्त्र भी उपलब्ध हैं। इस वेद का नामकरण अन्य वेदों की भाँति शब्द शैली के आधार पर नहीं है, अपितु इसके प्रतिपाद्य विशय के अनुसार है। अथर्व का अर्थ है- कमियों को हटाकर ठीक करना या कमी रहित बनाना। अतः इसमें यज्ञ सम्बन्धी एवं व्यक्ति सम्बन्धी सुधार या कमी-पमर्ति करने वाले मन्त्र भी हैं। इस वैदिक शबदराशि का प्रचार एवं प्रयोग मुख्यतः अथर्व नाम के महर्शि द्वारा किया गया, इसलिए भी इसका नाम अथर्ववेद है। इसमें यज्ञानुश्ठान के ब्रह्मवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है।
अ. परिचय -कुल मंत्र - 731, मण्डल - 20
पाठ - 1: शौनकीय
पाठ - 2: पैप्पलाद
मुख्यतः तन्त्र-मन्त्र का संकलन एवम् औशधि विज्ञान।
ब. सम्बन्धित संहिता - शौनकीय तथा पैप्पलाद।
स. सम्बन्धित ब्राह्मण - गोपथ
द. सम्बन्धित आरण्यक - कोइ नहीं
य. सम्बन्धित उपनिशद् - मुण्डक, प्रष्न तथा माण्डूक्य।

1. सत्युग के
शास्त्र-साहित्य
ब्राह्मण कृत शास्त्र-साहित्य
अ. ब्राह्मण (कर्म काण्ड)-पवित्र ग्रन्थों एवम् धर्मानुष्ठान की व्याख्या करना।
ब. आरण्यक (ज्ञान काण्ड)-ब्रह्म विद्या, रहस्यवाद तथा यज्ञो की प्रतीकात्मकता।
स. उपनिशद् - गुरू-शिष्य वार्ता द्वारा व्याख्या। भारतीय दर्षन का मुख्य आधार।
द. वेदांग या सूत्र-साहित्य:-
अ. शीक्षा (स्वर विज्ञान),
ब. कल्प (धर्मानुश्ठान) - चार वर्ग,
1. श्रौत सूत्र -ब्राह्मण ग्रन्थों में वर्णित श्रौत यज्ञों से सम्बन्ध।
2. षुल्व सूत्र -यज्ञ स्थल तथा अग्नि वेदी के निर्माण तथा माप से सम्बन्धित नियम।
3. गृह्य सूत्र -मानव जीवन से सम्बन्धित विभिन्न अनुश्ठानों की चर्चा।
4. धर्म सूत्र - धार्मिक तथा अन्य प्रकार के नियम (भारतीय विधि के प्रारम्भिक स्रोत)
स. व्याकरण,
द. निघण्टु,
य. निरूक्त (व्युत्पत्ति),
र. छन्द,
ल. ज्योतिश
र. उपवेद - 1. आयुर्वेद (ऋग्वेद से सम्बन्धित), 2. धनुर्वेद (यजुर्वेद से सम्बन्धित), 3. गान्धर्वेद (सामवेद से सम्बन्धित), 4. अथर्वेद (अथर्ववेद से सम्बन्धित)।
ल. पुराण - 1. मत्स्य, 2. मार्कण्डेय, 3. भागवत, 4. भविश्य, 5. ब्रह्म, 6. ब्रह्माण्ड, 7. ब्रह्म बैवर्त, 8. वायु, 9. विश्णु, 10. बाराह, 11. बामन, 12. अग्नि, 13. नारदीय, 14. पद्म, 15. लिंग, 16. गरूण, 17. कूर्म, 18. स्कन्द।

2. त्रेतायुग के शास्त्र-साहित्य
मानव कृत शास्त्र साहित्य
1. महाकाव्य - वाल्मीकि रचित - पुस्तक रामायण - आदर्ष मानक व्यक्ति चरित्र
2. तुलसीदास रचित - पुस्तक रामचरित मानस
3. रामानन्द सागर रचित - दृष्य-श्रव्य रामायण

3. द्वापरयुग के शास्त्र -साहित्य
मानव कृत शास्त्र साहित्य
1. महाकाव्य - व्यास रचित - पुस्तक महाभारत - आदर्ष मानक व्यक्ति चरित्र समाहित आदर्ष मानक सामाजिक व्यक्ति चरित्र अर्थात व्यक्तिगत प्रमाणित आदर्ष मानक वैष्विक व्यक्ति चरित्र
2. बी.आर.चोपड़ा रचित - दृष्य-श्रव्य महाभारत

4. कलियुग के शास्त्र-साहित्य
मानव कृत शास्त्र साहित्य
01.यहूदी धर्म,
02.पारसी धर्म-जरथ्रुसट (ईसापूर्व 1700),
03.बौद्ध धर्म-भगवान बुद्ध (ईसापूर्व 1567-487) ,
04.कन्फ्यूसी धर्म-कन्फ्यूसियष (ईसापूर्व 551-479),
05.टोईज्म धर्म-लोओत्से (ईसापूर्व 604-518),
06.जैन धर्म-भगवान महावीर (ईसापूर्व 539-467),
07.ईसाइ धर्म- ईसा मसीह (सन् 33 ई0),
08.इस्लाम धर्म-मुहम्मद पैगम्बर (सन् 670 ई0),
09.सिक्ख धर्म- गुरु नानक (सन् 1510 ई0) इत्यादि एवं दृष्य पदार्थ विज्ञान के शास्त्र-साहित्य
10. लवकुष सिंह ”विष्वमानव“ रचित विष्वभारत - आदर्ष मानक सामाजिक व्यक्ति चरित्र समाहित आदर्ष मानक वैष्विक व्यक्ति चरित्र अर्थात सार्वजनिक प्रमाणित आदर्ष मानक वैष्विक व्यक्ति चरित्र

5/ 0. युगान्त स्वर्णयुग के शास्त्र-साहित्य
ईष्वर कृत शास्त्र साहित्य

लवकुष सिंह ”विष्वमानव“ रचित - विष्वशास्त्र  जिसमें समाहित है-

1. विष्व-नागरिक धर्म का धर्मयुक्त धर्म
शास्त्र
पंचम वेद- प्रचीन काल से ही पंचम वेद की उपलब्धता मानव समाज के लिए एक विवादास्पद विशय रहा है। बहुत से रचनाकार और समर्पित व्यक्तियों ने अपने-अपने साहित्य को पंचमवेद के रुप में प्रस्तुत किया था जैसे- रामचरित मानस के लिए तुलसीदास, महाभारत के लिए महर्शि वेद व्यास, शास्त्रीय कार्यों के लिए एक तमिलियन संत ने, अच्छे बुरे कर्मों का संकलन के लिए माध्वाचार्य, नाट्यशास्त्र अर्थात् गन्धर्ववेद, चिकित्साशास्त्र अर्थात् आयुर्वेद, गुरु ग्रंथ साहिब, लोकोक्तियाँ इत्यादि। परन्तु जब पंचम वेद अन्तिम होगा तो वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों को एक ही सिद्धान्त द्वारा प्रमाणित करने में सक्षम होगा और वहीं विष्व प्रबन्ध का अन्तिम साहित्य होगा। जो सिर्फ कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम और पंचमवेद में ही उपलब्ध है। लवकुष सिंह ”विष्वमानव“ के विचार से कर्मवेद को ही अन्य नामों जैसे- 01. कर्मवेद 02. षब्दवेद 03. सत्यवेद 04. सूक्ष्मवेद 05. दृष्यवेद 06. पूर्णवेद 07. अघोरवेद 08. विष्ववेद 09. ऋृशिवेद 10. मूलवेद 11. षिववेद 12. आत्मवेद 13. अन्तवेद 14. जनवेद 15. स्ववेद 16. लोकवेद 17. कल्किवेद 18. धर्मवेद 19. व्यासवेद 20. सार्वभौमवेद 21. ईषवेद 22. ध्यानवेद 23. प्रेमवेद 24. योगवेद 25. स्वरवेद 26. वाणीवेद 27. ज्ञानवेद 28. युगवेद 29. स्वर्णयुगवेद 30. समर्पणवेद 31. उपासनावेद 32. शैववेद 33. मैंवेद 34.अहंवेद 35. तमवेद 36. सत्वेद 37. रजवेद 38. कालवेद 39. कालावेद 40. कालीवेद 41. षक्तिवेद 42. शुन्यवेद 43. यथार्थवेद 44. कृष्णवेद सभी प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद, से भी कहा जा सकता है। इस प्रकार प्रचीन काल से पंचम वेद की उपलब्धता का विवादास्पद विशय हमेषा के लिए समाप्त हो गया।

2. विष्व-राज्य धर्म का धर्मनिरपेक्ष धर्मशास्त्र
विष्वमानक शुन्य-मन की गुणवत्ता का विष्वमानक श्रृंखला
1. डब्ल्यू.एस.-0 : विचार एवम् साहित्य का विष्वमानक
2. डब्ल्यू.एस.-00 : विशय एवम् विषेशज्ञों की परिभाशा का विष्वमानक
3. डब्ल्यू.एस.-000 : ब्रह्माण्ड (सूक्ष्म एवम् स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विष्वमानक
4. डब्ल्यू.एस.-0000 : मानव (सूक्ष्म तथा स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विष्वमानक
5. डब्ल्यू.एस.-00000 : उपासना और उपासना स्थल का विष्वमानक
 ---- By लवकुश सिंह 

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