हनुमान् जी के स्वरूप का परिचय
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आजकल बुद्धिजीवी कहलाने वाले लोग शंका करते हैं कि क्या हनुमान् जी वानर थे ?इस विषय पर कुछ निर्णय देने के पूर्व हम यह बतलाना चाहेंगे कि किसी वस्तु केविषय में हम उसका स्वरूप या गुण आदि किसी न किसी प्रमाण के आधार परनिश्चित करते हैं ।जैसे किसी व्यक्ति के रूप का परिचय पाने के लिए हमें नेत्ररूपी प्रमाणकीआवश्यकता होती है ।अब उसका रूप काला है या गोरा ? इसका निश्चय कान, घ्राण,श्रोत्र आदि इन्द्रियरूपी प्रमाण नही करा सकते । यह तो नेत्र से ही ज्ञात होगा कि रूप काला हैया गोरा ।ठीक इसी प्रकार हमें हनुमान् जी के विषय में समझना होगा । कि उनका ज्ञान हमेंकिस प्रमाण से हुआ ?प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द -- प्रसिद्ध इन चारों प्रमाणों में शब्द प्रमाणको छोड़कर कोई दूसरा प्रमाण ऐसा नही है जो उनका ज्ञान हमें करा सके ।उस शब्दप्रमाण में वेदावतार वाल्मीकि रामायण जो परम आप्त महर्षि वाल्मीकिप्रणीत है । उस शब्दप्रमाणीभूत रामायण से हमें सर्वप्रथम हनुमान् जी का ज्ञानहोता है ।वाल्मीकि रामायण के प्रथम सर्ग में हनुमान् जी का प्रथम परिचय हमें उस समय मिलता है जब श्रीराम उनसे पम्पा सरोवर के समीप मिलते हैं ।उस समय उनका स्वरूप निरूपित करते हुए महर्षि कहते हैं कि श्रीराम हनुमान् नामक वानर से मिले --
पम्पातीरे हनुमता संगतो वानरेण ह।। -1/58,
जिस प्रमाण से हमें हनुमान् जी का ज्ञान हो रहा है ,उसी से वे वानर भी सिद्ध हो रहे हैं ,जैसे रूप के काले या गोरे होने की सिद्धि चक्षुरूपी प्रमाण से ।जब मारुति लंका में जानकी जी का अन्वेषण करते हुए मन्दोदरी को देखते है तब वे उसे सीता समझकर प्रसन्नता के कारण अपनी पूछ चूमते है और खम्भे पर चढकर नीचे कूदते है तथा अपने वानरोचित स्वभाव को दिखलाते हैं --
आस्फोटयामास चुचुम्ब पुच्छं ननन्द चिक्रीड जगौ जगाम ।
स्तम्भानरोहन्निपपात भूमौ निदर्शयन्स्वां प्रकृतिं कपीनाम् ।।
[वा0रा0सुन्दरकाण्ड--10/ 54,]
इससे ये वानर सिद्ध होते हैं ।किन्तु आजकल के वानरों की भांति लड्डू चुराने वाले प्रवृत्ति वाला वानर समझने की भूल मत कर बैठना ।ये समस्त सिद्धियों से सम्पन्न महातेजस्वी, बालि सुग्रीव की अपेक्षया अप्रमेय बलशाली हैं ।
अशोकवाटिका में इनके अद्भुत कार्यों की बात सुनकर लंकापति रावण व्यथित
होकर कहता है कि मैं उसके कार्यों पर विचारकर यही मानता हूं कि वह वानर नही है ----
नह्यहं तं कपिं मन्ये कर्मणा प्रतितर्कयन् ।
सर्वथा तन्महद्भूतं महाबल परिग्रहम् । ।
[सुन्दरकाण्ड-46/6.]
रावण कहता है कि मैने बालि सुग्रीव जाम्बवान् सेनिपति नील जैसे विपुल बलशाली वानरों को देखा है --
दृष्टा हि हरयः पूर्वं मया विपुलविक्रमाः ।
बाली च सह सुग्रीवो जाम्बवाश्च महाबलाः ।। 46/12,
किन्तु उन सबकी गति इतनी भयंकर नही थी ,न ऐसा तेज और पराक्रम ही था।उनमें इसके जैसा बल उत्साह बुद्धि और रूप बदलने की ऐसी शक्ति भी नही थी--
नैव तेषां गतिर्भीमा न तेजो न पराक्रमः ।।
न मतिर्न बलोत्साहो न रूप परिकल्पनम् ।
महत्सत्वमिदं ज्ञेयं कपिरूपं व्यवस्थितम् । ।
--[ सु0का046/13-14,]
जब रावण जैसा विद्वान् हनुमान् जी की अद्भुत कार्यक्षमता परम पराक्रम आदि
को देखकर वानर मानने को तैयार नही है ।तो आजकल के बुद्धिजीवी उन्हे वानर मानने में सन्देह करें तो क्या आश्चर्य!
रावण का मन्त्री भी सभा में मारुति से कहता है कि तुम्हारा तेज वानरों जैसा नहीहै केवल रूप ही वानर का है --
नहि ते वानरं तेजो रूपमात्रं हि वानरम् । --50/10/
पर हनुमान् जी का जब रावण आदि को दर्शन होता है तब वे सब उन्हें वानर
मानने को विवश हो जाते हैं ।अत एव रावण उनके लिए आगे वानर शब्द का ही प्रयोग करता है--
तस्मादिमं वधिष्यामि वानरं पापकारिणम् । --52/11,
हनुमान् जी माँ जानकी को अपना परिचय रामदूत के रूप में अपने को वानर कहत हुए ही देते हैं ---
वानरोऽहं महाभागे दूतो रामस्य धीमतः ।
[सुन्दरकाण्ड--36/2,]
अतः हनुमान् जी वानर ही थे ।उन्हे मानव या अन्य जातीय माना शास्त्रप्रमाण विरुद्ध है ।किन्तु ये साधारण वानर नही अपितु उपदेव हैं ।जिनके कुल में शिक्षा आदि का प्रचुर प्रचलन था । अत एव ये " गायत्रीजापक "नाम से अभिहित किये गये हैं ।ये साक्षात् भगवान् शंकर तथा कालके भी काल हैं --
नूमांस्तु महादेवः कालकालः सदाशिवः।
------रुद्रयामल, हनुमत्सहस्रनाम,8,
विनयपत्रिका में इन्हे " वानराकार विग्रह पुरारी" कहा गया है ।ये वानर रूप में साक्षात्महाकाल भगवान् शंकर हैं ।किन्तु ये देवेन्द्रवन्दित होने के साथ ही गायत्रीजापक रामनाममय तथा 7 करोड़महामन्त्र से युक्त विग्रह वाले हैं ।-----
सप्तकोटिमहामन्त्रमन्त्रिता वयवः प्रभुः |
-[-ह्० स०नाम् --७]
इनके सहस्रनाम में इनका एक नाम "भक्तांहःसहनो" आया है । जिसका अर्थ है---"भक्तों का अपराध सहन करने वाले" ।नारियां भी इनकी उपासना मन्त्र आदि का जप कर सकती हैं ---"नागकन्याभयध्वंसी" "सप्तमातृनिषेवितः" ये दोनों नाम तथा लोपामुद्रा को अगस्त्य जी द्वारा प्रदत्त कवच, पार्वती जी को भगवान् शिव से प्राप्त कवच इस कथन में प्रमाण है ।
»»»»जय श्रीराम««««
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आजकल बुद्धिजीवी कहलाने वाले लोग शंका करते हैं कि क्या हनुमान् जी वानर थे ?इस विषय पर कुछ निर्णय देने के पूर्व हम यह बतलाना चाहेंगे कि किसी वस्तु केविषय में हम उसका स्वरूप या गुण आदि किसी न किसी प्रमाण के आधार परनिश्चित करते हैं ।जैसे किसी व्यक्ति के रूप का परिचय पाने के लिए हमें नेत्ररूपी प्रमाणकीआवश्यकता होती है ।अब उसका रूप काला है या गोरा ? इसका निश्चय कान, घ्राण,श्रोत्र आदि इन्द्रियरूपी प्रमाण नही करा सकते । यह तो नेत्र से ही ज्ञात होगा कि रूप काला हैया गोरा ।ठीक इसी प्रकार हमें हनुमान् जी के विषय में समझना होगा । कि उनका ज्ञान हमेंकिस प्रमाण से हुआ ?प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द -- प्रसिद्ध इन चारों प्रमाणों में शब्द प्रमाणको छोड़कर कोई दूसरा प्रमाण ऐसा नही है जो उनका ज्ञान हमें करा सके ।उस शब्दप्रमाण में वेदावतार वाल्मीकि रामायण जो परम आप्त महर्षि वाल्मीकिप्रणीत है । उस शब्दप्रमाणीभूत रामायण से हमें सर्वप्रथम हनुमान् जी का ज्ञानहोता है ।वाल्मीकि रामायण के प्रथम सर्ग में हनुमान् जी का प्रथम परिचय हमें उस समय मिलता है जब श्रीराम उनसे पम्पा सरोवर के समीप मिलते हैं ।उस समय उनका स्वरूप निरूपित करते हुए महर्षि कहते हैं कि श्रीराम हनुमान् नामक वानर से मिले --
पम्पातीरे हनुमता संगतो वानरेण ह।। -1/58,
जिस प्रमाण से हमें हनुमान् जी का ज्ञान हो रहा है ,उसी से वे वानर भी सिद्ध हो रहे हैं ,जैसे रूप के काले या गोरे होने की सिद्धि चक्षुरूपी प्रमाण से ।जब मारुति लंका में जानकी जी का अन्वेषण करते हुए मन्दोदरी को देखते है तब वे उसे सीता समझकर प्रसन्नता के कारण अपनी पूछ चूमते है और खम्भे पर चढकर नीचे कूदते है तथा अपने वानरोचित स्वभाव को दिखलाते हैं --
आस्फोटयामास चुचुम्ब पुच्छं ननन्द चिक्रीड जगौ जगाम ।
स्तम्भानरोहन्निपपात भूमौ निदर्शयन्स्वां प्रकृतिं कपीनाम् ।।
[वा0रा0सुन्दरकाण्ड--10/
इससे ये वानर सिद्ध होते हैं ।किन्तु आजकल के वानरों की भांति लड्डू चुराने वाले प्रवृत्ति वाला वानर समझने की भूल मत कर बैठना ।ये समस्त सिद्धियों से सम्पन्न महातेजस्वी, बालि सुग्रीव की अपेक्षया अप्रमेय बलशाली हैं ।
अशोकवाटिका में इनके अद्भुत कार्यों की बात सुनकर लंकापति रावण व्यथित
होकर कहता है कि मैं उसके कार्यों पर विचारकर यही मानता हूं कि वह वानर नही है ----
नह्यहं तं कपिं मन्ये कर्मणा प्रतितर्कयन् ।
सर्वथा तन्महद्भूतं महाबल परिग्रहम् । ।
[सुन्दरकाण्ड-46/6.]
रावण कहता है कि मैने बालि सुग्रीव जाम्बवान् सेनिपति नील जैसे विपुल बलशाली वानरों को देखा है --
दृष्टा हि हरयः पूर्वं मया विपुलविक्रमाः ।
बाली च सह सुग्रीवो जाम्बवाश्च महाबलाः ।। 46/12,
किन्तु उन सबकी गति इतनी भयंकर नही थी ,न ऐसा तेज और पराक्रम ही था।उनमें इसके जैसा बल उत्साह बुद्धि और रूप बदलने की ऐसी शक्ति भी नही थी--
नैव तेषां गतिर्भीमा न तेजो न पराक्रमः ।।
न मतिर्न बलोत्साहो न रूप परिकल्पनम् ।
महत्सत्वमिदं ज्ञेयं कपिरूपं व्यवस्थितम् । ।
--[ सु0का046/13-14,]
जब रावण जैसा विद्वान् हनुमान् जी की अद्भुत कार्यक्षमता परम पराक्रम आदि
को देखकर वानर मानने को तैयार नही है ।तो आजकल के बुद्धिजीवी उन्हे वानर मानने में सन्देह करें तो क्या आश्चर्य!
रावण का मन्त्री भी सभा में मारुति से कहता है कि तुम्हारा तेज वानरों जैसा नहीहै केवल रूप ही वानर का है --
नहि ते वानरं तेजो रूपमात्रं हि वानरम् । --50/10/
पर हनुमान् जी का जब रावण आदि को दर्शन होता है तब वे सब उन्हें वानर
मानने को विवश हो जाते हैं ।अत एव रावण उनके लिए आगे वानर शब्द का ही प्रयोग करता है--
तस्मादिमं वधिष्यामि वानरं पापकारिणम् । --52/11,
हनुमान् जी माँ जानकी को अपना परिचय रामदूत के रूप में अपने को वानर कहत हुए ही देते हैं ---
वानरोऽहं महाभागे दूतो रामस्य धीमतः ।
[सुन्दरकाण्ड--36/2,]
अतः हनुमान् जी वानर ही थे ।उन्हे मानव या अन्य जातीय माना शास्त्रप्रमाण विरुद्ध है ।किन्तु ये साधारण वानर नही अपितु उपदेव हैं ।जिनके कुल में शिक्षा आदि का प्रचुर प्रचलन था । अत एव ये " गायत्रीजापक "नाम से अभिहित किये गये हैं ।ये साक्षात् भगवान् शंकर तथा कालके भी काल हैं --
नूमांस्तु महादेवः कालकालः सदाशिवः।
------रुद्रयामल, हनुमत्सहस्रनाम,8,
विनयपत्रिका में इन्हे " वानराकार विग्रह पुरारी" कहा गया है ।ये वानर रूप में साक्षात्महाकाल भगवान् शंकर हैं ।किन्तु ये देवेन्द्रवन्दित होने के साथ ही गायत्रीजापक रामनाममय तथा 7 करोड़महामन्त्र से युक्त विग्रह वाले हैं ।-----
सप्तकोटिमहामन्त्रमन्त्रिता
-[-ह्० स०नाम् --७]
इनके सहस्रनाम में इनका एक नाम "भक्तांहःसहनो" आया है । जिसका अर्थ है---"भक्तों का अपराध सहन करने वाले" ।नारियां भी इनकी उपासना मन्त्र आदि का जप कर सकती हैं ---"नागकन्याभयध्वंसी" "सप्तमातृनिषेवितः" ये दोनों नाम तथा लोपामुद्रा को अगस्त्य जी द्वारा प्रदत्त कवच, पार्वती जी को भगवान् शिव से प्राप्त कवच इस कथन में प्रमाण है ।
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