पश्चात् विवेकका उदय होता है। विवेकका अर्थ है नित्य और अनित्य वस्तुका भेद समझना। संसारके सभी पदार्थ अनित्य हैं और केवल आत्मा उनसे पृथक् एवं नित्य है। ऐसा अनुभव होनेसे विवेकमें दृढ़ता होती है, दृढ़ विवेकसे बैराग्य उत्पन्न होता है।
लोक-परलोकके यावत् सुख और भोगोंके प्रति पूर्ण विरिक्ति बिना बैराग्य दृढ़ नहीं होता। अनित्य वस्तुओंमें बैराग्य मोक्षका प्रथम कारण है और इसीसे शम, दम, तितिक्षा और कर्म-त्याग सम्भव होते हैं। इसके पश्चात् मोक्षका कारण जो ज्ञान है, उसका उदय होता है। बिना विशुद्ध ज्ञानके मोक्ष किसी प्रकार भी नहीं मिल सकता।
जिन साधनोंका फल अनित्य है वे मोक्षके कारण हो ही नहीं सकते। मोक्षका स्वरूप है जीवात्मा परमात्माकी अभिन्नताका ज्ञान। दोनों एक स्वरूप हैं, इसी ज्ञानका नाम मोक्ष है।
जीवात्मा परमात्मामें जो भेद मालूम होता है वह प्रकृतिके कारणसे है। इस भ्रान्तिकी निवृत्ति ज्ञानद्वारा होती है। द्वैत जो भासता है उसका कारण माया है। और वह माया अनिर्वचनीया है। न तो वह सत् है और न असत् है और दोनोंहीके धर्म उसमें भासते हैं।
इसीलिये उसको अनिर्वचनीया विशेषण दिया गया है। वास्तवमें माया भी मिथ्या है। क्योंकि सत् से असत् की उत्पत्ति सम्भव नहीं और सत्-असत् का मेल भी सम्भव नहीं और असत् में कोई शक्ति ही नहीं। अतैव् जगत् केवल भ्रान्तिमात्र है और स्वप्नवत् है।
भगवान् शंकराचार्य निवृत्तीमार्गके उपदेष्टा हैं और गीताको भी उन्होंने निवृत्ती-मार्ग-प्रतिपादक ग्रन्थ माना है। उनके मतानुसार संन्यासके बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। यही उनका पुनः-पुनः कथन है। परन्तु इतना ध्यान रखना उचित है कि कर्म वा प्रवृत्ति-मार्गको वे चित्तशुद्धिके लिये आवश्यक समझते हैं।
अतैव वे सभीको संन्यासका अधिकारी नहीं मानते। सच्चा संन्यास अर्थात् विद्वत्संन्यास वही है जिसमें मनुष्य किसी वस्तुका त्याग नहीं करता वरं पके फल जैसे वृक्षसे आप ही गिर पड़ते हैं - संसारसे वह सर्वथा निर्लिप्त हो जाता है। लोहेके तप्त गोलेको हाथसे छोड़ देनेंके लिये किसके आदेशकी प्रतीक्षा होती है?
श्री भारद्वाज
No comments:
Post a Comment