यदि
हम संसार के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ वेदों का अवलोकन करें तो हमें विदित
होता है कि वैदिक वाङ्मय में सर्वप्रथम राष्ट्र की विस्तृत चर्चा उपलब्ध
होती है। अथर्ववेद के 12वें काण्ड का प्रथम सूक्त जो 'भूमि सूक्त' के नाम
से जाना जाता है, हमारे समक्ष राष्ट्र की परिपूर्ण तथा सुविचारित कल्पना
प्रस्तुत करता है। इसे आप 'वेद का राष्ट्रीय गीत' भी कह सकते हैं।
वेदों में राष्ट्र के प्रति जैसी धारणा व्यक्त की गई है तथा उसके प्रति
नागरिकों के जिन कर्त्तव्यों का निर्धारण किया गया उसे ही इन 63 मन्त्रों
में सुस्पष्ट ढंग से परिभाषित किया गया है। इस सूक्त के सभी मन्त्र इतने
गम्भीर तथा व्यापक हैं कि किसी भी देश का वासी इनके अर्थों का चिन्तन कर एक
सच्चा और अच्छा नागरिक बन सकता है।
यहॉं यह स्पष्ट कर दिया गया है कि
यद्यपि एक देश के निवासियों के आचार-विचार, खान-पान, रहन-सहन,
वेश-भूषा-भाषा आदि में भिन्नता हो सकती है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि
इन्हीं विभिन्नताओं के कारण राष्ट्र और धरती की एकता तथा अखण्डता पर आंच आ
ए।
"जनं विभ्रती बहुधा विवाचसं नाना धर्माणं पृथिवी यथौकसम् "
यह धरती नाना प्रकार की बोलियों को बोलने वालों तथा नाना पेशों से जीविका
चलाने वाले लोगों को उसी प्रकार धारण करती है मानो वे एक ही घर के लोग हों।
भाषा तथा व्यवसायगत भेद पृथ्वी के नागरिकों में भिन्नता तथा अनेकता नहीं
लाते।
राष्ट्र की परिभाषा अनेक प्रकार से की गई है। किन्तु
अधिकांश विचारकों की राय में राष्ट्र उस भौगोलिक इकाई का नाम है, जिसकी
सीमाएं बहुत कुछ प्राकृतिक होती है तथा जिसके निवासियों के इतिहास,
संस्कृति, परम्परा, जीवनदर्शन तथा आचार व्यवहार में एकरूपता दिखाई देती है।
यों तो कोई भी राष्ट्र धरती का एक टुकड़ा ही होता है जिसमें नदी, पर्वत,
नाले, झरने, वन, मैदान आदि के अतिरिक्त मनुष्यों द्वारा निर्मित बस्तियॉं
भी होती हैं किन्तु उस भूभाग की सांस्कृतिक एकता ही वह मूलभूत तत्व है जो
इस भूखण्ड को राष्ट्र की संज्ञा प्रदान करता है।
इस प्रसंग में 'पृथ्वी सूक्त' का निम्न मन्त्र मननीय है-
'शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमिः संधृता धृता'
अर्थात् प्रत्यक्षतया तो यह धरती विभिन्न चट्टानों मिट्टी के कणों,
प्रस्तर खण्डों तथा बालू रेत का ही समष्टि रूप है किन्तु जब यही भूखण्ड
देशवासियों द्वारा सुसंस्कृत बनाकर सम्यक्तया धारण किया जाता है तो उसके
साथ देश की गौरवमयी संस्कृति तथा इतिहास के गरिमामय प्रसंग जुड़ जाते हैं।
तब प्रस्तरमयी शिलाओं तथा धूल के कणों वाली यह धरती हमारे लिए वन्दनीय तथा
रक्षणीय राष्ट्र बन जाता है।
जब तक देश के निवासियों में भाषागत,
उपासनागत तथा विचारगत एकता नहीं होगी तब तक समग्र राष्ट्र की एकता तथा
अखण्डता स्वप्नवत अयथार्थ ही रहेगी।
--- श्री अनिल कुमार त्रिवेदी
"जनं विभ्रती बहुधा विवाचसं नाना धर्माणं पृथिवी यथौकसम् "
यह धरती नाना प्रकार की बोलियों को बोलने वालों तथा नाना पेशों से जीविका चलाने वाले लोगों को उसी प्रकार धारण करती है मानो वे एक ही घर के लोग हों। भाषा तथा व्यवसायगत भेद पृथ्वी के नागरिकों में भिन्नता तथा अनेकता नहीं लाते।
राष्ट्र की परिभाषा अनेक प्रकार से की गई है। किन्तु अधिकांश विचारकों की राय में राष्ट्र उस भौगोलिक इकाई का नाम है, जिसकी सीमाएं बहुत कुछ प्राकृतिक होती है तथा जिसके निवासियों के इतिहास, संस्कृति, परम्परा, जीवनदर्शन तथा आचार व्यवहार में एकरूपता दिखाई देती है। यों तो कोई भी राष्ट्र धरती का एक टुकड़ा ही होता है जिसमें नदी, पर्वत, नाले, झरने, वन, मैदान आदि के अतिरिक्त मनुष्यों द्वारा निर्मित बस्तियॉं भी होती हैं किन्तु उस भूभाग की सांस्कृतिक एकता ही वह मूलभूत तत्व है जो इस भूखण्ड को राष्ट्र की संज्ञा प्रदान करता है।
इस प्रसंग में 'पृथ्वी सूक्त' का निम्न मन्त्र मननीय है-
'शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमिः संधृता धृता'
अर्थात् प्रत्यक्षतया तो यह धरती विभिन्न चट्टानों मिट्टी के कणों, प्रस्तर खण्डों तथा बालू रेत का ही समष्टि रूप है किन्तु जब यही भूखण्ड देशवासियों द्वारा सुसंस्कृत बनाकर सम्यक्तया धारण किया जाता है तो उसके साथ देश की गौरवमयी संस्कृति तथा इतिहास के गरिमामय प्रसंग जुड़ जाते हैं। तब प्रस्तरमयी शिलाओं तथा धूल के कणों वाली यह धरती हमारे लिए वन्दनीय तथा रक्षणीय राष्ट्र बन जाता है।
जब तक देश के निवासियों में भाषागत, उपासनागत तथा विचारगत एकता नहीं होगी तब तक समग्र राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता स्वप्नवत अयथार्थ ही रहेगी।
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