लौकिक
भाव में सत का अर्थ लेते हैं अच्छा, सज्जन। आध्यात्मिक अर्थ है अपरिणामी,
जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। असत परिणामी है अर्थात जिसमें परिवर्तन
होता है। सत वस्तु एक ही है और जितनी वस्तुएं है सब असत हैं। असत वस्तु का
अर्थ खराब नहीं, बल्कि परिवर्तनशील है। प्रकृति जहां क्रियाशील है वहां
देश-काल-पात्रगत भेद है। किसी भी वस्तु में जब दैशिक, कालिक अथवा पात्रिक
भेद आ जाता है तब वह परिवर्तित हो जाती है। अर्थात पूर्व रूप नहीं रहती है।
इस वास्तविक जगत में सब कुछ कारणयुक्त है, व्यक्त जगत में हम जो कुछ देखते
हैं उसका कारण है। कैसे बना, उसका कारण है। खोजने से कारण मिल जाएंगे।
परिणाम देखने के बाद मनुष्य जब कारण की तरफ चलते हैं तब चलते-चलते मूल कारण
में पहुंच जाते हैं। इसके बाद और कोई कारण नहीं पाते हैं वही है परमात्मा।
इसी को ज्ञान विचार कहते हैं। हम लोग दुनिया में बहुत कुछ पाते हैं।
मगर घी पाने के लिए दही मथना होगा। तब एक तरफ मक्खन अलग हो जाएगा। गर्मी
के समय देखोगे तो नदी में पानी नहीं है, केवल बालू है। नहीं जी, केवल बालू
नहीं है, बालू को हाथ से हटा दो। देखोगे, नीचे पानी है, वहां अंतर्निहित
जलधारा है। लकडी में आग नहीं देखते हो। मगर दो लकडियों का घर्षण करोगे तो
देखोगे कि आग है। ठीक वैसेही तुम्हारे अंदर परमात्मा छुपे हैं। मैं और मेरा
ईश्वर भक्तिमूलक साधना है और उपासना है परमपिता से मिलने का प्रयोजन। यही
सही उपाय है और उसी को लेकर जो आगे चलते हैं वे परमपुरुष को अवश्य पाएंगे।
यह काम कौन कर सकता है? जो बहादुर है, वीर है। यह बहादुरी का और वीरता का
काम कौन कर सकता है? जो भक्त है वही कर सकता है। एक बात याद रखोगे, जो भक्त
है वही हिम्मती है, वही बहादुर है। हिम्मत के साथ भक्ति का बहुत गहरा
संबंध है। तुम लोग साधक हो। तुम लोग भक्त बनो। अपनी भक्ति की बदौलत मन के
मैल को हटा दो। परमपुरुष को पा जाओगे। परमपुरुष तुम्हारे साथ हैं।
---श्रीश्री आनंदमूर्ति
---श्रीश्री आनंदमूर्ति
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