भागवत
के अनुसार कर्मों के फल भी निश्चित है। कर्म बीज है जो बोया गया तो वृक्ष
बनेगा, फूल व फल लगेंगे ही, तब क्या? फल भोगना है या उनका त्याग कर
निद्र्वंद्व होना है। यह निश्चयात्मकता तब ही हो सकती है जब सद्कर्म किए
जाएं।
अन्यथा कर्म बंधन के कारण हैं। उनके बंधन में न आना ही
कुशलता है। पाप और पुण्य कर्म दोनों फल देते हैं जो दु:ख व सुख के रूप में
प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, इसी जीवन में और अतिशेष भावी जन्मों में।व्यक्ति
फल की इच्छा त्यागकर कर्म ईश्वर अर्पण करके करता है, स्मरण रहे ईश्वर को
सद्कर्म-सद्वस्तु या श्रेष्ठ कर्म या श्रेष्ठ वस्तु ही अर्पण की जाती है।
जिसमें किसी को हानि नहीं, किसी की हिंसा नहीं, किसी से राग नहीं, द्वेष
नहीं होता है। ईश्वर-अर्पण में पूर्ण शुद्धता होती है। फल की कामना भी
नहीं।
'कर्मव्येवाधिकारस्ते मा फलेशु कदाचन। मा कर्मफल हेतु र्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।
तेरा अधिकार कर्म करने मात्र तक सीमित है, फल के लिए कदापि नहीं। तू स्वयं
कर्म के फल हेतु क्यों बनता है और कर्म छोड़कर अकर्मण्य होने की भी इच्छा
मत कर। अकर्मण्य बनना नहीं है, व्यक्ति बन भी नहीं सकता तो फिर सद्कर्म कर
ईश्वर के ऊपर उसके फल छोडऩे के अतिरिक्त कोई अन्य बुद्धिमत्ता नहीं।
व्यक्ति के जीवन में अकर्मण्यता जैसी कोई अवस्था नहीं होती है। क्योंकि वह
कुछ न कुछ कर्म तो करेगा ही। अगर कर्म नहीं करेगा तो सांस कैसे लेगा, जल
कैसे पिएगा, भोजन कैसे करेगा? व्यक्ति जब तक जीवित रहता है तब तक कर्म जारी
रहता है। भगवान कहते हैं कि जब कर्म करने ही हैं तो कुछ अच्छे ही करो।
सद्कर्मों से लाभ होगा, धन-ऐश्वर्य, सम्पन्नता और मेरा सान्निध्य भी
मिलेगा। बिना सद्कर्म के कोई गति नहीं है। अच्छे काम करोगे तो आगे भी अच्छी
गति पाओगे। किन्तु ऐसी बुद्धि आए कैसे, बने कैसे? यह बुद्धि बुद्धि-योग का
विषय है, बुद्धि सदैव तर्क करती है। बुद्धि ही वास्तव में मन की नियन्ता
है। मोह इसे कलुशित करता है। विभिन्न अर्थवादों से अस्थिर बुद्धि जब स्थिर
होगी तब समाहित अवस्था में बुद्धि आ सकेगी, इस समाहित स्थिति में
संकल्प-विकल्प रहित शान्त-मन वाला मनुष्य हो सकेगा।
---श्री कमल अग्रवाल
तेरा अधिकार कर्म करने मात्र तक सीमित है, फल के लिए कदापि नहीं। तू स्वयं कर्म के फल हेतु क्यों बनता है और कर्म छोड़कर अकर्मण्य होने की भी इच्छा मत कर। अकर्मण्य बनना नहीं है, व्यक्ति बन भी नहीं सकता तो फिर सद्कर्म कर ईश्वर के ऊपर उसके फल छोडऩे के अतिरिक्त कोई अन्य बुद्धिमत्ता नहीं। व्यक्ति के जीवन में अकर्मण्यता जैसी कोई अवस्था नहीं होती है। क्योंकि वह कुछ न कुछ कर्म तो करेगा ही। अगर कर्म नहीं करेगा तो सांस कैसे लेगा, जल कैसे पिएगा, भोजन कैसे करेगा? व्यक्ति जब तक जीवित रहता है तब तक कर्म जारी रहता है। भगवान कहते हैं कि जब कर्म करने ही हैं तो कुछ अच्छे ही करो।
सद्कर्मों से लाभ होगा, धन-ऐश्वर्य, सम्पन्नता और मेरा सान्निध्य भी मिलेगा। बिना सद्कर्म के कोई गति नहीं है। अच्छे काम करोगे तो आगे भी अच्छी गति पाओगे। किन्तु ऐसी बुद्धि आए कैसे, बने कैसे? यह बुद्धि बुद्धि-योग का विषय है, बुद्धि सदैव तर्क करती है। बुद्धि ही वास्तव में मन की नियन्ता है। मोह इसे कलुशित करता है। विभिन्न अर्थवादों से अस्थिर बुद्धि जब स्थिर होगी तब समाहित अवस्था में बुद्धि आ सकेगी, इस समाहित स्थिति में संकल्प-विकल्प रहित शान्त-मन वाला मनुष्य हो सकेगा।
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