प्रश्न:
चरण वंदना आचार्य! प्रकृति का सत्य क्या है? हम कौन हैं तथा हमारा होने का
प्रयोजन क्या है? इश्वारत्व मात्र मनुष्य की परिकल्पना है अथवा सत्य?
अनुग्रहोआस्मिन!
आचार्यश्री: प्रकृति के सत्य को शब्दों में
परिभाषित करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है जब तक आप स्वयं अनुभूत नहीं होते तब
तक आपके लिए समझना कठिन होगा किंतु आपका प्रश्न इस बात का द्योतक है की
आपकी चेतना को प्रकाश की कोई झलक मिली है अस्तु मैं आपके जिज्ञासा को शान्त
करने का एक प्रयास अवश्य करना चाहूँगा
सृजन से पहले शून्य है - महाशून्य!
शून्य को जाने बिना सृजन को नहीं जाना जा सकता और शून्य को जानना सरल नहीं
क्योंकि मनुष्य की क्षमता की पराकाष्ठा समाधि है तथा समाधि शून्यता की
स्थिति है अस्तु शून्य को जानने के लिए समाधि तक जाना होगा और समाधि हो जाए
तो कोई प्रश्न शेष नहीं बचता शून्य में सृजन है प्रकृति
हम
प्रकृति के अंश हैं तथा उसकी आवश्यकता के परिणाम हैं हमारा होना ही इस बात
का द्योतक है की प्रकृति में हमारी आवश्यकता है और जब तक हमारी आवश्यकता है
तब ही तक हम हैं प्रकृति न तो कृपालु है और न अकृपालु यह बहुआयामी मायाजाल
है हमारा होना ही हमारा प्रयोजन होना चाहिए आप वही करे जिस हेतु आप यहाँ
हैं सभी द्वंधों से स्वयं को मुक्त कीजिये, द्वंध के ऊपर उठिए और आपके
व्यक्तित्व का सृजन जिस हेतु हुआ है उसे पूर्ण कीजिये
मूल रूप से
प्रकृति में सृजन, पालन तथा संहार क्रियाओं की निरन्तर व्यवस्था है इस
व्यवस्था को पूर्ण करने हेतु ज्ञान, वैभव तथा शक्ति की आवश्यकता होती है
ज्ञान द्वारा सृजन, वैभव द्वारा पालन तथा शक्ति द्वारा संहार हम प्रकृति का
सम्मान करते हैं यथा सृजक(ब्रह्मा), ज्ञान(सरस्वती), पालक(विष्णु),
वैभव(लक्ष्मी), संहारक(शिव), शक्ति(पार्वती) के रूप में अपनी श्रद्धा को
प्रगट करते हैं तथा प्रकृति के विभिन्न सकारात्मक स्वरूपों को देवताओं तथा
नकारात्मक स्वरूपों को दैत्यों के रूप में सम्मान देते हैं प्रकृति में
संतुलन की अद्भुत व्यवस्था है अस्तु हमे प्रकृति के सभी स्वरूपों का समुचित
सम्मान करना चाहिए
इश्वारत्व अनुभूति की स्थिति है प्रकृति को एक रूप में देखने की अनुभूति
कल्याणमस्तु
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