Tuesday, August 21, 2012

भारतीय संसद के केंद्रीय कक्ष के प्रवेशद्वार पर लिखा एक श्लोक

अयंनिज: परोवेतिगणना लघुचेतसाम,
उदार चरितानामतुवसुधैव कुटुम्बकम्।

यदि हम और आप संकुचित दायरे से ऊपर उठकर सारी सृष्टि के कल्याण के बारे में सोचें, तो हमारा जीवन सफल हो सकता है। यही हमारे पूर्वजों का भी उद्घोष रहा है। सारा जगत अपना है
जगतगुरु शंकराचार्य ने अपनी प्रार्थना में संपूर्ण जगत को अपना देश घोषित किया था। वास्तव में उनकी राष्ट्रीयता की भावना व्यापक और विशाल थी। उन्होंने कभी भी लोगों को हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई कहकर नहीं पुकारा। उनके लिए सभी लोग बंधु-बांधव के समान थे।
हिंदू शब्द मुस्लिम शासनकाल में आया है। इसके पहले यह शब्द किसी भी प्राचीन ग्रंथ में नहीं मिलता। अंग्रेजों ने अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए भारतीयों को हिंदू और मुस्लिम में बांटने की कोशिश की।
इतिहास के प्रमाण बतलाते हैं कि भारत ने एकता के बल ही पूरी दुनिया पर राज किया। गुप्त काल, बुद्ध काल या रामायण-महाभारत काल में भी धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता था। हमेशा से ही भारत ने वसुधैव कुटुंबकमकी व्याख्या की है। हमारे यहां कभी-कभी रामराज्य के स्थापना की बात होती है, जिसका कुछ लोग विरोध करते हैं। दरअसल, राम किसी एक धर्म से नहीं बंधे थे। उनके लिए पूरा विश्व मित्र के समान था। यदि राम के संदेशों को लोग अपने जीवन में उतारना शुरू कर दें, तो संपूर्ण विश्व में स्वत:रामराज्य स्थापित हो जाएगा। ग्रंथ भी सिखाते हैं विश्व प्रेम रामचरितमानस में एक शब्द भी किसी संप्रदाय या धर्म के विरुद्ध नहीं लिखी गई है। बालकांडमें तुलसी ने लिखा है-
कीरतिभनितभूति भूलिसाई। सुरसरिसम सबकरहित होई।
सबकरशब्द का प्रयोग रामायण में कई जगहों पर किया गया है। कहने का अर्थ यह है कि कीर्ति, काव्य और ऐश्वर्य वही सराहनीय है, जिससे सबका भला हो, आगे एक जगह लिखा है-
वट विश्वास अचल जिन धर्मा। तीरथराजसमाज सुकर्मा।
सबहिसुलभ सब दिन सब देसू। सादर सेबहिसमन कलेशू।

सुंदर कर्म करने पर समाज तीर्थस्थान के समान हो जाता है। ऐसा देश या भूखंड प्रत्येक समाज, सभी कालों, सभी लोगों को सुलभ हो सकता है और जिसके सेवन से क्लेश का भी नाश हो सकता है।
इतना ही नहीं..
परहित सरिसधर्म नहीं भाई पर पीडा सम नहिं अधमाई।
सबसे बडा धर्म परोपकार को बताया गया है, ताकि संपूर्ण मानव समूह एक सूत्र में बंध सके। एक सूफी ने कहा है कि जिसने अपने को पहचान लिया, उसने ईश्वर को पहचान लिया। महात्मा ईसा ने भी कहा है- जिसने हमें पहचाना उसने ईश्वर को पहचान लिया। इसलिए सभी नाम, सभी काम, सभी रूप उसी ईश्वर के ही हैं। संत मलूकदासने इस भाव को व्यक्त किया।
सभहनके हम, सभेहमारे, जीव जन्तु सब मोहिपियारे
आज विश्व में कई समस्याएं पैदा हो गई हैं। इसकी एक मात्र वजह मनुष्यता का पशुता में बदलना है। यदि हम अपनी पशुता को त्याग देंगे, तो हमारा न केवल मन बदलने लगेगा, बल्कि बौद्धिक विकास भी होने लगेगा। इसके परिणामस्वरूप हमें संपूर्ण विश्व अपना लगने लगेगा।
अपने को बदलने की एक मात्र सीढी है, जिस पर चढकर हम धीरे-धीरे अपने को बदल सकते हैं वह है योग की सीढी। योग शरीर को मन से जोडता है। मन से जुडने के बाद ही हम आत्मा और परमात्मा से जुड पाते हैं। हम किस खास जाति, वर्ग या देश में पैदा हुए हैं, यह मायने नहीं रखता है।
योग हमारी सोई हुई चेतना को जगाता है, जिसके परिणामस्वरूप हम मानव कल्याण की बात सोचने लगते हैं। योग के मुख्य आठ अंग हैं, जिनके अभ्यास से हम अपने को पूर्ण रूप से बदल सकते हैं।
1.यम
2.नियम-ब्रह्मचर्य आश्रम
3.आसन
4.प्राणायाम-ग्राहस्थ्यआश्रम
5.प्रत्याहार
6.धारणा-वानप्रस्थआश्रम
7.ध्यान
8.समाधि-सन्यास आश्रम
--- श्री नरेन्द्र तिवारी

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