पैंगल उपनिषद में चार महावाक्य हैं , ये
चारो महावाक्य बहुत महत्वपूर्ण हैं | इनमे से पहले तीन वाक्य गुरु ने शिष्य
से कहे हैं ; चौथा , शिष्य समझा हैं --- गुरु ने जो कहा हैं , उसे जीया
हैं , पहचाना हैं और अपनी पहचान की घोषणा की हैं | चौथा वक्तव्य शिष्य का
हैं | तीन वक्तव्य गुरु के हैं , तीन में गुरु तैयारी करवा रहा हैं , चौथे
में शिष्य ने उद्घोषणा की अपने तयारी की |
इन चारो महावाक्यो में एक क्रम हैं , इन चारो को समझे बिना किसी एक को पकड के बैठ जाना सिर्फ और सिर्फ मुर्खता का परिचायक हैं , उनका जीवन और ज्ञान , कुए के मेंढक के सामान हो जाता हैं | मूर्ख भी शास्त्र की भाषा बोल सकता है, अक्सर बोलता है; कुशलता से बोल सकता है। क्योंकि मूर्ख होने और शास्त्र की भाषा बोलने में कोई विरोध नहीं है। लेकिन मूर्ख शास्त्र से वही अर्थ निकाल लेता है, जो निकालना चाहता है। शास्त्र से मूर्ख को कोई प्रयोजन नहीं है; प्रयोजन अपने से है। शास्त्र को भी वह अपने साथ खड़ा कर लेता है गवाही की तरह। ठीक उसी तरह व्यक्ति इन चार महा वाक्यों में से किसी एक को पकड़ लेगा और अपने पक्ष में खड़ा कर लेता हैं और कहने लगता हैं की उपनिषद में लिखा हैं |
इस संसार में कुछ लोग हैं जो सत्य को भी अपने पक्ष में खड़ा करना चाहते हैं, और कुछ लोग हैं जो सत्य के पक्ष में स्वयं खड़े होना चाहते हैं। बस, दो ही तरह के लोग हैं। कुछ लोग हैं जो धर्म को अपनी पीठ के पीछे खड़ा करना चाहते हैं, शास्त्र को अपने पीछे खड़ा करना चाहते हैं; और कुछ लोग हैं जो धर्म के साथ खड़े होने का साहस रखते हैं।
लेकिन धर्म के साथ खड़ा होना बड़ा क्रांतिकारी कदम है; क्योंकि धर्म मिटा डालेगा, आपको तो बचने नहीं देगा। लेकिन धर्म को अपने पक्ष में खड़ा कर लेना बहुत कनफर्मिस्ट, बहुत सरल, बड़ा रूढ़िग्रस्त कदम है; क्योंकि उससे आप अपने को बचाने के लिए सुविधा और सिक्योरिटी खोजते हैं।
अब आते हैं उन चार महावाक्यो पे -----
पहला हैं -- तत्वमसि , वह तू हैं |
दूसरा हैं -- त्वं तद्सि , तू वह हैं |
तीसरा हैं -- त्वं ब्रह्मास्मि, तू ब्रह्म हैं |
चौथा हैं -- अहम् ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हु |
ऊपर के तीन वक्तव्य गुरु के द्वारा कहे गए हैं , सीढिया हैं ये तीनो वाक्य और चौथा हैं मंदिर में प्रवेश | जो चला था खोजी वह आ गया मंजिल पर | चौथे में शिष्य ने मंजिल पर आने की घोषणा की हैं उसने गुरु को | यहाँ उसका निवेदन हैं गुरु के श्री चरणों में की जो आपने कहा था , जाना , चखा , पीया और हुवा | अहम् ब्रह्मास्मि | मैं ब्रह्म हूँ |
जैसा की मैंने ऊपर बताया था की की इनमे क्रम हैं | इसमें आगे बढ़ना हैं लेकिन क्रम से , धीरे धीरे , नेति - नेति |
पहला - तत्वमसि , वह तू हैं | यहाँ जोर हैं " वह " पर ताकि तू मिट सके | तू को मिटाना हैं | जितना तू मिटेगा , उतना ही वह विराट होगा , प्रगट होगा प्रखर रूप से | इसलिए तू को मिटाना ताकि उसे बिना किसी बाधा के जाना जा सके | इसलिए पहला सूत्र हैं -- तत्वमसि , वह तू हैं | इसलिए याद रख , वह हैं , असली वह हैं , तू तो बस छाया मात्र हैं उसकी , वह आकाश में उगे हुवे पूर्णिमा का चाँद हैं और तू झील में बनी हुयी उसकी परछाई | इसलिए इस सूत्र में जोर " वह " पर हैं |
अब जब गुरु देखता हैं की बात शिष्य की समझ में आ गयी , शिष्य पी लिया इसे , शिष्य ने इसे आत्मसात कर लिया तब वह दूसरा महावाक्य कहता हैं -- त्वं तद्सि , तू वह हैं | अब यहाँ जोर " तू " पर हैं | क्योकि जब तू न रहा तो सिर्फ और सिर्फ वही बचा , उसके सिवाय बचा ही क्या ? तो कही भ्रान्ति न हो जाये की मुझे छोड़कर और सब ब्रह्म हैं , उस भ्रान्ति को न बनने देने के लिए दूसरा महावाक्य हैं की मत घबडा अब तू नहीं हैं , इस लिए अब तू इस योग्य हो गया हैं की तुझसे कहा जा सकता हैं की तू भी वही हैं | इसलिए चिंता न कर , की और सब परमात्मा हैं मुझे छोड़कर | जब सब वही हैं , तो तू भी सब में सम्मिलित हैं | जब तू मिट गया तब तू की बात की जा सकती हैं | फिर किसी प्रकार का अड़चन नहीं की त्वं तद्सि , तू वह हैं |
लेकिन सबसे खास बात इन दोनों महावाक्यो में ये हैं की अभी तक इन दोनों महावाक्यो में " वह " का प्रयोग हुवा हैं | जैसा की आप सबको पता हैं की वह शब्द दूरी का प्रतीक हैं | जैसे अभी हम किन्ही वस्तुवो की बात कर रहे , जैसे अभी ब्रह्म की बात नहीं छेड़ी, अभी भी थोड़ी दूरी बाकी हैं , अभी यात्रा शेष हैं | आप सबको तो ज्ञात ही हैं की गुरु फूंक - फूंक कर कदम रखता हैं , क्योकि शिष्य के साथ खतरे की बहुत सम्भावनाये रहती हैं , क्योकि हम लोग सदियों से , जन्मो जन्मो से भ्रान्ति में जिए हैं | या यु कहे की हमारे रोम रोम में भ्रान्ति समायी हवी हैं | गुरु पहले उसे धोता हैं , साफ़ करता हैं , निखरता हैं और जब सब कुछ साफ़ हो जाता हैं यहाँ तक की जब स्वयं शिष्य जो पहले था आने के समय वो नहीं रहता तो उसपे ईश्वरीय रंग से रंगता हैं | शायद तभी कबीर दास ने गुरु को रंगरेज कहा हैं |
जब ये बात पूरी तरह साफ़ हो जाती हैं की शिष्य समझ गया की वह नहीं हैं , स्वयं नहीं हैं , अस्तित्व हैं तो गुरु ने उससे दूसरी बात कही थी की भय मत कर , तू भी वह अस्तित्व हैं | मगर अभी " वह " का प्रयोग किया जा रहा हैं | जब शिष्य को यह भी बात समझ में आ गयी की अस्तित्व , वह सब कुछ हैं तब गुरु को लगा की अब समय आ गया हैं जब बात को और गहराई जा सकती हैं , थोडा और , थोडा और सुक्ष्मतिसूक्ष्म में प्रवेश कराया जा सकता हैं | तब गुरु ने कहा कि त्वं ब्रह्मास्मि, तू ब्रह्म हैं | सिर्फ वह ही नहीं हैं तू , ब्रह्म भी हैं तू |
अब गुरु ने वह को व्यक्तित्व दिया, वह को चेतना दी , वह को जीवन दिया|
अगर यही गुरु शिष्य को पहले कह देता कि, त्वं ब्रह्मास्मि, तू ब्रह्म हैं | तो शिष्य के अन्दर बड़ी अकड़ आ जाती , तब तो भ्रान्ति होने वाली थी , तब तो शिष्य के अन्दर अहंकार जन्म ले ही लेता लेकिन गुरु ने क्रम से , धीरे धीरे . नेति नेति | जैसे मूर्तिकार धीरे धीरे मूर्ति को गढ़ता हैं , छेनी उठाकर धीरे धीरे पत्थर को तोड़ता हैं , जो जो अनावश्यक हैं सबको काट के बाहर निकाल देता हैं , सबको अलग कर देता हैं तब जाके मूर्ति प्रकट होती हैं | अब गुरु को वह शब्द प्रयोग में करने कि जरुरत नहीं , अब अस्तित्व कहना उचित नहीं , अब परमात्मा को लाया जा सकता हैं |
आप ध्यान देंगे तो देखेंगे कि गुरु एक एक सूत्र को कितनी समझदारी पूर्वक आगे बाधा रहे हैं | पहले दो सूत्रों में तो गुरु ने परमात्मा का जिक्र तक नहीं किया | तीसरा सूत्र तो उसे कहा जा सकता था जिसने पहले दो सूत्र पुरे कर लिया हो | त्वं ब्रह्मास्मि, तू ब्रह्म हैं | अब गुरु आहिस्ता से कहता हैं ---- अब पते कि बात सुन , अस्तित्व कोई जड़ पदार्थ नहीं हैं , ब्रह्म हैं , चिदानंद हैं , चैतन्य हैं | त्वं ब्रह्मास्मि का अर्थ हैं --- तू शरीर नहीं हैं , तू मन नहीं हैं , तू आत्मा हैं |
ऊपर कि ये तीनो घोषनाये गुरु ने कि | फिर गुरु प्रतीक्षा करता हैं | जब शिष्य समझ लेता हैं , समझ का यहाँ अर्थ पी लेता हैं , जब डोलने लगता हैं मस्ती में , जब पूर्ण रूप से मस्ती में आ जाता हैं , तब उसके भीतर उद्घोष होता हैं --- अहम् ब्रह्मास्मि , मैं ब्रह्म हूँ |
इन्हें महावाक्य कहा गया हैं , क्योकि इन चारो वाक्यों में सब शास्त्र आ जाते हैं | कुछ भी शेष नहीं बचता | क्या आप लोगो को लगता हैं कि अब भी कुछ शेष बचा हैं ?
लेकिन शर्ते समझ लेना , मैं जाये तो ही सम्भावना हैं यह जानने की की " मैं कौन हु " | " मैं " जाये तो ही ब्रह्म आएगा और फिर तब अद्भुद अवस्था आ जाती हैं |
लेकिन लोग अक्सर "मैं " को पकडे रहते हैं और अपने को सही साबित करने के लिए इन सूत्रों में से किसी एक को पकड़ कर चर्चा शुरू कर देते हैं | फिर भ्रांतियों का दौर रुकने का नाम ही नहीं लेता |
---श्री पियूष चतुर्वेदी
इन चारो महावाक्यो में एक क्रम हैं , इन चारो को समझे बिना किसी एक को पकड के बैठ जाना सिर्फ और सिर्फ मुर्खता का परिचायक हैं , उनका जीवन और ज्ञान , कुए के मेंढक के सामान हो जाता हैं | मूर्ख भी शास्त्र की भाषा बोल सकता है, अक्सर बोलता है; कुशलता से बोल सकता है। क्योंकि मूर्ख होने और शास्त्र की भाषा बोलने में कोई विरोध नहीं है। लेकिन मूर्ख शास्त्र से वही अर्थ निकाल लेता है, जो निकालना चाहता है। शास्त्र से मूर्ख को कोई प्रयोजन नहीं है; प्रयोजन अपने से है। शास्त्र को भी वह अपने साथ खड़ा कर लेता है गवाही की तरह। ठीक उसी तरह व्यक्ति इन चार महा वाक्यों में से किसी एक को पकड़ लेगा और अपने पक्ष में खड़ा कर लेता हैं और कहने लगता हैं की उपनिषद में लिखा हैं |
इस संसार में कुछ लोग हैं जो सत्य को भी अपने पक्ष में खड़ा करना चाहते हैं, और कुछ लोग हैं जो सत्य के पक्ष में स्वयं खड़े होना चाहते हैं। बस, दो ही तरह के लोग हैं। कुछ लोग हैं जो धर्म को अपनी पीठ के पीछे खड़ा करना चाहते हैं, शास्त्र को अपने पीछे खड़ा करना चाहते हैं; और कुछ लोग हैं जो धर्म के साथ खड़े होने का साहस रखते हैं।
लेकिन धर्म के साथ खड़ा होना बड़ा क्रांतिकारी कदम है; क्योंकि धर्म मिटा डालेगा, आपको तो बचने नहीं देगा। लेकिन धर्म को अपने पक्ष में खड़ा कर लेना बहुत कनफर्मिस्ट, बहुत सरल, बड़ा रूढ़िग्रस्त कदम है; क्योंकि उससे आप अपने को बचाने के लिए सुविधा और सिक्योरिटी खोजते हैं।
अब आते हैं उन चार महावाक्यो पे -----
पहला हैं -- तत्वमसि , वह तू हैं |
दूसरा हैं -- त्वं तद्सि , तू वह हैं |
तीसरा हैं -- त्वं ब्रह्मास्मि, तू ब्रह्म हैं |
चौथा हैं -- अहम् ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हु |
ऊपर के तीन वक्तव्य गुरु के द्वारा कहे गए हैं , सीढिया हैं ये तीनो वाक्य और चौथा हैं मंदिर में प्रवेश | जो चला था खोजी वह आ गया मंजिल पर | चौथे में शिष्य ने मंजिल पर आने की घोषणा की हैं उसने गुरु को | यहाँ उसका निवेदन हैं गुरु के श्री चरणों में की जो आपने कहा था , जाना , चखा , पीया और हुवा | अहम् ब्रह्मास्मि | मैं ब्रह्म हूँ |
जैसा की मैंने ऊपर बताया था की की इनमे क्रम हैं | इसमें आगे बढ़ना हैं लेकिन क्रम से , धीरे धीरे , नेति - नेति |
पहला - तत्वमसि , वह तू हैं | यहाँ जोर हैं " वह " पर ताकि तू मिट सके | तू को मिटाना हैं | जितना तू मिटेगा , उतना ही वह विराट होगा , प्रगट होगा प्रखर रूप से | इसलिए तू को मिटाना ताकि उसे बिना किसी बाधा के जाना जा सके | इसलिए पहला सूत्र हैं -- तत्वमसि , वह तू हैं | इसलिए याद रख , वह हैं , असली वह हैं , तू तो बस छाया मात्र हैं उसकी , वह आकाश में उगे हुवे पूर्णिमा का चाँद हैं और तू झील में बनी हुयी उसकी परछाई | इसलिए इस सूत्र में जोर " वह " पर हैं |
अब जब गुरु देखता हैं की बात शिष्य की समझ में आ गयी , शिष्य पी लिया इसे , शिष्य ने इसे आत्मसात कर लिया तब वह दूसरा महावाक्य कहता हैं -- त्वं तद्सि , तू वह हैं | अब यहाँ जोर " तू " पर हैं | क्योकि जब तू न रहा तो सिर्फ और सिर्फ वही बचा , उसके सिवाय बचा ही क्या ? तो कही भ्रान्ति न हो जाये की मुझे छोड़कर और सब ब्रह्म हैं , उस भ्रान्ति को न बनने देने के लिए दूसरा महावाक्य हैं की मत घबडा अब तू नहीं हैं , इस लिए अब तू इस योग्य हो गया हैं की तुझसे कहा जा सकता हैं की तू भी वही हैं | इसलिए चिंता न कर , की और सब परमात्मा हैं मुझे छोड़कर | जब सब वही हैं , तो तू भी सब में सम्मिलित हैं | जब तू मिट गया तब तू की बात की जा सकती हैं | फिर किसी प्रकार का अड़चन नहीं की त्वं तद्सि , तू वह हैं |
लेकिन सबसे खास बात इन दोनों महावाक्यो में ये हैं की अभी तक इन दोनों महावाक्यो में " वह " का प्रयोग हुवा हैं | जैसा की आप सबको पता हैं की वह शब्द दूरी का प्रतीक हैं | जैसे अभी हम किन्ही वस्तुवो की बात कर रहे , जैसे अभी ब्रह्म की बात नहीं छेड़ी, अभी भी थोड़ी दूरी बाकी हैं , अभी यात्रा शेष हैं | आप सबको तो ज्ञात ही हैं की गुरु फूंक - फूंक कर कदम रखता हैं , क्योकि शिष्य के साथ खतरे की बहुत सम्भावनाये रहती हैं , क्योकि हम लोग सदियों से , जन्मो जन्मो से भ्रान्ति में जिए हैं | या यु कहे की हमारे रोम रोम में भ्रान्ति समायी हवी हैं | गुरु पहले उसे धोता हैं , साफ़ करता हैं , निखरता हैं और जब सब कुछ साफ़ हो जाता हैं यहाँ तक की जब स्वयं शिष्य जो पहले था आने के समय वो नहीं रहता तो उसपे ईश्वरीय रंग से रंगता हैं | शायद तभी कबीर दास ने गुरु को रंगरेज कहा हैं |
जब ये बात पूरी तरह साफ़ हो जाती हैं की शिष्य समझ गया की वह नहीं हैं , स्वयं नहीं हैं , अस्तित्व हैं तो गुरु ने उससे दूसरी बात कही थी की भय मत कर , तू भी वह अस्तित्व हैं | मगर अभी " वह " का प्रयोग किया जा रहा हैं | जब शिष्य को यह भी बात समझ में आ गयी की अस्तित्व , वह सब कुछ हैं तब गुरु को लगा की अब समय आ गया हैं जब बात को और गहराई जा सकती हैं , थोडा और , थोडा और सुक्ष्मतिसूक्ष्म में प्रवेश कराया जा सकता हैं | तब गुरु ने कहा कि त्वं ब्रह्मास्मि, तू ब्रह्म हैं | सिर्फ वह ही नहीं हैं तू , ब्रह्म भी हैं तू |
अब गुरु ने वह को व्यक्तित्व दिया, वह को चेतना दी , वह को जीवन दिया|
अगर यही गुरु शिष्य को पहले कह देता कि, त्वं ब्रह्मास्मि, तू ब्रह्म हैं | तो शिष्य के अन्दर बड़ी अकड़ आ जाती , तब तो भ्रान्ति होने वाली थी , तब तो शिष्य के अन्दर अहंकार जन्म ले ही लेता लेकिन गुरु ने क्रम से , धीरे धीरे . नेति नेति | जैसे मूर्तिकार धीरे धीरे मूर्ति को गढ़ता हैं , छेनी उठाकर धीरे धीरे पत्थर को तोड़ता हैं , जो जो अनावश्यक हैं सबको काट के बाहर निकाल देता हैं , सबको अलग कर देता हैं तब जाके मूर्ति प्रकट होती हैं | अब गुरु को वह शब्द प्रयोग में करने कि जरुरत नहीं , अब अस्तित्व कहना उचित नहीं , अब परमात्मा को लाया जा सकता हैं |
आप ध्यान देंगे तो देखेंगे कि गुरु एक एक सूत्र को कितनी समझदारी पूर्वक आगे बाधा रहे हैं | पहले दो सूत्रों में तो गुरु ने परमात्मा का जिक्र तक नहीं किया | तीसरा सूत्र तो उसे कहा जा सकता था जिसने पहले दो सूत्र पुरे कर लिया हो | त्वं ब्रह्मास्मि, तू ब्रह्म हैं | अब गुरु आहिस्ता से कहता हैं ---- अब पते कि बात सुन , अस्तित्व कोई जड़ पदार्थ नहीं हैं , ब्रह्म हैं , चिदानंद हैं , चैतन्य हैं | त्वं ब्रह्मास्मि का अर्थ हैं --- तू शरीर नहीं हैं , तू मन नहीं हैं , तू आत्मा हैं |
ऊपर कि ये तीनो घोषनाये गुरु ने कि | फिर गुरु प्रतीक्षा करता हैं | जब शिष्य समझ लेता हैं , समझ का यहाँ अर्थ पी लेता हैं , जब डोलने लगता हैं मस्ती में , जब पूर्ण रूप से मस्ती में आ जाता हैं , तब उसके भीतर उद्घोष होता हैं --- अहम् ब्रह्मास्मि , मैं ब्रह्म हूँ |
इन्हें महावाक्य कहा गया हैं , क्योकि इन चारो वाक्यों में सब शास्त्र आ जाते हैं | कुछ भी शेष नहीं बचता | क्या आप लोगो को लगता हैं कि अब भी कुछ शेष बचा हैं ?
लेकिन शर्ते समझ लेना , मैं जाये तो ही सम्भावना हैं यह जानने की की " मैं कौन हु " | " मैं " जाये तो ही ब्रह्म आएगा और फिर तब अद्भुद अवस्था आ जाती हैं |
लेकिन लोग अक्सर "मैं " को पकडे रहते हैं और अपने को सही साबित करने के लिए इन सूत्रों में से किसी एक को पकड़ कर चर्चा शुरू कर देते हैं | फिर भ्रांतियों का दौर रुकने का नाम ही नहीं लेता |
---श्री पियूष चतुर्वेदी
bahut sundar dhany ho
ReplyDeleteतत्वमसि
ReplyDeleteवेक्ति को जाग्रत होकर कर विवेक जगाना चाहिए पूर्ण तत्वमसि हो जाये प्रथम चरण में,और फिर द्वितीय चरण में विवेक से आत्मा में प्रवेश और तृतीय चरण में स्त्तिर प्रज्ञ हो जायेंगे ।।।
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