Wednesday, August 8, 2012

व्याख्या

उमा कहूँ मैं अनुभव अपना | सत्य हरिभजन जग सब सपना ||
- रामचरितमानस हिंदी (अर. का. ३८.३)
व्याख्या :- भगवान शिव ने यहाँ अत्यंत गूढ़ रहस्य को बहुत ही सरलता से प्रतिपादित कर दिया है. भगवान शिव पार्वती जी से कहते हैं कि हे उमा सुनो मैं तुम्हें अपना अनुभव बताता हूँ, ये कोई सुनी सुनाई बात नहीं है ये मेरा स्वयं का अनुभव है. ये सारा संसार एक स्वप्न की भांति झूठ है, अर्थात जैसे हम सोते हुए सपना देखते हैं, उस सपने में अनेकों प्रकार के पदार्थ देखते हैं. और जब तक हम वो सपना देख रहे होते है
ं तब तक सपने में दीखने वाली प्रत्येक वस्तु हमें सत्य ही लगती है, और हम अपने वास्तविक जगत को उस समय पूरी तरह भूल जाते हैं. परन्तु जैसे ही हम जागते हैं तो सपने में देखे गये सभी पदार्थ अदृश्य हो जाते हैं क्योंकि वे वास्तव में कहीं नहीं है, वे तो बस हमारे मन में ही कल्पित हैं. ठीक इसी प्रकार आत्मा भी अपने मन में इस संसार रूपी सपने को देख रहा है. जब तक आत्मा यह स्वप्न देखता है तब तक आत्मा को ये झूठा संसार ही सत्य लगता है क्योंकि उस समय वो अपना वास्तविक स्वरुप भूल जाता है (जैसे सोता हुआ व्यक्ति अपने शरीर को भूल जाता है और सपने में देखे गये शरीर को ही "ये मैं हूँ" ऐसा समझने लग जाता है). किन्तु हरिभजन से जैसे ही उसका स्वप्न भ्रम दूर होता है वैसे ही उसे अपने वास्तविक अविनाशी स्वरुप की प्रतीति होने लगती है. अतः मेरी दृष्टि में हरिभजन ही सत्य है क्योंकि केवल वही सत्य स्वरुप परमात्मा का बोध कराता है. यही बात गीता के द्वितीय अध्याय में भी कही गई है :
"नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः |" अर्थात असत्य वस्तु (संसार) का अस्तित्व नहीं है और सत् वस्तु (आत्मा, परमात्मा) का अभाव नहीं है. अतः जीव को चाहिये कि यदि वह अपना कल्याण चाहे तो उसे सदा हरिभजन और उपरोक्त तथ्य का चिंतन मनन करते रहना चाहिये.
जय जय सिया राम. जय जय शिव शम्भु. जय माँ जगतजननी पार्वती जी की.

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