शिव हमारी राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं। स्वयं वह उत्तर के निवासी हैं और वरण करते हैं धुर दक्षिण में कन्याकुमारी में कन्याकुमारी रहने वाली पार्वती का। शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों के विभिन्न प्रान्तों में बिखरने के बाद भी एक ही साथ सम्पूर्ण देश को एकत्र कर दिया है। इसी तरह भगवान शिव की आराधना दक्षिण में रामेश्वरम् से लेकर उत्तर में काशी तक होती है। पूरे भारत में बनी राष्ट्रीय चेतना की पहचान कर केरल में जन्में जगद्गुरु शंकराचार्य ने भारत के चार कोनों पर चार धामों की स्थापना कर भारतीय राष्ट्रीय चेतना को आकार देने का प्रयास किया।भगवान शिव को शास्त्रीय नृत्य का जन्मदाता बताया और कहा कि भगवान नटराज के नृत्य पर सभी शास्त्रीय नृत्य आधारित हैं। समस्त शास्त्रीय नृत्यों में एकरूपता नजर आती है, जिससे राष्ट्रीय एकता का भाव जाग्रत होता है। कैलास-मानसरोवर की यात्रा न केवल हर ¨हिंदू श्रद्धालु का सपना होता है वरन यह यात्रा राष्ट्रीय एकता की एक अद्भुत मिसाल भी है। हर साल जून से सितंबर तक विभिन्न प्रदेशों के तीस-तीस यात्रियों के सोलह बैच इस रोमांचक, जोखिम से भरी कठिन यात्रा को पूरी करके भगवान शिव के चरणों में पहुंचते हैं।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय के तीन लेख मथुरा नगर से मिले हैं। पहला लेख (मथुरा संग्रहालय सं. 1931) गुप्त संवत 61 (380 ई.) का है यह मथुरा नगर में रंगेश्वर महादेव के समीप एक बगीची से प्राप्त हुआ है। शिलालेख लाल पत्थर के एक खंभे पर है। यह सम्भवतः चंद्रगुप्त के पाँचवे राज्यवर्ष में लिखा गया था। इस शिलालेख़ में उदिताचार्य द्वारा उपमितेश्वर और कपिलेश्वर नामक शिव-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना का वर्णन है। खंभे पर ऊपर त्रिशूल तथा नीचे दण्डधारी रुद्र (लकुलीश) की मूर्ति है।
चंद्रगुप्त के शासन-काल के उपलब्ध लेखों में यह लेख सब से प्राचीन है। इससे तत्कालीन मथुरा में शैव धर्म के होने की पुष्टि के होती है। भगवान शिव की लीला भूमि कैलाश मानसरोवर के तीन दिशाओं से तीन धाराएं निकली। पूर्व वाली धारा ब्रम्हपुत्र हो गयी, पश्चिम वाहिनी धारा सिंधु के सम्मान से गौरवान्वित हुई। उत्तर में तो साक्षात् शिव स्वयं कैलाश पर विराजमान है एवं दक्षिणी धारा पतित पावनी मां गंगा के नाम से जग विख्यात हो गयी। मान सरोवर से गो मुख तक अदृश्य ग्लेशियरों से गुजरती हुई यह देव धारा गोमुख में दृश्यमान होती है। तब तक यह शिव द्रव अनेक प्रकार के खनिज लवणों को अपने भीतर समाहित कर लेती है।
यदि भगवान शिव के विभिन्न स्वरुपों की भावार्थ के साथ व्याखया करें तो हम देखते हैं कि मस्तक पर विराजमान चन्द्रमा और गंगाजल की धारा शीतलता का प्रतीक मानी जाती है। भगवान शिव के नीलकंठ में विराजमान नाग, भयमुक्त वातावरण का प्रतीक है। समुद्र मंथन के द्वारा प्राप्त विषपान करने का अर्थ हैं, कि हमें संसार में निहित सभी दुर्गुणों रुपी विष को पचाकर पूरे विश्व में अमृत रुपी सद्गुणों का प्रचार करना चाहिए।
शिवजी के परिवार में सभी जीव – जंतु (शेर, चीता, भालू, बैल, मोर, चूहा आदि) एक साथ रहकर सद्भाव का परिचय देते हैं। भगवान शिव जहां एक ओर उत्तर में हिमालय पर्वत पर विराजमान हैं वहीं उनका एक स्वरुप शमशान में भी निहित हैं अर्थात् कोई भी कार्य अच्छा या बुरा नहीं होता और मंदिर हो या शमशान आपकी पवित्र भावना तथा श्रद्धा आपको जीवन में सफल बनाती है।
भगवान शिव त्याग की प्रतिमूर्ति है। उनकी प्रत्येक लीला मानव को नई दिशा प्रदान करने वाली है। भगवान शिव ने तन पर भस्म लगाकर समूची मानवता को संदेश दिया कि भसमातम सरीरा भाव कि इंसान का शरीर एक दिन भस्म हो जाएगा। उनके मस्तक पर चन्द्रमा प्रकाश का प्रतीक है। ऐसा ही चन्द्रमा रूपी प्रकाश इंसान के भीतर है। उनके हाथ में डमरू है और डमरू अनहद नाद का प्रतीक है। त्रिशूल नाम का प्रतीक है। सिर पर गंगा अमृत का प्रतीक है कि ऐसा अमृत भी इंसान के भीतर है। एक सतगुरु ही है जो हमें इस मार्ग को दिखा सकता है। वह ही हमारी तीसरी आंख अर्थात शिव नेत्र खोलकर मानव के भीतर उस शिव के दर्शन करवा सकता है।
अतः इनके भक्तों की संख्या भारत ही नहीं विदेशों तक फैली है। यूनानी, रोमन, चीनी, जापानी संस्कृतियों में भी शिव की पूजा व शिवलिंगों के प्रमाण मिले हैं। भगवान शिव का महामृत्जुंजय मंत्र पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी को दीर्घायु, समृद्धि, शांति, सुख प्रदान करता रहा है और चिरकाल तक करता रहेगा। भगवान शिव की महिमा प्रत्येक भारतीय से जूङा है। मानव जाति की उत्पत्ति भी भगवान शिव से मानी जाती है। अतः भगवान शिव के स्वरूप को जानना प्रत्येक मानव के लिए जरूरी है।
जटाएं- शिव को अंतरिक्ष का देवता कहते हैं, अतः आकाश उनकी जटा का स्वरूप है, जटाएं वायुमंडल का प्रतीक हैं।
सृष्टि के प्रारम्भ में जब ब्रह्माजी द्वारा रची गयी मानसिक सृष्टि विस्तार न पा सकी, तब ब्रह्माजी को बहुत दुःख हुआ। उसी समय आकाशवाणी हुई—‘ब्रह्मन् ! अब मैथुनी सृष्टि करो।’
आकाशवाणी सुनकर ब्रह्माजी ने मैथुनी सृष्टि रचने का निश्चय तो कर लिया, किंतु उस समय तक नारियों की उत्पत्ति न होने के कारण वे अपने निश्चय में सफल नहीं हो सके। तब ब्रह्माजी ने सोचा कि परमेश्वर शिव की कृपा के बिना मैथुनी सृष्टि नहीं हो सकती। अतः वे उन्हें प्रसन्न करने के लिये कठोर तप करने लगे। बहुत दिनों तक ब्रह्माजी अपने हृदयमें प्रेमपूर्वक महेश्वर शिव का ध्यान करते रहे। उनके तीव्र तप से प्रसन्न होकर भगवान् उमा –महेश्वर नमे उन्हें अर्धनारीश्वर-रूप में दर्शन दिया। देवादिदेव भगवान् शिव के दिव्य स्वरूप को देखकर ब्रह्माजी अभिभूत हो उठे और उन्होंने दण्डकी भाँति भूमि पर लेटकर उस अलौकिक विग्रह को प्रणाम किया।
महेश्वर शिवने कहा—‘पुत्र ब्रह्मा ! मुझे तुम्हारा मनोरथ ज्ञात हो गया है। तुमने प्रजाओं की वृद्धि के लिए जो कठिन तप किया है; उससे मैं परम प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करूँगा।’ ऐसा कहकर शिवजी ने अपने शरीर के आधे भाग से उमादेवी को अलग कर दिया। तदनन्तर परमेश्वर शिव के अर्धांग से अलग हुई उन पराशक्ति को साष्टांग प्रणाम करके ब्रह्माजी इस प्रकार कहने लगे—
‘शिवे ! सृष्टि के प्रारम्भ में आपके पति देवाधिदेव ने शम्भुने मेरी रचना की थी। भगवति ! उन्हीं के आदेश से मैने देवता आदि समस्त प्रजाओं का मानसिक सृष्टि की। परंतु अनेक प्रयासों के बाद भी उनकी वृद्धि करने में मैं असफल रहा हूँ। अतः अब स्त्री-पुरुष के समागम से मैं प्रजाको उत्पन्न कर सृष्टि का विस्तार करना चाहता हूँ, किंतु अभीतक नारी-कुलका प्राकट्य नहीं हुआ है और नारी-कुलकी सृष्टि करना मेरी शक्ति से बाहर है। देवि ! आप सम्पूर्ण सृष्टि शक्तियों की उद्गमस्थली हैं। इसलिये हे मातेश्वरी, आप मुझे नारी-कुल की सृष्टि करने की शक्ति प्रदान करें। मैं आपसे एक और विनती करता हूँ कि चराचर जगत् की वृद्धि के लिये आप मेरे पुत्र दक्ष की पुत्री के रूप में जन्म लेने की कृपा करें।’
ब्रह्मा की प्रार्थना सुनकर शिवाने ‘तथास्तु’—ऐसा ही होगा—कहा और ब्रह्माको उन्होंने नारी कुल की सृष्टि करने की शक्ति प्रदान की। इसके लिए उन्होंने अपनी भौहों के मध्यभाग से अपने ही समान कान्तमती एक शक्ति प्रकट की। उसे देखकर देवदेवेश्वर शिवने हँसते हुए कहा—‘देवि ! ब्रह्माने तपस्या द्वारा तुम्हारी आराधना की है। अब तुम उनपर प्रसन्न हो जाओ और उनका मनोरथ पूर्ण करो।’ परमेश्वर शिवकी इस आज्ञा को शिरोधार्य करके वह शक्ति ब्रह्माजी की प्रार्थना के अनुसार दक्षकी पुत्री हो गयी। इस प्रकार ब्रह्माजी को अनुपम शक्ति देकर देवी शिवा महादेवजी के शरीर में प्रविष्ट हो गयीं। फिर महादेवजी भी अन्तर्धान हो गये तभी से इस लोक में मैथुनी सृष्टि चल पड़ी। सफल मनोरथ होकर ब्रह्माजी भी परमेश्वर शिव का स्मरण करते हुए निर्विघ्नरूपसे सृष्टि-विस्तार करने लगे।
इस प्रकार शिव और शक्ति एक-दूसरे से अभिन्न तथा सृष्टि के आदिकारण हैं। जैसे पुष्प में गन्ध, चन्द्रमें चन्द्रिका, सूर्य में प्रभा नित्य और स्वभाव-सिद्ध है, उसी प्रकार शिवमें शक्ति भी स्वभाव-सिद्ध है। शिव में इकार ही शक्ति है। शिव कूटस्थ तत्त्व है और शक्ति परिणामी तत्त्व। शिव अजन्मा आत्मा है और शक्ति जगत् में नाम-रूप के द्वारा व्यक्त सत्ता। यही अर्धनारीश्वर शिवका रहस्य है।
भगवान शिव परम चेतना के प्रतीक के रूप में मने जाते हैं I पार्वती परम
ज्ञान, संकल्प और कर्म की साकार प्रतिमा मानी जाती हैं और वही समस्त
सृष्टि की कर्तरी भी कही जाती हैं I इस शक्ति या उर्जा को कुण्डलिनी शक्ति
भी कहते हैं, जो सभी जीवों में प्रसुप्त है I पार्वती समग्र विश्व
ब्रम्हाण्ड की मात- शक्ति भी समझी जाती हैं I जीवात्मा, जो नाम और रूप के
जगत से आबद्ध है, उनकी कृपा से मुक्त होकर परम चेतना के साथ युक्त हो जाता
है I अपनी संतति के प्रति प्रेम और करुणा के वश में हो उन्होंने तंत्र के
रूप में अपना मोछ- ज्ञान उसे प्रदान किया I यौगिक विधियों का स्त्रोत तंत्र
है, अत: योग और तंत्र को एक- दुसरे से पृथक नहीं किया जा सकता है, जैसे
शिव को शक्ति से अलग नहीं किया जा सकता Iमानव- सभ्यता के प्रारंभ में योग
का उत्थान तब हुआ जब मानव अपनी अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर उसे विकसित
करने की विधियों की खोज करने लगा I संपूर्ण विश्व में प्राचीन ऋषि-मुनियों
द्वारा योग-विज्ञानं का क्रामिक विकास किया गया I योग के तत्त्व को विविध
प्रतीकों, रूपकों और अलंकारिक भाषओं के माध्यम से समझाने का प्रयास किया
गया है, इसलिए योग रहस्य की झीनी चादर से ढका हुआ प्रतीत होता है I
भगवान शिव परम चेतना के प्रतीक के रूप में मने जाते हैं I पार्वती परम
ज्ञान, संकल्प और कर्म की साकार प्रतिमा मानी जाती हैं और वही समस्त
सृष्टि की कर्तरी भी कही जाती हैं I इस शक्ति या उर्जा को कुण्डलिनी शक्ति
भी कहते हैं, जो सभी जीवों में प्रसुप्त है I पार्वती समग्र विश्व
ब्रम्हाण्ड की मात- शक्ति भी समझी जाती हैं I जीवात्मा, जो नाम और रूप के
जगत से आबद्ध है, उनकी कृपा से मुक्त होकर परम चेतना के साथ युक्त हो जाता
है I अपनी संतति के प्रति प्रेम और करुणा के वश में हो उन्होंने तंत्र के
रूप में अपना मोछ- ज्ञान उसे प्रदान किया I यौगिक विधियों का स्त्रोत तंत्र
है, अत: योग और तंत्र को एक- दुसरे से पृथक नहीं किया जा सकता है, जैसे
शिव को शक्ति से अलग नहीं किया जा सकता Iमानव- सभ्यता के प्रारंभ में योग
का उत्थान तब हुआ जब मानव अपनी अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर उसे विकसित
करने की विधियों की खोज करने लगा I संपूर्ण विश्व में प्राचीन ऋषि-मुनियों
द्वारा योग-विज्ञानं का क्रामिक विकास किया गया I योग के तत्त्व को विविध
प्रतीकों, रूपकों और अलंकारिक भाषओं के माध्यम से समझाने का प्रयास किया
गया है, इसलिए योग रहस्य की झीनी चादर से ढका हुआ प्रतीत होता है Iश्री जगन्नाथ करंजे
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