वैदिक
परंपरा मे प्रथम स्थान उदात्त भावनावों ( महामानव, ऋषि, तपस्वी, त्यागी
,बलिदानी ) का है ...ये दीपक की तरह जल कर सर्वत्र प्रकाश फैलाते हैं ..
उदात्त भावनाओं से बढ़ कर कुछ भी नहीं हैं ...ये ही जीवंत वेद हैं .
समय की मांग के अनुसार ऋषियों मुनियों आदि ने महाभारत मे आये आपद धर्म
की संकल्पनाओं को भी स्वीकार करके सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय दृष्टिकोण
दिया है ...आज देश मे दैवी सत्ता पर चहुँ ओर से हो रहे आसुरी सत्ता द्वारा
आक्रमण हमें उदात्त सोच और उदात्त कृति लाने की ओर प्रेरित करता है ...
सात्विकों को इस समय एकमत होकर राष्ट्र हित मे और हिन्दू हित मे ही सोचना चाहिए और तदनुरूप अपनी कृति करनी चाहिए ...
वैदिक परंपरा मे द्वितीय स्थान विद्या का है ..इसे ब्राह्मणत्व कह सकते हैं
तीसरी विभूति प्रतिभा है इसे क्षत्रियत्व कह सकते हैं
और चौथी गणना धन की है इसमें आज भावना कम और पदार्थ की स्थिति अधिक है ...
धन को उदात्त भावना का संसर्ग मिलने से वह क्रमशः लक्ष्मी और महालक्ष्मी बन जाती है ...ऐसे धन की मांग हमारे ऋषियों ने की है ..
धन दैवी -आसुरी संघर्ष के आवश्यक सहयोगी के रूप मे प्रचारात्मक , रचनात्मक
और संघर्षात्मक विविध कार्यक्रमों के विविध मोर्चों पर लड़ने के लिए
प्रयुक्त होना चाहिए ..ना कि मात्र भोग मे ..
उदात्त भावनाओं से युक्त
लोगों ने कहा भी और अपने जीवन से बताया भी कि अपने परिवार पुत्र आदि के लिए
आवश्यक अत्यल्प धन का संचय करने के बाद शेष धनों को इष्ट पूर्त कार्यों मे
लगना चाहिए राष्ट्र धर्म के हित मे प्रयुक्त करना चाहिए ...कुछ अत्यंत
श्रेष्ट उदहरण हैं ..
१.ऋषि विश्वामित्र के द्वारा बनाई जा रही नयी
दुनियां मे आवश्यक धन की पूर्ती के लिए उनके शिष्य रजा हरिश्चंद्र ने अपने
राज्य धन आदि सौपने के सहित पुत्र , पत्नी तक को बेच दिया
२.संत सुदामा के गुरुकुल को खड़ा करने के लिए भगवान कृष्ण ने स्थिति को समझा और धन के कारण आई कठिनाइ को दूर किया
३. रना प्रताप का स्वतंत्रता संग्राम जब कुछ सिथिल पड़ने लगा तो भामाशाह
आये और उन्होंने अपनी जमा पूंजी ३० लाख की पूंजी उनके सामने रख दी
४. बुद्ध के मिशन की पूर्ती के लिए सम्राट अशोक ने अपना सम्पूर्ण राज्य और कोश महात्मा बुद्ध के चरणों मे रख दिया
इन दिनों मंदिर ,धर्मशाला ,
...आदि बनवाना रोका भी जा सकता है. आज तीर्थ यात्राओं की शायद उतनी जरूरत
नहीं है ...जितनी जरूरत है देश के लिए , हिंदुओं के लिए जन जागरण स्वरुप
द्वार द्वार अलख जगाने वाले पड़ यात्राओं की ..उस मद मे धन देने की / खर्च
करने की ...जिससे हावी होती जा रही असुरता का प्रभाव कम हो ...देवत्व अगर
सुरक्षित रहा तभी मंदिर धर्मशाला .....आदि का महत्व बढ़ेगा
--- श्री अनिल कुमार त्रिवेदी
और चौथी गणना धन की है इसमें आज भावना कम और पदार्थ की स्थिति अधिक है ...
धन को उदात्त भावना का संसर्ग मिलने से वह क्रमशः लक्ष्मी और महालक्ष्मी बन जाती है ...ऐसे धन की मांग हमारे ऋषियों ने की है ..
धन दैवी -आसुरी संघर्ष के आवश्यक सहयोगी के रूप मे प्रचारात्मक , रचनात्मक और संघर्षात्मक विविध कार्यक्रमों के विविध मोर्चों पर लड़ने के लिए प्रयुक्त होना चाहिए ..ना कि मात्र भोग मे ..
उदात्त भावनाओं से युक्त लोगों ने कहा भी और अपने जीवन से बताया भी कि अपने परिवार पुत्र आदि के लिए आवश्यक अत्यल्प धन का संचय करने के बाद शेष धनों को इष्ट पूर्त कार्यों मे लगना चाहिए राष्ट्र धर्म के हित मे प्रयुक्त करना चाहिए ...कुछ अत्यंत श्रेष्ट उदहरण हैं ..
१.ऋषि विश्वामित्र के द्वारा बनाई जा रही नयी दुनियां मे आवश्यक धन की पूर्ती के लिए उनके शिष्य रजा हरिश्चंद्र ने अपने राज्य धन आदि सौपने के सहित पुत्र , पत्नी तक को बेच दिया
२.संत सुदामा के गुरुकुल को खड़ा करने के लिए भगवान कृष्ण ने स्थिति को समझा और धन के कारण आई कठिनाइ को दूर किया
३. रना प्रताप का स्वतंत्रता संग्राम जब कुछ सिथिल पड़ने लगा तो भामाशाह आये और उन्होंने अपनी जमा पूंजी ३० लाख की पूंजी उनके सामने रख दी
४. बुद्ध के मिशन की पूर्ती के लिए सम्राट अशोक ने अपना सम्पूर्ण राज्य और कोश महात्मा बुद्ध के चरणों मे रख दिया
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