प्रश्न:ब्रम्ह्सूत्र , गीता व उपनिषद को समझने के लिए समान योग्यता व स्तर की बुद्धि चाहिए ....
मनुष्य की जिस स्तर की बुद्धि गीता समझ सकती है ...उपनिषद समझ सकती है ..वह ब्रम्ह्सूत्र भी समझ सकती है..फिर एक प्रश्न उत्पन्न होता है तीनो पर भाष्य क्यों ????
( स्मरण हो कि तीनों पर अर्थात प्रस्थान त्रयी पर भाष्य लिखने वाले को ही आचार्य कहा जाता है ...अतः तीनों पर ही भाष्य का आग्रह क्यों ...केवल गीता या उपनिषद पर या केवल ब्रम्ह्सूत्र पर ही क्यों नहीं )
उत्तर :उपनिषदों में ऋषि-मुनियों के अनुभव बताए गएँ हैं ...ये ऋषि मुनियों की अनुभूतियाँ हैं ..
परन्तु
इन अनुभूतियों को कैसे प्राप्त करना ..कैसे जीवन में उतारना यह नहीं स्पस्ट किया गया है ...उपनिषदों के सिद्धांतों की ओर जाने का मार्ग स्पस्ट नहीं किया गया है ...किस context में उनका पालन किस प्रकार करना यह स्पस्ट नहीं है
उदाहरंतः ...मातृदेवो भव ..पितृदेवो भव .. यह उपनिषदों में आया है परन्तु कैसे ?? जब हमारे सामने यह वाक्य आता है तो जिनको हम आदर्श मानते हैं उनके जीवन में भी इनके अपवाद स्वरुप कई उदाहरण दिखने लगते हैं ...भारत को कैकेयी से समस्या क्यों ?? उनके लिए मातृदेवो भव क्यों नहीं ??
प्रहलाद के लिए पितृदेवो भव क्यों नहीं ?? ( उल्टा प्रहलाद तो अपने पिता की मृत्यु का कारण भी बना )
यदि उपनिषदों के सिद्धांतों को बुद्धि सत्य मान भी लेती है तो भी उनकी सत्यता पर तर्क पूर्ण बुद्धि शत प्रतिशत विश्वास नहीं कर सकती ...( विश्वास 99.99 % ही हो सकता है ....मातृदेवो भव 99.99 % ही सत्य लगेगा .01% अपवाद के क्षेत्र में ही रहेगा ) ...अतः उपनिषदों के अतिरिक्त भी देव तुल्य ऋषियों का केन्द्र विन्दु ये .01% अपवाद भी बने ...जिसके लिए उपनिषदों के साथ-साथ गीता और ब्रम्ह्सूत्र पर भी भाष्य का आग्रह किया गया व शंकराचार्य आदि आचार्यों ने तीनों पर ही भाष्य रचना कर के मानव जाति को ऐसे शास्त्र दिये जिससे वे उपनिषदों के सिद्धांतों को प्रत्येक देश-काल –परिस्थिति में अनुपालन योग्य श्रद्धा संपन्न मनो मस्तिष्क का निर्माण कर सकें ...
आज हम शास्त्रों में जो कहा गया है उसका हमें जैसा suit करता है वैसा ही अर्थ निकाल कर misuse करते रहते हैं ( आज जाति की समस्या ...हिंदू धर्म के अनुयायियों की एकता की समस्या ...धर्म परिवर्तन की समस्या ये सब शास्त्रों के सिद्धांतों के misuse करने / होने की वजह से ही हैं )....
धर्म शास्त्रों का के अभ्यासू सामान्यतया दो प्रकार के हो सकते हैं...
1.वही धर्मशास्त्र हमें मान्य है जो हमारी बुद्धि में बैठे ( Scientists, Rationalists, Positivists etc …आज मनुस्मृति पर विचित्र टिप्पणियां इसी विचारधारा का परिणाम है )
2. धर्मशास्त्रों के सिद्धांत / कथन आप्त प्रमाण हैं ..वो परम सत्य हैं ...देश काल अबाधित हैं ..मै अपनी बुद्धि को उन्हें पूरी तरह से समझने में लगाऊंगा ...जो धर्म शास्त्र कहते हैं मै वही करूँगा मगर बुद्धि से समझ कर
पहले प्रकार की वजह से ही सारी समस्याएं हैं (जिनमे से कुछ का जिक्र ऊपर किया गया है ...ये समस्याएं विरोधाभासों का सही हल ना मिल पाने कि वजह से ही हैं) और समाधान है दूसरा ...
मै उपनिषद के सिद्धांतों के प्रति जीवन में हमेशा answerable रहूँगा ...इसमें विचारशील व्यक्ति को ...बुद्धिनिष्ठ व्यक्ति को अगर हमेशा शब्द से प्राब्लेम हुआ तो वह कभी भी उपनिषद के सिद्धांतों का पालन नहीं कर पायेगा
अपवादों के सामने आने पर उपनिषदों के सिद्धांतों में जो विरोधाभास उत्पन्न होता है जिससे बुद्धि निर्णय नहीं ले पाती और अस्वस्थता उत्पन्न होता है उस उत्पन्न अस्वस्थता कि औसधि ही ‘गीता सुगीता कर्तव्याः’ है...
(इन विरोधाभासों की वजह से हमारी स्थिति त्रिशंकु जैसी होती है ...उदाहरणतः –कभी हम ज्ञान का कभी भक्ति का तो कभी कर्म का समर्थन करने लगते हैं और कभी तीनों ही हमें जरूरी तो कभी तीनों ही एक ही लगने लगते हैं ..
हमारी दक्षता अधिकारों के प्रति कभी ज्यादा रहती है तो कभी कर्तव्यों के प्रति ...)
ज्ञात हो कि गीता दो धर्मों में टकराव( स्वजन मोह व क्षत्र धर्म) होने पर साक्षात् योगेश्वर के मुख से कहा गया समाधान है ...अगर धर्म व अधर्म के बीच एक का चुनाव अर्जुन को करना होता तो अर्जुन को श्रीकृष्ण की जरूरत कदापि नहीं पड़ती ...वह खुद ही इतना समर्थ था कि समाधान निकाल लेता ...आज के अर्जुनों में भी इतनी बौधिक स्थिति तो है ही कि वो धर्म व अधर्म में धर्म का चुनाव कर सकें ...
परन्तु दो धर्म में से ( उपनिषद/ शास्त्रों के सिद्धांतों में से) एक का चयन ऐसी परिस्थिति के आने पर सुयोग्य का चुनाव आज का अर्जुन नहीं कर पाता इसलिए गीता की आवश्यकता है ...
नास्तिकों , विज्ञान का प्रत्यक्षवाद , डार्विन व evolution जहाँ जहाँ हैं वहाँ वहाँ उपनिषद सीधे काम नहीं करते ...परन्तु वही उपनिषद वहाँ गीता के रूप में ना ही केवल इनका सफलतापूर्वक सामना करते हैं वरण पूर्ण समाधान भी प्रस्तुत करता हैं
बहुत से लोगों के जीवन में समस्याएं / घटनाएं आती हैं और वो उनका समाधान ढूढते हैं ...परन्तु बहुत से दूरदर्शी लोग समस्यायों/ घटनाओं को अति महत्वपूर्ण जान कर उनका हल ढूढने के लिए स्वयं उठाते हैं...ऐसे लोगों के लिए ब्रम्ह्सूत्र हैं.
दार्शनिकों , तत्वचिन्तकों के दिमाग में यह बात आती है कि ...ऐसा हो गया तो क्या होगा उस परिस्थिति में अमुक सिद्धांत कैसे कार्य करेगा ?? क्या होगा ??
ऐसे लोगों के जीवन में प्रश्न आ सकता है ...मेरी स्थिति अगर अर्जुन जैसी हो गयी तो ?
ब्रम्ह्सूत्र से इन्हें जवाब मिलेगा ....
“पहले विचार क्यों नहीं आया अर्जुन ?? तुम्हे पहले ही मालूम होना चाहिए था कि युद्ध के निर्णय लेने के बाद स्वजन से युद्ध और क्षात्र धर्म में टकराव जैसी स्थिति आने ही वाली है ...इन दोनों में टकराओ होना ही हैं ...
तुम्हारे पूर्व के निर्णय और अब के निर्णय में फर्क क्यों है ??
सुबह का निर्णय किसी को दोपहर में गडबड लगता है तो क्या guarantee है कि दोपहर में लिया गे निर्णय शाम को या कल सही ही लगेगा ??”
अतः ब्रम्ह्सूत्र बाद की विरोधाभासी परिस्थिति में उपनिषद के सिद्धांतों को ठीक ढंग से पालन कर सकने वाली समर्थ बुद्धि प्रदान करती है ...जिसे आज के विज्ञान में simulation technique कहा जाता है ...
मेरे भविष्य जीवन में भी मूढता ना आये इसके लिए अभी प्रयास होना चाहिए इसके लिए ब्रम्ह सूत्र है
अतः किसी भी सिद्धांत को शत प्रतिशत सम्पूर्ण जीवन में उतारने की इच्छा के लिए अलग अलग context में ..अलग अलग देश –काल परिस्थिति में उनकी सत्यता सार्वभौमता प्रतिपादित होना अनुपालक के दृष्टी कोण से अति आवश्यक है ,,,अति महत्वपूर्ण है ..और ऐसा व्यक्ति ही सबके जीवन का ये सिद्धांत विशिष्ट अंग बने इस बात का आग्रही हो सकता है ...[ हम राम का अनुसरण करने के लिए किसी से ठोस आग्रह तभी कर पायेंगे अगर राम चरित्र में आने वाले विरोधाभासों { पिता की आज्ञा मान कर वन गए ...मन कहेगा बिलकुल लल्लू थे क्या ? आज तो संपत्ति के लिए लोग पिता से अलग हो जाते हैं ,,भाई की हत्या कर देते हैं .और राम ने राजा की पदवी और राज्य छोड़ दिया ..ये क्या ??, सीता जी की अग्नि परीक्षा , सीता जी का त्याग , आदि } का हल जानते हों ...राम या कृष्ण के चरित्र को उठाना follow करना सरल है ..लेकिन अंत तक हर परिस्थिति में उनके साथ टिके रहना अति कठिन है ...
अतः अगर राम कृष्ण के सिद्धांतों को जीवन में उतरना है तो उपनिषद ,गीता , के साथ साथ ब्रम्ह सूत्र को भी अंगीकार करना पड़ेगा ...]
शाश्त्र पूरी तरह ( शत प्रतिशत ...99.99% नहीं ) रक्त के सामान हमारे जीवन रुपी अंग अंग में दौड़े ऐसा आग्रह हमारे ऋषि परम्परा को हमसे अथाह प्रेम के फलस्वरूप था ... इसे ही ध्यान रखते हुए उन्होंने हमें प्रस्थान त्रयी दिया ..और तीनों पर ही भाष्य लिखने का आग्रह
शुभम
--- श्री अनिल कुमार त्रिवेदी
मनुष्य की जिस स्तर की बुद्धि गीता समझ सकती है ...उपनिषद समझ सकती है ..वह ब्रम्ह्सूत्र भी समझ सकती है..फिर एक प्रश्न उत्पन्न होता है तीनो पर भाष्य क्यों ????
( स्मरण हो कि तीनों पर अर्थात प्रस्थान त्रयी पर भाष्य लिखने वाले को ही आचार्य कहा जाता है ...अतः तीनों पर ही भाष्य का आग्रह क्यों ...केवल गीता या उपनिषद पर या केवल ब्रम्ह्सूत्र पर ही क्यों नहीं )
उत्तर :उपनिषदों में ऋषि-मुनियों के अनुभव बताए गएँ हैं ...ये ऋषि मुनियों की अनुभूतियाँ हैं ..
परन्तु
इन अनुभूतियों को कैसे प्राप्त करना ..कैसे जीवन में उतारना यह नहीं स्पस्ट किया गया है ...उपनिषदों के सिद्धांतों की ओर जाने का मार्ग स्पस्ट नहीं किया गया है ...किस context में उनका पालन किस प्रकार करना यह स्पस्ट नहीं है
उदाहरंतः ...मातृदेवो भव ..पितृदेवो भव .. यह उपनिषदों में आया है परन्तु कैसे ?? जब हमारे सामने यह वाक्य आता है तो जिनको हम आदर्श मानते हैं उनके जीवन में भी इनके अपवाद स्वरुप कई उदाहरण दिखने लगते हैं ...भारत को कैकेयी से समस्या क्यों ?? उनके लिए मातृदेवो भव क्यों नहीं ??
प्रहलाद के लिए पितृदेवो भव क्यों नहीं ?? ( उल्टा प्रहलाद तो अपने पिता की मृत्यु का कारण भी बना )
यदि उपनिषदों के सिद्धांतों को बुद्धि सत्य मान भी लेती है तो भी उनकी सत्यता पर तर्क पूर्ण बुद्धि शत प्रतिशत विश्वास नहीं कर सकती ...( विश्वास 99.99 % ही हो सकता है ....मातृदेवो भव 99.99 % ही सत्य लगेगा .01% अपवाद के क्षेत्र में ही रहेगा ) ...अतः उपनिषदों के अतिरिक्त भी देव तुल्य ऋषियों का केन्द्र विन्दु ये .01% अपवाद भी बने ...जिसके लिए उपनिषदों के साथ-साथ गीता और ब्रम्ह्सूत्र पर भी भाष्य का आग्रह किया गया व शंकराचार्य आदि आचार्यों ने तीनों पर ही भाष्य रचना कर के मानव जाति को ऐसे शास्त्र दिये जिससे वे उपनिषदों के सिद्धांतों को प्रत्येक देश-काल –परिस्थिति में अनुपालन योग्य श्रद्धा संपन्न मनो मस्तिष्क का निर्माण कर सकें ...
आज हम शास्त्रों में जो कहा गया है उसका हमें जैसा suit करता है वैसा ही अर्थ निकाल कर misuse करते रहते हैं ( आज जाति की समस्या ...हिंदू धर्म के अनुयायियों की एकता की समस्या ...धर्म परिवर्तन की समस्या ये सब शास्त्रों के सिद्धांतों के misuse करने / होने की वजह से ही हैं )....
धर्म शास्त्रों का के अभ्यासू सामान्यतया दो प्रकार के हो सकते हैं...
1.वही धर्मशास्त्र हमें मान्य है जो हमारी बुद्धि में बैठे ( Scientists, Rationalists, Positivists etc …आज मनुस्मृति पर विचित्र टिप्पणियां इसी विचारधारा का परिणाम है )
2. धर्मशास्त्रों के सिद्धांत / कथन आप्त प्रमाण हैं ..वो परम सत्य हैं ...देश काल अबाधित हैं ..मै अपनी बुद्धि को उन्हें पूरी तरह से समझने में लगाऊंगा ...जो धर्म शास्त्र कहते हैं मै वही करूँगा मगर बुद्धि से समझ कर
पहले प्रकार की वजह से ही सारी समस्याएं हैं (जिनमे से कुछ का जिक्र ऊपर किया गया है ...ये समस्याएं विरोधाभासों का सही हल ना मिल पाने कि वजह से ही हैं) और समाधान है दूसरा ...
मै उपनिषद के सिद्धांतों के प्रति जीवन में हमेशा answerable रहूँगा ...इसमें विचारशील व्यक्ति को ...बुद्धिनिष्ठ व्यक्ति को अगर हमेशा शब्द से प्राब्लेम हुआ तो वह कभी भी उपनिषद के सिद्धांतों का पालन नहीं कर पायेगा
अपवादों के सामने आने पर उपनिषदों के सिद्धांतों में जो विरोधाभास उत्पन्न होता है जिससे बुद्धि निर्णय नहीं ले पाती और अस्वस्थता उत्पन्न होता है उस उत्पन्न अस्वस्थता कि औसधि ही ‘गीता सुगीता कर्तव्याः’ है...
(इन विरोधाभासों की वजह से हमारी स्थिति त्रिशंकु जैसी होती है ...उदाहरणतः –कभी हम ज्ञान का कभी भक्ति का तो कभी कर्म का समर्थन करने लगते हैं और कभी तीनों ही हमें जरूरी तो कभी तीनों ही एक ही लगने लगते हैं ..
हमारी दक्षता अधिकारों के प्रति कभी ज्यादा रहती है तो कभी कर्तव्यों के प्रति ...)
ज्ञात हो कि गीता दो धर्मों में टकराव( स्वजन मोह व क्षत्र धर्म) होने पर साक्षात् योगेश्वर के मुख से कहा गया समाधान है ...अगर धर्म व अधर्म के बीच एक का चुनाव अर्जुन को करना होता तो अर्जुन को श्रीकृष्ण की जरूरत कदापि नहीं पड़ती ...वह खुद ही इतना समर्थ था कि समाधान निकाल लेता ...आज के अर्जुनों में भी इतनी बौधिक स्थिति तो है ही कि वो धर्म व अधर्म में धर्म का चुनाव कर सकें ...
परन्तु दो धर्म में से ( उपनिषद/ शास्त्रों के सिद्धांतों में से) एक का चयन ऐसी परिस्थिति के आने पर सुयोग्य का चुनाव आज का अर्जुन नहीं कर पाता इसलिए गीता की आवश्यकता है ...
नास्तिकों , विज्ञान का प्रत्यक्षवाद , डार्विन व evolution जहाँ जहाँ हैं वहाँ वहाँ उपनिषद सीधे काम नहीं करते ...परन्तु वही उपनिषद वहाँ गीता के रूप में ना ही केवल इनका सफलतापूर्वक सामना करते हैं वरण पूर्ण समाधान भी प्रस्तुत करता हैं
बहुत से लोगों के जीवन में समस्याएं / घटनाएं आती हैं और वो उनका समाधान ढूढते हैं ...परन्तु बहुत से दूरदर्शी लोग समस्यायों/ घटनाओं को अति महत्वपूर्ण जान कर उनका हल ढूढने के लिए स्वयं उठाते हैं...ऐसे लोगों के लिए ब्रम्ह्सूत्र हैं.
दार्शनिकों , तत्वचिन्तकों के दिमाग में यह बात आती है कि ...ऐसा हो गया तो क्या होगा उस परिस्थिति में अमुक सिद्धांत कैसे कार्य करेगा ?? क्या होगा ??
ऐसे लोगों के जीवन में प्रश्न आ सकता है ...मेरी स्थिति अगर अर्जुन जैसी हो गयी तो ?
ब्रम्ह्सूत्र से इन्हें जवाब मिलेगा ....
“पहले विचार क्यों नहीं आया अर्जुन ?? तुम्हे पहले ही मालूम होना चाहिए था कि युद्ध के निर्णय लेने के बाद स्वजन से युद्ध और क्षात्र धर्म में टकराव जैसी स्थिति आने ही वाली है ...इन दोनों में टकराओ होना ही हैं ...
तुम्हारे पूर्व के निर्णय और अब के निर्णय में फर्क क्यों है ??
सुबह का निर्णय किसी को दोपहर में गडबड लगता है तो क्या guarantee है कि दोपहर में लिया गे निर्णय शाम को या कल सही ही लगेगा ??”
अतः ब्रम्ह्सूत्र बाद की विरोधाभासी परिस्थिति में उपनिषद के सिद्धांतों को ठीक ढंग से पालन कर सकने वाली समर्थ बुद्धि प्रदान करती है ...जिसे आज के विज्ञान में simulation technique कहा जाता है ...
मेरे भविष्य जीवन में भी मूढता ना आये इसके लिए अभी प्रयास होना चाहिए इसके लिए ब्रम्ह सूत्र है
अतः किसी भी सिद्धांत को शत प्रतिशत सम्पूर्ण जीवन में उतारने की इच्छा के लिए अलग अलग context में ..अलग अलग देश –काल परिस्थिति में उनकी सत्यता सार्वभौमता प्रतिपादित होना अनुपालक के दृष्टी कोण से अति आवश्यक है ,,,अति महत्वपूर्ण है ..और ऐसा व्यक्ति ही सबके जीवन का ये सिद्धांत विशिष्ट अंग बने इस बात का आग्रही हो सकता है ...[ हम राम का अनुसरण करने के लिए किसी से ठोस आग्रह तभी कर पायेंगे अगर राम चरित्र में आने वाले विरोधाभासों { पिता की आज्ञा मान कर वन गए ...मन कहेगा बिलकुल लल्लू थे क्या ? आज तो संपत्ति के लिए लोग पिता से अलग हो जाते हैं ,,भाई की हत्या कर देते हैं .और राम ने राजा की पदवी और राज्य छोड़ दिया ..ये क्या ??, सीता जी की अग्नि परीक्षा , सीता जी का त्याग , आदि } का हल जानते हों ...राम या कृष्ण के चरित्र को उठाना follow करना सरल है ..लेकिन अंत तक हर परिस्थिति में उनके साथ टिके रहना अति कठिन है ...
अतः अगर राम कृष्ण के सिद्धांतों को जीवन में उतरना है तो उपनिषद ,गीता , के साथ साथ ब्रम्ह सूत्र को भी अंगीकार करना पड़ेगा ...]
शाश्त्र पूरी तरह ( शत प्रतिशत ...99.99% नहीं ) रक्त के सामान हमारे जीवन रुपी अंग अंग में दौड़े ऐसा आग्रह हमारे ऋषि परम्परा को हमसे अथाह प्रेम के फलस्वरूप था ... इसे ही ध्यान रखते हुए उन्होंने हमें प्रस्थान त्रयी दिया ..और तीनों पर ही भाष्य लिखने का आग्रह
शुभम
--- श्री अनिल कुमार त्रिवेदी
इस में तीनों - ब्रह्म सूत्र, गीता और उपनिषदों की आधुनिक संदर्भ में व्याख्या की गई है। तीनों ग्रंथ वास्तव में एक दूसरे के पूरक हैं हाँ अपनी समस्या का समाधान देखते समय अपवाद का भी अपने ध्यान में रखना होगा .
ReplyDeleteis Prasthan trayi a combination of ब्रह्म सूत्र, गीता और उपनिषद? if so, is it availalbe in combination or only separately? if combination is available as one book, shastra where to get it from? email: kapilsood2001@gmail.com
ReplyDeleteजब गीता नहीं थी यह तो द्वापर में आयी तब त्रयी नहीं थी।ज्
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