Thursday, August 30, 2012

भगवान् कपिल का माता देवहुति को ज्ञान प्रदान करना





इस संसार में, विषयों में आसक्त बुद्धि बन्धनकारक होती है और अनासक्त बुद्धि मोक्ष दिलाने वाली होती है। किन्तु भक्ति योग तो आसक्ति को भी रोक देता है। वह भक्ति महान लोगो का अनुगमन करने से प्राप्त होती है। भक्ति ही यहां, इस संसार में, साधना कर के प्राप्त करने योग्य है। इस प्रकार कपिल के रूप में प्रकट हुए आपने देवहुति को कहा। मूल प्रकृति, महत तत्व, अहंकार, पांच तन्मात्राएं (शब्द, स्पर्श, गन्ध, रूप और रस), पञ्च महाभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी), मन (अन्त:करण), दस इन्द्रियां, (पांच ज्ञानेन्द्रियां - सुनना, देखना, स्पर्श करना, और स्वाद लेना), (पांच कर्मेन्द्रियां - जिह्वा, हाथ, पांव, जननेन्द्रिय और बाह्येन्द्रिय), और पचीसवां स्वयं पुरुष (आत्मन), इस प्रकार इन पचीस विभागों को जिसने जान लिया है, वह प्रकृति (माया) से मुक्त हो जाता है। कपिल शरीरी आपने इस प्रकार देवहुति को कहा। प्रकृति के गुण समूह पुरुष को प्रभावित नहीं करते, किन्तु यदि वह स्वयं उन गुणों में आसक्त हो जाता है तब वे गुण उस पुरुष को वशीभूत कर लेते हैं। निरन्तर मेरा भजन करते हुए और सतत मेरे तत्व की जिज्ञासा में लगे हुए पुरुष से प्रकृति हट जाती है। इस प्रकार कपिल शरीरी आपने देवहुति को कहा। जिस मनुष्य ने आसन आदि सिद्धान्तों का अभ्यास कर के निर्मल बुद्धि को पाया है, उसे चाहिये कि फिर वह मेरे उस विग्रह का निरन्तर ध्यान करे, जो गरूड पर आरूढ है, जिसके अङ्ग दिव्य आभूषणों और आयुधों से विभूषित है, और जो तमाल के समान अतुलनीय कान्तिमान है। इस प्रकार कपिल तनु धारी आपने देव्हुति को कह। मेरे गुणो के समूहॊ के बारे में, और मेरी लीलाओं के विषय में अविरल सुनते रहने से, चित्तवृत्ति गङ्गा के प्रवाह के समान निर्मल हो जाती है। यही परम भक्ति है और यही मृत्यु पर विजय प्राप्त करवाने वाली है। इस प्रकार कपिल रूप में अवतरित आपने देवहुति को उपदेश दिया।

प्रस्तुत श्लोक नारायनीयम में से लिए गये हैं , नारायनीयम संक्षिप्त भागवत है , जिसमे केवल १००० श्लोक हैं , नारायनीयम केरल के पंडित मेल्पुतूर नारायण भटादरी जी द्वारा लिखी हुयी है वेद व्यास जी द्वारा रचित श्रीमद भागवत महापुराण{ जिसमे १८००० श्लोक हैं } पर आधारित कृति है ॐ ॐ

No comments:

Post a Comment