Tuesday, October 30, 2012

ईश्वर की ओर जो आकर्षण है, वही प्रेम है


एक कहानी है। राम-लक्ष्मण नाव से गंगा पार कर रहे थे। नाव से उतरने पर देखा कि राम के चरणों के स्पर्श से वह सोने की हो गई है । यह देख नाविक अपने घर दौड़ गया और अपनी स्त्री से बोला, देख तो कैसा कांड हो गया? राम चंद्र के चरण स्पर्श से नौका सोने की हो गई।
तब नाविक की स्त्री ने क्या किया? घर में जितना काठ का सामान था -चौकी, बेलना, पीढ़ी (और जिस पर बैठे रसोई पकाती है) इत्यादि सब लेकर दौड़ी, जहां रामचंद्र थे और रामचंद्र के चरणों मे जो भी छुआ देती, सोना बन जाता। तुम जानते हो कि काठ के सामान से सोना बहुत भारी होता है। लाते समय तो आसानी से काठ के सामान ले आई थी, ले जाने में भारीपन से उसकी पीठ टूटने लगी। अब लेकर जाए कैसे?
तब नाविक ने कहा-''अरी ! तू तो बड़ी मूर्ख है -जिन रामचंद्र के चरण स्पर्श से काठ सोना बनता हैं, उन्हीं चरणों को अपने घर में क
्यों नहीं रख लेती? तब जितनी इच्छा हो -सोना बना लिया करना। मूर्खता मत कर।'' भक्त इस प्रकार की मूर्खता कभी नहीं करेगा । भक्त जानता है कि ईश्वर की जो भी इच्छा हो, दे सकते हैं ।
अपने को स्वयं के भीतर रखो, और किसी के घर जाने की जरूरत नहीं है। तुम चाहोगे, वही पा जाओगे। अपने अंत:करण में खोजो। जो पारसमणि, परम धन समझा जाता है, उससे जो चाहते हैं, सब पा सकते हैं। लेकिन ऐसे कितने मणि तो चिंतामणि के सामने घर के चौखट पर पड़े हुए हैं। जिसके पास सब कुछ है, उनके पास से फि र अन्य वस्तु क्या मांगोगे? क्या मांगना चाहिए ईश्वर से? भक्त कहता है ईश्वर से, मैं तुमको चाहता हूं। पर ईश्वर क्या चाहते हैं भक्त से? वे चाहते हैं कि तू अपना मन मुझे दे दे, बाकी वस्तुएं तुम्हारी ही रहें।

यह तो बस ऐसा ही हुआ कि घर का सब कुछ तुम्हारा रहा, परंतु ताला चाभी मेरी। अर्थात् जब ईश्वर कहते हैं, तू अपना मन मुझे दे दे, बाकी सब तेरा रह जाएगा। तो जब तूने मन ही दे दिया, तो बाकी क्या रहा? जो भी हो, मन ही मांग रहे है ईश्वर। तो जो मनुष्य अपना मन नहीं दे पाता, ईश्वर उसकी ओर से मुंह घुमा लेते हैं।

किंतु मुंह फिराकर भी ईश्वर रह नहीं सकते, क्योंकि जीव उनका अत्यंत प्रिय है। फि र उसकी ओर देखते हैं, फि र कहते हैं-''दे सकेगा, अपना मन?'' यदि जीव ने कहा- ''दे दिया।'' तो ले लेंगे और यदि कहा कि देते नहीं बनता है, तो फि र मुंह फि रा लेंगे। किंतु स्थायी रूप से मुंह फि राकर नहीं रह सकते, पुन: देखने को बाध्य होते हैं।
प्रेम क्या है ? जहां पर आकर्षण किसी क्षुद्र लाभ के प्रति नहीं हैं , आकर्षण केवल वृहत यानि अनंत सत्ता की ओर है , उसी आकर्षण का मानसिक अध्यात्मिक नाम है प्रेम। और यह जो एक वृहत् के प्रति आकर्षण है यही है प्रेम। भक्ति और प्रेम एक ही वस्तु है , जिसके हाथ में भक्ति है उसी के हृदय में प्रेम है। जिसके पास प्रेम है उसी के पास भक्ति है - दोनों एक ही वस्तु है , दोनों में कोई अंतर नहीं है। वस्तुत : किसी वस्तु का भाव जगत से जड़ जगत में उत्सरण होता है , तब मनुष्य उस उत्सरित वस्तु को अच्छी तरह से पहचानने लगता है और प्यार भी करने लगता है। प्रेम है ईश्वर के प्रति आकर्षण , वृहत् के प्रति आकर्षण। जब तक यह प्रेम भावजगत में रहता है , तब तक वह मनुष्य कुछ तो इसको समझ पाता है , कुछ नहीं भी समझ पाता है। कारण है - भाव जगत की चीज। भाव जगत मंे प्रवेश करने पर ही समझ में आती हैं , नहीं तो वह समझ में नहीं आती।
प्रस्तुति : आचार्य दिव्यचेत नानंद

No comments:

Post a Comment