Saturday, October 20, 2012

साष्टांग प्रणाम

साष्टांग प्रणाम

(( आचार्य कश्यप जी के पोस्ट से ))
पद्भ्यां कराभ्यां जानुभ्यामुरसा शिरस्तथा ।
मनसा वचसा दृष्टया प्रणामोऽष्टाङ्ग मुच्यते ॥

हाथ, पैर, घुटने, छाती, मस्तक, मन, वचन, और दृष्टि इन आठ अंगों से किया हुआ प्रणाम अष्टांग नमस्कार कहा जाता है ।

साष्टांग आसन में शरीर के आठ अंग ज़मीन का स्पर्श करते हैं अत: इसे ‘साष्टांग प्रणाम’ कहते हैं.इस आसन में ज़मीन का स्पर्श करने वाले अंग ठोढ़ी, छाती, दोनो हाथ, दोनों घुटने और पैर हैं.आसन के क्रम में इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि पेट ज़मीन का स्पर्श नहीं करे.
विशेष नमस्कार मन, वचन और शरीर से हो सकता है। शारीरिक नमस्कार के 6 भेद हैं-
1. केवल सिर झुकाना।
2. केवल हाथ जोड़ना।
3. सिर झुकाना और हाथ जोड़ना।
4. हाथ जोड़ना और दोनों घुटने झुकाना।
5. हाथ जोड़ना, दोनों घुटने झुकाना और सिर झुकाना।
6. दंडवत प्रणाम जिसमें आठ अंग (दो हाथ, दो घुटने, दो पैर, माथा और वक्ष) पृथ्वी से लगते हैं। और जिसे ‘साष्टांग प्रणाम’ भी कहा जाता है।
प्रणाम करना भक्ति का २५वां अंग है.इस प्रणाम में सर्वतो भावेन आत्मसमर्पण की भावना है . इसमें भक्त अपने को नितांत असहाय जानकार अपने शरीर इन्द्रिय मन को भगवान् के अर्पण कर देता है। जब शरीर को इसी अवस्था में मुंह के बल भूमि पर लिटा दिया जाए तो इसे ‘साष्टांग प्रणाम’ कहते हैं। शरीर की इस मुद्रा में शरीर के छ: अंगों का भूमि से सीधा स्पर्श होता है अर्थात् शरीर मे स्थित छ: महामर्मो का स्पर्श भूमि से होजाता है जिन्हें वास्तुशास्त्र में"षण्महांति" या "छ:महामर्म" स्थान मानाजाता है। ये अंग वास्तुपुरूष के महामर्म इसलिए कहे जाते हैं क्योंकि येशरीर (प्लॉट) के अतिसंवेदनशील अंग होतेहैं।
योगशास्त्र में इन्हीं छ: अंगों में षड्चकों को लिया जाता है। षड्चक्रों काभूमि से स्पर्श होना इन चक्रौं की सक्रियता और समन्वित एकाग्रता को इंगित करता है।
प्रणाम की मुद्रा में व्यक्ति सभी इंद्रियों (पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँचों कर्मेद्रियाँ) को कछुए की भाँति समेटकर अपने श्रद्धेय को समर्पित होता है। उसे ऎसा आभास होता है कि अब आत्म निवेदन और मौन श्रद्धा के अतिरिक्त उसे कुछ नहीं करना। इसे विपरीत श्रद्धेय जब अपने प्रेय (दंडवत प्रणाम करने वाला) को दंडवत मुद्रा में देखता है तो स्वत: ही उसके मनोविकार या किसी भी प्रकार की दूषित मानसिकता धुल जाती है और उसके पास रह जाता है केवल त्याग, बलिदान या अर्पण।
यहाँ पर श्रेय और प्रेय दोनों ही पराकाष्ठा का समन्वय ‘साष्टांग प्रणाम’ के माध्यम से किया गया है।

No comments:

Post a Comment