Friday, October 19, 2012

नवदुर्गा

'शैलपुत्री' 
 दुर्गाजी पहले स्वरूप में 'शैलपुत्री' के नाम से जानी जाती हैं। ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम 'शैलपुत्री' पड़ा। नवरात्र-पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है
शैल पुत्री का अर्थ होता है 'पत्थर' के सामान दृढ पुत्री, देवी शैलपुत्री का वाहन बैल है, देवी पूर्व जनम में दक्ष प्रजापति की पुत्री सती थीं, एक बार प्रजापति दक्ष ने बड़े यज्ञ का आयोजन किया, उसने सभी देवी देवताओं को आमंत्रित किया परन्तु शंकर भगवन को नहीं, सती देवी को बुरा लगा लेकिन फिर भी, वे जाना चाहती थीं तो भगवन शंकर ने उन्हें अकेले जाने की अनुमति दे दी, इससे वे बिना बुलाये अपने पिता के घर यज्ञ में चली आई, लेकिन उनकी बहनों, और पिता, परिजनों ने उनका तिरस्कार किया और उन्हें सम्मान नहीं दिया, उल्टा व्यंग्य करने लगे l
ये सब देख कर सती देवी ने क्रोध, ग्लानी और दुःख के साथ उसी योगाग्नि से स्वयं को भस्म कर दिया, चारों तरफ हाहाकार मच गया और भगवन शिव के गणों ने यज्ञ को विध्वंस कर डाला. सती देवी ने फिर पार्वती के रूप में नया जनम लिया और वे भगवान शिव की अर्धांगिनी बनी शैलपुत्री देवी की पूजा अर्चना से भक्तजन धन -धन्य से पूर्ण हो जाते है शैलपुत्री देवी ने हि दृढ तपस्या करके भगवान् शिव को
पति बना लिया, वे दृढ़ता की प्रतीक हैंl

 देवी ब्रह्मचारिणी
दुर्गा देवी का दूसरा रूप हैं देवी ब्रह्मचारिणी वेद, तत्व, और तप ब्रह्म के ही रूपक हैं, तो इस तरह ब्रह्मचारिणी देवी का अर्थ हुआ जो तपस्या करती हैं ब्रह्मचारिणी देवी ने दायें हाथ में माला और बाएँ हाथ में कमंडल पकड़ रखा है
अपने पिछले जन्म में वे हिमालाय की पुत्री बनी थीं और नारद जी ने उनका हाथ देखकर कहा था की उन्हें भगवन शिव पति के रूप में मिलेंगे परन्तु उन्हें इसके लिए बहुत तपस्या करनी होगी, यह सुनकर देवी ने बहुत कठिन तपस्या करनी शुरू कर दी , जिससे उनका नाम ब्रह्मचारिणी पड़ा वे एक हज़ार वर्षो तक केवल फल खाकर तपस्या करती रहीं , फिर वे कितने ही वर्षों तक तक केवल पत्ते खाकर तपस्या करती रहीं, और खुले आकाश के नीचे गर्मी, ठण्ड, और वर्षा सहती रहीं फिर वे तीन हज़ार वर्षों तक धरती पर गिरे हुए बिल्व पत्तों को खाकर तपस्या करती रहीं , फिर वे कई हज़ार वर्षों तक बिना कुछ खाए या पिए तपस्या करती रहीं और क्यूंकि उन्होंने बिल्व क पत्ते खाना भी बंद कर दिया, तो इसलिए उनका नाम अपर्णा पड़ा उनकी ऐसी घोर तपस्या करने से उनका शरीर बहुत ही दुर्बल हो गया , जिसे देखकर उनकी माता मैना ने कहा 'ऊ ' ' मा' अर्थात ऐसा मत करो , तब से देवी का नाम 'उमा' भी पड़ गया उनकी ऐसी तपस्या से तीनो लोकों में हाहाकार मच गयी उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी प्रकट होकर बोले ' हे देवी, आपके जितनी तपस्या आज तक किसी ने नहीं की है , आपकी तपस्या पूरण हुयी, आपको अवश्य ही भगवान् शिव पति के रूप में मिलेंगे, अब आप घर जाईये आपके पिता आपको लेने आ रहे होंगे '
देवी ब्रह्मचारिणी जी की पूजा करने वाला साधक, कठिन परिस्थितियों में डोलता नहीं , स्वादिष्ठान केंद्र में ध्यान करने वाला साधक, देवी के इस रूप पर ध्यान लगाता है

देवी चंद्रघंटा
नवरात्रों के तीसरे दिन देवी चंद्रघंटा की पूजा की जाती है देवी का यह रूप बहुत ही शान्ति देने वाला है देवी के मस्तक पर अर्ध चन्द्र विराजमान है जो की घंटे की आकृति का है, इसलिए देवी का नाम चंद्रघंटा है देवी के शरीर का रंग सुनहरी है , देवी जी की दस भुजाएं हैं , वे इन भुजाओं में अस्त्र, शास्त्र पकडती हैं देवी चंद्रघंटा का वाहन शेर है उनकी आवाज़ घंटे के सामान तेज़ है, जो की राक्षसों और दैत्यों को डराने वाली है नवरात्र के तीसरे दिन का अपना महत्व है, इस दिन साधक की तपस्या मणिपुर चक्र तक पहुन्हती है तथा साधक, दिव्य वस्तुओं को देख पाने में समर्थ हो जाता है , उसे दिव्य सुघंधा आती है, और वेह दिव्य ध्वनिओं को सुन सकता है , नवरात्र के इस तीसरे दिन साधक को बहुत सावधान रहना चाहिए |
देवी चंद्रघंटा की पूजार्चना करने से साधक के सभी पाप मिट जाते हैं और सभी बाधाएं दूर हो जाती हैं देवी जी के वाहन शेर की तरह देवी चंद्रघंटा जी का साधक भी शेर के सामान हो जाता है देवी जी जब भी फ़रियाद की जाती है तत्क्षण ही अपने भक्त की पुकार सुनती हैं
देवी चंद्रघंटा बुराई के लिए काल स्वरूप हैं लेकिन अपने भक्तों के लिए वे मृदु और सौम्य, कोमल हैं , देवी जी के भक्त भी शूरवीर बन जाते हैं देवी चंद्रघंटा के साधक के शरीर में से दिव्यता का अनुभव होता है, उनके निकट रहने वालों को देवी चंद्रघंटा का पूजन करने से संसार के सभी दुःख मिट जाते हैं और परम सत्य का अनुभव हो जाता है देवी चंद्रघंटा का पूजन करने से हम इसलोक में सुखी और परम सत्य को अनुभव कर सकते हैं

 कुष्मांडा 
कु का अर्थ है 'कुछ ' , उष्मा का अर्थ है 'ताप ' , और अंडा का अर्थ यहाँ है ब्रह्माण्ड , सृष्टि अर्थात जिसके ऊष्मा के अंश से यह सृष्टि उत्पन्न हुई वे देवी कुष्मांडा हैं जब चारों और अन्धकार था , समय की भी उत्पती नहीं हुई थी , तो माँ कुष्मांडा ने अपने संकल्प से सृष्टि का सृजन किया ,इससे पहले तो ' सत् ' और ' असत ' का भी अस्तित्व नहीं था
देवी कुष्मांडा सूर्य लोक के भीतर रहती हैं , और उस स्थान पर कोई और नहीं रह सकता था , देवी जी के शरीर का रंग भी सूर्य के सामान चमकता है , ऐसी चमक और देवी देवताओं में नहीं है
देवी जी की आठ भुजाएं हैं, और सात भुजाओं में वे धनुष , बाण ,कमल, अमृत , चक्र , गदा और कमंडल पकडे रखती हैं और आठवें भुजा में वे माला रखती हैं , जो की अष्ट सिद्धियाँ, और नौं निधियां देतीं हैं संस्कृत में कुष्मांडा का अर्थ होता है कद्दू और देवी को कद्दू का भोग लगाया जाता है , जो की देवी जी को बहुत प्रिय है
नवरात्र के चौथे दिन देवी कुष्मांडा की पूजा की जाती है , इस दिन साधक अनाहत केंद्र में प्रवेश कर जाता है देवी जी की साधना करने से साधक की सभी बीमारियाँ और दुःख दूर हो जाती हैं , साधक की आयु , नाम, बल और स्वास्थ्य बढ़ जाते हैं देवी कुष्मांडा को आसानी से प्रसन्न किया जा सकता है
देवी कुष्मांडा की पूजा शास्त्रों में वर्णित विधि से पूजा करनी चाहिए धीरे धीरे देवी जी की कृपा से साधक को अलौकिक अनुभव होने लगते हैं यह दुखरूपी संसार दिव्य स्थान बन जाएगी देवी जी की पूजा सबसे सरल और उत्तम है देवी कुष्मांडा जी का साधक आसानी से संसार रुपी सागर को पार कर लेते हैं इसलिए साधक को संसार और मुक्ति के लिए देवी कुष्मांडा की पूजा करनी चाहिए
 देवी स्कन्द माता
 नवरात्रों के पांचवें दिन देवी स्कन्द माता की पूजा की जाती है स्कन्द माता , कुमार , या स्कन्द या कार्तिकेय की माता माना जाता है, कार्तिकेय जी को सभी देवों की सम्मति से देवी जी का सेनापति चुना गया , राक्षसों के खिलाफ युद्ध में पुराणों में उनकी बहुत प्रशंसा की गयी है उनका वाहन मोर है
इसलिए स्कन्द जी की माता होने पर उनका नाम स्कन्द माता है नवरात्रों के पांचवें दिन इनकी

पूजा की जाती है इस दिन साधक विशुद्धि चक्र पर ध्यान करता है देवी जी के चित्र में उन्होंने स्कन्द जी को भी गोद में पकड़ा होता है
देवी जी की चार भुजाएं हैं अपनी दायीं ऊपर वाली भुजा में वे स्कन्द ( कार्तिकेय ) जी को पकडे रहती हैं और दायीं नीचे वाली भुजा में वे कमल के फूल को पकडे रहती हैं अपने बाएँ ऊपर वाले हाथ को वे आशीर्वाद की मुद्रा में रखती हैं और बाएँ नीचे वाले हाथ में वे एक और कमल का फूल पकडे रहती हैं देवी जी के शर्रेर का रंग बहुत गोरा है और वे अधिकतर कमल पर विराजमान रहती हैं इसलिए उन्हें पद्मासना भी कहा जाता है
शास्त्रों में देवी जी के पांचवें रूप का बहुत यश गान किया गया है इस दिन साधक की बुद्धि विशुद्ध चक्र में होती है, इसलिए साधक के सभी बहरी और भीतरी क्रियाकलाप बंद हो जाते हैं और दिमाग में विचारों का मंथन भी समाप्त हो जाता है , साधक की बुद्धि शांत सागर की तरह हो जाती है बुद्धि परम सत्य की तरफ प्रेरित होने लगती है , बुद्धि देवी जी के ध्यान में खो जाती है और माया के बन्धनों से पार हो जाती है इस समय साधक को बहुत ही सावधानी से साधना करनी चाहिए
देवी स्कंदमाता जी की पूजा करने से साधक की सभी मनोकामनाएं पोरी हो जाती हैं साधक इस संसार में रहते हुए भी परम आनंद का अनुभव करने लगता है साधक की मुक्ति के द्वार अपने आप ही खुलने लगते हैं देवी जी की पूजा करने से स्कन्द जी की पूजा भी अपने आप ही हो जाती है
देवी जी क्यूंकि सूर्य के भीतर रहती हैं, उनके साधक में भी सूर्य के सामान ओज और तेज आने लगता है साधक एक अदृश्य गोलाकार वृत्त जैसे कवच में रहता है जो की उसकी रक्षा करता है , जो की उसके योग - क्षेम को बनाये रखता है
इसलिए साधक को देवी स्कंदमाता जी की शरण में आना चाहिए और माया के बंधन खोलने का इससे बेहतर तरीका नहीं है

देवी कात्यानी
नवरात्रों के छठे दिन देवी कात्यानी जी की पूजा की जाती है , उनका यह नाम कैसे पड़ा उसकी कथा इस प्रकार है- एक महान ऋषि थे जिनका नाम कत था , उनके पुत्र का नाम कात्या था , इनके ही कुल में कात्यन नाम के ऋषि बहुत प्रसिद्ध हो गए उन्होंने कई वर्षों तक देवी जी को प्रसन्न करने के लिए साधना की , वे देवी जी को पुत्री के रूप में पाना चाहते थे , देवी ने उनकी यह बात स्वीकार की

कुछ देर बाद जब महिषासुर राक्षस ने उत्पात मचा दिया , तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश जी ने अपने तेज से देवी जी का निर्माण किया , लेकिन क्यूंकि वे सबसे पहले कात्यान ऋषि ने उनकी पूजा की थीं , तो इसलिए वे कत्यानी कहलायीं
एक दूसरी कथा भी प्रचलित है , की देवी जी कात्यन ऋषि के घर पुत्री के रूप में जन्मीं थीं और उनका जनम चौदश , अश्विन मॉस के अँधेरे पक्ष में हुआ था , उसी मॉस के उजाले पक्ष में कात्यान ऋषि की तिन दिन की पूजा को स्वीकार करने के बाद ७दिन, आठवें दिन, और नौव्में दिन , उसी महीने के विजयादशमी वाले दिन उन्होंने राक्षस का संहार किया था , देवी कात्यानी जी अपने भक्तों की हर इच्छा पूरी करती हैं
ब्रिज बालाएं, देवी कात्यानी की ही पूजा किया करतीं थी, भगवान् कृष्ण को पति के रूप में प्राप्त करनें के लिए , आज भी ब्रिज क्षेत्र में वे अग्रणी देवी के रूप में पूजी जाती हैं उनका रूप बहुत ही दिव्य और कान्तिमयी है , उनकी ऊपर की दाहिनी भुजा सदैव दर को दूर करने की मुद्रा में होता है , उनकी नीचे की दाहिनी भुजा सदैव आशीर्वाद की मुद्रा में रहती है और उनकी ऊपर की बायीं भुजा म,एं वे तलवार पकडे रहती हैं, और नीचे वाली बायीं भुजा में वे कमल का पुष्प पकडे रहती हैं , उनकी सवारी शेर की है
 नवरात्रि के छठे दिन देवी जी के कात्यानी रूप की पूजा की जाती है , इस दिन साधक आज्ञा चक्र में अपना ध्यान लगाते हैं , यौगिक क्रियाओं में आज्ञा चक्र का बहुत महत्व है आज्ञा चक्र में ध्यान लगा कर और देवी जी को संपूर्ण समर्पण करके साधक देवी जी के साक्षात दर्शन कर सकता है जो साधक देवी कात्यानी जी की साधना मन लगाकर करता है , उसके लिए , धर्म, अर्थ , काम और मोक्ष में से कुछ भी दुर्लभ नहीं ऐहिक संसार में रहते हुए भी साधक अलौकिक प्रभाव से युक्त होता है, साधक सभी बिमारियों, दुखों, और भयों से मुक्त हो जाता है पिछले जन्मों के जमा हुए पापों को समाप्त करने के लिए देवी कात्यानी जी की साधना से बेहतर कुछ भी नहीं , देवी कात्यानी जी का साधक सदैव उनके निकट रहता है और परम पद का अधिकारी बन जाता है

देवी काल्धात्री
नवरात्रों के सातवें दिन देवी काल्धात्री की पूजा की जाती है , देवी जी माँ दुर्गा का सातवाँ रूप हैं उनके शरीर का रंग काले अँधेरे के सामान है , उनके बाल बिखरे हैं उनके गले में एक चमकती हुयी माला है , देवी जी की तीन आँखें हैं जो की अंडाकार हैं , जिनमें बिजली के सामान चमक है , जब देवी जी स्वास लेती हैं या चद्ती हैं तो भयानक ज्वालाएं उत्पन्न होती हैं , देवी की सवारी गधा है और उनका दायाँ ऊपर वाला हाथ सदैव सबके लिए आशीर्वाद की मुद्रा में रहता है और उनका दायाँ नीचे वाला हाथ सदैव भ
यों से मुक्ति प्रदान करने की मुद्रा में रहता है , उनके बाएँ ऊपर वाले हाथ में खडग पकडे रहती हैं और बाएँ नीचे वाले हाथ में खंजर पकडे रहती हैं
देवी जी का बहरी रूप बहुत ही भयानक है , लेकिन वास्तव में देवी जी उतनी ही कल्याणकारी हैं , इसीलिए उनका एक नाम शुभांकारी( शुभ करने वाली ) भी है , इसलिए उनके भक्त उनसे कभी भयभीत नहीं होते
नवरात्रों के सातवें दिन भक्तजन देवी काल्धात्री जी की शास्त्रों में वर्णित विधि से पूजा करते हैं , इस दिन साधक का मन सहस्त्रसार चक्र में पहुँच जाता है , जिससे की इस संसार की सभी सिद्धियों के द्वार उसके लिए खुल जाते हैं , इससे साधक की सारी बाधाएं दूर हो जाती हैं और सभी पाप मिट जाते हैं
माँ काल्द्धात्री पापियों का विनाश करती हैं जब भी साधक माँ काल्धात्री का स्मरण करता है , सभी भूत , राक्षस, दैत्य , दानव, प्रेत , और बुरी आत्माएं भाग जाती हैं देवी काल्धात्री बुरी ग्रह दशाओं का भी अंत करती हैं देवी काल्द्धात्री जी की आराधना करने वाले साधक को कभी अग्नि , जल, जंगली जीव , रात्री, और दुश्मनों से कभी भय नहीं लगता , वह देवी जी के दर्शन करने से ही अपने सभी भय भूल जाता है
देवी काल्द्धात्री जी की पूजा बहुत ही एकाग्रता से करनी चाहिए साधक को सभी यम, नियम और संयम का पालन करना चाहिए , बुद्धि, शब्द और शरीर की पवित्रता देवी जी की आराधना करते समय बहुत आवश्यक है देवी जी शुभ करने वाली , शुभंकारी हैं, उनकी आराधना करने से अगणित लाभ होते हैं..

देवी महागौरी
देवी दुर्गा जी आठवा रूप देवी महागौरी का है , देवी महागौरी का शरीर बहुत ही गोरे रंग का है , इसलिए इनकी तुलना शंख , चन्द्र और कुंद पुष्प से की जाती हैं देवी जी सदैव आठ वर्ष की ही रहती हैं
देवी महागौरी जी के सभी वस्त्र और आभूषण भी सदैव स
फेद रंग के ही होते हैं , देवी जी की चार भुजाएं हैं , देवी जी का वाहन बैल है देवी जी की दायीं ऊपर वाली भुजाआशीर्वाद की मुद्रा में रहता है और नीचे की दायीं भुजा में त्रिशूल और देवी जी का बायां ऊपर वाली भुजामें वे डमरू पकडे रहती हैं और बाएँ नीचे वाली भुजाभय मुक्ति की मुद्रा में रहती है देवी जी का रूप बहुत ही शांत है
देवी जी ने अपने पार्वती के रूप में भगवान् शिव को पति के रूप में पाने के लिए बहुत कठिन तपस्या की थी , इतनी तपस्या करने से उनके शरीर का रंग काला पड़ गया था , और अंत में भगवान् शिव प्रसन्न हो गए और उनकी तपस्या सफल हुयी , फिर भगवान् शिव ने स्वयं देवी जी के शरीर को गंगा जी के पवित्र जल से नहलाया था , जिससे देवी जी का शरीर बहुत ही कान्तिमयी,बिजली के समान गोरे रंग का हो गया , जिससे उनका नाम महागौरी हो गया
नवरात्रों के आठवें दिन देवी महागौरी जी की पूजा करने का विधान है , देवी जी की साधना बहुत जल्दी फल देने वाली है देवी जी की पूजा करने से भक्तों के सभी पाप मिट जाते हैं , और भविष्य में भी साधक कोई पाप नहीं करता
देवी महागौरी जी का ध्यान, स्मरण, आराधना, भक्तों के लिए बहुत ही मंगलमयी है हमें देवी जी का ध्यान करना चाहिए, उनकी आराधना से सभी सिद्धियाँ उनकी कृपा से प्राप्त हो जाती हैं साधक को देवी जी की चरण कमलों पर एकाग्रता से दयां करना चाहिए देवी जी अवश्य ही अपने साधक की सभी दुःख और दर्द दूर करती हैं देवी जी की पूजा करने से साधक असंभव को भी संभव बना देता है इसलिए सभी को देवी जी के चरणों की शरण में जाना चाहिए पुराणों में देवी जी की बहुत स्तुति की गयी है , देवी जी अपने साधक के असत का विनाश करती हैं और उसकी बुद्धि को उन्नत विचारों की ओर प्रेरित करती हैं 

आदिशक्ति मां दुर्गा का नौंवा स्वरूप मां सिद्धिदात्री हैं. नवरात्र-पूजन के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है.

देवी दुर्गा जी के नौवें रूप का नाम देवी सिद्धिधात्री है , वे सभी प्रकार की सिद्धियों को देने में समर्थ हैं मार्कंडेय पुराण के अनुसार आठ प्रकार की सिद्धियाँ होती हैं :

अणिमा
महिमा
गरिमा
लघिमा
प्राप्ति
प्राकाम्य
इशित्वा
वाशित्वा
देवी पुराण के अनुसार भगवान् शिव ने सिद्धियाँ इन्ही देवी की कृपा से प्राप्त की थीं उनकी कृपा से ही वे अर्धनारीश्वर हुए देवी जी की चार भुजाएं हैं उनका वाहन शेर है देवी जी कमल के पुष्प पर विराजमान हैं देवी जी अपने दायें नीचे के हाथ में चक्र धारण किये रहती हैं , और दायें ऊपर वाले हाथ में गदा धारण किये रहती हैं देवी जी अपनेबाएँ नीचे वाले हाथ में शंख धारण किये रहती हैं और बाएँ ऊपर वाले हाथ में कमल का पुष्प धारण किये रहती हैं
नवरात्रों के नौवें दिन देवी सिद्धिधात्री की पूजार्चना की जाती है और इनकी पूजा करने से साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है साधक का संपूर्ण जगत पर अधिकार हो जाता है उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता
हम सबको देवी जी की शरण में जाना चाहिए देवी जी की कृपा से साधक देवी जी की कृपा से दुखों के समुर्न्द्र में भी शांत, और निर्लिप्त रहता है और अंत में मुक्ति के फल को प्राप्त करता है
दुर्गा देवी के नों स्वरूपों में से सिद्धिधात्री देवी सबसे अंतिम रूप हैं नवरात्रों में दुर्गा देवी जी के आठ रूपों की विधि सहित पूजार्चना करने के बाद नौवें दिन भक्तजन सिद्धिधात्री देवी जी की शरण में आते हैं , और नवदुर्गा की पूजा करने के बाद साधक अपनी सभी मनोकामनाओं को देवी जी की कृपा से पा लेते हैं परन्तु सिधिधात्री देवी के प्रिय साधक के मन की सभी इच्छाएं समाप्त हो जातीं हैं वह सब लौकिक अभिलाषाओं से दूर देवी जी के लोक में , आध्यात्मिक रूप से निवास करता है और देवी जी की कृपा का अमृत पान करता है वह वासनाओं से पार पा लेता है और सदैव देवी जी के निकट ही जाने की चेष्ठ करता है , इस स्थिति में पहुन्हाने के बाद उसके लिए कुछ भी पाना असंभव नहीं रहता
 
 
 

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