Monday, October 15, 2012

शिवजी की प्रदोषकाल के अन्तर्गत की गयी पूजा का फल श्रेष्ठ होता है।


शिवजी की प्रदोषकाल के अन्तर्गत की गयी पूजा का फल श्रेष्ठ होता है।
शाण्डिल्य मुनि ने एक दरिद्र पुत्र की माता से कहा- ‘शिवजी की प्रदोषकाल के अन्तर्गत की गयी पूजा का फल श्रेष्ठ होता है। जो प्रदोषकाल में शिव की पूजा करते हैं, वे इसी जन्म में धन-धान्य, कुल-सम्पत्ति से समृद्ध हो जाते हैं। ब्राह्मणी ! तुम्हारा पुत्र पूर्व-जन्म में ब्राह्मण था। इसने अपना जीवन दान लेने में बिताया। इस कारण इस जन्म में इसे दारिद्रय मिला। अब उस दोष का निवारण करने के लिये इसे भगवान शंकर की शरण में जाना चाहिए।’
मुनि के यों कहने पर ब्राह्मणी ने निवेदन किया- ‘मुनिवर ! कृपया आप हमें शिव-पूजन की विधि बताइये।’
शाण्डिल्य मुनि बोले- ‘दोनों पक्षों की त्रयोदशी को मनुष्य मिराहार रहे और सूर्योदय से तीन घड़ी पूर्व स्नान कर ले। फिर श्वेत वस्त्र धारण करके धीर पुरुष संध्या और जप आदि मित्य कर्म की विधि पूरी करे। तदनन्तर मौन हो शास्त्रविधि का पालन करते हुए शिव की पूजा प्रारम्भ करे।
भगवन् विग्रह के आगे की भूमि को खूब लीप-पोतके शुद्ध करे। उस स्थल को धौतवस्त्र, फूल एवं पत्रों से खूब सजाये। इसके पश्चात् पवित्र भाव से शास्त्रोक्त मन्त्र-द्वारा देवपीठ को आमन्त्रित करे। इसके पश्चात् मातृकान्यासादि विधियों को पूर्ण करे। फिर हृदय में अनन्त आदि न्यास करके देवपीठ पर मन्त्र का न्यास करके हृदय में एक कमल की भावना करे।
वह कमल नौ शक्तियों से युक्त परम सुन्दर हो। उसी कमल की कर्णिका में कोटि-कोटि चन्द्रमा के समान प्रकाशमान भगवान् शिव का ध्यान करे।
भगवान् शिव के तीन नेत्र हैं। मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट शोभायमान है। जटाजूट कुछ-कुछ पीला हो रहा है। सर्पों के हार से उनकी शोभा बढ़ रही है। उनके कण्ठ में नीला चिह्न है। उमके हाथ में वरद तथा दूसरे हाथ में अभय-मुद्रा है। वे व्याघ्र-चर्म पहने रत्नमय सिंहासन पर विराजमान हैं। उनके वाम भाग में भगवती उमा का चिन्तन करे।
इस प्रकार युगल दम्पति का ध्यान करके उनकी मानसिक पूजा करे। इसके बाद सिंहासन पर स्थित महादेवजी का पूजन करे। पूजा के आरम्भ में एकाग्रचित्त हो संकल्प पढ़े। तदनन्तर हाथ जोड़कर मन-ही-मन उनका आह्वान करे-’ हे भगवान् शंकर ! आप ऋण, पातक, दुर्भाग्य आदि की निवृत्ति के लिये मुझ पर प्रसन्न हों।
 

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