Tuesday, October 30, 2012

समर्पण भाव

सायंकाल का समय था। ईश्वर का अस्तित्व मानने और प्रचार करने के अपराध में 8वर्ष के बालक प्रह्लाद को आज सब के सामने मृत्यु दंड दिया जाना है। एक बालक के मृत्युदंड को देखने के लिए असंख्य नर- नारी न्यायालय के विस्तृत प्रांगण में एकत्रित हैं। ऊंचे- ऊंचे भवनों के झरोखों से झांक रहीं संभ्रांत नारियां इस करुण दृश्य की कल्पना से ही शोकमग्नहो रही हैं। प्रह्लाद की माता कयाधूकी अन्त‌र्व्यथाका तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता है! पति-पुत्र के इस संघर्ष ने उनके जीवन में तो विष ही घोल दिया है। निश्चित समय पर दो रक्षा-पुरुषों द्वारा प्रह्लाद को दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपुके सम्मुख उपस्थित किया गया। राजा ऊंचे सिंहासन पर विराजमान था।
अभागे बालक! समय है, अब भी अपनी भूल स्वीकार कर ले। मैं संसार में वर्ग-विहीन, धर्म-विहीन, ईश्वर-विहीन समाज की नींव रखने जा रहा हूं। तू व्यर्थ उसमें बाधक न बन। अन्यथा तुम्हें मृत्युदंड
मिलेगा।
क्षमा करें पिताजी,संसार का कोई प्रलोभन, कोई भय प्रह्लाद को अपने मार्ग से नहीं हटा सकता.. प्रह्लाद का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि हिरण्यकशिपुक्रोधावेश में खडा हो गया। वह चिल्ला कर बोला-बस, बंद करो यह बकवास! प्रहरी, ले जाओ इस दुराग्रही को। सिंह का भोजन बनना ही इसके भाग्य में लिखा है।
प्रांगण के मध्य लोहे के विशाल कटघरे में प्रह्लाद नि‌र्द्वन्द्व भाव से मृत्यु की प्रतीक्षा में खडा हो गया। श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव की पावन-ध्वनि अब भी उस के मुख से निकल रही थी। सहसा पहले से ही तैयार पिंजरे का द्वार खोल दिया गया। भूखा सिंह एक ही छलांग में प्रह्लाद के निकट पहुंच गया। करुणा और भय आदि के कारण जनता स्तब्ध हो गई। प्रह्लाद ने सिंह को देखा, तो बांह फैला कर भावावेश में उसके गले से लिपटते हुए बोला, वाह मेरे नाथ, आज तो आप बडे निराले वेश में आए, परंतु मेरी आंखों ने यहां भी आपको पहचान ही लिया, सिंह उसके चरणों को चाटने लगा।
धन्य है, सत्य और ईश्वर प्रेम पर सर्वस्व न्योछावर करने वाला यह बालक, जिसके लिए अंत में प्रभु को नृसिंह अवतार धारण करना ही पडा।
[वीराचार्य शास्त्री]

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