Thursday, October 11, 2012

मनुष्य-जीवन का परम कर्त्तव्य

मनुष्य-जीवन का परम कर्त्तव्य
महात्मा श्री चरणदास जी ने एक जगह लिखा है - एक नगर था l उस नगर में ऐसी प्रथा थी कि एक वर्ष पूरा हो जाने पर उस नगर के राजा को गद्दी से उतार दिया जाता था  और नए राजा को बैठाया जाता था l  पुराने राजा को नाव में बैठाकर नदी पार भीषण वन में अकेला छोड़ दिया जाता था l प्रतिवर्ष इस प्रकार होता था l यों कई मनुष्य राजा बने और वर्ष पूरा हो जाने पर जंगल में जाकर दुःख भोगने लगे  l एक वर्ष तक राज्य-सुख-भोग में वे इतने आसक्त रहते थे कि उन्हें एक वर्ष बाद क्या स्थिति होगी इसकी याद ही नहीं रहती थी l
        एक बार इसी नियमानुसार एक मनुष्य को राजगद्दी मिली l वह बहुत बुद्धिमान था l उसने गद्दी पर बैठते ही पूछा - 'यह कितने दिनों के लिए है ?' कर्मचारियों ने बताया - 'एक वर्ष के लिए है'  l उसने पूछा - 'फिर क्या होगा ?' उसको बताया गया कि 'एक वर्ष पूरा होने के बाद आपसे यह राज्यसत्ता छीन ली जाएगी l  आपकी सारी सम्पत्ति, यहाँ तक कि वस्त्र भी उतार लिए जायेंगे l केवल एक धोती पहने आपको नदी के उस पार बीहड़ वन में अकेले जाना पड़ेगा l नाववाले आपको वहाँ उतार कर लौट आयेंगे l  यही यहाँ की सनातन प्रथा है l ' यह सुनकर उसने सोचा कि 'एक वर्ष तो बहुत है l  इतने समय में तो सब कुछ किया जा सकता है l ' उसने राज्य का भार हाथ में लिया और सावधानी तथा ईमानदारी से न्यायपूर्वक वह प्रजापालन करने लगा , पार एक वर्ष की अवधि को नहीं भूला  l उसने अपने व्यक्तिगत सुखों की कुछ भी परवा नहीं की l नाच-मुजरे, अभिनन्दन-सम्मान, मौज-शौक, खेल-तमाशे आदि व्यर्थ के कार्य सब बंद कर दिए और यह आदेश दे दिया कि 'नदीपार का जंगल काटकर वहाँ बस्ती बसायी जाये l नगर बने l  प्रचुर मात्रा में साधन-सामग्री तथा काम करनेवाले योग्य पुरुष वहाँ भेज दिए जाएँ  l वर्ष पूरा होने के पहले-पहले वहाँ सब व्यवस्था ठीक हो जाये l '
        इस प्रकार आदेश देकर वह अपने काम सँभालने लगा  l  राज्य-सुख भोगने में उसने अपना समय नष्ट नहीं किया l  किन्तु एक वर्ष बाद उसे दुःख भोगना न पड़े और सब सुख-सुविधा बनी रहे, इसके लिए वह प्रयत्न करता रहा l  एक वर्ष की अवधि में वहाँ जंगल की जगह एक छोटा-सा सुन्दर देश बस गया l सब सामग्रियां वहाँ सुलभ हो गयीं l एक वर्ष पूरा हो जाने के बाद उसको गद्दी पर से उतार दिया गया l  वह तो हंस रहा था l उसको किसी बात की चिन्ता न थी l जब नदीपार जाने लगे तो नाविकों ने पूछा -'और वर्ष तो जो लोग जाते थे, सभी रोते थे; आप कैसे हंस रहे हैं ?' उसने कहा - 'भाई ! वे लोग एक वर्ष तक राज्य-सुख भोगते रहे, मौज-मजे करते रहे, विषयानन्द में निमग्न रहे l उन्होंने भविष्य का विचार नहीं किया l
        यह एक दृष्टान्त है l हमको यह देव-दुर्लभ मानव-शरीर एक नियत समय के लिए ही मिला है l  नियत समय पूरा होने पर यह हमसे छीन लिया जायेगा और इसके सारे साज-सामान भी यहीं छूट जायेंगे l जब तक जीवन का यह नियत काल पूरा न हो जाये, तभी तक मानव-जीवन का पूरा लाभ उठा लेना चाहिए l
एक भ्रमर सायंकाल के समय एक कमल पर बैठकर उसका रस पी रहा था l  इतने में सूर्यास्त होने को आ गया l सूर्यास्त होने पर कमल सकुचित हो जाता है l  अत: कमल बंद होने लगा, पर रसलोभी मधुप विचार करने लगा - अभी क्या जल्दी है, रात भर आनन्द से रसपान करते रहें - 'रात बीतेगी l सुन्दर प्रभात होगा l सूर्यदेव उदित होंगे l  उनकी किरणों से कमल पुन: खिल उठेगा, तब मैं बाहर निकल जाऊँगा l ' वह भ्रमर इस प्रकार विचार कर ही रहा था कि हाय ! एक जंगली हठी ने आकर कमल को डंडी समेत उखाड़कर दांतों में दबाकर पीस डाला l यों उस कमल के साथ भ्रमर भी हाथी का ग्रास बन गया l इस प्रकार पता नहीं, कालरूपी हाथी कब हमारा ग्रास कर जाये l मृत्यु आने पर एक श्वास भी अधिक नहीं मिलेगा l मृत्युकाल आने पर एक क्षण के लिए भी कोई जीवित नहीं रह सकता l उस समय कोई कहे कि 'मैंने वसीयतनामा ( Will ) बनाया है  l कागज़ ( Documentary ) तैयार है l केवल हस्ताक्षर करने बाकि हैं l  एक श्वास से अधिक मिल जाय तो मैं सही कर दूँ l ' पर काल यह सब नहीं सुनता l बाध्य होकर मरना ही पड़ता है l  यह है हमारे जीवन कि स्थिति l  अतएव मानव-जीवन कि सफलता के लिए संसार के पदार्थों से ममता उठाकर भगवान् में ममता करनी चाहिए l
          हम प्राणी-पदार्थों में ममता बढ़ाते हैं, पर यह ममता स्वार्थमूलक है l  स्वार्थ में जरा-सा धक्का लगते ही यह ममता टूट जाती है, इसीलिए भगवान् श्री रामचन्द्रजी विभीषण से कहते हैं -'माता,पिता,भाई, स्त्री,शरीर,धन,सुहृद, मकान, परिवार - सब की ममता के धागों को सब जगह से बटोर लो l '  ममता को धागा इसलिए कहा गया है कि उसे टूटते देर नहीं लगती l  फिर उन सब की एक मजबूत डोरी बट लो l उस डोरी से अपने मन को मेरे चरणों से बांध दो  l '  अर्थात मेरे चरण ही तुम्हारे रहे, और कुछ भी तुम्हारा न हो l सारी ममता मेरे चरणों में ही आकर केन्द्रित हो जाय l ऐसा करने से क्या होगा ? ऐसे सत्पुरुष मेरे ह्रदय में वैसे ही बसते हैं, जैसे लोभी के ह्रदय में धन l   अर्थात लोभी के धन की तरह मैं उन्हें अपने ह्रदय में रखता हूँ l अत: संसार के प्राणी-पदार्थों से ममता हटाकर एकमात्र भगवान् में ममता करनी चाहिए l
भगवान् और भोग में बड़ा भारी अन्तर है l उनके स्वरुप साधन और फल के बारे में आपको सात बातें बताता हूँ -
१- भगवान् की प्राप्ति  इच्छा से होती है l इसमें कर्म की अपेक्षा नहीं, अत: यह सहज है l
    भोगों की प्राप्ति में कर्म की अपेक्षा है l प्रारब्ध कर्म के बिना चाहे जितनी प्रबल इच्छा की जाय, भोग नहीं मिलते l
२- भगवान् एक बार प्राप्त हो जाने पर कभी बिछुड़ते नहीं l
     भोग बिना बिछुड़े नहीं रहते l उनका वियोग अवश्यम्भावी है, चाहे भोगों को छोड़कर हम मर जाएँ l
३- भगवान् की प्राप्ति जब होती है, पूरी ही होती है; क्योंकि भगवान् नित्यपूर्ण हैं l
     भोगों की प्राप्ति सदा अधूरी होती है; क्योंकि भोग कभी पूर्ण हैं ही नहीं l
४- भगवान् को प्राप्त करने की इच्छा होते ही पापों का नाश होने लगता है l
     भोगों को प्राप्त करने की इच्छा होते ही पाप होने लगते हैं l
५- भगवान् को प्राप्त करने की साधना में ही शान्ति मिलती है l
     भोगों को प्राप्त करने की साधना में अशान्ति बढ़ जाती है
६- भगवान् का स्मरण करते हुए मरनेवाला सुख-शान्तिपूर्वक मरता है l
    भोगों में मन रखते हुए मरनेवाला अशान्ति और दुःख पूर्वक मरता है l
७- भगवान् को स्मरण करके मरनेवाला निश्चय ही भगवान् को प्राप्त होता है l
     भोगों में मन रखकर मरनेवाला निश्चय ही नरकों में जाता है l

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