Tuesday, October 23, 2012

यज्ञों के गूढ़ रहस्यों के प्रतिपादक हैं आरण्यक

पं.चंद्रशेखर शास्त्री
वेदों के यज्ञीय विधान को स्पष्ट करने वाले ग्रंथ को ब्राह्मण कहा गया है। जिसमें तीन कांड हैं, कर्मकांड, उपासना कांड और ज्ञान कांड। इसके उपासना कांड को आरण्यक कहा गया है। आरण्यकों में ब्रह्मविद्या का विवेचन और यज्ञ के गूढ़ रहस्यों का प्रतिपादन किया गया है। आत्म तत्व, ब्रह्म तत्व, ब्रह्म और आत्मा, प्राण सिद्धान्त, ब्रह्म और जगत, पुनर्जन्म और कर्म सिद्धान्त तथा नैतिक मूल्यों पर इनमें विस्तृत विवेचना है।
ब्रह्मचारी ऋषियों द्वारा वेदों के दुर्गम ज्ञान को प्राणीमात्र के कल्याण के लिए सुलभ बनाने के उद्देश्य से जनशून्य अरण्य(वन) में इस विद्या का अनुसंधानपरक पठन पाठन किया गया, इसलिए इन्हें आरण्यक कहा जाता है।
आरण्यक आध्यात्मिक तत्वों की यथार्थ मीमांसा और ब्रह्मविद्या के रहस्यों को समाहित किए हुए हैं। सूक्ष्म अध्यात्मवाद के कारण नगरीय अथवा ग्रामीण कोलाहल से दूर अरण्यों में ब्रह्मचारी और वानप्रस्थी ऋषि गुरुओं द्वारा अरण्यवासी योग्य शिष्यों को प्रदान किया गया विशिष्ट ज्ञान ही आरण्यक ग्रंथों के रूप में उपलब्ध है।
आरण्यकों के अनुसार संपूर्ण ब्रह्माण्ड यज्ञमय है और यज्ञ ही समस्त सृष्टि का नियन्ता है। प्राण विद्या का विवेचन आरण्यकों का विशिष्ट विषय है। प्राण ही समस्त सृष्टि का आधार है। समस्त जगत प्राण से ही आवृत्त है। उसके द्वारा ही सभी प्राणी धारण किए गए हैं।
आरण्यकों के बिना वेदों को समझ पाना असंभव है। क्यों कि वेद ब्रह्मविद्या का ज्ञान है और ब्रह्मविद्या के रहस्य आरण्यकों में ही छिपे हुए हैं। इनमें जीवन शैली और जप तप के द्वारा ईश्वर को जानने का मार्ग बताया गया है। ये सभी आरण्यक संवाद शैली में लिखे गए हैं। इनमें गुरु उपदेश करता और शिष्य सुनता है। आपस्तंब धर्मसूत्र में तो मंत्र और ब्राह्मण(ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद) का संयोजन ही वेद कहा गया है। 'मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदानामधेयम्।
केवल तीन वेदों के आरण्यक ही उपलब्ध हैं। ऋग्वेद के दो (ऐतरेय आरण्यक एवं शांखायन अथवा कौषीतकी आरण्यक), यजुर्वेद के तीन ( शुक्ल यजुर्वेद का बृहदारण्यक और कृष्ण यजुर्वेद के तैत्तरीय आरण्यक व मैत्रायणी आरण्यक) तथा सामवेद के छान्दोग्यारण्यक व जैमिनीय आरण्यक हैं। इसके अतिरिक्त सामवेद के पूर्वाचिक खंड में आरण्यक संहिता का भी उल्लेख है। अथर्ववेद में कोई आरण्यक नहीं है, पुनरपि पिप्लाद ब्राह्मण के गोपथ ब्राह्मण को अथर्ववेद के आरण्यक के रूप में माना जा सकता है।
ऐतरेय आरण्यक
ऋग्वेद के इस आरण्यक के पांच भाग हैं, जिन्हें आरण्यक ही कहा जाता है। इसके प्रथम आरण्यक में पांच, द्वितीय में सात, तृतीय में दो, चतुर्थ में एक और पांचवें में तीन अध्याय हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इसमें अठारह अध्याय हैं। इसके प्रथमारण्यक में महाव्रत विवेचन है, दूसरे आरण्यक के प्रथम तीन अध्यायों में प्राण विद्या और पुरुष का वर्णन है। चार से षष्ठम आरण्यक तक ऐतरेयोपनिषद है। जिसमें यज्ञ के विधान का विशेष वर्णन है। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार अग्नि, सूर्य और वायु आहुति ग्रहण करते हैं। तीसरे आरण्यक को संहितापनिषद कहा गया है क्यों कि इसमें संहिता, क्रम, पदपाठ वर्णन और स्वर व्यंजन आदि के स्वरूप का विवरण है। चतुर्थ आरण्यक में महाव्रत के पांचवें दिन में प्रयुक्त होने वाली महानाम्नी ऋचाओं का वर्णन है तथा पांचवें आरण्य में महाव्रत के मध्यान्दिन वनक्षेत्र में पढ़े जाने वाले निष्कैवल्य शास्त्र का विवेचन है। ऐतरेय में प्राण को ही विश्वमित्र, वशिष्ठ, वामदेव, अत्रि और भारद्वाज बताया गया है।
शांखायन आरण्यक
इसे कौषतकि आरण्यक भी कहा गया है। यह भी ऋग्वेद का ही आरण्यक है। इसमें कुल पंद्रह अध्याय और 137 खंड हैं। इसके पहले दो अध्यायों को ब्राह्मणभाग माना जाता है और तीन से छ:अध्याय तक कौषीतकि उपनिषद के रूप में जाना जाता है। षष्ठम अध्याय में कुरुक्षेत्र, मत्स्य, उशीनर, काशी, पांचाल, विदेह आदि प्रदेशों का उल्लेख है। दशम अध्याय में यज्ञ के रहस्यों को गूढ़ विधान को और पूजा पद्धति को लक्ष्यकर लिखा गया है। एकादश अध्याय में रोग और मृत्यु पर विजय कैसे पाई जाए और स्वप्न का क्या अर्थ होता है, इस पर विशद वर्णन है। बारहवां अध्याय प्रार्थनाओं के फल पर लिखा गया है। तेरहवें अध्याय में उपनिषदों से अनेक उदाहरण लिए गए हैं। महाव्रत आदि कृत्यों के सहित इसमें भी ऐतरेय आरण्यक के समान ही विषयों का विवेचन किया गया है।
बृहदारण्यक
शुक्ल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण की मध्यान्दिन और काण्व दोनों शाखाओं के अंतिम छ: अध्यायों को बृहदारण्यक कहा जाता है। इसमें आरण्यक और उपनिषद दोनों का मिश्रण है। बृहदारण्यक अन्य आरण्यकों की अपेक्षा अधिक बड़ा है। इसके अध्यायों के भागों को ब्राह्मण कहा गया है। बृहदारण्यक में छ: अध्याय हैं। इसके प्रथम अध्याय में अश्वमेध यज्ञ के रहस्य का विवेचन है। इससे आगे प्रजापति के पुत्र देव और असुरों के विग्रह का वर्णन है। ऋत्विक धर्म का विवेचन है। दूसरे अध्याय में दृप्तबालाकि गार्ग्य और अजातशत्रु का संवाद है। इसी अध्याय के चतुर्थ भाग में याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का विश्वप्रसिद्ध संवाद है। तीसरे और चौथे अध्याय में जनक और याज्ञवल्क्य का संवाद है। पांचवें अध्याय में उपासना के प्रकार और गायत्री की उपासना पर विशद विवेचन है। छठे अध्याय में पंचाग्नि विद्या और संतानोत्पत्ति पर विवेचना है। इसमें आत्म तत्व का विस्तृत उपदेश है और बीच बीच में यज्ञ के रहस्यों का वर्णन है।
मध्यान्दिन और काण्व दोनों ही शाखाओं के बृहदारण्यकों में याज्ञवल्क्य और जनक का संवाद तथा ब्रह्मवादिनी मैत्रेयी व गार्गी का संवाद है।
तैत्तरीय आरण्यक
यह कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तरीय शाखा का आरण्यक है। इसमें दस प्रपाठक या परिच्छेद (भाग)हैं। हर प्रपाठक के कई अनुवाक (अध्याय) हैं, कुल मिलाकर 170 अनुवाक हैं। सातवें से नौवें प्रपाठक को तैत्तरीयोपनिषद कहा जाता है। दशम प्रपाठक महानारायणीयोपनिषद है। जिसे तैत्तरीय आरण्यक का परिशिष्ट माना जाता है। इसके प्रथम प्रपाठक में अग्नि की उपासना और इष्ट चयन का वर्णन है। दूसरे प्रपाठक में स्वाध्याय और पंच महायज्ञों के विधान का वर्णन है। तीसरे प्रपाठक में चतुर्होम के उपयोगी मंत्रों का विवेचन है और चतुर्थ प्रपाठक में अभिचारपरक मंत्रों का वर्णन है। पंचम प्रपाठक में यज्ञीय संकेत भाषा का वर्णन है। षष्ठम प्रपाठक में पितृमेध संबंधी मंत्रों का वर्णन है। सप्तम प्रपाठक में यज्ञोपवीत और यज्ञ विधान पर विस्तृत चर्चा है।
मैत्रायणी आरण्यक
यह कृष्ण यजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा से संबंधित है। इसे मैत्रायणी उपनिषद भी कहा जाता है। इसमें सात प्रपाठक हैं। पांचवें प्रपाठक से कैत्सायनी स्तोत्र का प्रारंभ होता है। इसमें ईश्वर को अग्नि और प्राण बताते हुए उन पर विस्तृत विवेचन किया गया है। इसमें विश्व सृष्टि का उपाख्यान है। प्रकृति के सत्व, रजस और तमस गुणों का संबंध ब्रह्म, विष्णु और रुद्र से किया गया है। इसमें ऋग्वेद के साथ साथ सांख्य दर्शन के सिद्धांतों को भी समन्वित किया है। इस आरण्यक का विषय विवेचन तीन प्रश्नों के रूप में प्रकट होता है, पहला- आत्मा भोतिक शरीर में किस प्रकार प्रवेश पाता है। दूसरा- परमात्मा किस प्रकार भूतात्मा बनता है और तीसरा- दु:खात्मक स्थिति से मुक्ति किस प्रकार मिल सकती है।
तवल्कार आरण्यक
सामवेद की जैमिनीय शाखा से संबंधित इस आरण्यक को जैमिनीय आरण्यक भी कहते हैं। इसमें चार अध्याय हैं। जिनमें साम मंत्रों का सुंदर विवेचन किया गया है। इस आरण्यक के चतुर्थ अध्याय को केनोपनिषद भी कहते हैं। ब्रह्म और परब्रह्म पर इसमें विस्तृत चर्चा की गई है। तवल्कार में ब्रह्म के रहस्यमय स्वरूप का विवेचन किया गया है। परब्रह्म की सर्वशक्तिमत्ता का विवेचन भी किया गया है। तवल्कार में वायु, अग्नि आदि को ब्रह्म का ही विकसित रूप कहा गया है और जीवात्मा को परब्रह्म का अंश बताया गया है।
छान्दोग्य आरण्यक
सामवेद के ताण्ड्य ब्राह्मण से संबंधित इस ब्राह्मण में दस अध्याय हैं, प्रथम दो को आरण्यक कहा गया है, जो आख्यायिका स्वरूप है। इसके शेष आठ अध्याय और 143 खंड छांदोग्य उपनिषद कहे जाते हैं। इसमें ओंकार उपासना, साम उपासना, मधु विद्या, ब्रह्म उपासना, इंद्रिय परीक्षा, अश्वपति और उद्दालक संवाद और दहर ब्रह्म की उपासना के आख्यान हैं। सामन् और उद्गीथ की आध्यात्मिक दृष्टि से व्याख्या की गई है। इसमें तत्वज्ञान और तदुपयोगी कर्म और उपासनाओं का विस्तृत वर्णन है। इसमें अमृत विद्या भी विवेचन है। विश्व समाज को प्रसिद्ध वेदान्त वाक्य तत्वमसि इसी से प्राप्त हुआ है।
आरण्यक : एक दृष्टि
ऐतरेय आरण्यक: 5 आरण्यक, 18 अध्याय
शांखायन आरण्यक : 15 अध्याय, 137 खंड
बृहद आरण्यक : 6 अध्याय, 47 ब्राह्मण
तैत्तरीय आरण्यक : 10 प्रपाठक, 170 अनुवाक
मैत्रायणी आरण्यक : 7 प्रपाठक
छान्दोग्य आरण्यक : 10 अध्याय
तवल्कार आरण्यक : 4 अध्याय

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