आज संस्कृतदिन ! जिस देववाणी संस्कृतने
मानवको ईश्वरप्राप्तिका मार्ग दिखाया, उस देववाणीको ही कृतघ्न मानव विशेषतः
स्वातंत्र्योत्तर कालमें भारतके सर्वपक्षीय राजनेता नष्ट करनेका प्रयास कर
रहे हैं । ये प्रयत्न कुचलने के लिए हर एक को संस्कृत भाषाका सौंदर्य तथा
उसकी महानता समझनी चाहिए ।
संस्कृत भाषाकी निर्मिति !
‘संस्कृत’ भाषा कैसे तैयार हुई, यह बताते हुए पश्चिमी लोगोंके प्रभावमें आए हुए कुछ लोग कहते हैं, ‘प्रथम मानवको ‘अपने मुखसे ध्वनि निकलती है’, यह समझा । उस ध्वनिकी पहचान, पहचानके चिह्न एवं उन चिह्नोंके अक्षर बनें । उनसे वर्णमाला, वस्तुओंके नाम, इस प्रकारसे सर्व भाषाओंके साथ संस्कृत भाषा भी निर्माण हुई ।’ अर्थात् यह सब मिथ्या है । ईश्वरके संकल्पसे ही इस सृष्टिका निर्माण हुआ । मानवकी सृष्टिके पश्चात् मानवके लिए जो कुछ भी आवश्यक था वह सर्व उस ईश्वरने ही दिया । इतना ही नहीं, मानवको समयके अनुसार आगे जानेकी आवश्यकता पडनेपर, वह भी देनेकी उसने व्यवस्था की है । सृष्टिकी निर्मितिके पूर्व ही ईश्वरने मनुष्यको मोक्ष प्राप्तिके लिए उपयोगी तथा चैतन्यमय ऐसी एक भाषा भी निर्माण करके दी और इस भाषाका नाम है ‘संस्कृत’ । जिसमें प्रचुर शब्दभंडार है; इस भाषामें ‘स्त्री’के लिए नारी, अर्धांगिनी, वामांगिनी, वामा, योषिता, ऐसे अनेक शब्द संस्कृतमें हैं । यह प्रत्येक शब्द स्त्रीकी सामाजिक, कौटुंबिक तथा धार्मिक भूमिका दर्शाता है । संस्कृत भाषाका शब्द भंडार इतना प्रचुर है कि, उसकी जानकारी लेनेके लिए एक जीवन अपूरा है ।’
१. संस्कृत,यह भाषा ईश्वरनिर्मित है !..
हमारी वैदिक परंपराने स्वयंमें विश्वसंरचनासे लेकर साद्यंत(संपूर्ण) इतिहास जतन कर रखा है । पहले सर्वत्र शून्य था; तत्पश्चात् आकाशमें ‘ॐ’ ध्वनिका निनाद हुआ एवं शेषशायी श्रीविष्णु प्रकट हुए । उनकी नाभिसे ब्रह्मदेव प्रकट हुए; तदुपरांत प्रजापति, मातृका, धन्वंतरी, गंधर्व, विश्वकर्मा इत्यादि प्रकट हुए । उसी समय ईश्वरने ऐसे वेद उपलब्ध किए जिसमें समस्त विश्वका ज्ञानभांडार समाया हुआ है । वेद संस्कृत भाषामें है । संस्कृत ‘देववाणी’ है । जिस प्रकार वेद अपौरुषेय यानी ईश्वरप्रणीत है, उसीप्रकार संस्कृत भाषाभी ईश्वरकी रचना है । उसकी रचना और लिपि ईश्वरद्वारा रचित है, अत: उस लिपिको भी ‘देवनागरी’ कहते है । संस्कृत भाषाके सारे संबोधनभी देवभाषामें हैं ऐसा स्पष्ट है, उदा. ‘गीर्वाणभारती’ उसमेंका ‘गीर्वाण’ शब्दका अर्थ है ‘देव’ ।
इस सृष्टिकी संरचना ईश्वरीय संकल्पसे हुई है । मनुष्यकी रचनाके पश्चात् मनुष्यको आवश्यकतानुसार सब कुछ उस ईश्वरने ही दिया । इतना ही नहीं, मानवको कालानुसार आगे जिस वस्तुकी भी आवश्यकता होगी वह देनेकी व्यवस्था भी उस परमपिता परमेश्वरने की है । सृष्टिकी संरचनासे पूर्व ही ईश्वरने मनुष्यको मोक्षप्राप्तिके लिए उपयोगी तथा चैतन्यसे ओतप्रोत (भरी हुई) ऐसी एक भाषा तैयार की... जिसका नाम है ‘संस्कृत’ !
आद्यमानव मनु तथा शतरूपा को ब्रह्मदेवने संस्कृत सिखाई । ब्रह्मदेवने अपने मानसपुत्र अत्री, वसिष्ठ, गौतमादि ऋषियोंको भी वेद एवं संस्कृत भाषा सिखाई ।
२. दत्तगुरुने संस्कृत भाषाकी पुनर्रचना की !
त्रेतायुगमें जीवकी शब्दातीत ज्ञान ग्रहण करनेकी क्षमता क्षीण हो गई ; शब्दोंके माध्यमसे जीवको ज्ञान प्राप्त होकर मोक्षप्राप्ति सुलभतासे हो, इसके लिए दत्तगुरुने संस्कृत भाषाकी पुनर्रचना की ।
३. द्वापारयुगतक संस्कृत विश्वभाषा रही !..
सत्य, त्रेता और द्वापर इन तीनों युगोंमें संस्कृत ही विश्वभाषा थी । इसीलिए इस भाषाको ‘विश्ववाणी’ भी कहते हैं । कौरव - पांडवोंके समयतक संस्कृत ही विश्वकी एकमेव भाषा थी !
जिसमें एक प्राणीके, वस्तुके तथा भगवानके अनेक नाम हैं ऐसी है हमारी संस्कृत भाषा !
संस्कृतमें प्राणी, वस्तु इत्यादिको अनेक नाम देनेकी प्रथा थी । उदा. बैलके बलद, वृषभ, गोनाथ ऐसे ६० से अधिक; हांथीके गज, कुंजर, हस्तिन, दंतिन, वारण ऐसे १०० से अधिक; सिंहके वनराज, केसरीन, मृगेंद्र, शार्दूल ऐसे ८० से अधिक; पानीके जल, जीवन, उदक, पय, तोय, आप; सोनेके स्वर्ण, कंचन, हेम, कनक, हिरण्य आदि नाम हैं ।’ सूर्यके १२ नाम, विष्णु सहस्रनाम, गणेश सहस्रनाम कुछ लोगोंको स्मरण भी होंगे । उनमें से प्रत्येक नाम उस देवताकी एक-एक विशेषताही दर्शाता है ।
वाक्यके शब्द आगे पीछे करनेपर भी, अर्थ न बदलना !
वाक्यमें शब्द कहीं भी हों, तो भी वाक्यका अर्थ नहीं बदलता, उदा. ‘रामः आमं्र खादति ।’ अर्थात् ‘राम आम खाता है’, यह वाक्य आगे दिए अनुसार वैâसा भी लिखें तो भी अर्थ वही रहता है - ‘आमं्र खादति रामः ।’ ‘खादति रामः आमं्र ।’ इसके विपरीत अंग्रेजीके वाक्यमें शब्दोंका स्थान बदलनेपर अलगही (निराला) अर्थ हो जाता है । उदा. ‘Rama eats mango.’ अर्थात् ‘राम आम खा रहा है’, यह वाक्य ‘mango eats Rama.’ (ऐसा लिखनेपर उसका अर्थ होता है, ‘आम राम को खाता है ।’) जहां संस्कृतका अध्ययन होता है, वहां संस्कृति वास करती है । (‘ऐसी देववाणी संस्कृतके उच्चारण भी यदि कानमें पडते हैं, तो आनंद होता है ।’) संस्कृतिः संस्कृताश्रिता; ऐसा कहते हैं । इसका अर्थ है, ‘संस्कृति संस्कृतके आश्रयमें ही होती है’, अर्थात् जहां संस्कृतका अध्ययन होता है, वहां संस्कृति वास करती है । संस्कृतका अभ्यास करनेवाला व्यक्ति संस्कृतिशील एवं सौजन्यशील होता है ।’
एकात्म भारतकी पहचान !
‘प्राचीन कालसे संस्कृत अखिल भारतकी भाषाके रूपमें पहचानी जाती थी । कश्मीरसे लंकातक एवं गांधारसे मगधतक के विद्यार्थी नालंदा, तक्षशिला, काशी आदि विद्यापीठोंसे अनेक शास्त्र तथा विद्याका अध्ययन करते थे । इस भाषाके कारणही रूदट, वैâय्यट, मम्मट इन कश्मीरी पंडितोंके ग्रंथ रामेश्वरतक प्रसिद्ध हुए । आयुर्वेदके ज्ञाता चरक पंजाबके, सुश्रुत वाराणसीके, वाग्भट सिंधके, कश्यप कश्मीरके तथा वृंद महाराष्ट्रके ये सभी संस्कृतके कारण ही भारतमान्य हुए ।’ राष्ट्रभाषा संस्कृत होती, तो राष्ट्रभाषाके लिए झगडे न हुए होते !
संस्कृत भाषाकी निर्मिति !
‘संस्कृत’ भाषा कैसे तैयार हुई, यह बताते हुए पश्चिमी लोगोंके प्रभावमें आए हुए कुछ लोग कहते हैं, ‘प्रथम मानवको ‘अपने मुखसे ध्वनि निकलती है’, यह समझा । उस ध्वनिकी पहचान, पहचानके चिह्न एवं उन चिह्नोंके अक्षर बनें । उनसे वर्णमाला, वस्तुओंके नाम, इस प्रकारसे सर्व भाषाओंके साथ संस्कृत भाषा भी निर्माण हुई ।’ अर्थात् यह सब मिथ्या है । ईश्वरके संकल्पसे ही इस सृष्टिका निर्माण हुआ । मानवकी सृष्टिके पश्चात् मानवके लिए जो कुछ भी आवश्यक था वह सर्व उस ईश्वरने ही दिया । इतना ही नहीं, मानवको समयके अनुसार आगे जानेकी आवश्यकता पडनेपर, वह भी देनेकी उसने व्यवस्था की है । सृष्टिकी निर्मितिके पूर्व ही ईश्वरने मनुष्यको मोक्ष प्राप्तिके लिए उपयोगी तथा चैतन्यमय ऐसी एक भाषा भी निर्माण करके दी और इस भाषाका नाम है ‘संस्कृत’ । जिसमें प्रचुर शब्दभंडार है; इस भाषामें ‘स्त्री’के लिए नारी, अर्धांगिनी, वामांगिनी, वामा, योषिता, ऐसे अनेक शब्द संस्कृतमें हैं । यह प्रत्येक शब्द स्त्रीकी सामाजिक, कौटुंबिक तथा धार्मिक भूमिका दर्शाता है । संस्कृत भाषाका शब्द भंडार इतना प्रचुर है कि, उसकी जानकारी लेनेके लिए एक जीवन अपूरा है ।’
१. संस्कृत,यह भाषा ईश्वरनिर्मित है !..
हमारी वैदिक परंपराने स्वयंमें विश्वसंरचनासे लेकर साद्यंत(संपूर्ण) इतिहास जतन कर रखा है । पहले सर्वत्र शून्य था; तत्पश्चात् आकाशमें ‘ॐ’ ध्वनिका निनाद हुआ एवं शेषशायी श्रीविष्णु प्रकट हुए । उनकी नाभिसे ब्रह्मदेव प्रकट हुए; तदुपरांत प्रजापति, मातृका, धन्वंतरी, गंधर्व, विश्वकर्मा इत्यादि प्रकट हुए । उसी समय ईश्वरने ऐसे वेद उपलब्ध किए जिसमें समस्त विश्वका ज्ञानभांडार समाया हुआ है । वेद संस्कृत भाषामें है । संस्कृत ‘देववाणी’ है । जिस प्रकार वेद अपौरुषेय यानी ईश्वरप्रणीत है, उसीप्रकार संस्कृत भाषाभी ईश्वरकी रचना है । उसकी रचना और लिपि ईश्वरद्वारा रचित है, अत: उस लिपिको भी ‘देवनागरी’ कहते है । संस्कृत भाषाके सारे संबोधनभी देवभाषामें हैं ऐसा स्पष्ट है, उदा. ‘गीर्वाणभारती’ उसमेंका ‘गीर्वाण’ शब्दका अर्थ है ‘देव’ ।
इस सृष्टिकी संरचना ईश्वरीय संकल्पसे हुई है । मनुष्यकी रचनाके पश्चात् मनुष्यको आवश्यकतानुसार सब कुछ उस ईश्वरने ही दिया । इतना ही नहीं, मानवको कालानुसार आगे जिस वस्तुकी भी आवश्यकता होगी वह देनेकी व्यवस्था भी उस परमपिता परमेश्वरने की है । सृष्टिकी संरचनासे पूर्व ही ईश्वरने मनुष्यको मोक्षप्राप्तिके लिए उपयोगी तथा चैतन्यसे ओतप्रोत (भरी हुई) ऐसी एक भाषा तैयार की... जिसका नाम है ‘संस्कृत’ !
आद्यमानव मनु तथा शतरूपा को ब्रह्मदेवने संस्कृत सिखाई । ब्रह्मदेवने अपने मानसपुत्र अत्री, वसिष्ठ, गौतमादि ऋषियोंको भी वेद एवं संस्कृत भाषा सिखाई ।
२. दत्तगुरुने संस्कृत भाषाकी पुनर्रचना की !
त्रेतायुगमें जीवकी शब्दातीत ज्ञान ग्रहण करनेकी क्षमता क्षीण हो गई ; शब्दोंके माध्यमसे जीवको ज्ञान प्राप्त होकर मोक्षप्राप्ति सुलभतासे हो, इसके लिए दत्तगुरुने संस्कृत भाषाकी पुनर्रचना की ।
३. द्वापारयुगतक संस्कृत विश्वभाषा रही !..
सत्य, त्रेता और द्वापर इन तीनों युगोंमें संस्कृत ही विश्वभाषा थी । इसीलिए इस भाषाको ‘विश्ववाणी’ भी कहते हैं । कौरव - पांडवोंके समयतक संस्कृत ही विश्वकी एकमेव भाषा थी !
जिसमें एक प्राणीके, वस्तुके तथा भगवानके अनेक नाम हैं ऐसी है हमारी संस्कृत भाषा !
संस्कृतमें प्राणी, वस्तु इत्यादिको अनेक नाम देनेकी प्रथा थी । उदा. बैलके बलद, वृषभ, गोनाथ ऐसे ६० से अधिक; हांथीके गज, कुंजर, हस्तिन, दंतिन, वारण ऐसे १०० से अधिक; सिंहके वनराज, केसरीन, मृगेंद्र, शार्दूल ऐसे ८० से अधिक; पानीके जल, जीवन, उदक, पय, तोय, आप; सोनेके स्वर्ण, कंचन, हेम, कनक, हिरण्य आदि नाम हैं ।’ सूर्यके १२ नाम, विष्णु सहस्रनाम, गणेश सहस्रनाम कुछ लोगोंको स्मरण भी होंगे । उनमें से प्रत्येक नाम उस देवताकी एक-एक विशेषताही दर्शाता है ।
वाक्यके शब्द आगे पीछे करनेपर भी, अर्थ न बदलना !
वाक्यमें शब्द कहीं भी हों, तो भी वाक्यका अर्थ नहीं बदलता, उदा. ‘रामः आमं्र खादति ।’ अर्थात् ‘राम आम खाता है’, यह वाक्य आगे दिए अनुसार वैâसा भी लिखें तो भी अर्थ वही रहता है - ‘आमं्र खादति रामः ।’ ‘खादति रामः आमं्र ।’ इसके विपरीत अंग्रेजीके वाक्यमें शब्दोंका स्थान बदलनेपर अलगही (निराला) अर्थ हो जाता है । उदा. ‘Rama eats mango.’ अर्थात् ‘राम आम खा रहा है’, यह वाक्य ‘mango eats Rama.’ (ऐसा लिखनेपर उसका अर्थ होता है, ‘आम राम को खाता है ।’) जहां संस्कृतका अध्ययन होता है, वहां संस्कृति वास करती है । (‘ऐसी देववाणी संस्कृतके उच्चारण भी यदि कानमें पडते हैं, तो आनंद होता है ।’) संस्कृतिः संस्कृताश्रिता; ऐसा कहते हैं । इसका अर्थ है, ‘संस्कृति संस्कृतके आश्रयमें ही होती है’, अर्थात् जहां संस्कृतका अध्ययन होता है, वहां संस्कृति वास करती है । संस्कृतका अभ्यास करनेवाला व्यक्ति संस्कृतिशील एवं सौजन्यशील होता है ।’
एकात्म भारतकी पहचान !
‘प्राचीन कालसे संस्कृत अखिल भारतकी भाषाके रूपमें पहचानी जाती थी । कश्मीरसे लंकातक एवं गांधारसे मगधतक के विद्यार्थी नालंदा, तक्षशिला, काशी आदि विद्यापीठोंसे अनेक शास्त्र तथा विद्याका अध्ययन करते थे । इस भाषाके कारणही रूदट, वैâय्यट, मम्मट इन कश्मीरी पंडितोंके ग्रंथ रामेश्वरतक प्रसिद्ध हुए । आयुर्वेदके ज्ञाता चरक पंजाबके, सुश्रुत वाराणसीके, वाग्भट सिंधके, कश्यप कश्मीरके तथा वृंद महाराष्ट्रके ये सभी संस्कृतके कारण ही भारतमान्य हुए ।’ राष्ट्रभाषा संस्कृत होती, तो राष्ट्रभाषाके लिए झगडे न हुए होते !
‘राष्ट्रभाषा कौनसी हो’, इसके लिए संसदमें विवाद हुए । दक्षिण भारतने
हिंदीका कडा विरोध किया । एक फ्रेंच तत्त्वज्ञने कहा, ‘‘अरे आप क्यों झगडते
हैं ? संस्कृत आपकी राष्ट्रभाषा ही है । वही शुरू कीजिए ।’’ संस्कृतके
समान पवित्र देवभाषा आपने छोड दी । फिर झगडे नहीं होंगे तो क्या ? आज
संपूर्ण हिंदुस्तानमें कहर है ।’
सर्व भाषाओंकी जननी संस्कृत (संस्कृत अ-मृत है !)
इन संस्कृद्वेषियोंको यह ध्यानमें रखना
चाहिए , ‘देववाणीका ध्वज अब जागतिक स्तरपर पहुंचनेके साथही उसका सारा श्रेय
साढे तीन प्रतिशत वालोंको ही (ब्राह्मणोंको ही) है ।’ किसीने कितनी भी नाक
सिकोडी तो भी सर्व भाषाओंकी जननी संस्कृत भाषा पौर्वात्यही नहीं, अपितु पश्चिमात्योंकोभी आकर्षित कर रही है
! भारतकी ही नहीं, अपितु संसारकी मूल भाषा संस्कृत है तथा उससे निकली हुई
सभी भाषाएं प्राकृत हैं ! संस्कृत देवभाषा होनेके कारण उसमें अपार चैतन्य
है, वह अ-मृत है, अमर है !!’
संस्कृतका महत्त्व समझकर उसका लाभ लेनेवाले विदेशी !
अ. २६.४.२००७
को भारतके भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ग्रीस देशमें गए थे ।
वहांके एक स्वागत समारंभमें ग्रीसके राष्ट्रपति कार्लोस पाम्पाडलीस
इन्होंने ‘राष्ट्रपतिमहाभाग ! सुस्वागतं यवनदेशे !’, इस संस्कृत वाक्यसे
अपने भाषणका प्रारंभ किया । अपने भाषणमें उन्होंने संस्कृत यह प्राचीन भारत
की भाषा होकर इस भाषाका संबंध ग्रीक भाषासे भी है ऐसा बताया ।
आ.
जुलाई २००७ में ‘अमेरिकी सिनेट’का प्रारंभ वैदिक प्रार्थनासे हुआ । पिछले
२१८ वर्षोंके अमेरिकाके इतिहासमें प्रथमही यह घटना घटी । ‘ॐ शांति: शांति:
शांति: ।’ ऐसी संस्कृतकी प्रार्थना बोलकर संस्कृतको ‘मृतभाषा’ कहनेवाले
नेहरू-गांधी कुटूंबको अमेरीका सिनेटने तमाचा लगाया है ।
इ.
अमेरीकाके विद्यापीठमें भी संस्कृतका अध्ययन और अध्यापन पिछले अनेक
वर्षोंसे चल रहा है । वहांके केलिफोर्निया विद्यापिठमें सन् १८९७ सेही
संस्कृत भाषा पढाई जा रही है ।
ई.
२७ अगस्त २००७ से चालू होनेवाले केलिफोर्निया सिनेटका प्रारंभ संस्कृत
मंत्रोच्चारसे हुआ । उसके पश्चात् न्यू जर्सी सिनेटका भी प्रारंभ संस्कृत
मंत्रोच्चारसे हुआ ।
उ. मेरीलैंड
(अमेरिका) विद्यापिठके विद्यार्थीयोंने ‘संस्कृतभारती’ इस नामसे एक गुट
तैयार किया है । उस नामसे उन्होंने एक जालस्थानभी (www.speaksanskrit.org)
प्रारंभ किया है ।
ऊ. ११ अपै्रल २०१० इस दिन अमेरिकाकी सिनेटका प्रारंभ संस्कृत श्लोकपठनसे हुआ ।
संसारके सभी उदात्त विचारोंका उगम संस्कृत भाषामेंही है । संस्कृत यह
अत्यंत परिपूर्ण, शास्त्रशुद्ध तथा हजारों वर्ष बितनेपरभी जैसी की वैसी
जिवित रहनेवाली एकमेव भाषा है ! - पाश्चात्त्य विद्वान तथा विद्यापिठोंके
अभ्यासक.
No comments:
Post a Comment