माँ सरस्वती के स्वरुप वर्णन में ही सच्चे सारस्वत के लिए मार्गदर्शन है...
याकुंदेंदुतुषारहार धवला सरस्वती कुंद , इंदु , तुसार और मुक्ताहार जैसी धवल हैं ; सच्चा सारस्वत भी वैसा ही होना चाहिए कुंद पुष्प सौरभ प्रसारता है ...इंदु
याकुंदेंदुतुषारहार धवला सरस्वती कुंद , इंदु , तुसार और मुक्ताहार जैसी धवल हैं ; सच्चा सारस्वत भी वैसा ही होना चाहिए कुंद पुष्प सौरभ प्रसारता है ...इंदु
( चन्द्रमा ) शीतलता देता है ...तुसारविन्दु ( ओश ) सृष्टि का सौंदर्य बढाता है ...और मुक्ताहार व्यवस्था का वैभव प्रकट करता है
सच्चे सारस्वत का जीवन सौरभ युक्त होना चाहिए ...पुष्प की सुगंध जिस प्रकार सहज प्रसरती है उसी प्रकार उसी प्रकार सारस्वत के निर्मल ज्ञान की सुगंध वातावरण में चाहू ओर प्रसरती रहनी चाहिए
....चन्द्र जिस प्रकार विश्व में शांति व शीतलता प्रदान करता है उसी प्रकार सारस्वत मानवों के संतप्त जीवन में शांति व शीतलता प्रदाता होना चाहिए ....
वृक्षों के पत्तों पर पड़ा ओश विन्दु जिस प्रकार मोती की शोभा धारण कर के वृक्ष के सौंदर्य को बढाता है उसी प्रकार सच्चे सारस्वत की उपस्थिति से इस संसार वृक्ष की शोभा बढती है
हार अर्थात मुक्ताहार ...एक मोती की तुलना में मोतियों का हार ज्यादा अच्छा लगता है ...सरस्वती के उपासकों को भी इस तरह एक साथ , एक सूत्र में बंध कर काम करने की तैयारी रखनी चाहिए ....विद्वानों की शक्ति का ऐसा व्यवस्थित योग किसी भी महँ कार्य को सुसाध्य बना सकता है ...एक एक विद्वान एक -एक मोती हैं
...लेकिन वो यदि भगवान के सूत्र में पिरोये जाएँ तो उनकी शक्ति अनेकों गुनी बढ़ जाए ...
या शुभ्र वस्त्रावृतामाँ सरस्वती श्वेत वस्त्र धारण किये हुए हैं .. माँ सरस्वती का उपासक भी शरीर , मन, वाणी व कर्म से शुभ्र होना चाहिए ...
माँ सरस्वती के उपासक अर्थात वो सभी जिनको जीवन में ज्ञान की महत्ता सर्वश्रेष्ट लगती हो ...वो सभी जो मानते हों की ...'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रं इह विद्यते'..."ज्ञानेन ही मुक्तिः "
सर्वप्रथम समाज के वो सभी लोग जैसे संत समाज , ब्राह्मण , शिक्षक...... आदि जिनके ऊपर समाज को ज्ञान प्रदान करने की जिम्मेदारी है ...कर्तव्य है ...का जीवन भी शरीर , मन ,वाणी व कर्मों से शुभ्र होना चाहिए .... इनके जीवन-वस्त्र पर कोई भी दाग नहीं होना चाहिए ...
यावीणावरदंडमंडितकरा
..सरस्वती के हाथ वीणा के वर दंड से शोभित हैं
वीणा संगीत का प्रतीक है ..संगीत एक कला है ..इस दृष्टि से देखने पर सरस्वती का उपासक संगीत का प्रेमी और जीवन का कलाकार होना चाहिए ...संगीत अर्थात सम्यक गीत .."साहित्य संगीत कला विहीनः साक्षात् पशु पुच्च विषाण हीनः "साहित्य, संगीत , कला आदि मानव की संवेदन शीलता के द्योतक हैं ...इनसे रहित मनुष्य कभी भी सारस्वत हो ही नहीं सकता ...( अर्थात वह पशुवत है ..मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति ) वीणा के सुर जिस तरह सुसंवादित होते हैं उसी तरह से हमारे कार्यों में भी सुसंवादिता होनी चाहिए ...कार्यों में सुसंवादिता से जीवन में संगीत का प्राकट्य होगा ...गीता का "योगः कर्मसु कौशलम".....योग अर्थात कर्म की कुशलता ....यहाँ विचारणीय है
वीणा को वर दंड अर्थात श्रेष्ट दंड कहा गया है...दंड यदि सजा का प्रतीक हो तो उससे श्रेष्ट सजा क्या हो सकती है .. जिसकी सजा में संगीत हो मानव को मारने वाले दंड की अपेक्षा मानव को बदलने वाला दंड सारस्वत के हाथों में होना चाहिए ...
या श्वेत पद्मासना माँ सरस्वती श्वेत पद्मासन पर विराजमान हैं;
माँ सरस्वती का आसन ...अर्थात माँ सरस्वती जिस पर विराजमान होती हैं ( अर्थात सारस्वत') उसका विशुद्ध चरित्र कमलवत होना चाहिए ..पद्म की विशेषता उसकी अलिप्तता में है ...पद्म कीचड में रह कर भी भ्रस्ट नहीं होता ...सारस्वत को भी आज के तमाम प्रकार के कीचड युक्त वातावरण में भी खिल कर अपनी श्रेष्ट संस्कृति , अपने वेदों , अपने उपनिषदों के ज्ञान व परंपरा का दिग्दर्शन जग को कराना चाहिए ...
काल ही ऐसा है ...वातावरण ही खराब है ...सारा समाज ही खराब है ... खारे समुद्र में एक चुटकी चीनी डालने से क्या होगा ??..ऐसी रोनी भाषा माँ सरस्वती के उपासक के मुह से शोभा देने वाली नहीं है ...माँ सरस्वती का उपासक प्रवाह में बहने के लिए नहीं प्रवाह को योग्य दिशा देने वाला होना चाहिए ...शुरुवाती शक्ति गीता के कथन .."स्वल्पमस्यधर्मस्य त्रायतोमहतोभयात" ..अर्थात हमारा थोडा भी प्रयत्न महान आपदाओं से मुक्तिकारी होगा ...से लेना चाहिए
मै अपने जीवन का मूल मन्त्र बनाऊंगा की मुझे अपनी संस्कृति के लिए अपना योग्यदान देना है ...यह निश्चय सारस्वत की पहचान होनी चाहिए
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभ्रृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदिदेव, जिनकी सदैव स्तुति करते हैं;
माँ सरस्वती ज्ञान व भक्ति की प्रतीक हैं यह बात उनके हाथ में पुस्तक और माला से समझ में आती है .....पुस्तक ज्ञान का प्रतीक है और माला भक्ति का ...ब्रम्हा , विष्णु , व महेश क्रमशः सर्जन , पालन और संहार के देव हैं ..किसी भी श्रेष्ट वस्तु , विचार के सृजन , संरक्षण व उस में प्रविष्ट बुराई के संहार के लिए ज्ञान व भाव दोनो की जरूरत होती है ..
अतः किसी भी महान कार्य करने की इच्छा रखने वाले , शुरुवात करने वाले , आगे बढाने वाले व समय के साथ साथ उसमे प्रविष्ट बुराईयों को हटाने वाले महापुरुषों की प्रथम आवश्यकता सरस्वती का उपासक बनने की है
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेष जाड्यापहा हे माँ भगवती सरस्वती, आप मेरी सारी जड़ता को हरें;
माँ भगवती सरस्वती उनके योग्य अर्थों में उपासना करने से हमारे जीवन की जड़ता हो हरती हैं ...परन्तु दुःख की बात यह है की आज सरस्वती के मंदिरों में भी ( आज के विद्यालयों व महाविद्यालयों में ) जड़ता की ही उपासना हो रही है ...आज के विद्यार्थी सिर्फ रोटी के लिए या डिग्री के लिए ही शिक्षा लेते हैं ....उनको मूल्यों की शिक्षा नहीं दी जा रही है इसीलिए सरस्वती आज के शिक्षा केन्दों से विदा हो चुकीं हैं ..क्योकी जड़ता और शारदा एक साथ नहीं रह सकतीं ...
सच्चे सारस्वत का जीवन सौरभ युक्त होना चाहिए ...पुष्प की सुगंध जिस प्रकार सहज प्रसरती है उसी प्रकार उसी प्रकार सारस्वत के निर्मल ज्ञान की सुगंध वातावरण में चाहू ओर प्रसरती रहनी चाहिए
....चन्द्र जिस प्रकार विश्व में शांति व शीतलता प्रदान करता है उसी प्रकार सारस्वत मानवों के संतप्त जीवन में शांति व शीतलता प्रदाता होना चाहिए ....
वृक्षों के पत्तों पर पड़ा ओश विन्दु जिस प्रकार मोती की शोभा धारण कर के वृक्ष के सौंदर्य को बढाता है उसी प्रकार सच्चे सारस्वत की उपस्थिति से इस संसार वृक्ष की शोभा बढती है
हार अर्थात मुक्ताहार ...एक मोती की तुलना में मोतियों का हार ज्यादा अच्छा लगता है ...सरस्वती के उपासकों को भी इस तरह एक साथ , एक सूत्र में बंध कर काम करने की तैयारी रखनी चाहिए ....विद्वानों की शक्ति का ऐसा व्यवस्थित योग किसी भी महँ कार्य को सुसाध्य बना सकता है ...एक एक विद्वान एक -एक मोती हैं
...लेकिन वो यदि भगवान के सूत्र में पिरोये जाएँ तो उनकी शक्ति अनेकों गुनी बढ़ जाए ...
या शुभ्र वस्त्रावृतामाँ सरस्वती श्वेत वस्त्र धारण किये हुए हैं .. माँ सरस्वती का उपासक भी शरीर , मन, वाणी व कर्म से शुभ्र होना चाहिए ...
माँ सरस्वती के उपासक अर्थात वो सभी जिनको जीवन में ज्ञान की महत्ता सर्वश्रेष्ट लगती हो ...वो सभी जो मानते हों की ...'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रं इह विद्यते'..."ज्ञानेन ही मुक्तिः "
सर्वप्रथम समाज के वो सभी लोग जैसे संत समाज , ब्राह्मण , शिक्षक...... आदि जिनके ऊपर समाज को ज्ञान प्रदान करने की जिम्मेदारी है ...कर्तव्य है ...का जीवन भी शरीर , मन ,वाणी व कर्मों से शुभ्र होना चाहिए .... इनके जीवन-वस्त्र पर कोई भी दाग नहीं होना चाहिए ...
यावीणावरदंडमंडितकरा
..सरस्वती के हाथ वीणा के वर दंड से शोभित हैं
वीणा संगीत का प्रतीक है ..संगीत एक कला है ..इस दृष्टि से देखने पर सरस्वती का उपासक संगीत का प्रेमी और जीवन का कलाकार होना चाहिए ...संगीत अर्थात सम्यक गीत .."साहित्य संगीत कला विहीनः साक्षात् पशु पुच्च विषाण हीनः "साहित्य, संगीत , कला आदि मानव की संवेदन शीलता के द्योतक हैं ...इनसे रहित मनुष्य कभी भी सारस्वत हो ही नहीं सकता ...( अर्थात वह पशुवत है ..मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति ) वीणा के सुर जिस तरह सुसंवादित होते हैं उसी तरह से हमारे कार्यों में भी सुसंवादिता होनी चाहिए ...कार्यों में सुसंवादिता से जीवन में संगीत का प्राकट्य होगा ...गीता का "योगः कर्मसु कौशलम".....योग अर्थात कर्म की कुशलता ....यहाँ विचारणीय है
वीणा को वर दंड अर्थात श्रेष्ट दंड कहा गया है...दंड यदि सजा का प्रतीक हो तो उससे श्रेष्ट सजा क्या हो सकती है .. जिसकी सजा में संगीत हो मानव को मारने वाले दंड की अपेक्षा मानव को बदलने वाला दंड सारस्वत के हाथों में होना चाहिए ...
या श्वेत पद्मासना माँ सरस्वती श्वेत पद्मासन पर विराजमान हैं;
माँ सरस्वती का आसन ...अर्थात माँ सरस्वती जिस पर विराजमान होती हैं ( अर्थात सारस्वत') उसका विशुद्ध चरित्र कमलवत होना चाहिए ..पद्म की विशेषता उसकी अलिप्तता में है ...पद्म कीचड में रह कर भी भ्रस्ट नहीं होता ...सारस्वत को भी आज के तमाम प्रकार के कीचड युक्त वातावरण में भी खिल कर अपनी श्रेष्ट संस्कृति , अपने वेदों , अपने उपनिषदों के ज्ञान व परंपरा का दिग्दर्शन जग को कराना चाहिए ...
काल ही ऐसा है ...वातावरण ही खराब है ...सारा समाज ही खराब है ... खारे समुद्र में एक चुटकी चीनी डालने से क्या होगा ??..ऐसी रोनी भाषा माँ सरस्वती के उपासक के मुह से शोभा देने वाली नहीं है ...माँ सरस्वती का उपासक प्रवाह में बहने के लिए नहीं प्रवाह को योग्य दिशा देने वाला होना चाहिए ...शुरुवाती शक्ति गीता के कथन .."स्वल्पमस्यधर्मस्य त्रायतोमहतोभयात" ..अर्थात हमारा थोडा भी प्रयत्न महान आपदाओं से मुक्तिकारी होगा ...से लेना चाहिए
मै अपने जीवन का मूल मन्त्र बनाऊंगा की मुझे अपनी संस्कृति के लिए अपना योग्यदान देना है ...यह निश्चय सारस्वत की पहचान होनी चाहिए
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभ्रृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदिदेव, जिनकी सदैव स्तुति करते हैं;
माँ सरस्वती ज्ञान व भक्ति की प्रतीक हैं यह बात उनके हाथ में पुस्तक और माला से समझ में आती है .....पुस्तक ज्ञान का प्रतीक है और माला भक्ति का ...ब्रम्हा , विष्णु , व महेश क्रमशः सर्जन , पालन और संहार के देव हैं ..किसी भी श्रेष्ट वस्तु , विचार के सृजन , संरक्षण व उस में प्रविष्ट बुराई के संहार के लिए ज्ञान व भाव दोनो की जरूरत होती है ..
अतः किसी भी महान कार्य करने की इच्छा रखने वाले , शुरुवात करने वाले , आगे बढाने वाले व समय के साथ साथ उसमे प्रविष्ट बुराईयों को हटाने वाले महापुरुषों की प्रथम आवश्यकता सरस्वती का उपासक बनने की है
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेष जाड्यापहा हे माँ भगवती सरस्वती, आप मेरी सारी जड़ता को हरें;
माँ भगवती सरस्वती उनके योग्य अर्थों में उपासना करने से हमारे जीवन की जड़ता हो हरती हैं ...परन्तु दुःख की बात यह है की आज सरस्वती के मंदिरों में भी ( आज के विद्यालयों व महाविद्यालयों में ) जड़ता की ही उपासना हो रही है ...आज के विद्यार्थी सिर्फ रोटी के लिए या डिग्री के लिए ही शिक्षा लेते हैं ....उनको मूल्यों की शिक्षा नहीं दी जा रही है इसीलिए सरस्वती आज के शिक्षा केन्दों से विदा हो चुकीं हैं ..क्योकी जड़ता और शारदा एक साथ नहीं रह सकतीं ...
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