ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥ -पार० गृ०सू० २.२.११
जब बालक/ बालिका का शारीरिक-मानसिक विकास इस योग्य हो जाए कि वह अपने विकास के लिए आत्मनिर्भर होकर संकल्प एवं प्रयास करने लगे, तब उसे श्रेष्ठ आध्यात्मिक एवं सामाजिक अनुशासनों के निर्वाह के लिए अनुबंधित-संकल्पित कराया जाता है । दीक्षा का अर्थ होता है किसी श्रेष्ठ लक्ष्य तक पहुँचने के सुनिश्चित संकल्प के साथ उसके लिए निर्धारित साधना में प्रवृत्त होना । मनुष्य सांस्सारिक कार्यों में उलझ कर, कहीं जीवन के श्रेष्ठ लक्ष्यों की उपेक्षा न करने लगे, लौकिक के साथ आध्यात्मिक लक्ष्यों की ओर जागरूक और सचेष्ट रहे, इस दृष्टि से दीक्षा संस्कार संकल्प के साथ यज्ञोपवीत संस्कार कराया जाता है । पुरातन काल में गुरुकुल में दोनों संस्कार एक साथ ही होते थे, वर्तमान समय में मनःस्थति एवं परिस्थितियों के अनुसार इन्हें अलग-अलग या एक साथ सम्पन्न कराया जा सकता है ।
संस्कार प्रयोजन
शिखा और सूत्र भारतीय संस्कृति के दो सर्वमान्य प्रतीक है । शिखा भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था की प्रतीक है, जो मुण्डन संस्कार के समय स्थापित की जाती है । यज्ञोपवीत सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर अपने जीवन में आमूलचूल परिवर्तन के संकल्प का प्रतीक है । इसके साथ ही गायत्री मंत्र की गुरुदीक्षा भी दी जाती है । दीक्षा यज्ञोपवीत मिलकर द्विजत्व का संस्कार पूरा करते हैं । इसका अर्थ होता है- 'दूसरा जन्म' । शास्त्रवचन है- 'जन्मना जायते शूद्रः संस्कारद् द्विज उच्यते॥'
जन्म से मनुष्य एक प्रकार का पशु ही है । उसमें स्वार्थपरता की वृत्ति अन्य जीवन-जन्तुओं जैसी ही होती है, पर उत्कृष्ट आदर्शवादी मान्यताओं द्वारा वह मनुष्य बनता है । जब मानव की आस्था यह बन जाती है कि उसे इन्सान की तरह ऊँचा जीवन जीना है और उसी आधार पर वह अपनी कार्य पद्धति निर्धारित करता है, तभी कहा जा सकता है कि इसने पशु-योनि छोड़कर मनुष्य योनि में प्रवेश किया है । अन्यथा नर-नारियों से तो यह संसार भरा पड़ा है । स्वार्थ की संकीर्णता से निकलकर परमार्थ की महानता में प्रवेश करने को, पशुता को त्याग कर मनुष्यता ग्रहण करने को दूसरा जन्म कहते हैं । शरीर जन्म माता-पिता के रज-वीर्य से वैसा ही होता है, जैसा अन्य जीवों का । आदर्शवादी जीवन लक्ष्य अपना लेने की प्रतिज्ञा करना ही वास्तविक मनुष्य जन्म में प्रवेश करना है । इसी को द्विजत्व कहते हैं । द्विजत्व का अर्थ है दूसरा जन्म । हर हिन्दू धमार्नुयायी को आदर्शवादी जीवन जीना चाहिए, द्विज बनना चाहिए । इस मूल तथ्य को अपनाने की प्रक्रिया को समारोहपूर्वक यज्ञोपवीत संस्कार के नाम से सम्पन्न किया जाता है । इस व्रत बंधन को आजीवन स्मरण रखने और व्यवहार में लाने की प्रतिज्ञा का प्रतीक तीन लड़ों वाला यज्ञोपवीत कन्धे पर डाले रहना होता है । यज्ञोपवीत बालक को तब देना चाहिए, जब उसकी बुद्धि और भावना का इतना विकास हो जाए कि इस संस्कार के प्रयोजन को समझकर उसके निवार्ह के लिए उत्साहपूर्वक लग सके ।
यज्ञोपवीत से सम्बन्धित स्थूल-सूक्ष्म मयार्दाएँ
१- यज्ञोपवीत गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा है । गायत्री त्रिपदा है, गायत्री मन्त्र में तीन चरण हैं, इसी आधार पर यज्ञोपवीत में तीन लड़ें हैं । यज्ञोपवीत की प्रत्येक लड़ में तीन धागे होते हैं । यज्ञोपवीत में तीन गाँठों को भूः, भुवः स्वः तीन व्याहृतियाँ माना गया है । गायत्री के 'ॐ कार' को बड़ी ब्रह्म ग्रन्थि कहा गया है । गायत्री के एक-एक पद को लेकर ही उपवीत की रचना हुई है । इस प्रतिमा को शरीर मन्दिर में स्थापित करने पर उसकी पूजा-अर्चना करने का उत्तरदायित्व भी स्वीकार करना होता है । इसके लिए नित्य कम से कम एक माला गायत्री मन्त्र जप की साधना करनी चाहिए ।
२- यज्ञोपवीत को व्रत बन्ध कहते हैं । व्रतों से बँधे बिना मनुष्य का उत्थान सम्भव नहीं । यज्ञोपवीत को व्रतशीलता का प्रतीक मानते हैं । इसीलिए इसे सूत्र (फार्मूला, सहारा) भी कहते हैं । यज्ञोपवीत के नौ धागे नौ गुणों के प्रतीक हैं । प्रत्येक धारण करने वाले को इन गुणों को अपने में बढ़ाने का निरन्तर ध्यान बना रहे, यह स्मरण जनेऊ के धागे दिलाते रहते हैं ।
यज्ञोपवीत के धागों में नीति का सम्पूर्ण सार सन्निहित कर दिया गया है । जैसे कागज का स्याही के सहारे किसी नगण्य से पत्र या तुच्छ सी लगने वाली पुस्तक में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ज्ञान-विज्ञान भर दिया जाता है, उसी प्रकार सूत्र के इन नौ धागों में जीवन-विकास का सारा मार्गदर्शन समाविष्ट कर दिया गया है । इन धागों को कन्धे पर, कलेजे पर, हृदय पर, पीठ पर प्रतिष्ठित करने का प्रयोजन यह है कि सन्निहित शिक्षा का यज्ञोपवीत के धागे स्मरण कराते रहें, ताकि उन्हें जीवन व्यवहार में उतारा जा सके । यज्ञोपवीत को माँ गायत्री और यज्ञ पिता की संयुक्त प्रतिमा मानते हैं ।
मर्यादा के नियम
(१) यज्ञोपवीत को मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए । इसका स्थूल भाव यह है कि यज्ञोपवीत कमर से ऊँचा हो जाए और अपवित्र न हो । अपने व्रतशीलता के संकल्प का ध्यान इसी बहाने बार-बार किया जाए ।
(२) यज्ञोपवीत का कोई तार टूट जाए या ६ माह से अधिक समय हो जाए, तो बदल देना चाहिए । खण्डित प्रतिमा शरीर पर नहीं रखते । धागे कच्चे और गंदे होने लगें, तो पहले ही बदल देना उचित है ।
(३) जन्म-मरण के सूतक के बाद इसे बदल देने की परम्परा है । जिनके गोद में छोटे बच्चे नहीं हैं, वे महिलाएँ भी यज्ञोपवीत सँभाल सकती हैं; किन्तु उन्हें हर मास मासिक शौच के बाद उसे बदल देना पड़ता है ।
(४) यज्ञोपवीत शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता । साफ करने के लिए उसे कण्ठ में पहने रहकर ही घुमाकर धो लेते हैं । भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित की एक माला जप करने या बदल लेने का नियम है ।
(५) देव प्रतिमा की मर्यादा बनाये रखने के लिए उसमें चाबी के गुच्छे आदि न बाँधें । इसके लिए भिन्न व्यवस्था रखें । बालक जब इन नियमों के पालन करने योग्य हो जाएँ, तभी उनका यज्ञोपवीत करना चाहिए ।
यज्ञोपवीत भारतीय धर्म का पिता है और गायत्री भारतीय संस्कृति की माता, दोनों का जोड़ा है । यज्ञ पिता को कन्धे पर और गायत्री माता को हृदय में एक साथ धारण किया जाता है । गायत्री प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी का गुरु मन्त्र है । उसे यज्ञोपवीत के समय पर ही विधिवत् ग्रहण करना चाहिए । आज उस स्तर के गुरु दीख नहीं पड़ते, जो स्वयं पार हो चले हों और दूसरों को अपनी नाव पर बिठा कर पार लगा सकें । जिधर भी दृष्टि डाली जाती है, नकलीपन और धोखा ही भरा मिलता है । अस्तु, यह अच्छा है कि व्यक्तियों को गुरु न बनाया जाए । अन्तःकरण के प्रकाश को तथा प्रत्यक्ष में ज्ञान-यज्ञ की दिव्य ज्योति-लाल मशाल को सद्गुरु माना जाए और यज्ञोपवीत के समय शुद्ध उच्चारण की दृष्टि से किसी भी श्रेष्ठ व्यक्ति से मन्त्रारम्भ की प्रक्रिया पूरी की जाए ।
यज्ञोपवीत संस्कार के लिए यज्ञादि की सामान्य व्यवस्था के साथ-साथ नीचे लिखी व्यवस्थाओं पर भी दृष्टि रखनी चाहिए-
१- पुरानी परम्परा के अनुसार यज्ञोपवीत लेने वाले बालकों का मुण्डन करा दिया जाता था, उद्देश्य था शरीर की शृंगारिकता के प्रति उदासीनता । जिन्हें यज्ञोपवीत लेना हो, उनसे एक दिन पूर्व बाल कटवा, छँटवा कर शालीनता के अनुरूप करा लेने का आग्रह किया जा सकता है ।
२- जितनों का यज्ञोपवीत होना है, उसके अनुसार मेखला, कोपीन, दण्ड, यज्ञोपवीत, पीले दुपट्टों की व्यवस्था करा लेनी चाहिए । मेखला और कोपीन संयुक्त रूप से दी जाती है । मेखला कहते हैं कमर में बाँधने योग्य नाड़े जैसे सूत्र को । कपड़े की सिली हुई सूत की डोरी, कलावे के लम्बे टुकड़े से मेखला बना लेनी चाहिए । कोपीन लगभग ४ इञ्च चौड़ी डेढ़ फुट लम्बी लँगोटी होती है । इसे मेखला के साथ टाँक कर भी रखा जा सकता है । दण्ड के लिए लाठी या ब्रह्म दण्ड जैसा रोल भी रखा जा सकता है । यज्ञोपवीत पीले रँगकर रखे जाने चाहिए । न रंग पाएँ, तो उनकी गाँठ को हल्दी से पीला कर देना चाहिए । संस्कार कराने वालों से पहले से ही कहकर रखा जाए कि सभी या कम से कम एक नया वस्त्र धारण करके बैठें । नया दुपट्टा भी लेना पयार्प्त है । संस्कार कराने वाले हर व्यक्ति के लिए पीले दुपट्टे की व्यवस्था करा ही लेनी चाहिए ।
३- गुरु पूजन के लिए लाल मशाल का चित्र रखना चाहिए । गुरु व्यक्ति नहीं चेतना रूप है, ऐसा समझकर युग शक्ति की प्रतीक मशाल को ही गुरु का प्रतीक मानकर रखना अधिक उपयुक्त है ।
४- वेद का अर्थ है- ज्ञान । वेद पूजन के लिए वेद की पुस्तक उपलब्ध न हो, तो कोई पवित्र पुस्तक पीले वस्त्र में लपेट कर पूजा वेदी पर रख देनी चाहिए ।
५- गायत्री, सावित्री एवं सरस्वती पूजन के लिए पूजन वेदी पर चावल की तीन छोटी-छोटी ढेरियाँ रख देनी चाहिए । देव पूजन, रक्षाविधान तक के उपचार पूरे करके विशेष कमर्काण्डों को क्रमबद्ध रूप से कराया जाता है । समय और परिस्थितियों के अनुरूप प्रेरणाएँ एवं व्याख्याएँ भी की जानी चाहिए । क्रिया-निदेर्श और भाव-संयोग का क्रम पूरी सावधानी के साथ बनाया जाए ।
यज्ञोपवीत धारण
शिक्षण और प्रेरणा
कोई भी वस्त्र आभूषण हो, अपनी शोभा प्रतिष्ठा तब बढ़ाता है, जब उसे धारण किया जाए । यज्ञोपवीत प्रतीक का धारण करते हुए यह ध्यान रखा जाए कि यह सूत्र नहीं, इस माध्यम से जीवन में दिव्यता-आदशर्वादिता को धारण किया जा रहा है । इसे सहज ही धारण किया जाना चाहिए; क्योंकि इसके बिना मनुष्य में मनुष्यता का विकास सम्भव नहीं ।
क्रिया और भावना
पाँच यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति मिलकर यज्ञोपवीत पहनाते हैं । भाव यह है कि इस दिशा में नया प्रयास, प्रवेश करने वाले को अनुभवियों का सहयोग एवं मागर्दशर्न मिलता रहे । पहनाने वाले जब यज्ञोपवीत पकड़ लें, तो धारण करने वाला उसे छोड़ दे । बायाँ हाथ नीचे कर ले और दाहिना हाथ ऊपर ही उठाये रहे । मन्त्र के साथ्ा यज्ञोपवीत पहना दिया जाए । मन्दिर में प्रतिमा स्थापना जैसा दिव्य भाव बनाये रखें ।
--- पंडित राजेन्द्र पटनी
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥ -पार० गृ०सू० २.२.११
जब बालक/ बालिका का शारीरिक-मानसिक विकास इस योग्य हो जाए कि वह अपने विकास के लिए आत्मनिर्भर होकर संकल्प एवं प्रयास करने लगे, तब उसे श्रेष्ठ आध्यात्मिक एवं सामाजिक अनुशासनों के निर्वाह के लिए अनुबंधित-संकल्पित कराया जाता है । दीक्षा का अर्थ होता है किसी श्रेष्ठ लक्ष्य तक पहुँचने के सुनिश्चित संकल्प के साथ उसके लिए निर्धारित साधना में प्रवृत्त होना । मनुष्य सांस्सारिक कार्यों में उलझ कर, कहीं जीवन के श्रेष्ठ लक्ष्यों की उपेक्षा न करने लगे, लौकिक के साथ आध्यात्मिक लक्ष्यों की ओर जागरूक और सचेष्ट रहे, इस दृष्टि से दीक्षा संस्कार संकल्प के साथ यज्ञोपवीत संस्कार कराया जाता है । पुरातन काल में गुरुकुल में दोनों संस्कार एक साथ ही होते थे, वर्तमान समय में मनःस्थति एवं परिस्थितियों के अनुसार इन्हें अलग-अलग या एक साथ सम्पन्न कराया जा सकता है ।
संस्कार प्रयोजन
शिखा और सूत्र भारतीय संस्कृति के दो सर्वमान्य प्रतीक है । शिखा भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था की प्रतीक है, जो मुण्डन संस्कार के समय स्थापित की जाती है । यज्ञोपवीत सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर अपने जीवन में आमूलचूल परिवर्तन के संकल्प का प्रतीक है । इसके साथ ही गायत्री मंत्र की गुरुदीक्षा भी दी जाती है । दीक्षा यज्ञोपवीत मिलकर द्विजत्व का संस्कार पूरा करते हैं । इसका अर्थ होता है- 'दूसरा जन्म' । शास्त्रवचन है- 'जन्मना जायते शूद्रः संस्कारद् द्विज उच्यते॥'
जन्म से मनुष्य एक प्रकार का पशु ही है । उसमें स्वार्थपरता की वृत्ति अन्य जीवन-जन्तुओं जैसी ही होती है, पर उत्कृष्ट आदर्शवादी मान्यताओं द्वारा वह मनुष्य बनता है । जब मानव की आस्था यह बन जाती है कि उसे इन्सान की तरह ऊँचा जीवन जीना है और उसी आधार पर वह अपनी कार्य पद्धति निर्धारित करता है, तभी कहा जा सकता है कि इसने पशु-योनि छोड़कर मनुष्य योनि में प्रवेश किया है । अन्यथा नर-नारियों से तो यह संसार भरा पड़ा है । स्वार्थ की संकीर्णता से निकलकर परमार्थ की महानता में प्रवेश करने को, पशुता को त्याग कर मनुष्यता ग्रहण करने को दूसरा जन्म कहते हैं । शरीर जन्म माता-पिता के रज-वीर्य से वैसा ही होता है, जैसा अन्य जीवों का । आदर्शवादी जीवन लक्ष्य अपना लेने की प्रतिज्ञा करना ही वास्तविक मनुष्य जन्म में प्रवेश करना है । इसी को द्विजत्व कहते हैं । द्विजत्व का अर्थ है दूसरा जन्म । हर हिन्दू धमार्नुयायी को आदर्शवादी जीवन जीना चाहिए, द्विज बनना चाहिए । इस मूल तथ्य को अपनाने की प्रक्रिया को समारोहपूर्वक यज्ञोपवीत संस्कार के नाम से सम्पन्न किया जाता है । इस व्रत बंधन को आजीवन स्मरण रखने और व्यवहार में लाने की प्रतिज्ञा का प्रतीक तीन लड़ों वाला यज्ञोपवीत कन्धे पर डाले रहना होता है । यज्ञोपवीत बालक को तब देना चाहिए, जब उसकी बुद्धि और भावना का इतना विकास हो जाए कि इस संस्कार के प्रयोजन को समझकर उसके निवार्ह के लिए उत्साहपूर्वक लग सके ।
यज्ञोपवीत से सम्बन्धित स्थूल-सूक्ष्म मयार्दाएँ
१- यज्ञोपवीत गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा है । गायत्री त्रिपदा है, गायत्री मन्त्र में तीन चरण हैं, इसी आधार पर यज्ञोपवीत में तीन लड़ें हैं । यज्ञोपवीत की प्रत्येक लड़ में तीन धागे होते हैं । यज्ञोपवीत में तीन गाँठों को भूः, भुवः स्वः तीन व्याहृतियाँ माना गया है । गायत्री के 'ॐ कार' को बड़ी ब्रह्म ग्रन्थि कहा गया है । गायत्री के एक-एक पद को लेकर ही उपवीत की रचना हुई है । इस प्रतिमा को शरीर मन्दिर में स्थापित करने पर उसकी पूजा-अर्चना करने का उत्तरदायित्व भी स्वीकार करना होता है । इसके लिए नित्य कम से कम एक माला गायत्री मन्त्र जप की साधना करनी चाहिए ।
२- यज्ञोपवीत को व्रत बन्ध कहते हैं । व्रतों से बँधे बिना मनुष्य का उत्थान सम्भव नहीं । यज्ञोपवीत को व्रतशीलता का प्रतीक मानते हैं । इसीलिए इसे सूत्र (फार्मूला, सहारा) भी कहते हैं । यज्ञोपवीत के नौ धागे नौ गुणों के प्रतीक हैं । प्रत्येक धारण करने वाले को इन गुणों को अपने में बढ़ाने का निरन्तर ध्यान बना रहे, यह स्मरण जनेऊ के धागे दिलाते रहते हैं ।
यज्ञोपवीत के धागों में नीति का सम्पूर्ण सार सन्निहित कर दिया गया है । जैसे कागज का स्याही के सहारे किसी नगण्य से पत्र या तुच्छ सी लगने वाली पुस्तक में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ज्ञान-विज्ञान भर दिया जाता है, उसी प्रकार सूत्र के इन नौ धागों में जीवन-विकास का सारा मार्गदर्शन समाविष्ट कर दिया गया है । इन धागों को कन्धे पर, कलेजे पर, हृदय पर, पीठ पर प्रतिष्ठित करने का प्रयोजन यह है कि सन्निहित शिक्षा का यज्ञोपवीत के धागे स्मरण कराते रहें, ताकि उन्हें जीवन व्यवहार में उतारा जा सके । यज्ञोपवीत को माँ गायत्री और यज्ञ पिता की संयुक्त प्रतिमा मानते हैं ।
मर्यादा के नियम
(१) यज्ञोपवीत को मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए । इसका स्थूल भाव यह है कि यज्ञोपवीत कमर से ऊँचा हो जाए और अपवित्र न हो । अपने व्रतशीलता के संकल्प का ध्यान इसी बहाने बार-बार किया जाए ।
(२) यज्ञोपवीत का कोई तार टूट जाए या ६ माह से अधिक समय हो जाए, तो बदल देना चाहिए । खण्डित प्रतिमा शरीर पर नहीं रखते । धागे कच्चे और गंदे होने लगें, तो पहले ही बदल देना उचित है ।
(३) जन्म-मरण के सूतक के बाद इसे बदल देने की परम्परा है । जिनके गोद में छोटे बच्चे नहीं हैं, वे महिलाएँ भी यज्ञोपवीत सँभाल सकती हैं; किन्तु उन्हें हर मास मासिक शौच के बाद उसे बदल देना पड़ता है ।
(४) यज्ञोपवीत शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता । साफ करने के लिए उसे कण्ठ में पहने रहकर ही घुमाकर धो लेते हैं । भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित की एक माला जप करने या बदल लेने का नियम है ।
(५) देव प्रतिमा की मर्यादा बनाये रखने के लिए उसमें चाबी के गुच्छे आदि न बाँधें । इसके लिए भिन्न व्यवस्था रखें । बालक जब इन नियमों के पालन करने योग्य हो जाएँ, तभी उनका यज्ञोपवीत करना चाहिए ।
यज्ञोपवीत भारतीय धर्म का पिता है और गायत्री भारतीय संस्कृति की माता, दोनों का जोड़ा है । यज्ञ पिता को कन्धे पर और गायत्री माता को हृदय में एक साथ धारण किया जाता है । गायत्री प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी का गुरु मन्त्र है । उसे यज्ञोपवीत के समय पर ही विधिवत् ग्रहण करना चाहिए । आज उस स्तर के गुरु दीख नहीं पड़ते, जो स्वयं पार हो चले हों और दूसरों को अपनी नाव पर बिठा कर पार लगा सकें । जिधर भी दृष्टि डाली जाती है, नकलीपन और धोखा ही भरा मिलता है । अस्तु, यह अच्छा है कि व्यक्तियों को गुरु न बनाया जाए । अन्तःकरण के प्रकाश को तथा प्रत्यक्ष में ज्ञान-यज्ञ की दिव्य ज्योति-लाल मशाल को सद्गुरु माना जाए और यज्ञोपवीत के समय शुद्ध उच्चारण की दृष्टि से किसी भी श्रेष्ठ व्यक्ति से मन्त्रारम्भ की प्रक्रिया पूरी की जाए ।
यज्ञोपवीत संस्कार के लिए यज्ञादि की सामान्य व्यवस्था के साथ-साथ नीचे लिखी व्यवस्थाओं पर भी दृष्टि रखनी चाहिए-
१- पुरानी परम्परा के अनुसार यज्ञोपवीत लेने वाले बालकों का मुण्डन करा दिया जाता था, उद्देश्य था शरीर की शृंगारिकता के प्रति उदासीनता । जिन्हें यज्ञोपवीत लेना हो, उनसे एक दिन पूर्व बाल कटवा, छँटवा कर शालीनता के अनुरूप करा लेने का आग्रह किया जा सकता है ।
२- जितनों का यज्ञोपवीत होना है, उसके अनुसार मेखला, कोपीन, दण्ड, यज्ञोपवीत, पीले दुपट्टों की व्यवस्था करा लेनी चाहिए । मेखला और कोपीन संयुक्त रूप से दी जाती है । मेखला कहते हैं कमर में बाँधने योग्य नाड़े जैसे सूत्र को । कपड़े की सिली हुई सूत की डोरी, कलावे के लम्बे टुकड़े से मेखला बना लेनी चाहिए । कोपीन लगभग ४ इञ्च चौड़ी डेढ़ फुट लम्बी लँगोटी होती है । इसे मेखला के साथ टाँक कर भी रखा जा सकता है । दण्ड के लिए लाठी या ब्रह्म दण्ड जैसा रोल भी रखा जा सकता है । यज्ञोपवीत पीले रँगकर रखे जाने चाहिए । न रंग पाएँ, तो उनकी गाँठ को हल्दी से पीला कर देना चाहिए । संस्कार कराने वालों से पहले से ही कहकर रखा जाए कि सभी या कम से कम एक नया वस्त्र धारण करके बैठें । नया दुपट्टा भी लेना पयार्प्त है । संस्कार कराने वाले हर व्यक्ति के लिए पीले दुपट्टे की व्यवस्था करा ही लेनी चाहिए ।
३- गुरु पूजन के लिए लाल मशाल का चित्र रखना चाहिए । गुरु व्यक्ति नहीं चेतना रूप है, ऐसा समझकर युग शक्ति की प्रतीक मशाल को ही गुरु का प्रतीक मानकर रखना अधिक उपयुक्त है ।
४- वेद का अर्थ है- ज्ञान । वेद पूजन के लिए वेद की पुस्तक उपलब्ध न हो, तो कोई पवित्र पुस्तक पीले वस्त्र में लपेट कर पूजा वेदी पर रख देनी चाहिए ।
५- गायत्री, सावित्री एवं सरस्वती पूजन के लिए पूजन वेदी पर चावल की तीन छोटी-छोटी ढेरियाँ रख देनी चाहिए । देव पूजन, रक्षाविधान तक के उपचार पूरे करके विशेष कमर्काण्डों को क्रमबद्ध रूप से कराया जाता है । समय और परिस्थितियों के अनुरूप प्रेरणाएँ एवं व्याख्याएँ भी की जानी चाहिए । क्रिया-निदेर्श और भाव-संयोग का क्रम पूरी सावधानी के साथ बनाया जाए ।
यज्ञोपवीत धारण
शिक्षण और प्रेरणा
कोई भी वस्त्र आभूषण हो, अपनी शोभा प्रतिष्ठा तब बढ़ाता है, जब उसे धारण किया जाए । यज्ञोपवीत प्रतीक का धारण करते हुए यह ध्यान रखा जाए कि यह सूत्र नहीं, इस माध्यम से जीवन में दिव्यता-आदशर्वादिता को धारण किया जा रहा है । इसे सहज ही धारण किया जाना चाहिए; क्योंकि इसके बिना मनुष्य में मनुष्यता का विकास सम्भव नहीं ।
क्रिया और भावना
पाँच यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति मिलकर यज्ञोपवीत पहनाते हैं । भाव यह है कि इस दिशा में नया प्रयास, प्रवेश करने वाले को अनुभवियों का सहयोग एवं मागर्दशर्न मिलता रहे । पहनाने वाले जब यज्ञोपवीत पकड़ लें, तो धारण करने वाला उसे छोड़ दे । बायाँ हाथ नीचे कर ले और दाहिना हाथ ऊपर ही उठाये रहे । मन्त्र के साथ्ा यज्ञोपवीत पहना दिया जाए । मन्दिर में प्रतिमा स्थापना जैसा दिव्य भाव बनाये रखें ।
--- पंडित राजेन्द्र पटनी
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