Tuesday, July 17, 2012

स्वप्न या ध्यान ... या मन की मनगढ़ंत कहानी

ये स्वप्न में घटा या ध्यान में ... या मन ने यु ही एक मनगढ़ंत कहानी रच ली मैं नहीं जानता ..फिरभी ..........
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..मैंने देखा की मैं एक पहाड़ी पे खड़ा हूँ ........ जहा से नीचे ..पूरा संसार दिख रहा हैं और ऊपर तारो से भरा आसमान .... सब कुछ साफ़ और स्पस्ट था और एक आवाज .. अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही थी ...

तभी मैंने ..पुछा कौन ..कौन हैं आप? ---
आवाज पीछे से आई - तुम्हारा गुरु ...
मैं पीछे मुड़ा ..तो फिर आवाज आई .
---..मुझे देखने से कोई लाभ नहीं हैं ..मैं जिधर दिखा रहा .हूँ .....उधर देखे ... उधर ही कुछ प्राप्त हो सकता हैं |
फिर मैं आगे की तरफ देखने लगा .... तभी एक मंदिर दिखा तो मैंने पूछा

- ये क्या हैं ..

-.उन्होंने कहा ..विद्यालय ....

-मैंने आश्चर्य से पूछा - विद्यालय ?

उन्होंने कहा - हा ..ये विद्यालय हैं , जिसे तुम मंदिर समझ रहे हो |

फिर मैंने कहा - कैसे ?

उन्होंने कहा - जब तुम संसार में पैदा होते हो ..तो....तुम कुछ नहीं जानते हो ................तो तुम्हारी माँ ........ तुम्हरी प्रथम गुरु बन तुम्हारा इस संसार से परिचय करवाती हैं .......परन्तु व्यक्त करना नहीं सिखाती तत्पश्यात ...तुम विद्यालय आते हो ..जहा तुम्हे अपनी जानकारी को व्यक्त करना सिखाया जाता हैं ..तुम विद्यालय में अनुशाषित हो , नियमबद्ध तरीके से सीखने जाते हो ..उसी तरह तुम मंदिर भी आते हो ..

विद्यालय की दीवारों से तुम क्या सीखते ?

- मैंने कहा कुछ नहीं

- उन्होंने कहा हा .. इसी तरह यहाँ मंदिर की दीवारों से तुम्हे कुछ नहीं मिलाता |

- फिर हम मंदिर क्यों आते हैं ?

- गुरु से मिलने

- गुरु से मिलने ?

-हा , तुम विद्यालय भी गुरु के लिए ही जाते हो , विद्यालय केवल दीवारों से नहीं बनता , विद्यालय गुरु से बनता हैं ,
गुरु तुम्हे इस परिचित संसार को व्यक्त करना सिखाता हैं, वो पहले तुम्हे अक्षर सिखाता हैं ..फिर अक्षर जोड़ना सिखाता हैं ..... फिर अक्षरों से संसार को व्यक्त करना सिखाता हैं ................
इसलिए गुरु महत्वपूर्ण होता हैं इसलिए तुम विद्यालय जाते हो ... और विद्यालय आते ही तुम्हे उस गुरु का स्मरण जागृत होता हैं इसलिए तुम श्रद्धावान भी हो उठते हो |

- तो इस मंदिर में जो मूर्ति हैं ..वो किसकी हैं |

- विद्यालय में मूर्ति तो सदैव गुरु की होती हैं , जिस तरह से एक विद्यालय में कई गुरु होते हैं ..उस तरह से मंदिरों में भी कई गुरुओ की मुर्तिया होती हैं ........... भक्ति के गुरु -हनुमानजी हैं , आदर्श पुरुष के गुरु श्री राम जी हैं .. परमपुरुष के गुरु ..श्री शंकर जी हैं , परम प्रेम की गुरु ...माँ भगवती है ...... अब जिस गुरु से मनुष्य को प्रेम हो जाता वो उसके पास आता जाता रहता हैं ... और सारे गुरु उसी एक ओंकार का ही ध्यान करते हैं और उसी का प्रार्थना करना सीखते हैं |

--फिर मनुष्य मंदिर आकर ....गुरु से ही मागता रहता हैं ऐसा क्यों ?

-- गुरु कर्म करने की दिशा देता हैं , प्रश्नों के उत्तर दे सकता हैं ..कर्म से फल की प्राप्ति का मार्ग बता सकता हैं , और गुरु उसकी प्रार्थना परम प्रभु तक पहुच सकता हैं .... गुरु ..शिष्य को सब कुछ उपलब्ध करा सकता हैं ..परन्तु बिना कर्म के फल नहीं दे सकता क्योकि ..वो परम सत्ता के नियम से बंधा हैं |

---हमने फिर पूछा ..ये संसार क्या ..जो निचे दिखाई दे रहा हैं ?

--- संसार ..परमात्मा का सृजन हैं ... निराकार परमात्मा ..अपनी योग माया से संयोग करके स्वयं के स्वरुप को निर्गुण रूप में व्यक्त करता हैं |

- ये जो नीचे दिख रहा हैं ये ..सब सिर्फ माया हैं?

-नहीं .ये सिर्फ माया नहीं हैं ... ये निराकार परमात्मा ..अपनी योग माया से संयोग कर संसार दिख रहे हैं ..और इन्द्रिय जिसे अनुभव कर सकती हैं ..अन्यथा परमात्मा इन्द्रियों से परे हैं |

- फिर वास्तव में परमात्मा कहा हैं ?

- उन्होंने आसमान की तरफ उंगली उठा दी |

- मैंने ऊपर देखा --सिर्फ तारे और असमान दिख रहे थे , तो मैंने कहा ..मुझे तारे और आसमान के आलावा कुछ नहीं दिख रहा हैं |

- फिर आकाश से ही आवाज आई |

- मैं निराकार ही हूँ , अव्यक्त हूँ , मुझे देखा नहीं जा सकता , मैं माया के साथ तो दिख सकता हूँ ... परन्तु ,,बिना माया मैं दिखाई नहीं दे सकता ..परन्तु तुम मुझे सुन सकते हो , उसके लिए तुम्हे गहन समाधि में उतरना पड़ता हैं ... तब तुम मेरी आवाज स्पस्ट सुन पाते हो |

- प्रभु जब मैं आपको सुन सकता हूँ और आप मुझे तो मैं कुछ प्रश्न पूछ सकता हूँ .....तो उन्हों ने स्वीकृति दी

मैंने कहा -प्रभु जब ये संसार माया ही हैं तो ... ये माया करने की क्या आवश्यकता हैं ?

- निरंतर विकाश ही मेरी प्रकृति हैं ..
और सृजन मेरा कार्य .. .. संहार मेरा आचरण .. ...और पूर्णता मुझे प्रिय
हैं ... .. अत: जो पूर्णता को प्राप्त होता हैं ..वो मुझे प्राप्त होता हैं ... और जो अपूर्ण रह जाता हैं ... संहार के बाद उसका पुनह सृजन करना ही ..मेरा कार्य हो जाता हैं |

- फिर मेरी दृष्टी संसार की तरफ जाती ....जिसमे कुछ जगह ....चमकीले चमकीले ...श्रोत दिखाई देते हैं ....
तो मैं फिर प्रश्न करता हूँ - ये चमकीले ..चमकीले क्या दिखाई दे रहे हैं ?

तब प्रभु ने कहा - ये उन लोगो का ऊर्जा दिखाई दे रही हैं जो पूर्णता को ..अग्रसर हैं ...जिन्हें मैं संसार से मुक्त कर ..इन तारो में शामिल कर दूंगा|

मेरे सारे प्रश्न ख़त्म के कगार पे पहुच चुके थे ..फिर भी मैंने प्रश्न पूछा
-प्रभु , जब सब स्पष्ट हैं संसार में तो ये संसार में व्यवस्थाये और नियम क्यों ?

- जिस तरह से संसारी भोजन सजा कर खाता हैं ..और ज्ञानी को सजावट से कोई फर्क नहीं पड़ता .... इसलिए इस माया रूपी संसार को सुदर और सुब्याव्स्थित दिखने के लिए संस्कारों का निर्माण ऋषियों ने किया था ..ताकि संसारी सुब्याव्थित और नियमबद्ध तरीके से ..पूर्णता को प्राप्त करे ... और निष्काम भाव से कर्म करते हुए संसार के माया से मुक्त हो |
--- श्री मनीष कुमार

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