Friday, July 20, 2012

मस्तकपर तिलक धारण करनेका कारण क्‍या है ?

१. तिलक धारण करनेके संदर्भमें आचार

        स्नानके उपरांत अपने-अपने संप्रदायके अनुसार मस्तकपर तिलक अथवा मुद्रा लगाएं ।  वैष्णवपंथी मस्तकपर खडा तिलक, जबकि शैवपंथी आडी रेखाएं अर्थात् ‘त्रिपुंड्र’ लगाते हैं ।

१ अ. मस्तकपर तिलक धारण करनेका मूल कारण

जबतक मायाकी उपाधि है, सगुण परमेश्वरकी पूजा करना ही अधिक उचित
        ‘मनुष्यदेहको ईश्वरका देवालय (मंदिर) माना गया है । सहस्रार-चक्र मूर्धास्थानपर (चोटीके स्थानपर) होता है । वहां निर्गुण परमेश्वरका वास होता है । भृकुटिके मध्यमें (दोनों भौंहोंके मध्य) आज्ञा-चक्रपर सगुण परमेश्वरका वास होता है । मायाकी उपाधि रहनेतक सगुण परमेश्वरकी  पूजा करना ही उचित है ।
भृकुटिके मध्यमें वास करनेवाले परमेश्वरको तिलक लगानेसे संपूर्ण दिन मनमें भक्तिभाव एवं शांतिका वास होना
        तिलकधारण करना अर्थात् लघु देवतापूजन करना । शास्त्रानुसार मध्यमाका प्रयोग कर तिलक धारण करें । मध्यमाका संबंध हृदयसे होता है, अत: इस उंगलीसे प्रवाहित स्पंदन हृदयतक जाते हैं । भृकुटिके मध्यमें निवास करनेवाले परमेश्वरको तिलक लगाते समय तृतीय नेत्रसे जो स्पंदन प्रक्षेपित होते हैं; वे मध्यमाद्वारा हृदयमें प्रवेश कर अंकित होते हैं, इससे पूर्ण दिवस मनमें भक्तिभाव एवं शांतिका वास रहता है ।’

१ आ. तिलक अथवा मुद्रा लगानेके प्रकार

ऊर्ध्वपुंड्र : मस्तकपर एक अथवा अधिक खडी रेखाएं निकालनेको ‘ऊर्ध्वपुंड्र’ कहते हैं । ‘ऊर्ध्वपुंड्र’ बनानेके लिए श्रीविष्णुके अस्तित्वसे पवित्र हुए क्षेत्रकी मिट्टी; गंगा, सिंधु इत्यादि पवित्र नदियोंके तटकी मिट्टी अथवा गोपीचंदन लें ।
त्रिपुंड्र : मस्तकपर निकाली गई तीन आडी रेखाओंको ‘त्रिपुंड्र’ कहते हैं । त्रिपुंड्र मुद्राएं भस्मकी होती हैं ।
तिलक मुद्रा (तिलक) चंदनसे बनाते हैं । 

२. संध्याके संदर्भमें आचार

        शास्त्रोंमें ब्राह्मणको ‘संध्या’का आन्हिक कृत्य करनेके लिए तीन समय बताए गए हैं - प्रातः स्नानके उपरांत, मध्यान्हकाल तथा सायंकाल ।

२ अ. संध्याका महत्त्व

संध्या न करनेवाले ब्राह्मणको मृत्युके पश्चात् श्‍वानयोनि प्राप्त होना
संध्या नोपासते यस्तु ब्राह्मणो हि विशेषतः ।
    स जीवन् चैव शूद्रः स्यान्मृतः श्वा चैव जायते ।।
अर्थ : जो ब्राह्मण संध्या नहीं करता, वह जीवितावस्थामें ही शूद्र समझा जाता है और मृत्युके पश्चात् श्वान बनता है ।
विवरण : श्रुतिकी आज्ञा है कि, ‘अहरहः संध्यामुपासीत् ।’ अर्थात् ‘प्रतिदिन संध्या करनी ही चाहिए ।’ संध्या न करनेवाले ब्राह्मणका प्रत्येक दिनका पाप एकत्रित होकर उसे इसी जन्ममें शूद्राचारी बनाता है तथा मृत्युके पश्चात् स्वेच्छाचार कर सके, इसके लिए उसे कुत्तेकी योनिमें जन्म मिलता है ।’ - गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी
संध्यावंदना करनेसे ऋषियोंको दीर्घ आयु, प्रज्ञा, यश, अक्षय कीर्ति एवं दिव्य तेज प्राप्त होना
 ऋषयो दीर्घसंध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्नुयुः ।
    प्रज्ञां यशश्‍च कीर्तिं च ब्रह्मवर्चसमेव च ।।
- मनुस्मृति, ४.९४
अर्थ : संध्याका अर्थ है संध्यासमय किए जानेवाले जपादि कर्म । दीर्घकाल संध्यावंदना करनेसे ऋषियोंको दीर्घ आयु, प्रज्ञा, यश, अक्षय कीर्ति और ब्रह्मवर्चस (दिव्य तेज) प्राप्त होता है ।

२ आ. संध्यावंदनाके पूर्व पैर धोनेका महत्त्व

        ‘एक बार सायंकाल नलराजा कामकी हडबडीमें पैर धोकर संध्यावंदनाके लिए बैठ गए । उस समय उनके पैरका अंगूठा सूखा ही रहा । कलिको अवसर मिला और उसने अंगूठेद्वारा राजा नलके शरीरमें प्रवेश किया ।’ - गुरुदेव डॉ.काटेस्वामीजी

२ इ. संध्यासमान कृति

        ‘सुबह स्नानके उपरांत पूर्वकी ओर मुख कर बैठें । प्राणायामके पश्चात् सभी पापोंका (अनिष्ट वासनाओंका) क्षय हो, इस हेतु उदकसे मार्जन करें (शरीरपर जल छिडकें) । उदक पापोंका नाश करता है । अघमर्षणके उपरांत (अघ अर्थात् पाप + मर्षण अर्थात् निःसारण) उस पृथ्वीका पूजन करें, जिसने हमें धारण किया है । तत्पश्चात् जिस शरीरसे जप करना है और जिसमें उसे बिंबित करना है, उस शरीरको शुद्ध करने तथा बुद्धिको सत्प्रवृत्त करनेके लिए गायत्री मंत्रका जप करें और अंतमें प्रार्थना करें ।' - प.पू. परशराम माधव पांडे महाराज, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल.

३. तुलसीको जल देना और नमस्कार करना

        देवतापूजन प्रारंभ करनेसे पूर्व तुलसीको जल अर्पण कर उसका पूजन करें । इस समय निम्नलिखित श्लोकका उच्चारण करें ।
तुलसि श्रीसखि शिवे पापहारिणि पुण्यदे ।
नमस्ते नारदनुते नमो नारायणप्रिये ।।
अर्थ : श्री लक्ष्मीकी भगिनी, कल्याणकारी, पाप दूर करनेवाली, पुण्यदा, जिनकी स्तुति नारदजी करते हैं और जो श्रीविष्णुको अत्यंत प्रिय हैं, ऐसी तुलसीमाताको मैं नमस्कार करता हूं ।
        स्त्रियां तुलसीपूजन नित्य करें और पूजनके उपरांत नित्य-नैमित्तिक कर्म आरंभ करें ।  तुलसीको नमस्कार करनेका इतना अधिक महत्त्व है, इसीलिए प्रत्येक घरमें तुलसीवृंदावन हुआ करते थे ।

४. देवतापूजन

४ अ. स्नान करनेके पश्चात् संभवतः एक घंटेमें देवतापूजन आरंभ करनेका महत्त्व

        ‘२७.१०.२००५ को देवतापूजन करते समय मेरे मनमें प्रश्न आया, ‘स्नानके उपरांत देवतापूजन तुरंत ही क्यों करना चाहिए ?' उस समय अंदरसे उत्तर मिला, ‘स्नान करना अर्थात् स्थूलदेह और सूक्ष्मदेहकी पृथ्वीतरंगोंका एवं तमोगुणयुक्त आवरणका उच्चाटन करना । स्नान करनेके पश्चात् जीवके चारों ओर आपतत्त्वका एक वलय निर्माण होता है । वह वलय सात्त्विक कणोंसे आवेशित होनेके कारण इस सात्त्विकताके बलपर देवताओंका तत्त्व आकर्षित करना सरल होता है । स्नान करनेके उपरांत जीवद्वारा देवताओंका चैतन्य ग्रहण करनेकी क्षमतामें वृद्धि होती है । ऐसेमें जीवको मिलनेवाला चैतन्य संपूर्ण दिन रह सकता है ।’ - श्री. निमिष म्हात्रे, कांदिवली, मुंबई
स्नानके कारण बढी सात्त्विकताका लाभ होनेके लिए स्नानके उपरांत एक घंटेके भीतर देवतापूजन आरंभ करना आवश्यक
        ‘स्नान करनेसे बढी सात्त्विकता, वायुमंडलसे हो रहे रज-तम कणोंके आक्रमणोंके कारण एक घंटेके उपरांत क्षीण होने लगती है । इसलिए स्नानके कारण बढी सात्त्विकताका लाभ जीवको नहीं मिलता, अतः संभव हो, तो स्नानके उपरांत एक घंटेके भीतर देवतापूजन प्रारंभ करें ।’ - एक ज्ञानी (श्री. निषाद देशमुखके माध्यमसे, १६.४.२००७, सायं. ६.१३)
        ‘देवतापूजनसे प्राप्त सात्त्विक तरंगोंद्वारा दिनभरके कार्य करना आरंभ होता है ।’ - सूक्ष्म-जगतके एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, २९.१०.२००७, दिन ९.४६)

५. शुभसूचक कृत्य करना अथवा शुभ वस्तुओंकी ओर देखना

५ अ. शुभसूचक कृत्य करना

        ‘बडोंका अभिवादन करना, दर्पण अथवा घीमें अपना प्रतिबिंब देखना, केशभूषा करना, अलंकार धारण करना, आंखोंमें अंजन अथवा काजल लगाना इत्यादि कृत्य शुभसूचक होते हैं ।’ - नारद प्रकीर्णक, ५४.५५
शुभसूचक कृतिके कारण देहकी सत्त्वगुणात्मक चेतना कुछ कालतक बनी रहना
        ‘‘देवतापूजन करनेकी कृति देहमें सत्त्वगुण बढाती है, इसलिए कहते हैं कि, देवतापूजनके पश्चात् ‘शुभसूचक कर्म, अर्थात् सत्त्वगुणका प्रक्षेपण करनेवाले कर्म करें ।’ यह शुभसूचक कृति देहकी सत्त्वगुणात्मक चेतना कुछ कालतक बनाए रखनेमें सहायक होती है ।
        शुभसूचक कृत्य अधिक एकाग्रतापूर्वक करनेसे देह वायुमंडलमें सात्त्विक तरंगोंका प्रक्षेपण करता है, जिससे कुछ कालोपरांत देहके चारों ओर उसका सुरक्षामंडल बननेमें सहायता होती है ।
१. बडोंका अभिवादन : इससे बडोंके प्रति नम्रभाव निर्माण होकर सत्त्वगुण बना रहता है ।
२. दर्पण अथवा घीमें अपना प्रतिबिंब देखना : इससे देहपर आया रज-तमात्मक आवरण दर्पण अथवा घीकी पारदर्शकतामें समा जानेमें सहायता होती है । परिणामस्वरूप देहकी सत्त्वगुणात्मक क्षमता बनी रहती है ।
३. केशभूषा करना : बाल संवारनेकी प्रक्रियाद्वारा निर्मित तेजके उत्सर्जनसे बालोंमें स्थित रज-तमात्मक कणोंका उच्चाटन होता है । बालोंमें विद्यमान चेतना जागृत होकर बालोंका बलवर्धन होता है, जिसके आधारसे वे वायुमंडलमें स्थित कष्टदायक स्पंदनोंके साथ लडनेमें समर्थ बनते हैं । इससे देहका सत्त्वगुण बनाए रखनेमें सहायता होती है ।
४. आंखोंमें अंजन अथवा काजल लगाना : घीकी ज्योतिपर बनाए गए काजलसे और घीके अंजनसे आंखोंके तेजतत्त्वके कार्यको पुष्टि मिलती है । आंखोंसे बाह्य वायुमंडलमें तेजका प्रक्षेपण बढता है और तेजके स्तरपर संपूर्ण देहकी रक्षा होनेमें सहायता होती है । इसीलिए कहा गया है कि ‘सत्त्वगुणसंचयकी पुष्टि करनेवाली यह कृति करें ।’ - सूक्ष्म-जगतके एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, २४.१२.२००७, सायं. ७.३६)

५ आ. शुभ वस्तुओंकी ओर देखना

‘ब्राह्मण, राजा, गाय, अग्नि इत्यादि मंगलमय होते हैं ।’ - नारद प्रकीर्णक, ५४.५५
मंगलमय व्यक्ति अथवा वस्तुके दर्शनसे देखनेवालेके देहपर आया आवरण झडना और देहको सतेजता प्राप्त होना
        ‘देवतापूजन करनेकी कृति देहमें सत्त्वगुण बढाती है । इसलिए कहते हैं कि, देवतापूजनके उपरांत ‘सात्त्विक घटकोंको देखनेमें, अर्थात् कुछ समय उनपर मन एकाग्र करनेमें व्यतीत करें ।’
        ब्राह्मण, राजा, गाय, अग्नि इत्यादि मंगलमय होते हैं; क्योंकि तेजदायिनी अथवा स्वयंतेजसे आवेशित वस्तुको ‘मंगलमय’ माना जाता है । ब्राह्मतेजसे आवेशित ब्राह्मण, देवत्वदर्शक तेजका उत्सर्जन करनेवाली स्वयं गौमाता, प्रत्यक्ष तेजस्वरूप अग्नि और क्षात्रतेजसे आवेशित राजा, ये सभी घटक विविध प्रकारके तेजसे परिपूर्ण होते हैं । इसलिए उनके दर्शनसे लाभ होता है । दर्शन करनेवालेके देहपर आया आवरण झड जाता है एवं उसके देहको सतेजता प्राप्त होती है । यही सतेजता देहके सत्त्वगुणात्मक संक्रमणमें निरंतरता बनाए रखती है ।’
- सूक्ष्म-जगतके एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, २४.१२.२००७, सायं. ७.३६)

६. होम

        ‘यज्ञ करनेसे देवताओंका ऋण चुकाया जाता है; इसलिए प्रत्येक मनुष्यको अग्निहोत्र (प्रातः और सायंकाल अग्निमें आहुतियां अर्पण करना) आमरण करना ही चाहिए ।’ - शतपथ ब्राह्मण, १२.४.१.१
        ‘प्रत्येक ब्राह्मणको तीन श्रौत अग्नियोंमेंसे (आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि) एक अग्निका आधान (उपासना) अवश्य करना चाहिए ।’ - योगवासिष्ठ, ११.४५/४८
        गृहस्थाश्रमीके लिए गार्हपत्य अग्निकी, तथापि अग्निहोत्रीके लिए तीनों अग्नियोंकी उपासना करना आवश्यक है ।

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