Friday, July 20, 2012

चातुर्मास महिमा

१. एक पर्वकाल है, चातुर्मास

        आनंदप्राप्ति अर्थात ईश्वरप्राप्ति, यह मनुष्य जीवनका एकमात्र उद्देश्य है । अतः मनुष्यके लिए निरंतर ईश्वरका सूक्ष्म-सान्निध्य अत्यावश्यक होता है । ईश्वरसे सदैव हमारा संधान  बना रहे, इसलिए हमारे ऋषिमुनियोंने विविध माध्यम उपलब्ध करवाए हैं । इनके अंतर्गत कालानुसार उपासना भी बताई गई है । विशिष्ट कालमें विशिष्ट उपासना करनेसे उपासकको उस कालसे संबंधित देवतातत्त्वोंका अत्यधिक लाभ मिलता है । देवतातत्त्वोंके चैतन्यसे प्राप्त अंतःप्रेरणासे मनुष्य अध्यात्मके पथपर चलकर आगे ईश्वरसे एकरूप हो जाता है ।

२. चातुर्मासकी कालगणना

        आषाढ शुक्ल एकादशीसे कार्तिक शुक्ल एकादशीतक अथवा आषाढ पूर्णिमासे कार्तिक पूर्णिमातक चार महीनेके कालको ‘चातुर्मास’ कहते हैं । चातुर्मासके आरंभमें जो एकादशी आती है, उसे कहीं शयनी एकादशी तो कहीं  देवशयनी एकादशी कहते  हैं । तथा चातुर्मासके समापन पर जो एकादशी आती है, उसे देवोत्थान अथवा प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं । अब समझ लेते हैं, चातुर्मासकी कालमहिमा ।

३. चातुर्मास देवताओंका शयनकाल है

        मनुष्यका एक वर्ष देवताओंकी एक अहोरात्र है । रात्रि काल सामान्यतः १२ घंटेका माना जाता है । तो एक पूर्ण दिन एवं पूर्ण रात्रि मिलाकर अहोरात्र होती है । मकर संक्रांतिसे कर्क संक्रांतितक उत्तरायण होता है एवं कर्क संक्रांतिसे मकर संक्रांति तक दक्षिणायन होता है । उत्तरायण देवताओंका दिन होता है, तो दक्षिणायन देवताओंकी रात । कर्क संक्रांतिपर उत्तरायण पूर्ण होकर दक्षिणायन प्रारंभ होता है, अर्थात देवताओंकी रात आरंभ होती है । कर्क संक्रांति आषाढ महीनेमें आती है; इसलिए आषाढ शुक्ल एकादशीको शयनी एकादशी कहते हैं । ऐसी मान्यता है कि उस दिन देवता शयन करते हैं, अर्थात सो जाते हैं । कार्तिक शुक्ल एकादशीपर देवता नींदसे जागते हैं, इसलिए इसे ‘देवोत्थान’ अथवा ‘प्रबोधिनी एकादशी’ कहते हैं । वस्तुतः दक्षिणायन छः महीनेका होनेके कारण देवताओंकी रात्रि भी तत्समान होनी चाहिए; परंतु प्रबोधिनी एकादशी तक चार  महीने पूर्ण होते हैं । इसका अर्थ यह  है कि एक तृतीयांश रात शेष होते हुए देवता जागकर अपना व्यवहार करने लगते हैं ।’

४. चातुर्मास भगवान श्रीविष्णुका शयनकाल है

        चातुर्मासमें ‘ब्रह्मदेव द्वारा नई सृष्टिकी रचनाका कार्य जारी रहता है एवं पालनकर्ता श्री विष्णु निष्क्रिय रहते हैं; इसलिए चातुर्मासको विष्णु शयनकाल भी कहते हैं । ऐसी मान्यता है कि उस समय विष्णु क्षीरसागरमें शयन करते हैं । इसके संदर्भमें एक पौराणिक कथा है - वामनावतारमें श्री विष्णुने असुरोंके राजा बली से  त्रिपादभूमि दानमें मांग ली । श्री विष्णुने एक पदमें पृथ्वी, दूसरे पदमें संपूर्ण ब्रह्मांड माप लिया तथा तीसरी बार श्री विष्णुने बलीराजाकी प्रार्थनाके अनुसार उनके सरपर पद रखकर उन्हें पातालमें भेज दिया । बलीराजाने भगवान श्रीविष्णुकी भक्तिमें अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया । इसपर प्रसन्न होकर भगवान श्रीविष्णुने बलीराजाके निकट रहना मान्य किया । तबसे श्रीविष्णु क्षीरसागरमें शयन करने लगे । वास्तवमें चातुर्मासके इस कालमें श्रीविष्णु शेष शय्यापर योगनिद्राका लाभ लेते हैं ।

५. श्रीविष्णु-शयनके संदर्भमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण

        चातुर्मासमें जगत पालनकर्ता श्री विष्णु क्षीरसागरमें शयन करते  हैं । ऐसेमें किसीके मनमें यह प्रश्न उभर सकता है कि इस कालमें सृष्टिका कार्य कैसे होता होगा ? इसलिए इसे वैज्ञानिक दृष्टिसे समझ लेना भी उपयुक्त होगा । श्री विष्णुका एक नाम है, हरि । हरि शब्दके अर्थ हैं, सूर्य, चंद्र, वायु इत्यादि । चातुर्मासमें परमेश्वरकी ये शक्तियां भी क्षीण होती हैं,  इस बातको कोई अमान्य नहीं कर सकता । चातुर्मासमें अति वर्षाके कारण हमें सूर्य, चंद्रके दर्शन नहीं होते । तथा वायुके क्षीण होनेके उपरांतही वर्षा होती  है । यह क्रिया अन्य ऋतुओंमें नहीं होती । इस दृष्टिसे चातुर्मास सूर्य, चंद्र, वायु,  अर्थात श्रीविष्णुका शयनकाल होता है । 

६. चातुर्मासमें किए गए दान, पुण्य, तप, व्रत इत्यादि अधिक फलदायी होते हैं

    चातुर्मासमें की जानेवाली तीर्थयात्रा, दान, पुण्य, तप, व्रत इत्यादि श्री विष्णुके चरणोंमें अर्पित होते हैं । जो मनुष्य चातुर्मासमें तीर्थक्षेत्रमें नदीस्नान करता है, उसके अनेक पापोंका नाश होता है । क्योंकि वर्षाका जल विभिन्न स्थानोंसे मिट्टीके माध्यमसे प्राकृतिक शक्तिको अपने साथ बहाकर समुद्रकी ओर ले जाता है । यहां चातुर्मासमें श्री विष्णुका जलमें शयन करनेका अर्थ है, जलमें उनके तेज एवं शक्तिका अंश विद्यमान होना । इस तेजयुक्त जलसे स्नान करना सर्व तीर्थयात्राओंकी तुलनामें अधिक फलदायी है । इससे इस कालमें व्रतोंकी अधिक संख्याका कारण स्पष्ट होता है । इसके अतिरिक्त इस कालमें अधिकाधिक व्रतविधि करनेके अन्य कारण भी हैं ।  

७. विविध रोगोंका प्रतिकार करनेके लिए स्वयंको सक्षम बनाना

 वर्षाॠतुमें हमारे एवं सूर्यके बीच मेघका एक पट्टा बनता  होता है । इसलिए सूर्यकी किरणें अर्थात तेजतत्त्व तथा आकाशतत्त्व अन्य दिनोंके समान पृथ्वीपर नहीं पहुंच पाते, जिसके कारण वातावरणमें पृथ्वी एवं आपतत्त्व प्रबल होते हैं । विविध जंतु, रज-तम तथा काली शक्तिका विघटन नहीं हो पाता; इसलिए रोग पैलते हैं । आलसका अनुभव होता है । शिकागो मेडिकल स्कूलके स्त्री रोग-विशेषज्ञ, प्रोफेसर डॉ. डब्ल्यू.एस. कोगरद्वारा किए गए शोधमें पाया गया कि जुलाई, अगस्त, सितंबर एवं अक्टूबरके चार महीनोंमें, विशेषकर भारतमें स्त्रियोंको गर्भाशय संबंधी रोग होते हैं,  बढते हैं ।         व्रत विधि, उपवास करना, सात्त्विक आहार तथा नामजपके कारण हमारा सत्त्वगुण बढता है । इससे हम शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक दृष्टिसे इन रोगोंका अर्थात रज-तमका प्रतिकार करनेमें सक्षम बनते हैं । 

८. असुरोंकी प्रबलता अर्थात रज-तम अल्प करना

धर्मशास्त्रके अनुसार आषाढ शुक्ल एकादशीसे कार्तिक शुक्ल एकादशीतक अर्थात देवताओंके निद्राकालमें असुर प्रबल होते हैं एवं वे मनुष्यको कष्ट पहुंचाते हैं । चौमासेमें पृथ्वीपर प्रवाहित तरंगोंमें तमोगुण प्रबल तरंगोंकी मात्रा अधिक रहती है । उनका सामना कर पानेके लिए सात्त्विकता बढाना आवश्यक है । व्रतोंके पालनसे सात्त्विकतामें वृद्धि होती है तथा रज-तमकी मात्रा अल्प होती है ।  इसी कारण चातुर्मासमें अधिकाधिक व्रत होते हैं । असुरोंसे अपना संरक्षण करनेके लिए इस कालमें प्रत्येक व्यक्तिको कोई न कोई व्रत अवश्य रखना चाहिए । मनुष्य स्वस्थ, निरोगी, दीर्घायु तथा अध्यात्म पथपर अग्रेसर हो, ये दोनों  हेतु साध्य करनेके लिए हमारे ऋषिमुनियोंने चातुर्मासमें विविध व्रतोंका विधान बताया है । इन ऋषिमुनियों तथा हिंदु धर्मकी महानताके सामने हम नतमस्तक हैं ।

(संदर्भ : सनातनका ग्रंथ-त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत)

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