Monday, July 23, 2012

गढ़े जीवन अपना अपना

किसी भी नोट पर उसका मूल्य लिखा होता है। किन्तु वह मूल्य रिजर्व बैंक के गवर्नर के आश्वासन का मूल्य होता है ना कि नोट के कागज और छपाई आदि का। अर्थात जिस देश का नोट है उसमें तो उसका वहीं मूल्य होगा पर उस देश के बाहर जाते ही उस कागज का मूल्य कुछ भी नहीं रहेगा क्योंकि उस नोट का मूल्य उसका अपना नहीं है, राज्य की सत्ता द्वारा प्रदत्त मूल्य ही वह कागज का टुकड़ा धारण करता है। उसी प्रकार मनुष्य भी अपने स्थान, परिवार, व्यवसाय, पद आदि के कारण जो महत्व पाता है वह भी उसका स्वयं का मूल्य नहीं होता अपितु उस उस उपाधि के द्वारा मनुष्य पर भावित मूल्य होता है। ऐसे उपाधि मूल्य (Face Value) की अवधि (Expiry) उपाधि के साथ ही समाप्त होती है। जैसे जिले के जिलाधीश (Collector) को मिलने वाला मान-सम्मान पद के होने तक ही होता है। पद के छूट जाने के बाद वह सम्मान नहीं मिलेगा। हृदयरोगियों के बारे में किये आधुनिक अनुसंधानों में पाया गया है कि सेवानिवृत्ति के प्रश्चात के 1-2 सप्ताह में हृदयाघात के प्रकरण अधिक होते है। कारणों की मिमांसा में दो प्रमुख कारण पाये गये - 1. अचानक कार्यनिवृत्ति के कारण आये खालीपन से उत्पन्न निरर्थकता का भाव तथा 2. पदविहीन होने से लोगों के व्यवहार में आये परिवर्तन का झटका (Shock)  जो अधिकारी प्रतिदिन सम्मान का आदी हो जाता है उसे अचानक खाली हो जाने से सम्मान मिलना बन्द हो जाता है जिसको सहन करना कठीन हो जाता है। यह स्थिति उपाधि मूल्य के नष्ट हो जाने से इस कारण होती है क्योंकि हम अपने वास्तविक मूल्य का ध्यान नहीं देते।
हमारा वास्तविक मूल्य हमारा आंतरिक मूल्य (Intrinsic Value) होता है जो हमारे चरित्र का प्रभाव होता है। जिस प्रकार सिक्के में धातु का मूल्य होता है वह उसका आंतरिक मूल्य होता है। वर्तमान में जो एक रूपये का सिक्का है उसके धातु का मूल्य 1 रूपये से अधिक है इस कारण कई शहरों में ऐसे गिरोह कार्य कर रहे हैं जो इन सिक्कों को गलाकर इनमें से प्राप्त होने वाली मूल्यवान धातु को बेंचने का धंदा करते हैं। यह ऐसा उदाहरण है जहाँ उपाधि मूल्य से आंतरिक मूल्य अधिक है। मनुष्य का भी आंतरिक मूल्य ही महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि वह परिस्थिति, पद, सम्बंद्ध ऐसे परिवर्तनीय कारकों पर निर्भर नहीं होता। चाहे बाह्य कारक पूर्णतः बदल जाय फिर भी जो आंतरिक चरित्र है उसका मूल्य वैसे ही बना रहेगा। इसी आधार पर कठीन परिस्थितियों में भी वीर अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर ही लेते है। स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका में गये तब उनका परिचय पत्र, सामान सब चोरी हो गया। पराये देश में कोई एक भी परिचित व्यक्ति नहीं जहाँ जाना है वहाँ का पता नहीं। अर्थात उपाधि मूल्य कुछ भी नहीं। ऐसे समय उनका साथ दिया उनके आंतरिक मूल्य नें उनके चरित्र ने, ज्ञान ने। इस असम्भव स्थिति में भी पूर्ण श्रद्धा के साथ उन्होंने अपने लक्ष्य को प्राप्त किया।
बोस्टन में, शिकागो में जिन लोगों से उनका परिचय हुआ वे सब उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहें। जिस घर में वे रहते थे, वहाँ की गृहस्वामीनी अपनी सहेलियों की चाय पार्टी में स्वामीजी को एक अजूबे के रूप में, मसखरे के रूप में प्रस्तुत करती थी। पर उनकी बातों में भरा जीवन का ज्ञान इस विडम्बना और अपमान को पार कर फैलता गया। फिर उन महिलाओं के परिवारों के प्रबुद्ध सदस्य आकर्षित हेाते गये और स्वामी विवेकानन्द की ख्याति सुरभी की भाँति सर्वत्र फैल गई। विद्वानों ने उन्हे परिचय और सन्दर्भ देकर शिकागो भेजा। प्रोफेसर राइट ने धर्मसभा के आयोजक फादर बैरोज को पत्र लिखा। यह सब आंतरिक मूल्य का परिणाम थे।
हम अपने जीवन में सतत अपने आंतरिक मूल्य को बढ़ाते रहे ताकि उपाधि मूल्य पर हमारे जीवनलक्ष्य की प्राप्ति निर्भर ना हो। अभितक इस श्रृंखला में हमने जो भी जीवननिर्माणकारी बातों की चर्चा की हे वे सारी ही आंतरिक मूल्यवृद्धि में सहायक है। हमारा मूल्य कैसे निर्धारित होगा? दूसरों के मूल्यांकन से ना तो हमारा मूल्य घटता है ना बढ़ता है। सारी बात हमारे अपने जीवन में हम किन बातों को वरीयता देते है इस पर निर्भर हैं। हम जीवन में जिन बातों को मूल्य देंगे वे तय करेंगी की हमारा आंतरिक मूल्य क्या है? अतः हमारे जीवनमूल्य हमारा मूल्य निर्धारित करते है। कोई व्यक्ति पैसे को इतना मूल्यवान समझता हे कि उसके लिये सबकुछ कर सकता है। अब उसके जीवनमूल्य इस बात से प्रभावित होंगे। उसका व्यवहार व दिनचर्या, आदते, मित्र, सम्बन्ध सब इसी से निर्धारित होंगे। कोई अपनी कलासाधना को सर्वाधिक मूल्य प्रदान करता है और उसके लिये कुछ भी त्यागने को तैयार हो सकता है और ऐसे भी उदाहरण है जिन्होंने देशकार्य में समर्पित होने के लिये अपनेकला जीवन को तिलांजली दी। हम जीवन में जिन बातों को मूल्यवान समझते है उनके लिये त्याग करते है। कुछ चीजों को धारण करते हे कुछ को छोड़ देते है। इस प्रकार की छटनी से हमारे जीवन की अपनी शैली विकसित होती है। यह शैली ही हमारे जीवनमूल्य तय करती है। अर्थात ये प्रक्रिया परस्पर पूरक है।
यह केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं होता अपितु सामूहिक भी होता है। समाज अपनी जीवन दृष्टि के अनुसार वरीयतायें निश्चित करता है और इस आधार पर ही उन बातों का भी निर्धारण होता है जिनको सर्वाधिक मूल्य प्रदान करना है। जैसे विश्वविद्यालय के शिक्षकों के समूह में ज्ञान व अनुसंधान को अधिक मूल्य होगा तो सेना के अधिकारियों के क्लब में मान वीरता को दिया जायेगा फिर ज्ञान कुछ कम ही क्यों ना हो। पर कई बार यह इतना स्पष्टरुपेण विभाजित नहीं होता। जैसे जब समाज में सब ओर पैसे का ही बोलबाला हो और संपदा के आधार पर ही प्रतिष्ठा भी मिलती हो ता फिर शिक्षको की चर्चा में भी पगार और बैंकों के ब्याजदरों की बाते प्रमुख स्थान लेने लगती है। पूरे देश की जीवनशैली उसके द्वारा विकसित एवं प्रचलित जीवनमूल्यों पर निर्भर होती है।
स्वामी विवेकानन्द कहते है प्रत्येक देश का अपना स्वभाव होता है। उसी के अनुसार जीवन जीने से उसका पूर्ण विकास सम्भव है। भारत का प्राणतत्व है-धर्म! उसी के अनुरूप जीवनमूल्यों को प्रतिष्ठित करने से ही भारत अपने जीवनध्येय को प्राप्त कर सकेगा। क्या है हमारे राष्ट्रीय जीवनादर्श और उनपर आधारित जीवनमूल्य? देखते है अगली बार!

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