Friday, July 13, 2012

कर्मयोग और कर्मकाण्ड

 कर्मयोग
योग का साधारण अर्थ हैं- जोड़
जो कर्म ..जोड़ने का कार्य करे वो कर्मयोग ही हैं
जब तक हम स्वयं से नहीं जुड़ते, समाधि तक पहुँचना कठिन होगा। योग दर्शन या धर्म नहीं, गणित से कुछ ज्यादा है। दो में दो मिलाओ चार ही आएँगे। चाहे विश्वास करो या मत करो, सिर्फ करके देख लो। आग में हाथ डालने से हाथ जलेंगे ही, यह विश्वास का मामला नहीं है।
जो कर्म ..जोड़ने का कार्य करे वो कर्मयोग ही हैं
और वो मात्र संभव हैं सत्य , अहिन्षा , ब्रम्हचर्य , अपरिग्रह एवम अस्तेय से
जिसे सभी धर्म, जाति, और मजहब के लोग मानते हैं |
अत: जो कर्म ..जोड़ने का कार्य करे वो कर्मयोग ही हैं, और कर्मयोग निष्ठा पूर्वक करने वाला व्यक्ति कर्मनिष्ठ हैं या उसे कर्मयोगी भी कह सकते हैं|
योग धर्म, आस्था और अंधविश्वास से परे है। योग एक सीधा विज्ञान है। प्रायोगिक विज्ञान है। योग है जीवन जीने की कला। योग एक पूर्ण चिकित्सा पद्धति है। एक पूर्ण मार्ग है-राजपथ। दरअसल धर्म लोगों को खूँटे से बाँधता है और योग सभी तरह के खूँटों से मुक्ति का मार्ग बताता है।'-ओशो
जैसे बाहरी विज्ञान की दुनिया में आइंस्टीन का नाम सर्वोपरि है, वैसे ही भीतरी विज्ञान की दुनिया के आइंस्टीन हैं पतंजलि। जैसे पर्वतों में हिमालय श्रेष्ठ है, वैसे ही समस्त दर्शनों, विधियों, नीतियों, नियमों, धर्मों और व्यवस्थाओं में योग श्रेष्ठ है।
 कर्मकाण्ड
...आचार्य जैमिनी जैसी महान विभूति ने इस शब्द पर धर्मसूत्र की रचना की है ....गीता में भगवान स्वयं कहते हैं ...
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्‌...यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्‌ ..
भावार्थ : यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप -ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को (वह मनुष्य बुद्धिमान है, जो फल और आसक्ति को त्याग कर केवल भगवदर्थ कर्म करता है।) पवित्र करने वाले हैं....
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा फलानि च...कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्‌...
भावार्थ : इसलिए हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है...
 

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