Tuesday, July 10, 2012

अवतार-

प्रायः लोग कहते हैं कि भगवान का अवतार होगा तो दर्शन कर लेंगे। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसा कुछ नहीं होता कि दूसरा कोई देख सके। स्वरुप का जन्म पिण्डरुप में नहीं होता। श्रीकृष्ण कहते हैं-- योग साधना द्वारा, आत्ममाया द्वारा अपनी त्रिगुणमयी प्रकृति को स्ववश करके मैं क्रमशः प्रकट होता हूं।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥४/६॥
मैं विनाशरहित, पुनः जन्मरहित और समस्त प्राणियों के स्वर में संचारित होने पर भी अपनी प्रकृति को अधीन करके आत्ममाया से प्रकट होता हूं। एक माया तो अविद्या है जो प्रकृति में ही विश्वास दिलाती है, नीच एवं अधम योनियों का कारण बनती है। दूसरी माया है आत्मामाया, जो आत्मा में प्रवेश दिलाती है,स्वरुप के जन्म का कारण बनती है। इसी को योगमाया भी कहते हैं। जिससे हम विलग हैं, उस शाश्वत स्वरुप से यह जोड़ती है, मिलन कराती है। उस आत्मिक प्रक्रिया के द्वारा मैं अपनी त्रिगुणमयी प्रकृति को अधीन करके ही प्रकट होता हूं।
लेकिन किन परिस्थियों में?-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मनं सृजाम्यहम्॥४/७॥
हे अर्जुन! जब-जब परमधर्म परमात्मा के लिए हृदय ग्लानि से भर जाता है, जब अधर्म की वृद्धि से भाविक पार पाते नहीं देखता, तब मैं आत्मा को रचने लगता हूं। ऐसी ग्लानि मनु को हुई थी-
हृदय बहुत दुःख लाग,जनम गयौ हरि भगति बिनु॥(मानस,१/१४२)
जब आपका हृदय अनुराग से पूरित हो जाय, उस शाश्वत धर्म के लिए 'गदगद गिरा नयन बह नीरा' की स्थिति आ जाय, जब प्रयत्न करके भी अनुरागी अधर्म का पार नहीं पाता- ऐसी परिस्थिति में मैं अपने स्वरुप को रचता हूं। अर्थात भगवान का आविर्भाव केवल अनुरागी के लिए है- सो केवल भगतन हित लागी। (मानस, १/१२/५)
यह अवतार किसी भाग्यवान साधक के अन्तराल में होता है। आप प्रकट होकर करते क्या हैं?-
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥४/८॥
अर्जुन! 'साधूनां परित्राणाय'- परमसाध्य एकमात्र परमात्मा है, जिसे साध लेने पर कुछ भी साधन शेष नहीं रह जाता। उस साध्य में प्रवेश दिलानेवाले विवेक,वैराग्य, शम दम इत्यादि दैवी सम्पद को निर्विघ्न प्रवाहित करने के लिए तथा 'दुष्कृताम्'- जिससे दूषित कार्यरुप लेते हैं, उन काम क्रोध, राग, द्वेषादि विजातीय प्रवृत्तियों को समूल नष्ट करने के लिए तथा धर्म को भली प्रकार स्थिर करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट होता हूं।
युग का तात्पर्य सत्ययुग,त्रेता,द्वापर नहीं, युगधर्मों का उतार-चढ़ाव मनुष्यों के स्वभाव पर है। युग धर्म सदैव रहे हैं। मानस में संकेत है-
नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदय राम माया के प्रेरे॥(मानस, ७/१०३ख/१)
युगधर्म सभी के हृदय में नित्य होते रहते हैं। अविद्या से नहीं बल्कि विद्या से, राममाया की प्रेरणा से हृदय में होते रहते हैं।जिसे प्रस्तुत श्लोक में आत्ममाया कहा गया है, वही है राममाया। हृदय में राम की स्थिति दिला देनेवाली,राम से प्रेरित है वह विद्या। कैसे समझा जाय कि अब कौन सा युग कार्य कर रहा है, तो 'सुद्ध सत्व समता विग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना॥(मानस) जब हृदय में शुद्ध सत्त्वगुण ही कार्यरत हो, राजस तथा तामस दोनों गुण शान्त हो जायं,विशमताएं समाप्त हो गयी हों,जिसका किसी से द्वेष न हो, विज्ञान हो अर्थात इष्ट से निर्देशन लेने और उस पर टिकने की क्षमता हो,मन में प्रसन्नता का पूर्ण संचार हो- जब ऐसी योग्यता आ जाय,तो सतयुग में प्रवेश मिल गया। इसी प्रकार दो अन्य गुणों का वर्णन किया और अन्त में- तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव विरोध चहुं ओरा॥ (मानस,७/१०३ख/५)
तामस गुण भरपूर हो,किंचित राजसी गुण भी उसमें हो, चारों ओर वैर और विरोध हो तो ऐसा व्यक्ति कलियुगीन है। जब तामसी गुण कार्य करता है तो, मनुष्य में आलस्य, निद्रा,प्रमाद का बाहुल्य होता है। वह कर्तव्य जानते हुए भी उसमें प्रवृत्त नहीं हो सकता, निषिद्ध कर्म जानते हुए भी उससे निवृत्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार युगधर्म का उतार चढ़ाव मनुष्यों की आन्तरिक योग्यता पर निर्भर है। किसी ने इन योग्यताओं को चार युग कहा तो कोई इन्हें ही चार वर्ण का नाम देता है,तो कोई इन्हें ही अति उत्तम,उत्तम, मध्यम और निकृष्ट चार श्रेणी के साधक कहकर सम्बोधित करता है। प्रत्येक युग में इष्ट साथ देते हैं।
संक्षेप में श्रीकृष्ण कहते हैं कि साध्य वस्तु दिलानेवाले विवेक,वैराग्य इत्यादि को निर्विघ्न प्रवाहित करने के लिए तथा दूषण के कारक काम-क्रोध,राग-द्वेष इत्यादि का पूर्ण विनाश करने के लिए मैं युग-युग में अर्थात हर श्रेणी, हर परिस्थिति में प्रकट होता हूं बशर्ते कि ग्लानि हो। जब तक इष्ट समर्थन न दें, तब तक आप समझ ही नहीं सकेंगे कि विकारों का विनाश हुआ अथवा अभी कितना शेष है? प्रवेश से पराकाष्ठापर्यन्त इष्ट हर श्रेणी में हर योग्यता के साथ रहते हैं। उनका प्राकट्य अनुरागी के हृदय में होता है।
---- श्री पंकज उपाध्याय 

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