Thursday, July 19, 2012

सन्त

आत्मिक मंडलों की चढ़ाई के अनुसार सन्त तीन श्रेणियों में बाँटे जा सकते हैं: १. साध-गुरु २. सन्त सतगुरु ३. परम सन्त सतगुरु | साध-गुरु ऐसे महात्मा को कहा जाता है जो ओंकार (त्रिकुटी) या सूफियों के 'लाहूत' पद से पार चला गया हो | यह रूहानियत की दूसरी मंजिल है | मुसलमान फकीरों के अनुसार साध-गुरु वह है जो 'मुकामे हू' को पार कर चुका हो, जिसने रूह को सब मैलों से शुद्ध कर लिया हो | जिसने तीन गुण, पांच तत्त्व, पच्चीस प्रकृति, मन और माया के परदे, जिनके द्वारा रूह ढकी हुई थी, उतार दिए हों | गुरु अर्जुन देव जी ऐसे संतों के बारे में कहते हैं :
साध की उपमा तिहु गुण से दूरि || (आदि ग्रन्थ, प्र. २७२)
साध गुरु वह है जिसने अपने आपको पहचान लिया है कि वह कुल मालिक का अंश है और उसमे समा जाने का यत्न करता है | यह आत्म-बोध के स्तर पर होता है |
सन्त सतगुरु वह हस्ती हैं, जिसने प्रलय, महा प्रलय अर्थात ब्रह्म, पारब्रह्म के प्रभाव से परे सतलोक या 'मुकामे-हक' में निवास कर लिया हो | यह स्थिति रूहानियत की पांचवी मंजिल पर पहुँचने के बाद होती है |
परम सन्त सतगुरु वे हैं जो कबीर साहिब के 'अनामी', गुरु नानक साहिब के 'निराले', गुरु रविदास के 'बेगमपुरा' पद में समा कर उस सबसे ऊँची हस्ती से एकमेक हो गये हैं |
सन्त और परम सन्त में वैसे कोई बड़ा भेद नहीं है | केवल कहने-सुनने का भेद है | सब पूर्ण गुरु सन्त होते हैं पर सब सन्त गुरु नहीं होते | गुरु-पद का अधिकार कुल-मालिक किसी-किसी को प्रदान करता है | जिस प्रकार एल.एल.बी तो हर वकील कर लेता है पर जज कोई-कोई बनता है |
गुरु संसार में मालिक के भेजे हुए प्रबंधकर्ता होते हैं जो मालिक से बिछड़ी आत्माओं को लेने के लिए उसके हुक्म से आते हैं | गुरु भी तीन प्रकार के हो सकते हैं - एक तो स्वत: यानी बने-बनाए सन्त सतगुरु जो वली मादरजाद होते हैं यानी जो जन्म से ही वली (सन्त) होते हैं: वे धुर दरगाह से ही आते हैं, जैसे कबीर साहिब, गुरु नानक साहिब आदि | ये हस्तियाँ जब आती हैं, परमार्थ का प्रवाह प्रारम्भ कर जाती हैं | उनकी परम्परा में कई गुरुमुख गुरु होते हैं जो उस परम्परा को जारी रखते हैं | कुछ पीढ़ियों के बाद यह कार्य घटता-घटता बिलकुल ख़त्म हो जाता है | फिर लोग कर्मकांड में फँस जाते हैं और उनकी वाणी का अपनी मन-मर्जी से अर्थ निकालते हैं | फिर कोई हस्ती कहीं और आकर परमार्थ का अथाह प्रवाह चलाती है | ऐसे सन्त-सतगुरु हर कौम में आते रहे हैं | दूसरी तरह के वो सन्त हैं जो इस मृत्यु लोक में अपने गुरु की दीक्षा के अनुसार अभ्यास करते हैं और अनामी पद तक पहुँच जाते हैं और मालिक के हुक्म से गुरु-पद प्राप्त करते हैं | वे लोग बनाने से नहीं बनते, बने हुए आते हैं | केवल नाम-मात्र के लिए ही इस जन्म में पूर्ण होते दिखाई देते हैं | तीसरी तरह के वो लोग होते हैं जो अपने गुरु की दया से परिपूर्ण होते हैं और वो उन्हें कुल-मालिक से अरदास करके गुरु पद का अधिकारी बना लेते हैं | गुरुमुख लोग वो होते हैं जो कई जन्मों से पूर्ण हो रहे हैं | इनके बारे में भाई गुरदास जी कहते हैं:
कह कबीर हम धुर के भेदी लाए हुकम हजूरी ||
पहिला बाबे पाया बख्सु दरि पिछो दे फिरि घाल कमाई || (भाई गुरदास, वार १ पौड़ी २४)
गुरु नानक देव जी भी कहते हैं:
जैसी मै आवै खसम की बाणी तैसडा करी गिआनु वे लालो || (आदि ग्रन्थ, प्र. ७२२)
इसका मतलब यह है कि पहले वाले सन्त-सतगुरु तो गुरु पद का आदेश लेकर आते हैं और दूसरो को गुरु-पद का आदेश यहाँ दिया जाता है | पर दोनों के दर्जे, शान और काम में कोई भेद नहीं होता है | वे पूरी शक्तियों के मालिक होते हैं और ज़रुरत के समय उन शक्तियों का प्रयोग मालिक के हुक्म से करते हैं |
इनको छोड़कर जो बाकी लोग गुरवाई का काम करते हैं, वे इनके नकलची होते हैं | इस श्रेणी में कई स्वार्थी, माया और प्रशंसा के पुजारी और दुनिया के गुलाम आते हैं, जो परमार्थ के खोजियों को अपनी विद्या के जोर या अनेक आडम्बरों द्वारा अपने स्वार्थ का बोझा ढोनेवाले जानवर बना कर रखते हैं | तंगदिली और धार्मिक पक्षपात और कट्टरता केवल ऐसे ही लोगों का परिणाम है | ऐसे लोग बड़े ही खतरनाक हैं | वे गुरु-पद को, जो ऊँचे से ऊँचा काम है, अपने मनमानी करतूतों से बदनाम करते हैं |
---  श्री विपिन त्यागी

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